रामजी तिवारी की टिप्पणी 'पुरुषोत्तम अग्रवाल’ की कहानियाँ पढ़ते हुए .......'


पुरुषोत्तम अग्रवाल
एक सुधी आलोचक मौलिक रूप से खुद भी एक लेखक होता है। आलोचना में वह रचना के बरक्स एक कृति का ही सृजन करता है। यह परंपरा हमारे यहाँ काफी समृद्ध रही है। पुरुषोत्तम अग्रवाल का नाम इसी कडी में एक प्रमुख नाम है। अपनी आलोचना से पाठकों का दिल जीतने वाले पुरुषोत्तम अग्रवाल अब कहानियों में हाथ आजमा रहे हैं और प्रायः इसमें सफल भी रहे हैं। बुनियादी तौर पर एक कहानीकार के लिए जो भी जरुरी तत्व होते हैं, पुरुषोत्तम जी के यहाँ वह सब है। इनकी यहाँ-वहाँ छपी हुई कहानियों पर एक आलोचकीय दृष्टि डाली है युवा कवि-कहानीकार साथी रामजी तिवारी ने। रामजी इन दिनों अपनी ही कुछ कहानियों पर काम कर रहे हैं। फिल्मों खासकर आस्कर अवार्ड्स पर पिछले साल आई इनकी किताब काफी चर्चित रही है। तो आइए पढ़ते हैं रामजी तिवारी की यह टिप्पणी। 

‘पुरुषोत्तम अग्रवाल’ की कहानियाँ पढ़ते हुए .......


रामजी तिवारी


लोक में कहानियों की अवधारणा आदि काल से चली आ रही है उनमे मिथक भी होता है, और यथार्थ भी जीवन भी होता है, और कल्पना भी उनमे पिछले समाज का आख्यान भी होता है और आने वाले समाज का सपना भी हम सब उन्हें सुनते हैं, गुनते हैं और फिर आने वाली पीढ़ियों को सौंपते हैं कभी मौखिक, तो अब लिखित इस तरह वे समाज के साथ-साथ विकसित होती रहती हैं मसलन अपने आरंभिक स्वरुप में, जहाँ वे पौराणिक और मिथकीय दिखाई देती है, विकास क्रम में राजे-रजवाड़ों से होते हुए आम-जन के किस्सों तक पहुंचती हैं और फिर उस मार्क्सवादी विचारधारा का अभ्युदय होता है, जिसमें दुनिया के लगभग सभी साहित्यिक हलकों में आम-सामान्य जनता का जीवन प्रतिविम्बित होने लगता है अब साहित्य में समाज को ढूँढना और उसे परखना आवश्यक माना जाने लगता है और समाज ‘कैसा है’ और ‘कैसा रहा है’, से आगे बढ़ कर ‘कैसा होना चाहिए’ की बात भी होने लगती है जाहिर है, कहानियों में भी ऐसी ही गाथाएँ दिखाई देने लगती हैं, जो अपने समाज और उसके जीवन के नजदीक होती हैं



साहित्य और समाज के गहराते रिश्ते से कुछ और सवाल भी खड़े होने लगते हैं मसलन, कि साहित्य को कला के लिए होना चाहिए या फिर सामाजिकता के लिए? और क्या इसमें कोई विरोधाभास है कि कलात्मक लेखन सामाजिक नहीं हो सकता? या कि सामाजिक लेखन कलात्मक रूप से कमजोर ही होता है? दरअसल यह भ्रम दोनों पक्षों द्वारा अपनी-अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए फैलाया जाता है हकीकत यह है कि इनमें कोई विरोधाभास होता नहीं है जिनके पास कहने के लिए कुछ ख़ास नहीं होता, वे भाषा, शिल्प और चमत्कारों में पाठक को उलझाये  रहते हैं और जिनके पास अपने कथ्य को साहित्य में ढालने की क्षमता नहीं होती है, वे कहते हैं कि हम तो सारा कुछ समाज के लिए ही लिख रहे हैं



मसलन यदि आप कहानी लिख रहे हैं, तो उसकी पहली शर्त कहानी होने को ले कर ही होनी चाहिए और चूकि लेखक एक रचनाकार भी होता है, इसलिए रचनात्मक स्तर पर वह कलाकार की श्रेष्ठ कृति भी होनी चाहिए और रही बात सामाजिकता की, तो जिस क्षण कोई भी व्यक्ति लिखना आरम्भ करता है, उसी क्षण उसके लेखन पर समाज का अधिकार भी आरम्भ हो जाता है यदि कोई व्यक्ति अपने लिए ही लिखना चाहेगा, तो उसे लिखने की क्या आवश्यकता है? अपना तो वह सब कुछ जानता ही है कम से कम भीतर के स्तर पर तो जानता ही है तो अपने लिए लिखने वाला लेखक लिखेगा ही क्यों? और उससे बड़ा सवाल यह कि कोई भी दूसरा व्यक्ति उसे पढेगा भी क्यों? जब वह सारा कुछ अपने लिए ही लिख रहा है, तो दूसरे को क्या पड़ी है कि वह उसे पढ़े इसलिए अपने लिए लिखने वाली बात भी उसी तरह से बेमानी है, जिस तरह उसका कलात्मक स्तर पर कमजोर होना बेमानी है साहित्य के भीतर की स्वकेंद्रित विधाओं को ही लें, जिनमे आत्मकथाएं, जीवनियाँ, संस्मरण और यात्राओं को रखा जा सकता है| वे तभी क्लासिक का दर्जा पाती हैं, जब वे अपने बारे लिखते हुए भी अपने आस-पास, अपने परिवेश, अपने समाज और आने वाले समय के बारे में भी बोलने लगती हैं वे जिस स्तर पर समाजोपयोगी होती हैं, उसी स्तर पर उनकी प्रासंगिकता भी निर्धारित होती है



इन बातों के आलोक में आज हम कहानियों पर बात करने जा रहे हैं एक ऐसे शख्स की कहानियों पर, जिन्हें हम बतौर आलोचक पढ़ते और सुनते आये हैं जी हां ... मैं पुरुषोत्तम अग्रवाल की बात कर रहा हूँ आलोचना के क्षेत्र में किये गए उनके कार्य से हम सब परिचित हैं हमारे लिए ख़ुशी की बात है कि वे आजकल कहानी विधा की तरफ भी मुड़े हैं और कहें तो ईमानदारी और तैयारी के साथ मुड़े हैं अपनी आरंभिक कहानियों में उन्होंने यह बात साबित की है कि उनके पास कथ्य और विचारों की समृद्धता तो है ही, उन्हें कहानियों में ढालने की संवेदनशील क्षमता भी है धीरे-धीरे विकसित होती हुई उनकी कहानियाँ पाठक को उस मुकाम पर ले कर पहुंचती हैं, जहाँ पर बतौर रचनाकार वे किन पात्रों और उनके किन संघर्षों के साथ खड़े हैं, वह दिखाई देने लगता है लेकिन उनके यहाँ यह खड़ा होना, वकालत करना नहीं हैं, वरन यह सीखना है, कि अपने पात्रों से सहानुभूति रखते समय, या उनके पक्ष में खड़े होते समय एक कहानीकार को कैसी तटस्थता बरतनी चाहिए उसे ऐसी परिस्थितियां निर्मित करनी चाहिए, जिसमें उसका पाठक खुद-ब-खुद उसके पात्रो के साथ तादात्म्य स्थापित करने लगे उनकी कहानियाँ इन सारी कसौटियों की प्रतिनिधि कहानियाँ हैं



‘चेंग-सुई’ उनकी आरंभिक कहानी है अपेक्षाकृत छोटी, लेकिन बहुत धारदार कहानी जो बताती है कि आज हमारे जीवन में आपाधापी कितनी बढ़ गयी है पूरा समाज एक अंधी दौड़ में भागा जा रहा है बिना इस बात को जाने, कि वह इस भागने से पाना क्या चाहता है, या कि उस पाने के प्रयास में वह अपने जीवन के किन मूल्यों को खोता जा रहा है बस वह दौड़ रहा है और इस दौड़ ने व्यक्ति के जीवन को तो अशांत कर ही दिया है, उससे बनने वाले पूरे सामाजिक ढाँचे को भी चरमरा दिया है अब सारे रिश्ते नाते सूखते जा रहे हैं घर्षण इतना बढ़ गया है कि चलना मुश्किल हो रहा है विडम्बना यह है कि जिस व्यवस्था ने यह परेशानी पैदा की है, वही व्यवस्था बाजार के माध्यम से एक कृत्रिम हल भी सुझा रही है एक ऐसा हल, जिसमें सुधार के बजाय, आपाधापी और बढती जा रही है कहानी बताती है कि जीवन में आने वाले सूखे को नमीयुक्त घर बना कर दूर किया जा सकता है जैसे कि साहित्य में जीवन संघर्षों का आना कम हुआ है, तो लोग बाग़ उसे कृत्रिम संघर्षों से भर रहे हैं यह एक ऐसी कहानी है, जिसमें हम अपने वर्तमान नगरीय और महानगरीय जीवन की आपाधापी वाली अंधी दौड़ से थके हुए व्यक्ति को झुनझुना थमा कर बहलाते-फुसलाते हुए देख सकते हैं

 

अपनी दूसरी कहानी ‘पैर-घंटी’ में पुरुषोत्तम जी समाज के उस ‘इलीट’ वर्ग का आवरण हटाते हैं, जो देश को संचालित कर रहा है लोकतंत्र की बुनियाद के रूप में हम चुने हुए प्रतिनिधियों और नौकरशाहों को देखते हैं वे व्यवस्था को सृजित भी करते हैं, और उसे लागू भी हालाकि आज के समय में उनके वास्तविक किस्से आम जनमानस तक पहुंचने शुरू हो गए हैं, लेकिन इस कहानी से हमें यह पता चलता है कि जिस पर इस महान लोकतंत्र को चलाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है, वह अतीत के किन झूठे सपनों में जी रहा है और जिस नौकरशाह पर इस व्यवस्था को लागू करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है, वह खुद किस तरह से घिसट रहा है आये दिन यह खबर देखने-सुनने में आती है कि एक ईमानदार नौकरशाह को किस तरह प्रताड़ित किया जाता है हालत तो यह हो गयी है कि आज जब कोई नौकरशाह किसी महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया जाता है, तो सामान्यतया यह मान लिया जाता है कि वह आदमी निष्पक्ष और ईमानदार नहीं होगा वह किसी न किसी तरह से उस दल और सरकार के प्रति झुका हुआ होगा ‘पैर-घंटी’ कहानी हताश करने वाली इन सच्चाईयों को हमारे सामने लाती है



‘चौराहे पर पुतला’ उनकी तीसरी कहानी है कहानी यह बताने का प्रयास करती है, कि देश के सामने जब तमाम कठिन समस्यायें मुँह बाए खड़ी हैं, तब व्यवस्था के संचालक उन्हें सुलझाने के बजाय, कृत्रिम मुद्दों को गढ़ कर समाज को उलझाए हुए हैं वे उसे ऐसे मुहाने ले कर चले आये हैं, जहाँ नैतिक भावनाओं के काकटेल से पूरा समाज बेहोश हुआ जा रहा है वह अपनी मूल समस्यायों को भूल कर उन्हीं कृत्रिम मुद्दों में मदमस्त होकर झूम रहा है कहानी चौराहे पर खड़े उस पुतले को केंद्र में रख कर लिखी गयी है, जो नंगा है संस्कृति के रक्षकों को लगता है कि इसकी वजह से इस समाज पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है समस्या इतनी बढ़ जाती है कि एक आयोग बनाना पड़ता है एक लम्बे इन्तजार के बाद उसकी रिपोर्ट आती है, जिसमें सुझाव दिया जाता है कि पुतले को चड्ढी पहना दी जाए यह कहानी एक ‘फर्जी मुद्दे को केन्द्रीय मुद्दे’ में बदले जाने को तो रेखांकित करती ही है, साथ ही साथ यह भी बताती है कि एक स्वस्थ समाज के लिए आवश्यक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आज किस तरह से ‘कीमा’ होने के कगार पर है कहना न होगा कि जिस समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं रहती है, वह समाज कितना जड़ और प्रतिगामी होता है



एक कहानीकार का मूल्यांकन इस बात पर भी होना चाहिए कि वह समाज के सामने उपस्थित  समस्याओं को वह किस वरीयता और किस संजीदगी के साथ उठाता है जाहिर है कि किसी भी समाज में मुद्दों की कोई कमी नहीं होती लेकिन एक साहित्यकार को यह समझना होता है कि उसकी अपनी वरीयता क्या है? और यह भी कि उस वरीयता को साहित्य में ले आने की वह कितनी क्षमता रखता है अपनी चौथी कहानी ‘पान पत्ते की गोंठ’ में पुरुषोत्तम जी हमारे समाज के एक बेहद सालने वाले पक्ष से दो-दो हाथ करते हैं विविधतापूर्ण संस्कृति यदि हमें गर्व करने का अवसर देती है, तो ‘जाति’ के खानों में विभक्त भारतीय समाज हमारे लिए शर्मिंदगी का कारण भी है एक ऐसा समाज, जो घिसटता हुआ और प्रतिगामी समाज है उसमें ‘जातिगत दुराग्रह’ इतने गहरे से पैठा हुआ है कि वह सिर्फ गरीब और निचले लोगों के जीवन पर ही जुल्म नहीं ढाता, वरन उसकी गिरफ्त में अग्रिम पंक्ति में खड़ा कथित रूप से पढ़ा-लिखा और शिक्षित समाज भी आता है मसलन गाँव में रहने वाले किसी दलित के साथ जातीय वैमनस्य की घटना तो होती ही है, शहर के नामी-गिरामी महाविद्यालय और विश्व-विद्यालय में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए लोगों के साथ भी घटित होती है यह कहानी इस मामले में भी उल्लेखनीय है, कि इसमें जुल्म सहने से किया गया इनकार और प्रतिकार स्पष्ट रूप से मुखरित हुआ है। 



उनकी अब तक की लिखी हुई पांचवी और अंतिम कहानी ‘नाकोहस’ है, जो ‘पाखी’ पत्रिका के पिछले अंक में प्रकाशित हुई है यह एक बड़े फलक की कहानी है, जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्र चेतना पर मंडरा रहे आसन्न खतरों को चिन्हित किया गया है इनमें से कई खतरे इस समाज को अपनी गिरफ्त में ले भी चुके हैं, और कई की पकड़ हमारे समाज की गिरेबान पर बस पहुँचने ही वाली है दुःख की बात यह है कि हमारा यह समाज ऐसे आसन्न खतरों से न सिर्फ अनभिज्ञ और अनजान हैं, वरन उन्हें स्वयं ही अपने तक आने के लिए रास्ता भी दे रहा है कहानी ‘नेशनल कमीशन आफ हर्ट सेंटीमेंट्स’ (नाकोहस) के बहाने हमारे समाज में विचार और अभिव्यक्ति के लिए कम होती जा रही ‘जगह’ की तरफ ईशारा करती है और साथ में यह भी, कि जो आज ‘नाकोहस’ की भूमिका में हैं, वर्तमान समाज में उनका कद कितना बड़ा हो गया है हम भौतिक रूप से तो आजाद दिखाई देते हैं, लेकिन मानसिक रूप से उनके गुलाम की स्थिति में पहुँचते जा रहे हैं  ऐसी स्थिति बनती जा रही है, जिसमें हमारे लिए कुछ भी व्यक्त कर पाना असंभव होता जा रहा है जाहिर है कि ऐसे में हमारे भीतर सोचने की प्रक्रिया बाधित हो रही है और हम जानते हैं कि जिस समाज में सोचने, विचारने और व्यक्त करने की क्षमता नहीं रह जाती है, वह समाज जीवित व्यक्तियों का समाज नहीं रह पाता वह समाज मृत समाज माना जाता है इतिहास में ‘अन्धकार युग’ का उदाहरण हमारे सामने है कहना न होगा कि इस कहानी ने हमारे सामने कई ऐसे सवाल छोड़े हैं, जिनसे बच कर निकलना किसी भी समाज के लिए आत्मघाती होगा



इन कहानियों के उत्कृष्ट कथ्य को रेखांकित करने का मतलब यह है कि इनकी आलोचना के बिन्दुओं को ‘बाई’ दे दिया जाए बात उन पर भी होनी ही चाहिए मसलन कि इनकी थोड़ी अधिक प्रांजल भाषा कही-कहीं ऐसा लगता है कि इन कहानियों की भाषा अपने पात्रो से एक कदम आगे चल रही है जबकि उसे अपने पात्रों के साथ चलना चाहिए एक और बात जो कभी-कभी खटकती है, वह है कथाकार का अपने पात्रों पर थोड़ा अधिक हावी हो जाना जबकि उससे यह अपेक्षा रहती है कि वह अपने पात्रों को थोड़ी और जिम्मेदारी सौंपे हमारी अपेक्षा होगी कि आने वाली कहानियों में ‘पुरुषोत्तम जी’ इन बिन्दुओं पर थोड़ा और ध्यान दें ये ऐसी बातें हैं, जिन्हें आगे चल कर दूर किया जा सकता है हमारा यह मानना है कि कोई भी बड़ी कहानी अंततः अपने भीतर छिपे महत्वपूर्ण अर्थों के कारण ही बड़ी मानी जाती है और इस कारण भी कि वह अपने अन्य आवश्यक तत्वों को कितना साथ लेकर चलती है तसल्ली की बात है कि ‘पुरुषोत्तम जी’ इन सभी बिन्दुओं पर हमें आश्वस्त करते दिखाई देते हैं इन कहानियों ने उनसे हमारी अपेक्षाएं और अधिक बढ़ा दी हैं





सम्पर्क -

रामजी तिवारी 
बलिया, उ.प्र. 
मो.न. 09450546312


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की है.) 
                                              

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