अखिलेश श्रीवास्तव चमन का आलेख 'गिरफ़्त में बचपन'
बच्चे किसी भी देश का भविष्य होते हैं। उन्हें बचपन में हम जैसा परिवेश देते हैं, भविष्य उसी के अनुसार निर्धारित होता है। न केवल बच्चे का बल्कि हमारे घर, परिवार, समाज और देश का भी। इसमें कोई दो राय नहीं कि आधुनिकता ने हमें ढेर सारी सुविधाएँ प्रदान की हैं लेकिन साथ ही इसका दूसरा पहलू भी है जो कहीं अधिक वीभत्स है। इस तकनीक ने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया है। उनसे दादी-नानी की कहानियाँ और माँ की लोरियां छीन ली हैं। देशी खेल जैसे गुल्ली-डंडा और चीका, कबड्डी छीन लिया है। इन्हीं महत्वपूर्ण समस्याओं पर एक नजर डाली है अखिलेश श्रीवास्तव चमन ने। अखिलेश चमन को हाल ही में वर्तमान साहित्य का कहानी के लिए मलखान सिंह सिसौदिया पुरस्कार प्रदान किया है। उन्हें बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं यह आलेख जो उनकी अभी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक 'बच्चे, बचपन और बाल साहित्य' से साभार लिया गया है। यह पुस्तक विकल्प प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसमें इसी मुद्दे पर बारह और महत्वपूर्ण आलेख दिए गए हैं।
गिरफ़्त में बचपन
अखिलेश
श्रीवास्तव चमन
आज के दौर में न सिर्फ बच्चे बल्कि हम सब, सारा समाज और हमारा सारा परिवेश विविध प्रकार के फन्दों की
गिरफ्त में है। ये फन्दे हैं सूचनाक्रान्ति के, बाजारवाद के, उत्तर आधुनिकता के, अतिमहत्वाकांक्षा के और भौतिकता की अन्धी दौड़ आदि आदि के।
वैसे तो चाहे, अनचाहे हर कोई इन फन्दों की कसावट में कसा कसमसा रहा है, प्रभावित हो रहा है लेकिन इससे सर्वाधिक बुरी तरह प्रभावित
हो रहे हैं बच्चे। बच्चे जो हमारी आशा हैं, हमारा भविष्य हैं
और हमारे आने वाले कल की तस्वीर हैं। बच्चे जो अबोध हैं, निर्दोष हैं और अभी बनने, बिगड़ने की प्रकिया
में हैं। आज बच्चों से उनका बचपन तो खैर छिन ही चुका है, दाढ़ में खाज वाली बात यह है कि उनके अंदर से बचपना, भोलापन, सहजता, सरलता, चंचलता, निश्छलता, सहनशीलता तथा सहिष्णुता आदि के मानवीय भाव भी लुप्त होते जा
रहे हैं। बहुत अधिक पीछे जाने की आवश्यकता नहीं है, यदि हम सिर्फ लगभग
ढ़ाई, तीन दशक के अंतराल को सामने रख कर देखें यानी आज के बच्चों
और आज से पच्चीस, तीस साल पूर्व के बच्चों की आदतों, रूचियों एवं प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अघ्ययन करें तो
दोनों की प्रकृति, व्यवहार, हाव-भाव, सोच-समझ, तथा रूचियों आदि
में जमीन- आसमान का अंतर पाते हैं। गुड़िया, गुड्डा, तोता, मैना, शेर,
भालू, सीटी, झुनझुना, रेल,
कार,
मोटर आदि के खिलौनों से बहलने तथा चोर-सिपाही, छुपम-छुपाई, लूड़ो, कैरम तथा सॉंप-सीढ़ी आदि के खेलों में मस्त रहने वाला ढ़ाई, तीन दशक पूर्व का बच्चा अब बन्दूक, पिस्तौल, तोप, रायफल, ए0के0-47,
टीवी, कम्प्यूटर, मोबाइल आदि के खिलौनों से बहलता तथा हत्या, अपहरण, लूट, और शेयर, सट्टा, व्यापार आदि के खेल खेलता है। मार-पीट शोर-शराबा या कोई
दुर्घटना देख कर डर जाने,
रोने और परेशान हो जाने वाला ढ़ाई- तीन दशक पूर्व का बच्चा
आज इन चीजों को बहुत सामान्य ढंग से लेता है। वीडियो गेम खेलते समय किसी को कुचल
कर या मार कर वह खुश होता है। बच्चों की प्रवृत्ति में आए इस बदलाव को भले ही
जागरूकता की दृष्टि से कोई उचित ठहराए और समय- सापेक्ष कहे लेकिन एक मूल्य आधारित, संस्कारित समाज के लिए निश्चित ही यह खतरे की घंटी और
चिन्ताजनक बात है।
प्रश्न है कि बच्चों की इस विकृत हो रही
प्रवृत्ति के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है? खुद बच्चे या हम या कि हमारा सामाजिक वातावरण? कहना न होगा कि इस प्रदूषण के लिए जिम्मेदार निश्चित रूप से
हम अभिवावक वर्ग और हमारा सामाजिक परिवेश ही है क्यों कि बच्चा तो गीली मिट्टी का
एक लोंदा मात्र है, उसे जिस भी सॉंचे में ढ़ाला जाएगा उसी की शक्ल में ढ़ल जाएगा।
बच्चा तो निर्मल पानी है,
उसे जिस भी बरतन में रखा जाएगा वैसा ही आकार ग्रहण कर लेगा।
बच्चों का मन तो एक कोरा कागज है, हम उस पर जो भी
इबारत लिख देंगे वह सदा, सर्वदा के लिए अंकित हो जाएगा। यदि हम स्वंय से प्रश्न करें
कि क्या आज बच्चों को हम दबाव मुक्त वातावरण में स्वतंत्र और स्वाभाविक रूप से
विकसित होने का अवसर दे पा रहे हैं? क्या हमारे बच्चों को वैसी ही आजादी, निश्चिंतता और वैसा ही स्नेह भरा पारिवारिक माहौल मिल पा
रहा है जैसा कि स्वयम हमें हमारे बचपन में उपलब्ध था? क्या हमारा आज का
सामाजिक परिवेश वैसा ही स्वच्छ, सहज और अपनापन भरा
है जैसा पहले था? तो इन प्रश्नों का
उत्तर निश्चित ही नकारात्मक होगा। वस्तुतः आज से ढ़ाई-तीन दशक पूर्व तक बच्चों के
ऊपर दबाव नाम की कोई चीज होती ही नहीं थी। खेल-कूद व मनोरंजन के लिए भी उनके पास
पर्याप्त समय और साधन हुआ करते थे। तथा पारिवारिक वातावरण भी अपेक्षाकृत अधिक लाड़-
दुलार और संस्कार भरा हुआ करता था। उन दिनों अधिकांश घरों में तो दूरदर्शन नामक डब्बा
था ही नहीं और यदि कहीं कुछ घरों में था भी तो आज की तरह नग्नता, फूहड़ता, हिंसा, सनसनी, अपराध, अश्लीलता, और अंधविश्वास
परोसने वाले गैरजिम्मेदार चैनलों की बहुतायत नहीं थी। बच्चों के प्रारम्भिक पॉंच
वर्ष तो खाते-खेलते, उछलते-कूदते, रूठते- मचलते और
दादा-दादी, नाना-नानी के पास लेट कर किस्से-कहानियॉं सुनते ही बीत जाते
थे। धर्म, आध्यात्म, रीति, नीति, इतिहास, विज्ञान तथा जीवन की व्यावहारिक सच्चाइयों से जुड़ीं वो
कहानियॉं प्रारम्भ में ही बच्चों के अंदर नैतिकता, साहस, मानवीय मूल्यों, आदर्शों तथा अच्छे
संस्कारों का बीजारोपण कर देती थीं। लेकिन आज स्थिति बिल्कुल विपरीत है। संयुक्त
परिवार की अवधारणा समाप्त हो जाने के कारण दादा-दादी, नाना-नानी की गोद तो बच्चों के लिए दुर्लभ हो ही चुकी है
खुद मॉं-बाप के पास भी इतना समय नहीं रहा कि वे फुर्सत से कुछ देर बच्चों के पास
बैठें, बातें करें, उनके साथ खेलें और
कुछ सुनें-सुनायें। इसी प्रकार हमारे रिश्ते-नाते और सामाजिक सरोकार भी
समाप्तप्राय हो चुके हैं। जिसके कारण बच्चे घर रूपी पिंजरा में बंद हो कर रह गए
हैं।
विगत ढ़ाई-तीन दशकों में सूचना क्रांति की
उपलब्धि के रूप में एक के बाद एक तीन पर्दों का हमारे घरों में प्रवेश हुआ है और
इन तीनों पर्दों ने हमारी सुख-शान्ति, शील-संस्कार, अदब-लिहाज, शर्म-हया, मान-मर्यादा सब कुछ बेपर्दा कर के रख दिया है। ये तीनों
पर्दे हैं टी0वी0,
कम्प्यूटर और मोबाइल के पर्दे। आज ऑंखें खोलते ही बच्चे का
प्रथम साक्षात्कार टी0वी0 के पर्दे से होता है। टी0वी0 का आलम यह है कि अपनी रेटिंग बढ़ाने व विज्ञापन बटोरने के
लिए विभिन्न चैनलों के मध्य अधिकाधिक हिंसा, अपराध, सनसनी, अश्लीलता, वीभत्सता, और अंधविश्वास
परोसने की होड़ सी मची है। इस बात की परवाह किसी को नहीं है कि जो कुछ परोसा जा रहा
है उसका समाज पर और विशेष रूप से बच्चों पर क्या असर होगा। बड़े तो फिर भी काफी हद
तक टी0वी0 के पर्दे पर दिखलायी जाने वाली सामग्री के पीछे की सच्चाई
को समझ जाते हैं और अपने आप को उसके दुष्प्रभाव से बचा ले जाते हैं लेकिन बच्चों
का कोरा, कोमल मन उसके दुष्प्रभाव से नहीं बच पाता। वे टी0वी0 के पर्दे पर देखी बात को सत्य और व्यावहारिक मान लेते हैं
तथा उसका अनुकरण करने लगते हैं। मध्यप्रदेश के सिहोर जिले का एक बच्चा टी0वी0 सीरियल शक्तिमान से इस कदर प्रभावित हुआ कि उसने इस उम्मीद
में कि शक्तिमान उसको बचा लेगा अपने शरीर पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा ली।
लेकिन शक्तिमान उसे बचाने नहीं आया और उसकी मौत हो गयी। इसी प्रकार शक्तिमान को
हवा में उड़ता देख कोलकाता के एक बच्चे ने तीन मंजिली छत से छलांग लगा दी थी। आगरा
के एक स्कूल के तीन बच्चों ने अपने एक सहपाठी का अपहरण कर लिया और उसके घर फोन कर
के फिरौती की मॉंग की। पकड़े जाने पर उन बच्चों ने स्वीकार किया कि वैसा उन्होंने
एक टी0वी0 सीरियल देख कर की थी। मेरठ में हाईस्कूल के तीन लड़कों ने
अपनी ही कक्षा के एक लड़के को पहले बुरी तरह से पीटा फिर उसके दोनों हाथों से रस्सी
बॉंध कर रस्सी का दूसरा सिरा मोटरसायकिल से बॉंधा और मोटरसायकिल दौड़ा कर उसे एक
किमी0 तक घसीटा। ऐसा उन्होंने एक हिन्दी फिल्म के दृश्य को देख कर
किया था। चेन्नई में कक्षा सात के बच्चे द्वारा अपनी शिक्षिका के पेट में चाकू
घोंपने की घटना हो या दिल्ली में दसवीं कक्षा के लड़कों द्वारा अपने साथ पढ़ने वाली
लड़की को पार्क में बुला कर उसके साथ बलात्कार की घटना यह सारा कुछ टी0वी0 के कार्यक्रमों की ही देन है। घर में ऑंखें खोलते ही टी0वी0 पर हिंसा, अपहरण, बलात्कार, जाल-फरेब, भविष्यवाणी और बाबाओं के समागम में अंधविश्वास भरी बातें
देख, सुन कर बच्चे इन बातों को जीवन की सामान्य घटनाओं के रूप
में स्वीकार कर लेते हैं। टी0वी0 के गैरजिम्मेदार चैनलों ने कितने मासूम बच्चों को
अंधविश्वासी, भाग्यवादी, अपराधी, अराजक, नशेड़ी और आत्महंता
बनाया है यह एक अलग शोध और चर्चा का विषय है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि आज बच्चों से उनका
बचपन छिनने,उन्हें अव्यवहारिक बनाने तथा उनकी सोच को विकृत करने के लिए
सर्वाधिक जिम्मेदार टी0वी0 के चैनल ही हैं। व्यावसायिकता इतनी हावी हो चुकी है कि
पैसा कमाने की होड़ में चैनल वाले अपना नैतिक तथा सामाजिक दायित्व पूरी तरह से भूल
चुके हैं। टी0 वी0 पर दिखाया जा रहा कार्यक्रम बच्चों के कोमल मन पर कैसा
प्रभाव छोड़ेगा इसकी उन्हें कोई चिन्ता नहीं। उन्हें पता है कि शाम सात बजे से ले
कर दस बजे तक का समय वह प्राइम टाइम है जब सर्वाधिक लोग और विशेष रूप से बच्चे, बच्चियॉं टी0वी0 के सामने होते हैं। इसलिए सारे हिंसक, अश्लील, सनसनीखेज, अंधविश्वासपूर्ण और उटपटॉंग सीरियल जानबूझ कर इसी अवधि में
दिखाए जाते हैं। अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए कार्यक्रम प्रारम्भ होने से पहले
वे यह डिस्क्लेमर दिखा देते हैं कि ‘धारावाहिक में
दिखायी गयी घटनाएं काल्पनिक हैं, इनका किसी सच्ची
घटना से सम्बन्ध नहीं है’। या फिर यह घोषणा
कर के कि ‘बच्चे इस
धारावाहिक को न देखें’ वे अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति पा लेते हैं। यह डिसक्लेमर या
घोषणा उनकी नीयत में खोट का द्योतक है। यदि सचमुच उन्हें बच्चों की चिन्ता होती तो
हत्या, अपहरण, बलात्कार, अश्लीलता एवं अंधविश्वास आदि के धारावाहिक वे प्राइम टाइम
में न दिखला कर देर रात में दिखलाते। हमारी सरकारी प्रसारण नीति भी इसके लिए कम
जिम्मेदार नहीं है। जिस प्रकार फिल्मों की वयस्क और सामान्य श्रेणियॉं होती हैं
उसी प्रकार टी0वी0 कार्यक्रमों का भी वर्गीकरण होना चाहिए और सरकार द्वारा
चैनलों के लिए इस बात के सख़्त दिशा निर्देश होने चाहिए कि किस समय किस प्रकार के
कार्यक्रम दिखलाए जायेंगे। नार्वे, आस्ट्रेलिया, हंगरी तथा इंग्लैण्ड आदि देशों में ऐसे कानून बनाए गए हैं।
यही हाल विज्ञापन कम्पनियों का भी है। टी0वी0 पर दिखाए जाने वाले कुछ विज्ञापन इतने फूहड़, अश्लील तथा द्विअर्थी होते हैं कि उन्हें देख कर शर्म से सर
झुक जाता है। यदि आप बड़े,
बुजुर्गों और बच्चों के साथ बैठे टी0वी0 देख रहे हों तो स्थिति असहज हो जाती है। यदि सेनिटरी
नेपकिन्स, हेयर रिमूवर, कन्डोम और
गर्भनिरोधक गोलियों के विज्ञापन देख कर बच्चे अपने मॉं, बाप से उनके बारे में पूछ बैठें तो मॉं, बाप की क्या हालत होगी यह सोचने की बात है। टाफी, बिस्किट और शीतल पेय हो या अंड़रवियर, बनियान, तेल, क्रीम, साबुन, शैम्पू, पेस्ट, ब्रश आदि हर चीज के विज्ञापन में बच्चे होते हैं। यही नहीं
मच्छर मारने की दवा, किचन के मसाले, कार, बाइक, फ्रिज, कूलर, टी0वी0,
कम्यूटर और सूटिंग, शर्टिंग जैसी
चीजों के विज्ञापन भी बच्चों के बगैर पूरे नहीं होते हैं। प्रश्न उठता है कि ऐसी
चीजें जिनका बच्चों से सीधा कोई सम्बन्ध नहीं है या जिन वस्तुओं के उपभोक्ता बच्चे
नहीं हैं, के विज्ञापन बच्चों से क्यों कराए जाते हैं। कहना न होगा कि
इसके पीछे उत्पादकों का व्यावसायिक दृष्टिकोण होता है। उन्हें पता है कि बच्चे
विज्ञापन में दर्शायी गयी चीजों के प्रति जल्दी आकर्षित होते हैं। वे फिल्मी
सितारों या माडलों के द्वारा उत्पाद के बारे में कही गयी बातों को सच मान लेते हैं
और उन्हें खरीदने के लिए अपने माता, पिता से जिद करते
हैं। यदि मॉं, बाप जरा भी समर्थ हुए तो अपने बच्चों की जिद पूरी कर ही
देते हैं। इस प्रकार उत्पादकों द्वारा बच्चों को माध्यम बना कर उत्पाद बेचे जाते
हैं। यदि आर्थिक कारणों से मॉं-बाप कुछ हिचकिचाते हैं तो वहॉं कम ब्याज और आसान
किश्तों पर मिलने वाले कर्ज का विज्ञापन परोस दिया जाता है। लेकिन इसका एक दूसरा
पक्ष भी है। ऐसे परिवारों जहॉं माता-पिता बहुत सम्पन्न नहीं हैं और जिनके लिए
बच्चों की हर जिद पूरी कर सकना सम्भव नहीं है, के समक्ष विषम
स्थिति पैदा हो जाती है। बच्चे अपने साथियों की देखादेखी मॉं, बाप से फरमाइशें करते हैं और जब उनकी फरमाइशें पूरी नहीं
होतीं तो उनके अंदर कुंठा तथा हीन भावना पैदा होती है। वे चिड़चिड़े तथा निराशावादी
बन जाते हैं। अपने मॉं, बाप की आर्थिक स्थिति से अनभिज्ञ बच्चों के मन में उनके
प्रति चिढ़, गुस्सा तथा अवज्ञा के भाव पैदा होते हैं। और यदि विज्ञापित
वस्तुओं के प्रति लोभ, ललक बलवती हुयी तो बच्चे चोरी, छिनैती जैसे अपराधों की ओर मुड़ जाते हैं। किशोरवय के जितने
भी अपराधी पकड़े जाते हैं उनमें से अधिकांश का यही बयान होता है कि अपने मनपसन्द
फिल्मी नायक, नायिका द्वारा विज्ञापित चीजों को खरीदने के लिए या अपने ऐश, आराम तथा शौक को पूरा करने के लिए वे अपराध की ओर मुड़े।
हमारे लिए दूसरा फन्दा बन गया है कम्प्यूटर
और इंटरनेट। शहर तो शहर अब तो कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों तक में इनकी पॅंहुच हो
गयी है। बच्चों को बिगाड़ने में इन दोनों की भी कम भूमिका नहीं है। टी0वी0 से ऊबा बच्चा वीड़ियो गेम के बहाने कम्प्यूटर में और फिर
इंटरनेट के मकड़जाल में उलझ जाता है। टी0वी0 के गैरजिम्मेदार चैनल बच्चों के मन में जो जुगुप्सा, उत्सुकता और ललक जगा देते हैं बच्चे उसका समाधान इंटरनेट के
माध्यम से करते हैं। इंटरनेट भी ऐसी अजीब बला है जिसमें एक क्लिक के अंतराल पर
दुनिया की अच्छी, बुरी हर चीज उपलब्ध है। परिणाम यह होता है कि रात को जब
मॉं- बाप अपने बेड़रूम में गहरी नींद में सो रहे होते हैं उस समय बगल के कमरे में
उनकी लाड़ली या लाड़ले कम्प्यूटर पर इंटरनेट खोले सर्फिंग या चैटिंग कर रहे होते हैं
या किसी अश्लील वेवसाइट के माध्यम से अपनी उत्सुकता का शमन और दमित भावनाओं की
तृप्ति कर रहे होते हैं। यह किसी एक या दो घर की नहीं बल्कि शहरी क्षेत्रों में
लगभग हर घर, परिवार की समस्या बन चुकी है। रही-सही कसर बच्चे-बच्चे के
हाथ तक पॅंहुच चुके तीसरे फन्दे यानी मोबाइल ने पूरी कर दी है। मोबाइल हमारी आज की
जीवन शैली का एक अनिवार्य अंग बन चुका है। सस्ता, सुलभ तथा
बहुउपयोगी होने के कारण यह शहरी क्षेत्रों में यह लगभग शत प्रतिशत किशोरों के
हाथों तक पॅंहुच चुका है। मोबाइल पर अनावश्यक बातें करना, गाना सुनना, उटपटॉंग एस.एम.एस.
भेजना, अश्लील तस्वीरें खींचना, भेजना तथा वीड़ियो
क्लिप तैयार करना आज किशोरों, किशोरियों का शौक
बन गया है। अब मोबाइल फोन सिर्फ वार्तालाप का साधन तो रह नहीं गया है। अब तो
मोबाइल सेट पर भी इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध हो गयी है। यानी चैटिंग करने या अश्लील
चीजें देखने, सुनने और भेजने के लिए कम्प्यूटर या लैपटाप पर बैठने की
आवश्यकता भी नहीं रही। क्लास-रूम में बैठे-बैठे भी सब कुछ किया जा सकता है। आज ‘टीनएज’ के बच्चों के हाथ
में मोबाइल का मतलब ‘बंदर के हाथ में
उस्तरा’।
इस प्रकार जन्म के साथ ही टी0वी0 फिर कम्प्यूटर, और उसके बाद
मोबाइल की गिरफ्त में आ जाने के कारण आज के बच्चे समय से पूर्व वयस्क हो रहे हैं।
विद्यालय, कोचिंग और होमवर्क से बचा बच्चों का समय इन उपकरणों की भेंट
चढ़ जाता है। माता, पिता या अन्य सगे सम्बन्धी चाहते हैं तो भी बच्चे उनके पास
बैठना पसन्द नहीं करते। फलस्वरूप वे न सिर्फ असामाजिक एवं अव्यवहारिक होते जा रहे
हैं और अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं बल्कि उनका खेलना-कूदना, घूमना-फिरना, मिलना-जुलना और
उपयोगी पत्र-पत्रिकायें या पुस्तकें पढ़ना भी पूरी तरह से बंद हो चुका है। सारे समय
टी0वी0 और कम्प्यूटर के पर्दे से चिपके बैठे रहने के कारण आज के
बच्चों में मोटापा, शिथिलता, निष्क्रियता और
शरीर का असंतुलित विकास भी एक सामान्य बात हो चुकी है। विभिन्न सर्वेक्षणों में यह
तथ्य सामने आया है कि बच्चों में शर्करा, कोलेस्ट्राल, उत्तेजना, तनाव, मानसिक विकार तथा चिड़चिडापन भी बढ़ रहा है। मधुमेह, ब्लड़प्रेसर, नेत्ररोग, हृदयरोग, स्पेण्डेलाइटिस, अनिद्रा, बेचैनी तथा
पाचनतंत्र आदि की बीमारियॉं जो प्रौढ़ों और बूढ़ों की बीमारी मानी जाती थीं अब
बच्चों में भी तेजी से घर करती जा रही हैं।
सामाजिकता की दृष्टि से देखें तो सबसे अधिक
चिन्ता की बात यह है कि आज बच्चों के मन से कोमलता, संवेदनशीलता, ममता, सहिष्णुता तथा
रागात्मकता आदि के मूल मानवीय भाव तेजी से लुप्त होते जा रहे हैं। आज से ढ़ाई, तीन दशक पूर्व का जो बच्चा मार-पीट, खून-खराबा, या बम, बन्दूक आदि के दृश्य देख कर ड़र जाता था, रोने लगता था आज वही बच्चा टी0वी0 पर इन दृश्यों को देख कर खुश होता है, ताली बजाने और उछलने लगता है। वह वीडियोगेम में कारों, मोटरसायकिलों को टक्कर मार कर या राहगीरों को कुचल कर
आनन्दित होता है। अपराध सम्बन्धी खबरों पर नजर ड़ालें और आयु के आधार पर अपराधियों
का वर्गीकरण करें तो स्पष्ट दिखता है कि बाल एवं किशोर अपराधियों की संख्या में
तेजी से वृद्धि हो रही है। विशेष चिन्ताजनक बात यह है कि अपराघ करने के बाद इन
बाल/किशोर अपराधियों के अंदर दुःख, पश्चाताप अथवा
अपराधबोध की भावना भी नहीं रहती। अधिकांश बाल अपराधी किसी उत्तेजना अथवा आकस्मिकता
के वशीभूत नहीं बल्कि ठंड़े दिमाग से, काफी सोच-समझ कर, योजनाबद्ध तरीके से अपराध कर रहे हैं। मार-पीट, हत्या आदि हिंसक वारदातों को वे बहुत सामान्य और
हल्के-फुल्के ढ़ंग से लेते हैं। बच्चों की मानसिकता में आए इस भयानक बदलाव के
कारणों की खोज में कई बातें कही जा सकती हैं लेकिन मेरे मतानुसार इसके लिए
सर्वाधिक जिम्मेदार हैं अभिवावक और हमारा पारिवारिक, सामाजिक वातावरण।
पहले के बच्चे गुड्डा, गुड़िया, बंदर, भालू, चिड़िया, झुनझुना आदि खिलौनों के साथ खेलते बड़े होते थे लेकिन आज के
बच्चों के हाथों में हम बन्दूक, पिस्तौल, रायफल और तोपों के माडल खिलौनों के रूप में पकड़ा देते हैं।
पहले घरों में देवी, देवताओं, राष्ट्रीय नेताओं, बड़े कवि, लेखकों, समाज सुधारकों, क्रान्तिकारियों
तथा महापुरूषों आदि की तस्वीरों की बहुतायत हुआ करती थी और बच्चे उत्सुकतावश उनके
बारे में जानकारी किया करते थे। लेकिन आज का बच्चा ऑंखें खोलते ही अपने घर में
भ्रष्ट नेताओं, फिल्मी नायकों, नायिकाओं तथा
क्रिकेटरों आदि की तस्वीरों से दो-चार होता है। उन्हें रातों-रात करोड़पति बनते तथा
ऐशो-आराम का जीवन जीते देखता है। फलस्वरूप वह उन्हें ही अपना आदर्श मान बैठता है
तथा उनकी देखा देखी जल्द से जल्द येन-केन-प्रकारेण अधिकाधिक नाम और दाम कमा लेने
की लिप्सा पाल लेता है।
पहले बच्चों की शामें मॉ, बाप एवं घर के बड़े, बुजुर्गों के पास
लेट कर पंचतंत्र, हितोपदेश, रामायण, महाभारत, पुराण, कथासरित्सागर आदि ग्रन्थों तथा महापुरूषों या
क्रान्तिकारियों के जीवन से जुडीं प्रेरक कहानियॉं सुनते बीतती थीं जो सत्य, अहिंसा, परोपकार, सहिष्णुता, साहस, वीरता, आत्मगौरव और
नैतिकता आदि मूल्यपरक संदेशों से ओतप्रोत होती थीं। ऐसी कहानियॉं बच्चों के मानस
को परिष्कृत एवं परिमार्जित करतीं थीं, उनमें अच्छे
संस्कार ड़ालती थीं तथा प्रारम्भ से ही उनके अंदर सही-गलत, अच्छा-बुरा, नैतिक-अनैतिक व
सत्य-असत्य की समझ पैदा करती थीं। लेकिन आज का बच्चा अपनी शामें टी0वी0 पर मार-पीट, हत्या, षडयंत्र, धोखाधड़ी
अंधविश्वास तथा अश्लीलता में ड़ूबे ऊल-जुलूल कार्यक्रम देखते हुए व्यतीत करता है जो
उसके कोमल मन को विकृत करती हैं। बुरे लोगों को सफल होते देख इन बुराइयों को वह
बहुत सामान्य ढ़ंग से लेता है और इन्हें सफल जीवन की आवश्यकता के रूप में स्वीकार
कर लेता है। हमारे समाज की स्थिति यह है कि पहले समाज में किसी भी व्यक्ति का आकलन
उसके गुणों तथा कर्मों के आधार पर किया जाता था न कि उसकी ताकत और सम्पन्नता के
आधार पर। यदि कोई सम्पन्न व्यक्ति अपराधी या भ्रष्टाचारी है तो समाज में उसे हेय
दृष्टि से देखा जाता था। लेकिन आज के दौर में सामाजिक प्रतिष्ठा का एक मात्र
पैमाना धन और सम्पन्नता रह गया है। आज जो ताकत वाला है, पैसे वाला है, ऊॅंची पॅंहुच वाला
है और साधन सम्पन्न है वही प्रतिष्ठित, आदरणीय और कुलीन
है। सम्पन्नता उसने कैसे हासिल की, पैसा पैदा करने के
लिए उसने कैसे-कैसे कुकर्म किए, सबल बनने के लिए
उसने कितने निर्बलों का दमन किया, इन सब बातों का अब
कोई मायने नहीं रह गया है। तात्पर्य यह कि आज हमारा पूरा का पूरा पारिवारिक, सामाजिक परिवेश ही दूषित हो चुका है। फिर इस दूषित परिवेश
में पलने, बढ़ने वाला बच्चा भला उसके प्रभाव से अछूता कैसे रह सकता है।
वह यदि पैसे को ही मॉं, बाप,
और भगवान मान लेता है या पैसा कमाने के लिए गलत रास्ता अपना
लेता है तो इसमें उसकी क्या गलती है।
बच्चों का बचपन रौंदने, उनका शारीरिक, मानसिक विकास
अवरूद्ध करने तथा उन्हें कुण्ठाग्रस्त करके कुमार्ग पर ड़ालने में आज की शिक्षा
पद्धति एवं अभिवावक वर्ग की अति महत्वाकांक्षा की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। पहले
जहॉं चार, पॉंच साल की उम्र तक बच्चों को खेलने-कूदने की आजादी होती
थी वहीं आज दो-ढ़ाई साल के होते ही बच्चों को स्कूलों के हवाले कर दिया जाता है।
स्कूल की चहारदीवारी की गिरफ्त में आते ही बच्चों के बचपन का अपहरण हो जाता है। वे
किताबों और अव्यावहारिक उपदेशों के चक्रव्यूह में इस कदर फॅंस जाते हैं कि फिर
सारी उम्र उससे नहीं निकल पाते। आज के मॉं-बाप अपने बच्चों को ले कर अति
महत्वाकांक्षी एवं उनके भविष्य के प्रति आवश्यकता से अधिक सतर्क और चिन्तित हैं।
स्वयं अपनी तथा बच्चे की क्षमता की परवाह किए बगैर वे अपने बच्चे को सर्वश्रेष्ठ
देखने की लालसा पाल लेते हैं और बच्चे पर नाना प्रकार के चाबुक चलाने लगते हैं।
अभिभावक वर्ग की इस लालसा का फायदा शिक्षा के नाम पर व्यवसाय कर रहे, गॉंव-गॉंव में खुल चुके पब्लिक स्कूल तथा कोचिंग संस्थान
वाले उठा रहे हैं। मोटी-मोटी फीस लेने वाले इन पब्लिक स्कूलों ने अपनी उपयोगिता
एवं श्रेष्ठता साबित करने की होड़ में बच्चों को रोबोट बना कर रख दिया है। आज
बच्चों की शारीरिक, मानसिक क्षमता तथा उनके स्वाभाविक विकास की परवाह किए बगैर
उन पर पाठ्यक्रम तथा अंग्रेजियत का इतना भारी बोझ लाद दिया गया है कि बेचारे बुरी
तरह पिसते जा रहे हैं। कोई भी मॉं-बाप अपने बच्चे को अव्वल से कम देखने को तैयार
नहीं है भले ही अपने छात्र जीवन में वे स्वंय दोयम या उससे भी निम्न स्तर के ही
विद्यार्थी क्यों न रहे हों। स्कूल, होमवर्क, कोचिंग, ट्यूशन यानी हर
वक्त़ पढ़ाई के भूत के सताए बच्चों को खेलना, घूमना तो दूर ठीक
से खाने और पूरी नींद सोने तक का अवसर नहीं मिल पाता। उस पर परीक्षा में जरा से कम
अंक आए नहीं कि घर से ले कर विद्यालय तक बच्चे की लानत, मलानत शुरू हो जाती है। चौतरफा बोझ, दबाव, उलाहना और
प्रताड़ना का मारा बच्चा अंततः कुण्ठाग्रस्त हो जाता है। फिर या तो वह सबसे विद्रोह
कर के अपराधी बन जाता है,
नशेड़ी बन जाता है या फिर आत्महत्या जैसा कठोर कदम उठा लेता
है। ऑंकड़े गवाह हैं कि हर साल परीक्षाओं के प्रारम्भ से लेकर परिणाम घोषित होने तक
की अवधि में बच्चों और किशोरों द्वारा आत्महत्याओं की संख्या बहुत बढ़ जाती है।
आज के बच्चे ही कल के समाज और देश के कर्णधार
हैं। एक स्वस्थ समाज और उन्नतशील देश के निर्माण के लिए आवश्यक है कि बच्चों को
स्वस्थ एवं स्वाभाविक ढ़ंग से विकसित होने दिया जाय। आज पाठ्यक्रम के बोझ से बच्चों
के कंधे बुरी तरह बोझिल हैं। अतः बस्ते का बोझ कम करना नितान्त आवश्यक है। साथ ही
उसे पाठ्यक्रम से इतर भी उद्देश्यपरक, मनोरंजक सामग्री
पढ़ने का अवसर दिया जाना चाहिए। पब्लिक स्कूलों का कठोर अनुशासन बच्चों के कोमल मन
पर विपरीत प्रभाव ड़ालता है। स्कूलों का वातावरण सहज और आत्मीय बनाया जाना चाहिए।
माता-पिता को भी अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाने की जरूरत है। उन्हें समझना चाहिए
कि किसी भी विद्यालय में,
किसी भी कक्षा में या किसी भी परीक्षा में कोई एक बच्चा ही
प्रथम आ सकता है। बाकी बच्चों की स्थिति उसके बाद ही रहेगी। फिर कक्षा या परीक्षा
में प्रथम आ जाना ही भविष्य की सफलता की गारण्टी नहीं है। इतिहास गवाह है कि
प्रायः अव्वल आने वाले बच्चे कालान्तर में गुमनामी में खो जाते हैं, पिछड़ जाते हैं जब कि दोयम दर्जे के बच्चे बड़ा नाम और काम कर
जाते हैं। महात्मा गॉंधी से ले कर अब्राहम लिंकन तक देश, विदेश की अनेकों विभूतियॉं अपने छात्र जीवन में दूसरे या
तीसरे दर्जे के विद्यार्थी रही हैं। लगभग सभी महान वैज्ञानिक पढ़ने में औसत ही रहे
हैं। इसलिए जरूरी है कि बच्चों पर अपनी इच्छायें न लादी जाय बल्कि उनको अच्छे
संस्कार देते हुए उनके स्वाभाविक गुणों को स्वतंत्र रूप से विकसित होने दिया जाय।
इसी प्रकार बच्चों को टी0वी0,
कम्प्यूटर और मोबाइल की गिरफ्त से सर्वथा मुक्त तो नहीं
किया जा सकता लेकिन प्रयास यह होना चाहिए कि उसे यथा संभव नियंत्रित किया जाय।
इसके लिए आवश्यक है कि बच्चों को प्रारम्भ से ही इन उपकरणों की बुराई के प्रति
सचेत किया जाय। बच्चों और उसी बहाने समाज के स्वस्थ विकास के लिए धीरे-धीरे ही सही
इन फन्दों को काटना अति आवश्यक है।
सम्पर्क-
अखिलेश श्रीवास्तव
चमन
सी-2, एच-पार्क महानगर
लखनऊ-226006
मोबाईल - 09415215139
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
अखिलेश जी,बधाई। अति महत्वपूर्ण आलेख। हमारे भविष्य के प्रति मार्मिक बातें पुरज़ोर तरीके से स्पष्ट की गई हैं। बचपन के अछूते पलों की सघन पडताल। संतोष जी का आभार।
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