केशव तिवारी के संग्रह ‘तो काहे का मैं’ उमाशंकर सिंह परमार की समीक्षा
हिन्दी कविता में केशव तिवारी अपनी एक अलग
पहचान बना चुके हैं। केशव न केवल अपनी अपनी भाषा और शिल्प के तौर पर बल्कि अपने कहन
के तौर पर भी औरों से अलग से नजर आते हैं। हाल ही में उनका तीसरा संग्रह ‘तो काहे का मैं’ इलाहाबाद
के साहित्य भण्डार प्रकाशन से छप कर आया है। इस संग्रह की हमारे लिए एक समीक्षा
लिखी है युवा कवि आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने। उमाशंकर संस्कृत के अध्येता हैं और आज कल लोक और कविता को ले कर एक गंभीर काम में जुटे हुए हैं। तो आइए पढ़ते हैं केशव तिवारी के संग्रह पर उमाशंकर परमार की यह समीक्षा।
'तो
काहे का मैं' - एक जमीनी हस्तक्षेप
उमाशंकर सिंह परमार
केशव तिवारी जमीन से जुडे कवि हैं उनकी कविता जीवन के
विभिन्न सन्दर्भों में जमीनी तर्क का मुकम्मल प्रयोग है। अवध उनकी जन्म भूमि रही
और बुन्देलखण्ड उनकी कर्म भूमि रही। दोनो भूमियों का सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश
व जनजीवन की यथार्थता तो केशव ने नजदीक से देखा। स्वभाविक है कि लोक से उनका सीधा
जुडाव उनकी कविता को भी जमीनी सच से जोड देगा। एक ओर जहां वो जमीन से जुडी
संस्कृति और परम्पराओं का वहां की वर्गीय स्थिति के दायरे में रख कर मूल्यांकन
करते हैं तो दूसरी ओर समाज में अन्तरभूत वर्गीय द्वन्द का उल्लेख करने से नही चूकते।
वर्गीय असमानता के कारणों का केशव बडी शिद्दत के साथ खुलासा करते हैं।
केशव के अब तक तीन
कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। वर्ष 2005 में उनका पहला
कविता संग्रह ‘इस मिट्टी से बना’ व 2010 में दूसरा कविता
संग्रह ‘आसान नही विदा कहना’ रायल प्रकाशन जोधपुर से प्रकाशित हुआ। उपरोक्त
दोनो कविता संग्रहो में केशव विद्यमान सामाजिक, सांस्कृतिक,
जातीय विसंगतियों के विरुद्ध सार्थक जमीनी हस्तक्षेप का जोरदार तर्क ले कर
हिन्दी कविता में उभरते हैं व जमीन से दूर खडी कविता को पुनः जमीन पर खडा करने का
उद्योग करते हैं। केशव ने कविता को नागार्जुन एवं त्रिलोचन की परम्परा से जोडते
हुये कविता को लोक का पर्याय बनाने की कोशिश की। उनके लिये कविता होने का अर्थ ही
लेाक वेदना, लोक राग, लोक धर्मिता, लोक द्वन्द है।
उनका तीसरा कविता संग्रह ‘तो काहे का मैं’ वर्ष 2014 में प्रकाशित हुआ।
यह संग्रह भी उनके जमीनी सरोकारो को विस्तार देता है। इस संग्रह में केशव ने
मिट्टी से जुडे तमाम भाव रूपो, शब्द रूपो, वस्तु रूपो को कविता से जोडते हुए तमाम
सामाजिक जडताओं के विरूद्ध मानवता के उदात्त स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं। इस
संग्रह में केशव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का मूल्यांकन भी समाहित है। एक ओर जहां वो
लोक के सन्दर्भ में नयी जीवन दृष्टि व नये सरोकार लेकर जमीनी टकरावों से डट कर
मुकाबला करने का साहस करते हैं तो दूसरी ओर शिल्प के माध्यम से लोक नाद, लोक ताल, लोक सौन्दर्य को
कविता में गुम्फित कर भाषा में नयी स्फूर्ति का संचार करते हैं।
‘तो काहे का मैं’ जीवन के तमाम सन्दर्भो में जमीन का
सार्थक हस्तक्षेप है। इस हस्तक्षेप को समझने के लिये केशव के ‘मैं’ को समझना जरूरी है। इसी ‘मैं’ में केशव की जमीनी दृष्टि व लोकधर्मिता
समाहित है। केशव का ‘मैं’ प्रयोगवादी, व्यक्तिवादी ‘मैं’ नही है यह
बुन्देलखण्ड का खारूस ‘मैं’ है। एक ऐसा ‘मैं’ है जो खेतो, किसानो, गांववासियों के
बीच रहकर सम्पूर्ण लोक परिवेश से संवेदनात्मक लगाव कर चुका है और अपने चतुर्दिक व्याप्त
खतरो से लोक को आगाह करता हुआ खुद को उत्सर्ग के लिये प्रस्तुत कर रहा है। अर्थात्
प्रिय जनो को अभयबोध दे रहा है। उनके सम्भावित खतरो से निपटने के लिये डट कर खडा
है। यह ‘मैं’ कायर नही है षूरवीर है। लडाकू व्यक्तित्व
का मूर्त विधान है यही ‘मैं’ की जमीनी दृष्टि का निर्माण कर रहा है।
इस दृष्टि में अन्तरमुखी भाव लेस मात्र ही नही है कही भी उनकी वैयक्तिकता वाह्य
दृश्य पर हावी नही हुई। यही कारण है कि लोक की चेतना, लोक की संवेदना,
लोक के संघर्ष, कठोरता, विषमता से कवि स्वयं जूझना चाहता है
जूझने का यही भाव उनकी कविता को लोकरंजित विद्रोह बना देती है। देखिये लोक से जुडी
पीडा की मार्मिक अनुभूति कवि कैसे करता है।
वे
जानती भी नही कब
आगे
बढकर निकल आयी
# #
# #
गांव
- गांव घूमती
जिन्दगी
के चिकारे का
तना
तार है मोमिना (पृष्ठ 74)
गांव में खाट बीनने वाली महिला का नाम है मोमिना। वह गरीब
है, लाचार है विधवा है, उपेक्षित है। उसके दो बच्चे हैं। उनके पालन पोषण के लिये वह
गांव-गांव घूम कर खटिया बीनती है। उस मोमिना के प्रति कवि इतना संवेदनशील है कि वह
जिन्दगी के चिकारे का तना तार कह देता है। अर्थात् भयावह परिस्थितयों से मोमिना
खुद को बचाये हुये वर्गीय पीडाओं से अकेले ही जूझ रही है। मोमिना का यह क्रान्तिकारी
पक्ष वैयक्तिक ‘मैं’ नही देख सकता। वही ‘मैं’ देख सकता है जो जमीन पर मोमिना के साथ
खडा हो। केशव का ‘मैं’ जमीन के प्रति अगाध प्रेम रखता है। वह
अपनी उस भूमि को जिस पर खडा है जहां कविता के चरित्र खोज रहा है जहां कविता लिख
रहा है वहां के लोक को केशव को समेट कर चलते हैं। यही जमीनी लगाव कवि को सम्पूर्ण
सांस्कृतिक व सांसारिक अन्तरवस्तु से जोडते हुए स्वदेश अनुराग व देश के प्रति
अदम्य प्रेम में बदल देता है। लोकधर्मी कविता का देश प्रेम इसी लगाव की पैदाइश है।
ऐसा देश प्रेम केदार नाथ अग्रवाल व बाबा नागार्जुन में भी देखा जा सकता है। जहां
कवि अपने गांव अपने खेत, अपने जंगल, अपनी नदी का गीत गाते मिल जाते हैं। केशव
ने भी अपनी जमीन का गीत गाया है। देखिये कविता ‘कल रात’ इसमे कवि ने स्पष्ट रूप से घोषित कर दिया
है कि जैसे मैं अपने अवध और बुन्देलखण्ड को चाहता हूँ वैसा ही अन्य सभी अपनी जमीन
को चाहते होंगे –
सोचता
हूँ जैसे मैं अपने अवध
और
बुन्देलखण्ड को चाहता हूँ
मेवाती
मेवात को
भोजपुरिया
भोजपुर को चाहता होगा (पृष्ठ 27)
केशव का यह जमीनी जुडाव जब यथार्थ की मुख्य धारा में उतरता
है तो आम जन जीवन के अभाव, व्यथाओं और पीडाओं से विद्रोही और आक्रामक हो जाता है।
सामाजिक विसंगतियों एवं सामंतवादी परम्पराओं के प्रति कवि का आक्रामक होना जमीनी
जुडाव के ही कारण है जिस जमीन को कवि अपने व्यक्तित्व में समाहित कर चुका है तो
भला उस जमीन के बाशिन्दो का दुःख वो कैसे अनदेखा कर सकता है। केशव की यह आक्रामकता
भावुक तो है ही पर पूर्ण वैज्ञानिक भी है। वर्गीय समाजो के आपसी टकरावों और
सम्पत्ति के असमान साजिशपूर्ण वितरण की कोख से उत्पन्न आक्रामकता है यह। यह
आक्रामकता केशव की अपनी पहचान है। इनकी कविता ‘खेत जगाये जा रहे हैं’ देखिए कम उत्पादन
व अकाल से अनुत्पादक भूमि को पुनः उत्पादन हेतु तैयार करना खेत जगाना कहा जाता है।
बुन्देलखण्ड में किसानो की भुखमरी का सबसे बडा कारण यही अकाल है और यही प्राकृतिक
आपदाएँ हैं इनके कारण हजारो एकड भूमि परती के रूप में सूनी पडी रहीं। जहां एक ओर
मुठ्ठी भर लोग किसानो के उत्पाद से मौज कर रहे हैं तो दूसरी ओर खाद बीज और पानी के
आभाव में उत्पादनहीन किसान भूखों मर रहे हैं। इस कविता में केशव ने इसी विसंगति का
संकेत किया है।
मैं
उनको भी जानता हूँ
जो
इन खेतो के साथ -साथ जाग रहे हैं
और
उनको भी जो लगातार
सडते
हुये अनाज पर
गलतबयानी
करते जा रहे हैं (पृष्ठ 57)
केशव की यह वर्ग दृष्टि केवल अमीरी गरीबी का ही विवेचन नही
करती वह इसे हक से जोड कर देखती है। सम्पत्ति का हक, जमीन का हक,
रोजगार का हक, जीवन जीने का हक, सोचने का हक,
आदि केशव हक को बहु स्पर्शी, बहु आयामी बना देते हैं। यही हक तो वर्ग संघर्ष
का कारण है। यदि आम जनता को उसका हक प्राप्त हो जाये तो संघर्ष व व्याप्त
विसंगतियां स्वतः निर्मूल साबित हो जायेंगी। इसी हक को वो स्त्री समुदाय से भी
जोडते हैं। केशव की जमीनी दृष्टि स्त्री की वर्ग अवस्थिति से भलि भांति परिचित है।
स्त्री सम्पत्ति के हक से वंचित है ही वह अपनी देह का भी मालिकाना हक नही रखती।
सम्पूर्ण स्त्री विमर्श इसी देह के हक से जुडा है। केशव ने अपनी कविता ‘शिवकली के लिये’ में स्त्री विमर्श
को नया लोक रंजित जमीनी आयाम दिया है। केशव की दृष्टि में देह का हक परम्परागत
पूंजीवादी उन्मुक्त भोग का हक नही है। यह हक सामन्ती कैदखानो में कैद स्त्री की
मुक्ति की लालसा है। स्वतंत्रता की अदम्य इच्छा है। तमाम बन्धनों को तोड कर समाज
के साथ कदम ताल करने की अभिलाषा है।
केशव तिवारी |
एक
औरत अपनी देह का
मलिकाना
हक मांग रही है
औरत
की देह के इजारेदारो
सुन
रहे हो
# #
# #
तुम्हारे
रचे व्यूह के बीच मुनादी करती
तुम्हारे
गौरव पर पैर रख
निकल
जाना चाहती है एक औरत (पृष्ठ 75)
व्यूह शब्द पुरूष समाज
द्वारा रची गयी साजिशों का संकेत है जिन्हे परम्परागत सामंती अवधारणाओं से परिपुष्ट
कर दिया गया है। दूसरी पंक्ति में गौरव शब्द मिथ्या अभिमान का संसूचक है जो पितृसत्तात्मक
अभिमान को मर्दवादी घातक हथियार बना देता है। यह स्त्री इसी व्यूह और गौरव को
तोडना चाहती है। सम्पूर्ण उत्पीडक परिवेश को नष्ट कर पैरो तले रौंदना चाहती है।
कुछ लोग कहते हैं कि लोकधर्मी कविता में स्त्री विमर्श का क्रांतिचेतस विवेचन नही
है ऐसे लोगो को केशव की ‘तो काहे का मैं’ पढना चाहिये शायद ही स्त्री विमर्श का
इससे ज्यादा वर्गचेतस वर्णन कही मिले।
अब कुछ चर्चा केशव
की काव्य कला पर हो जाये कोई भी कवि जो लोक की विशाल भाव भूमि को कविता का विषय बनाता
है, वह कलात्मक चमत्कारो के प्रति सम्मोहन नही रखता। उसके लिये ‘कला के लिये कला’ का सिद्धान्त अस्वीकार
है। केशव कला को उपादेय नही मानते वह उतनी ही कला का समावेश अपनी कविता में करते
हैं जिससे उनके जमीनी सरोकारो को बल मिले, अभिव्यक्ति मिले
एवं प्रभावपूर्ण अनुभूति का प्रकाशन हो। अतः यथार्थ की प्रमाणिक व लोक जीवन से
जुडी जमीनी हकीकतो को प्रमाणिक अभिव्यक्ति यदि कला से मिलती है तो मैं उसका प्रयोग
गलत नही मानता। केशव ने कला के इसी स्वरूप को स्वीकार किया है। केशव जमीन से जुडे
कवि हैं उन्होने लोक के हर पहलू को अपनी कविता का विशय बनाया है। अतः लोक की भाषा एवं
संरचनागत उपागमो को वो अस्वीकार कर सकते हैं। केशव की कविता में लोक काव्य
प्रवृत्तियों का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। विशेषकर लोक सृजित लयात्मक बन्धो
का कुशलतम प्रयोग केशव में बहुतायत मिलता है। हालांकि लयात्मक बन्धो का प्रयोग
केदार नाथ अग्रवाल, विजेन्द्र, नागार्जुन, त्रिलोचन में भी
देखने आया है। यहां तक की निराला के मुक्त छन्द की अवधारण भी इसी लयात्मक बन्ध पर
आधारित है। केशव ने बुन्देली लोक गीतो में प्रयुक्त ताल को इन लयात्मक बन्धो में
बडी कुशलता के साथ प्रयोग करते हैं। ताल के साथ मिल कर ये लयात्मक बन्ध एक विशिष्ट
प्रकार के छन्द को जन्म देते हैं। यह न तो गीत है न मात्रा व वर्णो के बन्धन से सम्बद्ध
कोई क्लासिकल छन्द यह एक दम अलहदा है। ताल-लय-छन्द इस ताल-लय-छन्द में
बुन्देलखण्डी गीतो का आरोह अवरोह स्पष्ट देखा जा सकता है।
किसी
बेइमान की आंखो में
न
खटकू तो काहे का मैं
मित्रो
को गाढे में याद न आऊॅं
तो
काहे का मैं (पृष्ठ 48)
यहां पर ‘किसी बेइमान की आंखो में न खटकू’ में आरोह पूर्ण
विराम या यति के साथ ‘तो काहे का मैं’ प्रयुक्त पूर्ण विराम सम्पूर्ण पंक्ति को
एक लयबढ व अंतिम विराम को ताल बद्ध कर देता है। शब्दो की संगति व प्रवाहशीलता
स्वतः लय ताल का सृजन कर रही है। दूसरी बात जो केशव की कला का मुख्य आकर्षण है वह
है उनका अप्रस्तुत विधान या उपमा विधान। केशव की उपमाये तब और बलवती व अर्थवती हो
जाती हैं जब वो यथार्थ का तीखापन या लोक की रंगत लेकर आती हैं। अर्थात् यथार्थ के
प्रस्तुत को अमूर्त अयथार्थ पर आरोपित करके केशव यथार्थ का उपस्थित पक्ष और भी
प्रभावी बना देते हैं। दूसरी चीज जो उनके अप्रस्तुत विधान को लोक से जोडती है वह
है उपमान के रूप में लोक की वस्तुओं व परम्पराओं को प्रस्तुत कर देना। केशव की
कलात्मक लोक र्मिता का सारा दारोमदार उनके लोक जन्य अप्रस्तुत विधान में ही समाहित
है। देखिए उदाहरण –
तुम्हारा
नाम जैसे होंठो पर
रच
- रच जाये देशी महोबिया पान (पृष्ठ 29)
यहां ‘महोबिया पान’ केवल अप्रस्तुत विधान ही नही है अपितु
समूची बुन्देली लोक संस्कृति की ध्वन्यात्मक व्यंजना कर रहा है। बुन्देलखण्ड में
रहने वाले लोग इस पान की खासियत और रूमानियत से भलि भांति परिचित हैं। यह उपमान
कोई अभिजात्यशास्त्रीय उपमान नही है अपितु उस लोक का उपमान है जहां केशव की कविता
लिखी गयी। केशव का यह जमीनी जुडाव उपमा में ही नही उनके रूपक विधान में भी देखने
को मिलता है। उनका रूपक विधान भी उपमा विधान की तरह मात्र सांकेतिक नही है अपितु
लोक को यथार्थ की दृष्टि से देखने का नजरिया है।
ए
सांवरी सूरत वाली लडकी
तेरी
आंखो के उदास जंगल में
एक
पहाडी मैना
पंख
फुलाये उड रही है (तो
काहे का मैं)
आँखों में उदास जंगल
का अभिरोपण बहुत कुछ कह देता है। केवल उदास आंख कह देने से आंखो की वीरानगी कदाचित
उपस्थित नही होती। लेकिन जंगल शब्द के आरोपण से आंखो का सूनापन, वीरानगी, निर्जनता सबकुछ
अभिव्यक्त हो जाता है। उपमा और रूपक दोनो के सम्मिलित क्रमबद्ध रेखांकन से बिम्ब
का सृजन होता है। बिम्ब आज की कविता का सबसे कारगर हथियार है। केशव इस कला को बडे
ही सचेत ढंग से प्रयोग करते हैं। बिम्ब को शब्दचित्र भी कहा जाता है अर्थात्
अमूर्त कथ्य को शब्द संगठन के द्वारा मूर्त आकार देना या प्रगाढ अनुभूतियों का
वस्तुगत संप्रेषण द्वारा बनाया गया सचेष्ट शब्द चित्र बिम्ब कहलाता है। हर एक कवि
अपनी विचारधारा के अनुरूप बिम्बों की रचना करता है। कवि का व्यक्तित्व उसके
वैचारिक सरोकार बिम्बो से भली भांति पहचाने जा सकते हैं केशव लोकधर्मी कवि हैं।
उनका जमीन से जुडाव ही सम्पूर्ण काव्य यात्रा का आधार है। उनके बिम्बो में गहन,
वैचारिक विमर्श व सामयिक विद्रूपताओं के विरूद्ध एक जोरदार आवाज का आगाज है।
केशव के अधिकांश बिम्ब व्यंग्य लेकर चलते हैं। उन्हे सर्वाधिक सफलता ऐसे बिम्बो के
चित्रण में मिली है जो एकदम सादे हैं एवं लोक जीवन से जुडे हैं। प्रस्तुत हैं
उदाहरण –
गठिया
का मरीज एक
बूढा
चला जा रहा है
लाठी
टेकते धन खेतों की ओर (पृष्ठ 71)
इस कविता को पढते
ही गठिया के रोगी बूढे का चित्र आंखो के सामने प्रस्तुत हो जाता है यह सम्वेदना ही
केशव की कविता की जान है। केशव की एक और कलात्मक विशेषता है जो उनकी कविता को
मुहावरा बना देती है। वह है व्यंग्यपरकता। केशव जब अपनी पूर्ण लय में होते हैं तो
व्याप्त सामाजिक विद्रूपताओं व सुविधाभोगियों के विरूद्व मोर्चा खोल देते हैं। जब
भी वो बुर्जुआ वर्ग के खिलाफ कलम चलाते हैं या पूंजीवादी षक्तियों के हांथ खिलौना
बन चुके लोकतंत्र का भयावह चेहरा सबके सामने रखते हैं तो अक्सर उनके शब्द तीखा
व्यंग्य उत्पन्न करते हैं।
विसेसर
की जवानी और
बुढापे
के बीच
इस
देश का राजनैतिक इतिहास
फैला
पडा था
प्रजातंत्र
के नाम पर एक
पूरी
पीढी को
गन्ने
की तरह
चूसा
जा चुका था
लोकतंत्र की इतनी कठोर समीक्षा केशव ही कर सकते हैं। परन्तु
इस व्यंग्य के पीछे कारण भी विशेसर के प्रति अटूट संवेदना है यही संवेदना कठोर आलोचना
हेतु प्रेरित करती है।
इस प्रकार केशव की
कवितायें सम्पूर्ण लोक जीवन की सम्यक पडताल करती हुई पूंजीवादी शक्तियों के
कुत्सित खेल को भी उजागर करती हैं व केशव के वैचारिेक आधार को पुख्ता जमीनी सरोकार
देते हैं। केशव का यह संग्रह ‘तो काहे का मैं’ जीवन के प्रति विद्वमान तमाम दृष्टियों को
बौना साबित कर रहा है। आदर्शवाद, आध्यात्मवाद, वस्तुवाद, अस्तित्ववाद,
आधुनिकतावाद को धता बताते हुये जीवन के प्रति जमीनी दृष्टि का प्रतिपादन कर
रहा है। कुछ भी हो लोक को सम्पूर्णता से समझने के लिये यही जमीनी दृष्टि कारगर है।
यही कारण है कि केशव बगैर किसी मिथकीय संकल्पना के वगैर किसी यूटोपियायी उद्भावना
के ठोस जमीनी मूल्यों के साथ दिल में उतर जाते हैं।
सम्पर्क-
जिला सचिव,
जनवादी लेखक संघ,
बांदा उत्तर प्रदेश
मोबाईल- 09838610776
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