स्वर एकादश पर स्वप्निल श्रीवास्तव की समीक्षा



बोधि प्रकाशन जयपुर से पिछले साल छपे 'स्वर एकादश' की एक समीक्षा लिखी है हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने। इसे हमने लखनऊ से निकलने वाली पत्रिका 'अभिनव मीमांसा' से साभार लिया है जिसके संपादक विवेक पाण्डेय हैं। विवेक के ही शब्दों में कहें तो 'स्वर एकादश को समकालीन कविता का प्रतिनिधि संकलन भी कह सकते हैं। इस संकलन की भूमिका साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष तथा मेरे अन्यतम शुभेच्छु विश्वनाथ प्रसाद तिवारी द्वारा लिखी गयी है जिससे यह और भी महत्त्वपूर्ण हो उठा है।' स्वर एकादश का सम्पादन किया है युवा कवि राज्यवर्द्धन ने। आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा  

एक साथ कई राहों के कवि

हिन्दी कविता में कई कवियेां को एक जगह एकत्र कर संकलन निकालने की योजना नई नहीं है, अज्ञेय ने तार सप्तक निकाल कर यह प्रयोग किया था उन्होंने चार सप्तक निकाले, हर सप्तक में सात कवि थे चौथे सप्तक को छोड़ दिया जाय तो तीन सप्तक हिन्दी कविता में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहे, इन सप्तकों के कवियों ने हिन्दी कविता की एक उल्लेखनीय पीढ़ी तैयार की, और कविता के पर्यावरण को बदला। ये कवि एक मिजाज के कवि नहीं हैं उनकी सोच समझ और अभिव्यक्ति अलग है मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा और केदारनाथ सिंह जैसे महत्त्वपूर्ण कवि तार सप्तक की देन थे, इस सप्तक के जनक अज्ञेय ने इन कवियों की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें नया धरातल दिया, अज्ञेय की इस भूमिका के लिये हिन्दी संसार ऋणी है, इस प्रकार कई कवियों को लेकर संकलनों का निकलना शुरू हो गया। इस तरह के प्रयोग अकविता के कवियों ने किये लेकिन सप्तक जैसी कीर्ति अर्जित नहीं कर सके, कुछ वर्ष पहले कवि एकादश नाम से लीलाधर मंडलोई और अनिल जनविजय ने संग्रह निकाला, इसमें उन्होंने उन कवियों को जगह दी जो हिन्दी काव्य परिदृश्य से छूट गये थे।

    इन्हीं परम्पराओं को स्वर-एकादश आगे बढ़ता है जिसका चयन प्रभात पाण्डेय और सम्पादन राज्यवर्धन ने किया है। इस संग्रह में ग्यारह कवियों की कवितायें शामिल हैं जिसमें अग्निशेखर जैसे वरिष्ठ कवि के साथ युवतर कवि कमलजीत चौधरी शामिल हैं। अग्निशेखर के अलावा अन्य कवि निर्मित के दौर में हैं, वे अपनी भाषा और संवेदना की खेाज में लगे हुये हैं, उनकी कवितायें पढ़ कर उनकी संभावना की भविष्यवाणी की जा सकती है। संग्रह के पहले कवि अग्निशेखर हैं, और हमारे वक्त के जाने माने कवि हैं, उनकी कविताओं में विस्थापन की पीड़ा और दारूण स्मृतियां हैं, जो उनकी कविता ‘विरसे में गाँव’ और ‘मेरी डायरियाँ’ पढ़ कर जानी जा सकती हैं। कविता की पंक्तियाँ -

‘मैं लड़ता रहूँगा पिता
स्मृति लोप के खिलाफ और पहुँचूंगा एक दिन
हजार हजार संघर्षों के बाद अपने गाँव की नींव पर
बुलाऊँगा तुम्हें पितृलोक से चिनारो के नीचे
पिलाऊँगा अंजुरी भर-भर कर तुम्हें वितस्ता का जल।’

 यह कविता हमारे मर्म को छूती है और कवि की पीड़ा से परिचित कराती है।

                                                             (चित्र : अग्निशेखर)

सुरेश सेन निशांत हिमाचल प्रदेश के एक पहाड़ी गाँव के कवि हैं। उनका पता गाँव सलाह पोस्ट-सुन्दरगढ़, जिला - मंडी, कविताओं के नीचे छपा रहता है। बहुत सारे कवियों के पते शहरों के नाम होते हैं, मैंने उनसे माँग कर उनका संग्रह ‘वे जो लकड़हारे नहीं हैं’ पढ़ा, इधर के कवियों में उनकी कविता अलग तरह की कविता है।उनकी कविता पढ़ते हुये राजा खुशगाल की कवितायें याद आती हैं। इन कविताओं के भीतर पहाड़ के कठिन जीवन की यातना है, इस संकलन में प्रकाशित उनकी कविता ‘पिता की छड़ी’, ‘वह पाँच पढ़ी औरत’ अच्छी कविताएँ हैं। लम्बी कवितायें लिखते समय निशांत धीरज से काम लें तो वे लम्बी दूरी के कवि साबित हो सकते हैं।


केशव तिवारी और शहंशाह आलम हिन्दी के जाने माने कवि हैं और लम्बे समय से लिख रहे हैं। केशव की कविता ‘दिल्ली में एक दिल्ली यह भी’ पढ़कर दिल्ली के अभिजन कवि समुदाय का वर्ग चरित्र सहज समझ में आता है। यह कविता विष्णु चन्द्र शर्मा को समर्पित है। वे ही इस कविता के विषय हैं -

‘बोले होटल में नहीं हमारे घर पर होना चाहिये तुम्हें।..............
छह रोटी और सब्जी रखे
ग्यारह बजे रात एक बूढ़ा बिल्कुल देवदूतों से ही चेहरे वाला मिला इतंजार में।’

    समचमुच राजधानी दिल्ली में एक दुलर्भ दृश्य घटित हो रहा था, केशव स्थानीयता के कवि हैं। ‘रात में कभी-कभी रोती है मर चिरैय्या’ पढ़कर जाना जा सकता है। शहंशाह आलम की कवितायें मुझे पसंद हैं। वे अलग संवेदना के कवि हैं, उनके भीतर रोमानियत और यथार्थ साथ-साथ है, उनकी कविता ‘गृहस्थी का प्रथम अध्याय’ की पंक्तियाँ देखें -

‘एक दिन मैं प्रेम की बेचैनी
बेसब्री में तुम्हें नहीं मालूम
क्या न क्या बना देने का उद्यम करूँगा
और तुम इंकार नहीं कर पाओगे।’

‘पृथ्वी’ कविता में वे अपनी चिंता, आकुलता प्रकट करते हैं।


 इस संग्रह में चार ऐसे कवि हैं जो कविता के साथ आलोचना और समीक्षा के क्षेत्र में सक्रिय हैं। मेरा मानना है कवि को गद्य जरूर लिखना चाहिए इससे कविता के फलक का विस्तार होता है, इस सूची में भरत प्रसाद अपेक्षाकृत सक्रिय कवि हैं, उनके भीतर कई विधाओं की निरन्तरता है, उनकी कविता ‘कामाख्या मंदिर के कबूतर’ पढ़कर अवाक हूँ - ‘कामाख्या के पंक्षी अब पंक्षी कहाँ रहे? वे कायदे से उड़ नहीं सकते, बोल नहीं सकते न ही देख सकते हैं। कलरव करना इन्हें कहाँ नसीब? आजादी से उड़ने की इनकी कल्पना को जैसे लकवा मार गया हो।’

  यह कविता धार्मिक हिंसा के विरोध की कविता है जो मंदिरों के पाखण्ड को उजागर करती है। इस कविता के साथ उनकी कविता ‘वह चेहरा’ और ‘रेड लाइट’ एरिया पढ़ने योग्य हैं।

  इसी प्रकार संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताओं की लोकगंध हमें आकर्षित करती है और लोकजीवन से गायब होते  जा रहे दृश्यों  को त्रासद अनुभव के साथ  सामने लाती है। उनकी ‘ओलार’ कविता इलाहाबादी दिनों की याद दिलाती है। इसमें केवल लोकदृश्य नहीं है। वे लिखते हैं -

‘एक चक्का सूरज की तरह
दूसरा चक्का फिरकी जइसा
ऐसे कैसे गाड़ी चल पायेगी भइया
इसी तरह सब होता रहा अगर
तब तो दुनिया ही ओलार हो जायेगी
एक दिन जिसका मर्म बूझते हैं
अभी केवल इक्कावान और घोड़े ही’।

संतोष की कविता ‘पानी का रंग’, ‘कुछ और’ कविता भी सहज संप्रेषित होती है।

    महेश चन्द्र पुनेठा कवि कर्म के साथ सांस्कृतिक मोर्चे पर काम करने वाले कवि हैं। पुनेठा की कविताओं में दृश्य नहीं विचार भी हैं, इसे लक्षित किया जाना चाहिये। ‘प्रार्थना’, ‘कैसा अद्भुत समय है’, ‘पर नहीं जानते’, ‘प्राणी उद्यान’ कविता पढ़ते हुए इस विचार की पुष्टि होती है,  उनका कहना है - ‘जानते हैं बहुत कुछ देश दुनिया के बारे में, पर नहीं जानते अपने आसपास के बारे में।’

    भले ही भूमंडलीकरण ने दुनिया को एक गाँव में बदल दिया हो लेकिन उसने इस विडम्बना को भी जन्म दिया है कि हम दूर की चीजों को तो देख लेते हैं लेकिन अपने पास की दुनियाँ हमारे लिये अनजानी बनी रहती है, हम अपने उद्गम स्थल को भूल जाते हैं। पुनेठा की कवितायें, हमें हमारे आसपास की दुनिया की याद दिलाती हैं, हम प्रकृति से दूर हो जाते हैं जहाँ हमारे बीज छुपे हैं।

                                                                               (चित्र : महेश पुनेठा)

 इस संकलन में राज्यवर्धन, ऋषिकेशराय, राजकिशोर राजन लगभग एक मिजाज के कवि हैं। राज्यवर्धन के लोक बिम्ब का प्रयोग कुशलता से किया है लेकिन इस बिम्ब में वे अपने समय के यथार्थ से भी रूबरू होते हैं। उनकी कविता ‘नदी आदमखोर हो गयी है’, ‘एक यातना कथा है’, उसकी कुछ पंक्तियां देखिये -

‘रात-बेरात
भयानक करती है हमला
और खा जाती है
जान माल की और दे जाती है......... जीवन भर के लिए।’

  ऋषिकेश राय की कविताओं पर हमारा ध्यान उस लोक की तरफ जाता है, जिसके ऊपर शहरीकरण के खतरे हैं लेकिन वे उस लोक-समाज को बचाने का यत्न करते हैं, उनकी कविता ‘बरधाइन गंध’ उसी लोक का दृश्य है जो हमारे नजर से ओझल होता जा रहा है, एक उदाहरण देखिये -

‘पर अब भी तवे से उतरती रोटियेां में
उभर आती है आकृतियाँ दो सींगो की
कभी कभी चूल्हे पर सिकंते भुट्टे के
तड़कते लावे के बीच सुनाई दे जाती है
झुन झुन बजते घुंघरू की आवाज
गरम भात से उठती भाप
अब भी भर जाती है
बरधाइन गंध नथुनो में।’

 ‘अनबिकी मूर्तियाँ, ‘वे दिन’, ‘हम लौटेंगे’ कविता में कवि को ग्रामीण संवेदना दिखाई देती हैं। हमारे लिये यह भी जानना जरूरी है कि हम अपने समय के किस यथार्थ का चुनाव करते हैं, यह चुनाव आजादी से नहीं विजन से किया जाना चाहिए।

  इस संग्रह के एक अन्य कवि राजकिशोर राजन की कविता ‘सुनैना चूड़ीहारिन’ पढ़कर हम जानते है कि उनका लोक ऋषिकेश राय से भिन्न नहीं है। ‘बूढ़ी’, अनुभवी बाबा की आँखें देखते ही उसे जलने लगती हैं पर लाख कोशिश के बाद भी उनसे कभी जली नहीं सुनयना, चूड़ीहारिन।’ इसी क्रम में उनकी कविता ‘सपने में रोटी मचान’, ‘दिल्ली की रजाई’, ‘नये बिम्ब के तलाश में’ कवि की लोकछवि प्रकट हुई है। इन तीनों कवियों में लोकधर्मिता है और अपने लोक के प्रति गहरा लगाव है, बस इसके सम्यक उपयोग की जरूरत है।

 इस संकलन के सबसे युवतर कवि कमलजीत चौधरी हैं जो अग्निशेखर की जमीन के कवि हैं, उनकी कवितायें पढ़ कर, संभावनाओं का पता चलता है उन्होंने छोटी किंतु सघन कवितायें लिखी हैं। इस संकलन में उनकी कविता ‘बर्तन’, ‘खेत’, ‘छोटे बड़े’, ‘तीन आदमी’, ‘नाव का हम क्या करते’ पढ़कर उनके कवि कर्म के प्रति हम आश्वस्त होते हैं। ‘वह बीनता है’ कविता की यह पंक्तियाँ देखें -

‘वह बीनने वाला
छिनता आदमी कभी-कभी अखबार में
थोड़ी सी जगह छीनता है
भूख से लड़ता
अक्सर परिवार बीनता है।’

एक साथ इस संकलन के कवियों को पढ़ना, एक नये काव्य दृश्य से परिचित होना है। हम यह जानते हैं, कविता लिखना आसान नहीं कठिन काम है, उसके लिये धैर्य की जरूरत है, यह इन कवियों की निर्मिति का समय है, कविता की भाषा सतत काव्याभ्यास से बनती है, यहाँ काव्याभ्यास का प्रयेाग रूढ़ अर्थ में नहीं, सार्थकता के क्रम में किया गया है। कवियों को अपने पते पर बने रहना जरूरी है, बार-बार कविता का पता बदलने से जो अराजकता पैदा होती है, वह कवि को नहीं कविता को भी नष्ट करती है। इतने अच्छे संकलन के लिये प्रभात पाण्डेय और राज्यवर्धन बधाई के पात्र हैं। उन्होंने अलग-अलग कवियों को एक साथ एकत्र कर, कविता का परिदृश्य रचा है। इस संकलन में काव्यम् पत्रिका के सम्पादक प्रभात पाण्डेय की लोकाभिरूचि का परिचय मिलता है। ये किसी आलोचक के चहेते नहीं है ये अपनी कविता के बल पर जीवित रहने वाले कवि हैं। वे अपनी भाषा और कथ्य में सहज हैं, ये नगरीय जीवन के नहीं लोकजीवन के कवि हैं।

(साभार : अभिनव मीमांसा)


समीक्षित पुस्तक  -  स्वर एकादश (कविता संकलन)
चयन -    प्रभात पाण्डेय
सम्पादन - राज्यवर्धन
प्रकाशक -  बोधि प्रकाशन,
एफ - 77, सेक्टर - 9, रेाड नं. 11,
जयपुर


सम्पर्क
स्वप्निल श्रीवास्तव
मोबाईल- 09415332326


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