डॉ0 रोहिणी अग्रवाल का आलेख 'चुप्पी में पगे शुभाशीष बनाम पचास साल का अंतराल और प्रेम को रौंदती आक्रामकता'
शेखर जोशी |
शेखर जोशी के जन्मदिन पर पिछले दिनों आपने उनकी उम्दा कहानी मेंटल पढ़ी। आज हम शेखर जी की कहानियों पर वरिष्ठ आलोचक रोहिणी अग्रवाल का आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं। रोहिणी अग्रवाल ने अपने इस आलेख में शेखर जी की चर्चित कहानी 'कोसी का घटवार' का एक तुलनात्मक अध्यययन किया है। इस आलेख को हमने अनहद के शेखर जोशी अंक से साभार लिया है। ज्ञातव्य है कि रोहिणी जी इन दिनों कहानियों के तुलनात्मक अध्ययन के काम में गंभीरता से जुटी हुईं हैं। तो आइए पढ़ते हैं रोहिणी जी का यह आलेख।
चुप्पी में पगे शुभाशीष बनाम पचास साल का अंतराल और प्रेम को रौंदती आक्रामकता
डॉ0 रोहिणी अग्रवाल
अज्ञेय की कहानी 'पठार का धीरज' से कुछ दृश्य और संवाद . . .
थोड़ी दूर पर एक स्त्री स्वर बोला, 'तुम लोग वास्तव से भागना क्यों चाहते हो? कुंवर राजकुमारी को प्यार नहीं करता था।'
'फिर किसको करता था, हाथी पर सवार होकर रोज राजकुमारी से मिलने आता था तो . . .
''
''अपनी छाया को । चंद्रोदय होते ही वह कुंड पर आता था, हाथी पर सवार उसकी अपनी छाया कुंड के एक ओर से बढ़ कर दूसरे किनारे नहाती हुई राजकुमारी की जुन्हाई सी देह को घेर लेती थी। उसी लंबी बढ़ने वाली छाया से कुंवर को ऐसा प्रेम था। राजकुमारी तो यूं ही उसकी लपेट में आ जाती थी।''
''कुंवर, क्या तुम मुझे ऐसे ही प्यार नहीं कर सकते, .
. . उतावली करके उसको नष्ट करना . . ''
''धीरज, धीरज! हेमा, मैं तुम्हें चांदनी की तरह नहीं चाहता जो आवे और चली जावे, मैं तुम्हें
- मैं तुम्हें . . . अपनी छाया की तरह चाहता हूं, हर समय मेरे साथ, जब भी चांदनी निकले तभी उभर कर मुझे घेर लेने वाली . . . ''
''और जब चांदनी न हो तक क्या अंधकार मुझे लील लेगा . . . मैं खो जाऊँगी?'' राजकुमारी का शरीर सिहर उठा।
''तब तुम मुझी में बसी रहोगी राजकुमारी!''
''बात का न बनना ही उसका सार है, अपरिचित। प्यार में अधैर्य होता है तो वह प्रिय के आसपास एक छायाकृति गढ़ लेता है, और वह छाया ही इतनी उज्ज्वल होती है कि वही प्रेय हो जाती है, और भीतर की वास्तविकता न जाने कब उसमें घुल जाती है। तब प्यार भी घुल जाता है। . .
. अधैर्य एक प्रकार का चेतना का धुआं है जिससे बोध का एक-एक स्तर मिटता जाता है और अंत में हमारी आंखें कड़वा जाती हैं, हमें कुछ दीखता नहीं।''
प्रेम विडंबना का दूसरा नाम है।
समर्पण और प्रतिदान के सहारे अपने भीतर की रिक्ति को पूरने के लिए उठी मीठी सी टीस भरी भाव-हिलोर प्रेम का पर्याय बन सकती थी, लेकिन . . .
. . . यह लेकिन ही तो फसाद की जड़ है। 'लेकिन'
एक मामूली शब्द भर नहीं, कितनी ही सत्ताओं के आतंक और दंभ की टंकार है। वर्जना और फरमान बन कर जब यह रागात्मक सम्बन्ध के महीन तंतुओं से बुनी दो अस्मिताओं के बीच जा पसरता है तो हिंसा का नंगा नाच खेलना इसका पहला शौक बन जाता है। उफ! खाप पंचायतों का हैबतनाक खूनी मंजर याद आने लगा है न! और साथ ही उस खूनी मंजर के पक्ष में मूंछों को ताव देने की अड़ियल लंपट मुद्रओं का खौफ भी। बेशक इस समय अपने गृह-प्रदेश हरियाणा की खाप-पंचायतों का आतंक मुझे बौखलाए हुए है, लेकिन जानती हूं जरा सा संयत होते ही मैं अपने देश के कितने-कितने प्रांतों से गुजर कर पाकिस्तान की बर्बर कबीलाई संस्कृति में दफन होती प्रेम कहानियों को सूंघने लगूंगी, और फिर हवा की तरह हल्की हो कर काल की सीमाओं को मिटा दूंगी। हां, मैं जानती हूं स्थूल घटनाएं, अभिनेता और रंग-सज्जा बदल देने के बावजूद पात्र और कहानी ठीक वही रहते हैं - लैला-मजनू को प्रतिस्थापित करते रोमियो-जूलियट; हीर-रांझा के बिखरे सूत्रों को त्रासदी के नए आयाम तक ले जाते यूसुफ-जुलेखा . . . यह विडंबना नहीं तो क्या है कि हृदयों को आत्मविस्तार की ऊँचाइयों की ओर ले जाने वाला प्रेम अपनी विकास-यात्रा के पहले ही पड़ाव पर पुरजा-पुरजा कट मरता है। तो क्या प्रेम सामाजिक विधि-विधानों की अनुमति/सहमति से बनाया जाने वाला एक अनुष्ठान भर है? मनुष्य की सहजात मनोवृत्ति नहीं जो सभी वर्चस्वशाली सत्ताओं को अंगूठा दिखा कर अपना पात्र और समय खुद चुनती है?
लेकिन मैं इन प्रेम-कहानियों के हंताओं को देख कर इतना झल्ला क्यों रही हूं? बाहर-बाहर देखने में सारी ऊर्जा और एकाग्रता लगाती रही तो रूप बदल कर प्रेम और प्रियपात्र में पर्यवसित होते इन हंताओं को नहीं चीन्ह पाऊँगी। 'पठार का धीरज' की राजकुमारी हेमा चीन्ह गई बहुत जल्द क्योंकि अमृत रसधार बन कर प्रेम ने उसे आप्लावित किया ही नहीं, अग्निशिखा बन कर लीलने को झटपट आ पहुंचा। राग और समर्पण की मौन व्यंजनाओं के साथ सह'अस्तित्व की मुखर अभिव्यक्ति करने की बजाय राजकुमार वर्चस्व और इच्छा की निरंकुशता से उसके वजूद पर कोड़े बरसाने लगा। न! प्रेम के बदले आक्रांत कर लेने वाले अधिकार को पाकर ठगी सी रह गई है राजकुमारी। शायद प्रेम से बड़ी दूजी कोई छलना नहीं। और प्रेम से बड़ी पाठशाला भी। वह पगलाई सी घूमती 'ईको' में अपने दर्द का कोई सिरा पा लेना चाहती है। हर ताल-पोखर के शांत स्वच्छ ठहरे जल में अपलक अपनी ही छवि निहारते नारसिस को अपनी बाहों में बांध लेने को आतुर ईको . . . लेकिन कैसे तो ध्यानमग्न तपस्वी सा नारसिस अविचल-अडोल आत्मलीन है। नारसिस की तल्लीनता से छटपटाती है ईको . . . रात भर बिछोह की पीड़ा में तड़पते नारसिस की व्यथा से कहीं ज्यादा तड़पती है ईको। नादान नारसिस समझता है उसका प्रिय जल में रहता है, और जल प्रकाश की जुगलबंदी के बिना प्रिय से उसकी मुलाकात कराता ही नहीं। नारसिस नहीं जानता अपने से बाहर अपने को पाने की तलाश में मारा-मारा घूम कर अपने को ही छलनी कर रहा है। नहीं जानता कि अपने ही चारों ओर जिस द्रव को फैला कर रसमग्न घूम रहा है, वह प्रेम नहीं, आत्मप्रवंचना है।
प्रेम में पूरी सृष्टि का विस्तार है और अपनी गहराइयों का आधार भी। लेकिन . . .
फिर वही लेकिन! शेखर जोशी मुझे बरज देते हैं - प्रेम हर विडंबना का सहज स्वीकार है। प्रेम है, तभी तो विडंबनाओं के दुर्दांत हस्तक्षेप से अपने को बचाना आसान हो जाता है। प्रेम कोमलता और संवेदना के बहाने मनुष्यता के संरक्षण का पहला और आखिरी नाम है।
मैं यकायक एक गिलास, एक एनेमल का मग और एक अलमुनियम के मैसटिन में बांट कर चाय पीते गुसांई ('कोसी का घटवार'), लछमा और उसके पांच-छह साल के बेटे को देखने लगती हूं। मिहिल के पेड़ के नीचे पत्तों से छन कर आती छाया में, घट की 'खिस्सर-खिस्सर' ध्वनि के बीच, कोसी की छप-छप की लय-ताल में वक्त मानो थम गया है . . . पंद्रह बरस के बाद कैसा तो आकस्मिक मिलन . . . न शिकायतें न उलाहने . . . वर्तमान और विगत के साथ मानो .स्मृतियां भी दुम दबा कर भाग खड़ी हुई हैं . . . बस, एक प्रगाढ़ रागात्मक सम्बन्ध में बंधे तीन जन . . . अपनी-अपनी भूख और परिताप को अपने-अपने ढंग से मिटाते, तृप्त होते-दूसरे को परितृप्त करते वे तीन जन . . . .थमे हुए वक्त में मगर निर्वेद रस की धारासार बरसात हो रही है . . . कितना सुकून और संबल अंकुरा जाता है न इस उर्वर जमीन पर . . . और जड़ों का जड़ों से उलझा-बिखरा दूर तक फैला महीन पुष्ट तंतु जाल!
मैं यकायक एक गिलास, एक एनेमल का मग और एक अलमुनियम के मैसटिन में बांट कर चाय पीते गुसांई ('कोसी का घटवार'), लछमा और उसके पांच-छह साल के बेटे को देखने लगती हूं। मिहिल के पेड़ के नीचे पत्तों से छन कर आती छाया में, घट की 'खिस्सर-खिस्सर' ध्वनि के बीच, कोसी की छप-छप की लय-ताल में वक्त मानो थम गया है . . . पंद्रह बरस के बाद कैसा तो आकस्मिक मिलन . . . न शिकायतें न उलाहने . . . वर्तमान और विगत के साथ मानो .स्मृतियां भी दुम दबा कर भाग खड़ी हुई हैं . . . बस, एक प्रगाढ़ रागात्मक सम्बन्ध में बंधे तीन जन . . . अपनी-अपनी भूख और परिताप को अपने-अपने ढंग से मिटाते, तृप्त होते-दूसरे को परितृप्त करते वे तीन जन . . . .थमे हुए वक्त में मगर निर्वेद रस की धारासार बरसात हो रही है . . . कितना सुकून और संबल अंकुरा जाता है न इस उर्वर जमीन पर . . . और जड़ों का जड़ों से उलझा-बिखरा दूर तक फैला महीन पुष्ट तंतु जाल!
एक लम्बे अंतराल के बाद 'चिड़िया ऐसे मरती है' (मधु कांकरिया) कहानी के विजय और रेशमा भी मिले हैं। बिछोह का कारण वही सदियों पुराना - जालिम जमाने/परिवार की साजिशों/रंजिशों के चलते प्रिया का ब्याह . . . ससुराल . . .बच्चे . . . प्रिय इस ओर . . . सूनी आंखों से सूना आसमान, सूनी डगर, सूना आगत ताकता . . . परम एकाकी! रेशमा को देखते ही जैसे सूनापन पलक झपकते ही उम्मीद और सपनों के संग-संग झूमते मोहावेश का रूप धर लेता है - 'चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो'। विजय के भीतर का लोक अपनी ही ध्वनियों के भीषण कोलाहल से भर गया है जहां हर ध्वनि दूसरी ध्वनि का सिर कलम कर अपनी प्रेम-निष्ठा का सबूत देने के लिए आतुरतापूर्वक रेशमा तक अकेले ही पहुंचना चाहती है। बेहद मुखर है रेशमा - प्रिय के परिवार-जन की खैरियत की जानकारियां लेते हुए . . . बेहद बेसब्र इंतजार में बौखलाई बड़बड़ाहट के साथ भरा है विजय कि रेशमा ''मां और बहन से निकल कर मुझ तक आए तो मैं उसे बताऊँ कि मेरा प्रेम जैसलमेर के बालू के धोरों सा नहीं, वरन विंध्याचल पर्वत सा है। देख लो, आज भी मैं वहीं और स्मृतियों के उसी घाट पर खड़ा हूं, अकेला।''
''प्रेम प्रमाण देने या पाने की प्रतियोगिता नहीं है विजय बाबू'', मैं उस खिन्न, हताश ,कुंठित, पराजित, विद्वेषी आत्महंता युवक के कान में धीमे से फुसफुसा कर अपने पीछे आने का इशारा करती हूं। ''देखो''। कोसी का घटवार अब भी मौन तल्लीनता के साथ अर्थगर्भित चुप्पियों को पिए जा रहा है।
'खंडहर में बसी चुप्प्यिां अपनी निर्जनता और खोखलेपन से घबरा कर परित्राण के लिए दसों दिशाओं में भांय-भांय करता शोर गुंजा देती हैं विजय। . . . गुंसाईं को देखो, अपने भीतर मोह और आवेश को मार कर अपनी ही कैद से क्या रिहा हुआ कि वक्त को जीती पूरी सृष्टि उसके भीतर उतर आई। अकेलेपन में आत्मसार्थकता को तलाशना प्रेम की दीक्षा के बिना संभव नहीं।' मैं विजय की अविश्वास से भरी आंखों में झांकते बियाबानों में पहाड़ी सोतों की चपलता, कलरव और अमृत रसधारा भर देना चाहती हूं।
गुसांई और विजय प्रेम की दो भिन्न-भिन्न परिणतियां मात्र नहीं हैं, दो अलग-अलग दृष्टिसम्पन्न लेखकों के व्यक्तित्व का उद्घाटन भी है और एक गहरे दायित्व-बोध के साथ अपने वक्त को रचने का स्वप्न भी। शेखर जोशी के लिए गहराई, ऊँचाई और व्यापकता के अछोर कोनों से बंधा जीवन महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है एक क्षण, एक टीस, एक पुलक, एक रोमांच, जिसके भीतर गुंथी अनुभूति में जीवन का परम सत्य, निचोड़ और दर्शन अपनी समग्र गहनता के साथ व्यंजित हो उठता है। वे सीधी-सरल अनुभूतियों को वाणी देते प्रतीत होते हैं, लेकिन जहां से खड़े हो कर उसे सृष्टि के साथ 'संवादरत' देखते हैं, वहां वक्त के दरिया से छिटक कर वह 'अकेला' क्षण जीवन की तमाम संवेदनाओं और सम्बन्धों की संश्लिष्ट जटिलताओं से ओतप्रोत हो जाता है। छोटी सी कहानी 'सिनारियो',
'उस्ताद',
'बच्चे का सपना' हो या 'दाज्यू',
बदबू',
'कविप्रिया'
और
'तर्पण'
- ताउम्र अपने साथ रहते हुए भी इंसान कहां अपने को पहचान पाता है? फिर दूसरों को तुरंत एक छोटी सी मुलाकात के बाद समझने का दंभ कैसा? शेखर जोशी की कहानियां संवेदना के सहारे अपनी समझ को विकसित करने की कोशिशें हैं ताकि अपने दायरे से बाहर निकल कर जीवन और मनुष्य के साथ अपनी संगति एक मधुर लय-ताल के साथ निभाई जा सके। इसलिए सीधी, सरल और स्पष्ट होते हुए भी उनकी कहानियां सतही, इकहरी और 'छोटी' नहीं होतीं - जीवन की व्याख्या करती 'बड़ी' रचनाएं बन जाती हैं। 'कोसी का घटवार' की ही बात करुं तो एक ही घटना के इर्द-गिर्द बुना समय तड़फड़ाता-हांफता, गोल-गोल घूमता वहीं दम नहीं तोड़ता, अपनी हस्ती का विस्तार कर अतीत के गलियारे में चहकते जीवन के उल्लास का साक्षात्कार कर आता है और फिर उस रुपहले आलोक में अपने बदनुमा अंधेरों को झाड़ने की जुगत में जुट जाता है। नहीं, अंधेरों में घिर कर रोशनियों से रोशन लम्हों का स्यापा नहीं किया जा सकता। आशा, जिजीविषा, उत्साह और उल्लास के 'कवि' हैं शेखर जोशी जिन्हें शोर, रोमानियत और दिवास्वप्नों से सख्त परहेज है। वे जानते हैं कठोर यथार्थ आरी की तरह इंसान को चीरता चलता है। यह जीवन की विडंबना नहीं, मनुष्य का सहज प्राप्य है। और यही उसकी संघर्ष-यात्रा का प्रस्थान बिंदु भी। अपने ही रक्त और आंसुओं से टूटे-कुचले वजूद को जोड़ कर उसे अपनी मनुष्यता को बचाए रखना है। गुसांई से शेखर जोशी की अपेक्षाएं बड़ी हैं, इसलिए गुसांई के हौसले और विश्वास भी बड़े हैं। लेकिन पाठक के सामने शेखर जोशी उसे 'महामानव' की तरह प्रस्तुत नहीं करते, बल्कि ठीक उसकी (पाठक) तरह जीवन और नियति के क्रूर झटकों से बिंधे लहूलुहान इंसान के रूप में परिचित कराते हैं जिसके द्वार पर जिंदगी भर साथ देने के लिए 'सूखी नदी के किनारे का अकेलापन' धरना दे कर बैठ गया है। दिग्-दिगंत तक फैली भांय-भांय करती निर्जनता, 'रेती-पाथरों के बीच 'टखने-टखने तक फैला नदी का पानी' और पहाड़ की उन्नत चोटियों को जेठ के ताप से झुलसाती चिलकती धूप - शेखर जोशी वातावरण नहीं बुनते, गुसांई के फटेहाल यथार्थ को बेलाग ढंग से उद्घाटित कर देते हैं, बस। रेतीले मरुस्थल की वीरानगियों में भटकते पहाड़ी आदमी की छटपटाहट . . . यहीं कहीं जीवनदान देती स्मृतियों का एक भरा-पूरा अतीत है जहां फौजी बन जाने के सपने को पूरा करने की खुरदरी दृढ़ता है और फौजी बन कर उस सपने के इंद्रजाल को जीने की रसनिमग्नता भी। फौजी बनने का सारा संघर्ष मानो लछमा को शान से ब्याह लाने का उपक्रम था। फौजी बन कर (अनाथ-अनाम होने की तिरस्कारपूर्ण अवहेलना के बरक्स अपनी सुनिश्चित अस्मिता पा कर) गुसांई ने पाई है आत्मविश्वास से लबरेज निश्चिंत लापरवाही। लछमा से क्योंकर न ब्याहेंगे लछमा के परिवार वाले? लेकिन नहीं ही ब्याह हो पाया - ''जिसके आगे-पीछे भाई-बहन नहीं, माई-बाप नहीं, परदेश में बंदूक की नोक पर जान रखने वाले को छोकरी कैसे दे दें हम?'' अपने बलबूते अपनी शख्सियत बनाई जा सकती है, लेकिन मुकम्मल पहचान सामाजिक सम्बन्धों और व्यवस्था के मकड़जाल में फंस कर दो-दो हाथ करने के बाद ही मिलती है। पंद्रह बरस की फौजी नौकरी के बाद गुसांई बेशक अकेला गांव लौटा है, लेकिन वक्त ने आवेश और आकांक्षाओं के उफान को बांध कर उसे संयमी और विवेकशी बना दिया है। हंसती-खिलखिलाती जीवन के आलोक से भरपूर लछमा के इर्द गिर्द मंगलकामनाओं का रक्षा-कवच बुनना उसकी दिनचर्या है और साथ ही गंगनाथ (भगवान) के कोप की आशंका से जूझना भी। वह जानता है गंगनाथज्यू की कसम खाकर लछमा ने उसके लौट आने और किसी अन्य से विवाह न करने की प्रतिज्ञा की थी। झूठी कसम खाने का कोप कहर बन कर लछमा पर न टूट पड़े . . . वह सर्वांग सिहर जाता है और चाहता है लछमा से एक भेंट कर आग्रह करना कि वह ''गंगनाथ का जागर लगा कर प्रायश्चित जरूर कर ले। देवी-देवताओं की झूठी कसमें खाकर उन्हें नाराज करने से क्या लाभ?'' अनुभव और सबक के साथ निरंतर वयस्क होती समझ के परिपार्श्व में विगत को गुनता-बुनता गुसांई न जितेन्द्रिय है, न संन्यासी। बस, अपनी सीमाओं को पहचानता है और सामाजिक मर्यादा को भी। हौले-हौले एक-एक डग बढ़ाते रहने से भी इंसान दूर तक अलंघ्य दूरियां नाप आता है, गुसांई भले ही न जाने, शेखर जोशी खूब जानते हैं, और एक मितभाषी दृढ़ता के साथ पाठक तक अपनी इस समझ को मूल्य बना कर संप्रेषित भी कर देते हैं।
'और तुम विजय?' मैंने प्रश्न करती निगाहों से विजय को घूरा, इस विश्वास के साथ कि गुसांई के उदात्त चित्र के बरक्स अपनी लघुता देख पानी-पानी हो जाएगा। लेकिन उसकी आंखों में एक अड़ियल अहं भाव था - 'गुसांई यथार्थ पात्र नहीं है। वह एक रोमानभरी कवि-कल्पना है जो प्रेम को दर्द और आत्मपीड़न में रिड्यूस कर शहादत का सुख पाना चाहता है।'
मैं निर्वाक्! बेशक गुसांई/शेखर जोशी से जमाना अब तक पचास बरस आगे खिसक चुका है, लेकिन इस दौरान मैं भी तो साथ-साथ आगे बढ़ी हूं। फिर इस सहयात्रा में विजय जैसी पीढ़ी कब हाथ छुड़ा कर अलग हो गई? या कि नारसिस और 'पठार का धीरज' के राजकुमार की पीढ़ी एक समानांतर यात्रा तय करती रही और अपनी मान्यताओं-महिमामंडनों को बुनने-गुनने की तल्लीनता में हमने उनसे कभी संवाद करने की कोशिश ही नहीं की? और न ही जाना कि अकेली, उद्धत, ओवरप्रोटेक्टेड और आत्मकेन्द्रित पीढ़ी संवादहीनता का त्रास झेलते-झेलते संवेदनशून्य हो जाएगी? वैचारिक-भावनात्मक टकराहट भले ही कितनी कष्टकर क्यों न हो, टूट कर जुड़ने के बाद दूसरे के अहं/वजूद की स्वीकृति केा तो अपने व्यक्तित्व में समा लेती है।
मैं निर्वाक्! बेशक गुसांई/शेखर जोशी से जमाना अब तक पचास बरस आगे खिसक चुका है, लेकिन इस दौरान मैं भी तो साथ-साथ आगे बढ़ी हूं। फिर इस सहयात्रा में विजय जैसी पीढ़ी कब हाथ छुड़ा कर अलग हो गई? या कि नारसिस और 'पठार का धीरज' के राजकुमार की पीढ़ी एक समानांतर यात्रा तय करती रही और अपनी मान्यताओं-महिमामंडनों को बुनने-गुनने की तल्लीनता में हमने उनसे कभी संवाद करने की कोशिश ही नहीं की? और न ही जाना कि अकेली, उद्धत, ओवरप्रोटेक्टेड और आत्मकेन्द्रित पीढ़ी संवादहीनता का त्रास झेलते-झेलते संवेदनशून्य हो जाएगी? वैचारिक-भावनात्मक टकराहट भले ही कितनी कष्टकर क्यों न हो, टूट कर जुड़ने के बाद दूसरे के अहं/वजूद की स्वीकृति केा तो अपने व्यक्तित्व में समा लेती है।
शिल्पगत बारीकियों और संवेदना की व्यंजनाओं के सहारे मैं 'कोसी का घटवार' कहानी की घटनाओं को अध्यापकीय लहजे में उद्घाटित नहीं करना चाहती। स्त्री के प्रति द्वेष रखती विजय ('चिड़िया ऐसे मरती है') की मनोग्रंथि को गुसांई के सहारे खोल लेना चाहती हूं कि दूसरों (स्त्री)
का सम्मान करने का बड़प्पन आत्मादर का भाव अर्जित करने के बाद ही पाया जा सकता है।
गुसांई की तुलना में शहादत का भाव विजय में कूट-कूट कर भरा है - अपने को अदृश्य कर देने के जतन में नहीं, अपनी महानता की डोंडी पीटने और प्रतिपक्षी (स्त्री) पर कटाक्ष करने में। यह शहादत कहीं आत्मदया का लिहाफ ओढ़ कर समूची स्त्री-जाति की 'व्यावहारिकता' पर व्यंग्य करती है - (स्त्रियां) ''अतीत से मुक्त होते ही वर्तमान को साध लेती हैं, इसलिए जिंदगी में हमसे कहीं ज्यादा कामयाब होती हैं'' तो कहीं एक नैतिक सीख के रूप में अपनी कायरता को ढांपने का जतन करती है - ''मैं आज भी उस रिश्ते को घाटे का सौदा नहीं मानता बल्कि यह मेरे जीवन का वह अनुभव है जिसने मुझे राजा भर्तृहरि की तरह जिंदगी के सत्य-असत्य का अनुभव कराया; जिसने मेरे स्वप्निल मानस, कल्पनाशील आत्मा और इंद्रधनुषी मिजाज पर यथार्थ का गिलाफ चढ़ाया . . . स्वप्न और यथार्थ के थपेड़े खाते वे लम्हे जो मुश्किल से पच्चीस मिनट से भी कम के रहे होंगे, पर जिन्होंने औरत और जिंदगी पर मेरी समझ को पूरी तरह बदल ही डाला था।'' और फिर अपनी 'अव्यावहारिकता'
पर कुर्बान जाती आत्ममुग्धता के साथ प्रेमिका को खारिज करने की उद्दण्डता तो है ही '- ''मुझे दुख है कि मैंने उसे खो दिया; पर उससे ज्यादा दुख इस बात का है कि उसने भी अपने आपको खो दिया।'' एक गहरी आश्वस्ति का भाव कि हमारे बिना तुम्हारी नैया का खेवनहार और कोई कैसे हो सकता था भला!
विजय के लिए प्रेम भीषण गर्मी में कुल्फी का लुत्फ उठाने की ऐयाशी है। बेकारी के दिनों में जब सब कुछ एक ही बिंदु पर ठहर गया है, प्रेम उसे गति का आभास देता है। मारवाड़ी विजय का बंगाली साहित्यानुराग से भर उठना और बंगालन रेशमा का हिंदी साहित्य को कंठस्थ कर डालना - दोनों अपनी-अपनी जगह प्रेम का कौतुकपूर्ण खेल खेल रहे हैं। लेकिन वक्त की तरह प्रेम भी कभी एक सीध में नहीं चलता। हाथ में अंगारों की लुटिया लिए वह हर कदम पर अग्नि परीक्षा का आयोजन कर डालने को बेताब रहता है। रेशमा की मां कैंसरपीड़ित न होती, डॉक्टरों ने उसके जीवन की अधिकतम अवधि छः माह न बताई होती, और प्राण त्यागने से पूर्व बेटी के हाथ पीले करने का हठ न पाले होती, तो भी प्रेम विजय-रेशमा की प्रतिबद्धता जानने के सौ-सौ अवसर जुटा लेता। फिलहाल वह रेशमा के साथ लाज-हया ताक पर धर कर जीने का आधार पा लेना चाहता है। ''मुझे भगा ले चल'' - रेशमा की सोच जितनी स्पष्ट और भविष्योन्मुखी है (रेशमा में पारो की अनुगूंज सुनाई पड़ रही है न जो रात के अंधेरे में देवदास के कमरे में आई है और अब उससे अपने पैरों में शरण देने की गुहार लगा रही है), विजय की उतनी ही अस्थिर और पलायनवादी। वह तो आसमान में उड़ती पतंग था, रेशमा के प्रस्ताव ने बिना पेंच लड़ाए उसे काट दिया। औंधे मुंह जमीन पर गिरा तो 'कमाऊ पूत' होने के बावजूद इतना बड़ा कदम उठाने की हिम्मत जवाब देने लगी। अपनी 'कापुरुषता'
को उदारमना पुरुष भी नहीं स्वीकारता। विजय ही क्योंकर स्वीकारे? निम्नमध्यवर्गीय युवक के पास बहानों की कोई कमी तो होती नहीं। विजय चुन-चुन कर अपने चारों ओर मजबूरियों की मजबूत दीवार चुन लेने में उस्ताद। मजबूरी नं0 एक, अभाव! ''मैं घर चला आया और देखता रहा अपनी मां और युवा बहन को, वृद्ध होते पिता को। अपने 110 वर्गफीट के सीलन भरे, पलस्तर उखड़ी दीवारों वाले घर को।'' मजबूरी नं0 दो - प्रेयसी को आसमान पर बैठा देने की रोमानियत को ही प्रेम और पुरुषार्थ समझने की हठधर्मिता। ''तेरे जैसे चांद को इस अंधेरे में कैसे रखूं?'' लच्छेदार बातें कभी दूसरे की जमीनी मजबूरियों को नहीं समझ पातीं। मजबूरी नं0 तीन - आत्मविश्वास का अभाव। ''मैं डर गया था, जिंदगी से दूर अपने परिवारजनों के सामने जिंदगी को इतनी जल्दी अपने आगोश में लेने से . . . यदि इस चांद को मैंने धरती पर उतार दिया तो सब कुछ चौपट हो जाएगा।'' भाग्य कोरी किताब लेकर विजय के सामने उपस्थित है। अपनी तकदीर विजय को खुद लिखनी है, लेकिन वह अपना घोंसला बनाने की कला नहीं जानता। विच्छेद को उसने हाथ पकड़ कर खुद स्वीकारा है। जड़ता और जड़ता! विजय की जड़ सोच देवदास की आत्मघाती रोमानियत में अपने अस्तित्व की सार्थकता देख लेना चाहती है - ''मैं स्वयं अपनी पीड़ा का ईवश्र था, इस कारण नहीं चाहता था कि उसके संसार में मेरे चलते कुछ भी खलबली मचे।'' देवदास से अलग परदुखकातरता और हितैषी होने के दावे अलबत्ता खूब हैं विजय के पास।
गुसांई विस्फारित नेत्रों से विजय को एकटक घूर रहा है - 'इतना दंभ कि तुमने भाग्य को ठोकर मार दी?' वह जरा सा उत्तेजित भी हो गया है - 'या कि तुम रेशमा से प्यार ही नहीं करते थे? रेशमा के बहाने सपनों से खेल रहे थे?'
'माता-पिता के विरोध की बात दूर, तुमने तो उन्हें सूचित भी नहीं किया।' गुसांई का रोम-रोम लछमा के पिता की विवाह-अस्वीकृति से झनझना गया। न, अपमान नहीं, हताशा! किन्हीं नई रणनीतियों को क्रियान्वित करने की आवश्यकता कि वे कन्यादान के लिए राजी हो जाएं। इसके लिए उसे वक्त चाहिए। धीरज और इंतजार . . . लछमा की तरह गुसांई भी इन दोनों नियामतों की कीमत जानता है। यही वादा ले कर तो वह उस साल छुट्टियां खत्म होने पर पलटन लौटा था। विश्वास की डोर दोनों तरफ मजबूत थी कि परिवार और बिरादरी की सहमति लेकर अपना आशियाना बसा लेंगे वे दोनों।
लछमा की तुलना में रेशमा अधिक साहसी और डाइनेमिक पात्र है, लेकिन उससे कहीं ज्यादा मिजरेबल भी। वह स्त्री की पारंपरिक छवि - पोटली - होने की विवशता का प्रतिकार भी है और लछमा की तरह उसका विस्तार भी। आश्चर्य है कि 'कोसी का घटवार' पाठ-विश्लेषण की सर्जनात्मक प्रक्रिया में जहां गुसांई और लछमा दोनों के अंतःराग की कहानी बनी रहती है, वहीं 'चिड़िया ऐसे मरती है' कुंठित विजय को परे धकेल कर हाशिए पर ठिठकी रेशमा को केन्द्र में ले आती है। बेशक दोनों कहानियां आधी सदी के अंतराल को पार कर संवेदना और चिंता के एक ही बिंदु पर जा मिलती हैं - पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था की पड़ताल की जरूरत, गोकि दोनों ही कहानियों में प्रत्यक्षतया इस सवाल को बिल्कुल नहीं उठाया गया है। 'कोसी का घटवार' में इसलिए कि 'नई कहानी' के जमाने में 'मनुष्य' की अस्मिता को प्रकाशित-संवर्धित करने का जज्बा अधिक था, उसे उसके समाज, मनोविज्ञान और भूगोल के केन्द्र में रख कर भीतर तक समझने-विन्यस्त करने की व्याकुलता तब तक नहीं पनपी थी। 'नई कहानी' आदर्श और रोमान का विरोध करने के दावे भले ही करे, तल्ख यथार्थ को उकेरने की छटपटाहट में वह स्टीरियोटाइप्स में अंतर्निहित विडंबनाओं को उलट-पलट कर देख जरूर लेती थी, उन्हें झकझोर कर तोड़ने का साहस अपने भीतर नहीं पाती थी। इसलिए स्टीरियोटाइप्स को प्रश्नांकित करने के बावजूद स्टीरियोटाइप्स और अपना-अपना सलीब ढोती विडंबनाएं 'नई कहानी' में यथावत् बने रहते हैं। इसीलिए ये कहानियां एक मार्मिक हिलोर के साथ पाठक के अंतर्मन को छूती हैं, लड़ने की ऊर्जा से भीतर की आग को लहकाती नहीं हैं। 'नई कहानी' के उलट 'चिड़िया ऐसे मरती है' में पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के पुनरीक्षण का सवाल इसलिए नहीं आया है कि मधु कांकरिया अस्मिता विमर्श को बेमानी मानती हैं। प्रचलित सोच के अनुरूप साहित्य को लिंग, धर्म, वर्ग, वर्ण आदि विभाजनों से परे वे एक समग्र बोध का नाम देती हैं जो सारे पाठकों में साधारणीकरण की समान प्रक्रिया उद्बुद्ध कर एक सा आस्वाद कराता है। आज जब शिक्षा एवं जनतांत्रिक चेतना के प्रसार के कारण हाशिए पर खड़ी अस्मिताएं अपने विवेक और दृष्टि से साहित्यिक-सामाजिक संरचनाओं को पढ़ने-गुनने लगी हैं और परंपरागत दृष्टि से 'मनुष्य' नाम से सम्बोधित अस्मिता को अपनी शोषक ताकत के रूप में चीन्हने लगी हैं, तब साहित्य को अखंड-समग्र मानने की हठधर्मिता उनके लिए 'सवर्ण मर्द मानसिकता' का पर्याय बन जाती है। कहने की जरूरत नहीं कि विजय इसी सवर्ण मर्द मानसिकता का प्रतिरूप है। सम्बन्ध-विच्छेद के लिए अपने पलायन में छुपे नकार को उत्तरदायी मानने की बजाय वह 'बाजार बनी प्रेमिका' पर सौ-सौ लानतें भेज कर उसे ही कठघरे में खींच लाता है। यह वही शातिर पैंतरेबाजी है जो पहले प्रेम के नाम पर स्त्री का 'आखेट' करती रही है, और फिर उससे मन भर जाने पर सती बरक्स कुलटा की अवधारणा रच कर उसे गरियाने लगती है।
मैं देख रही हूं, गुसांई ही नहीं, लछमा भी विजय को झिड़क देने के लिए कसमसा रही है। उस बेचारी (रेशमा) का इतना सा कसूर कि रेडीमेड कपड़ों की दुकान पर 'भारी डिस्काउंट का आखिरी दिन' की सूचना पढ़ कर अपने शिशु के लिए कपड़े खरीदने दुकान में घुस गई है; व्यस्त भाव से दुकानदार से मोलभाव कर रही है; और पूरी तरह भूल चुकी है कि दुकान के बाहर उसका भगोड़ा प्रेमी प्रतीक्षा कर रहा है। हो सकता है, भूली न हो; उसकी उपस्थिति से बाखबर हो, ठीक वैसे ही जैसे अपने पति के बटुवे की हैसियत से है। चयन का मौका आया तो प्राथमिकता पत्नी धर्म को देकर घर-गृहस्थी के खर्चे में कुछ बचत कर लेना चाहती हो। जानती है कि सुघड़ गृहिणी की बचत पूरे परिवार की अतिरिक्त आय बन जाती है। हो सकता है, विगत प्रेमी के चेहरे पर पुती प्रणय-याचना उसे लिजलिजी लगी हो - 'पराए माल' पर लार टपकाने की कुत्सित आदिम मनोवृत्ति . . . और अपनी ही हताशा को धोने के लिए वह स्वयं एकांत चाहती हो।
विजय प्रतिकार में आगे बढ़ आया है। गर्व से ऐंठी खीझ के साथ उसने हम तीनों को ठोक-पीट कर बता दिया है कि ''न अतीत की कोई चांदनी छिटकी हुई थी उसके चेहरे पर और न ही वर्षों बाद हुए मिलन की कोई उत्तेजना, न लगाव और रोमांच ही था।''
लछमा और गुसांई ने एक-दूसरे पर भरपूर नजर फेंक कर वितृष्णा से मुंह मोड़ लिया है। क्या कहें इस आत्मकेन्द्रित अड़ियल से? 'जिंदगी की हकीकतों के सामने इन रोमानी बातों की कोई कीमत नहीं विजय बाबू।' अपने पर संयम रख मैं तफसील से विजय को पंद्रह बरस बाद मिले गुसांई-लछमा की भेंट के बारे में बताती हूं।
''तुम?'' जाने लछमा क्या कहना चाहती थी, शेष शब्द उसके कंठ में ही रह गए।
''हां, पिछले साल पलटन से लौट आया था, वक्त काटने के लिए यह घट लगवा लिया।'' गुसांई ने . . . होंठों पर असफल मुस्कान लाने की कोशिश की।
कुछ क्षण तक दोनों कुछ नहीं बोले। फिर गुसांई ने ही पूछा, ''बाल-बच्चे ठीक हैं?''
आंखें जमीन पर टिकाए, गरदन हिला कर संकेत से ही उसने बच्चों की कुशलता की सूचना दे दी। जमीन पर गिरे एक दाड़िम के फूल को हाथों में लेकर लछमा उसकी पंखुड़ियों को एक-एक कर निरुद्देश्य तोड़ने लगी और गुसांई पतली सींक लेकर आग को कुरेदता रहा।
बातों का क्रम बनाए रखने के लिए गुसांई ने पूछा, ''तू अभी और कितने दिन मायके ठहरने वाली है?''
अब लछमा के लिए अपने को रोकना असंभव हो गया। टप-टप-टप, वह सर नीचा किए आंसू गिराने लगी। सिसकियों के साथ-साथ उसके उठते-गिरते कंधों को गुसांई देखता रहा। उसे यह सूझ नहीं रहा था कि वह किन शब्दों में अपनी सहानुभूति प्रकट करे। इतनी देर बाद सहसा गुसांई का ध्यान लछमा के शरीर की ओर गया। उसके गले में काला चरेऊ (सुहाग-चिन्ह) नहीं था। हत्प्रभ सा गुसांई उसे देखता रहा। . . . ''
''विजय, तुम अपने से अलग रेशमा के वजूद को किसी और के साथ जुड़ा देख ईर्ष्या से फुंक गए . . . और गुसांई . . . लछमा की देह के साथ सट कर बैठे उसके बच्चे को देख कर जैसे उसे लछमा के हिस्से का सारा प्यार उंडेल देने का बहाना मिल गया हो। इसीलिए कहती हूं, प्यार देह की चीज नहीं, हृदय का संवेदन है - लचीला तरल संवेदन। रूप बदल कर कभी वात्सल्य में ढल जाता है, कभी जिम्मेदारी में। मूलतः वह समर्पण ही है।'
'रेशमा को खुद ही क्रूर जमाने के हवाले कर अब तुम दोनों की दुनिया अलग होने का रोना कैसे रो सकते हो बेटा?' गुसांई ने स्नेह से विजय को पुचकार दिया, 'मेरी दुनिया तो समाज ने मिल कर लूट ली थी। फिर भी लछमा मुझसे जुदा कहां हुई?' लछमा की दीठ में आत्मविश्वास और तृप्ति छलक रही थी।
'न बेटा, औरत हो या मर्द, किसी के सरोवर का पानी नहीं सूखता। बेमानी है तुम्हारा यह शिकवा कि ''कैसे लहरों के साथ दौड़ने वाली, कविता, स्वप्न और सौन्दर्य में ही विचरण करने वाली एक खरगोश लड़की सिर्फ दाल-रोटी की ही हो कर रह गई।'' रेशमा के दर्द में घुली लछमा मानो खुद रेशमा हो गई हो।
'न, अतीत के प्रेत से मुक्ति इतनी आसान नहीं होती बेटा। मर्द हो या औरत, एक सी फितरत लेकर पैदा होता है इंसान। बस, फर्क यह है कि औरत बियाबान में उगे कीकर की तरह आप ही आप अपने सीमित संसाधनों के सहारे जीना सीख लेती है। अतीत की कड़वाहट जहर बन कर उसकी रगों में भी उतर जाना चाहती है, लेकिन अपनी गोद में खेल रहे जीवन को बचाने के लिए वह अतिरिक्त मुस्तैदी से नीलकंठ बन जाती है। अपने ही दर्द का उत्सव मनाने या बदले की झोंक में खून के बवंडर उठा देने की ऐयाशी उसके नसीब में कहां?' लछमा के आगोश में रेशमा कब दुबक गई, पता ही नहीं चला।
'लोभ और हिकारत की नजर से औरत को देखने का संस्कार दिल से निकाल फेंको बेटा। यह तुम जैसों को बहुत छोटा बना देता है।' लछमा कुछ ज्यादा ही सख्त हो गई, 'जान लो कि प्रेम पहले-पहल लोभ का चोला पहन कर ही आता है, लेकिन फिर दृष्टि पाते ही अपना व्यक्तित्व सिरजने आगे-आगे बढ़ता रहता है। तुम्हारी तरह उसी बिंदु पर टिक कर खड़ा रहा तो वणिक्बुद्धि से प्रेम और प्रिय के बरक्स अपने लोभ को ही तोलता रहेगा। रेशमा बाजार नहीं बनी बेटा, अलबत्ता तुम बाजार से अलग कभी कुछ हुए ही नहीं।'
मैं बाग-बाग! लगा यही समय है विजय को बता दूं कि पंद्रह साल के बिछोह के बावजूद लछमा और गुसांई का सरोवर पानी से ही लबालब नहीं भरा, कमल-फूलों से भी अटा पड़ा है। कैसा अबूझ संतुलन बैठाया है दोनों ने प्रेम और दायित्च, विगत और वर्तमान में कि अलग-अलग जमीन पर खड़े हो कर वे जमीन के नीचे जड़ों के महीन जाल से भी जुड़े हैं और ऊपर आसमान में तैरते शुभाशीषों से भी। एक साथ निःसंग और आप्लावित! कुछ पाने की आकांक्षा नहीं, दे देने की व्याकुलता। दाता होने के बड़प्पन-भाव के साथ नहीं, दुख-दारिद्र्य दूर कर पाने के एक अनिर्वचनीय संतोष के साथ। लछमा के घर दो दिन से नमक-तेल खरीदने के पैसे नहीं हैं, भूख को पेट से बांध कर बेटा उसकी अभावग्रस्तता की डोंडी पीट रहा है और लछमा है कि आर्थिक मदद के लिए पेंशनयाफ्ता गुसांई के बढ़े हाथ को अदब के साथ परे ठेल देती है - ''गंगनाथ दाहिने रहें, तो भले बेरे दिन निभ ही जाते हैं जी। पेट का क्या है, घट के खप्पर की तरह जितना डालो, कम हो जाए। अपने-पराए प्रेम से हंस-बोल दें, तो वही बहुत है दिन काटने के लिए।'' संन्यांसी नहीं है गुसांई। लछमा के नकार ने मानो उसके अस्तित्व और सम्बन्ध दोनों को नकार दिया है। एकदम फालतू और बाहरी हो जाने की प्रतीति! कड़वाहट ने उसकी जबान को कड़ा कर दिया है। अपने ही 'होने' पर चाबुक बरसाने लगा है वह - ''दुख-तकलीफ के वक्त ही आदमी आदमी के काम नहीं आया तो बेकार है। स्साला! कितना कमाया, कितना फूंका हमने इस जिंदगी में। है कोई हिसाब! पर क्या फायदा! किसी के काम नहीं आया। इसमें अहसान की क्या बात है? पैसा तो मिट्टी है स्साला! किसी के काम नहीं आया तो मिट्टी, एकदम मिट्टी!'' तो क्या विजय की तरह खौलते-उबलते वह आत्माभिमान से जगर-मगर प्रेयसी को ही गरियाने लगे? विजय की तरह यथार्थ की तीखी लहर ने उसे भी भीतर तक छील दिया है कि ''वर्षों पहले उठे हुए ज्वार और तूफान का वहां (लछमा के चेहरे पर) कोई चिन्ह शेष नहीं था। अब वह सागर जैसे सीमाओं में बंध कर शांत हो चुका था।'' चौराहा अप्रत्याशित मिलन के अवसर जुटाता है तो बिछोह की पीठिका भी तैयार करता है। हताशा और स्वप्न-भंग के बीच गुसांई इस सत्य को जानता है। दोस्ताना भाव से विजय की पीठ पर हाथ रख कर वह उसी के शब्दों में अपने दर्द को साझा कर रहा है कि हां, तुम्हारी तरह ''भावनाओं का झीना-झीना सा पुल हम दोनों के बीच भी बनने ही लगा था कि तभी (लछमा के प्रतिवाद से) सब कुछ कच्चे कांच सा दरक उठा।'' लेकिन यह तो निरी एक प्रतिक्रिया है, सरोवर में कंकर फेंकने से उठी एक हिलोर।
'तुम क्रिया-प्रतिक्रिया को आप्लावनकारी सत्य मान कर पलायन कर गए विजय, मैं उस पल के भीतर डुबकी लगा कर लछमा के द्वीप पर दूर तक तैर आया।''
विजय के चेहरे पर आश्चर्य फैल गया। कैसी अनहोनी बात कह रहे हैं गुसांई बाबा। मैं तो वहीं उस पल के ऊपर ठिठका खड़ा रहा और लानतों-मलामतों का कीचड़ फेंक-फेंक कर उसे दलदल बनाता गया कि ''क्या यह वहीं रेशमा है जो सारी दुनिया भूल मुझमें डूब जाया करती थी, जो आज इतने वर्षों बाद मिली भी तो क्या मिली।''
'औरत की दुनिया हम मर्दों की तरह इतनी सीधी-सपाट नहीं होती बेटा,' गुसांई ने आत्मग्लानि से पुते विजय के चेहरे पर स्नेह से उंगलियां फिरा दीं। 'अपने घेरे से बाहर निकलो तो पाबंदियों में जकड़ी औरतें असीम विश्वास के साथ जीवन को सींचती दीख जाती हैं।''
'पर बाबा, मैंने रेशमा को बाजार बनते देखा है।' प्रतिवाद का हल्का सा स्वर विजय की ओर से।
'औरत को इंसान बनने की मोहलत तो हम देते नहीं बेटा, फिर पल-पल रूप बदलने की इजाजत कैसे दे देंगे? हां, मायाविनी कह कर हम ही उसे धिक्कारते रहते हैं क्योंकि पल-पल उग्रतर होती हमारी लालसाएं उससे क्या कुछ नहीं पा लेना चाहतीं।' गुसांई में समंदर का धीरज और अनुभव-राशि से अर्जित मनुष्यता का अथाह भंडार!
'किसी को दे कर हम खुद को बड़ा या सुखी नहीं करते, पाने वाले को छोटा कर देते हैं। दान ऐसा हो जो किसी को न दिखे, बस, हवा और पानी की तरह उसकी जमीन को नम और उर्वर बना दे।'
मुझे मानो सवाल का जवाब मिल गया कि क्यों यह कहानी 'कोसी का घटवार' दिल को इतना छूती है। परंपरागत कहानियों सरीखी बिछोह की पीर इसमें नहीं है। होती तो लैला-मजनूं आदि के किस्सों की श्रेणी में सूचीबद्ध हो कर स्मृति से उतर जाती लेकिन यह जो कलेजे में इतनी दूर जा कर धंसी है कि अलौकिक सुख बन कर मेरे भीतर की 'स्त्री'
को पुलकाए जा रही है, वह इसीलिए न कि 'दान ऐसा हो जो किसी को न दिखे, बस, हवा और पानी की तरह उसकी जमीन को नम और उर्वर बना दे।'
न, चोरी-चोरी बेहद संकोचपूर्वक लछमा के आटे में दो-ढाई सेर अतिरिक्त आटा मिलाता गुसांई दानवीरता के दावों से बहुत दूर है। अपनी हर कहानी के साथ पात्रों के जरिए पाठक की भावभूमि का उदात्तीकरण करते शेखर जोशी इतने क्षुद्र व्यक्तित्व में गुसांई को विघटित नहीं कर सकते। उनकी नायिका प्रेम के दो बोल पा कर बुरे दिन काटने का हौसला संजोए है तो नायक प्रेम के मर्म को समझ कर जीने का औदात्य। और प्रेम है कि अपनी फितरत से बाज नहीं आता। लम्बे बिछोह के बाद क्षणिक मिलन की घड़ियों में भी अग्निपरीक्षा का सरंजाम! प्रेम के घनत्व के साथ-साथ मनुष्यता की गहराई और ऊँचाई मापने के जतन भी। वासना (मांग और रोमानियत, वर्चस्व और भावुकता) को गला कर ही प्रेम दमकता है। विजय प्रणयी याचक की क्षुद्रता से मुक्त नहीं हो पाया है; गुसांई नीर भर बदली बन कर लछमा की दरकी जमीन पर बरस गया है। स्त्री न होते हुए भी शेखर जोशी स्त्री-मानस को बखूबी पढ़ लेते हैं। यहां यह कहना बिल्कुल जरूरी नहीं कि स्त्री होने के बावजूद मधु कांकरिया स्त्री-मन के अंदेशों, द्वंद्वों, आशंकाओं और भीतर की सिहरनों को कहानी में कहीं भी व्यक्त नहीं कर पातीं। दरअसल रेशमा को स्त्री/मनुष्य रूप में उन्होंने देखना चाहा ही नहीं। वह कहानी की कल्पना में बाजार यानी एक रिजेक्शन के रूप में उभरी है - स्टीरियोटाइप्स को पुष्ट करती प्रखर सोच के साथ। मितभाषी शेखर जोशी और उनसे भी ज्यादा मितभाषी गुसांई . . . घरघराते कंठ से लछमा को पुकार कर पीठ मोड़ने वाला चुप्पा गुसांई भीतर की हलचल को न शब्दों में बांधना जानता है, न चेहरे पर पोतना। विजय और मधु कांकरिया दोनों इस कला में सिद्धहस्त हैं। गुसांई प्रेमियों के मनोविज्ञान का अपवाद तो नहीं। मैं विजय के सहारे उसके लछमा-मिलन के रोमांच को गुनने लगी हूं। शब्द शेखर जोशी के नहीं, मधु कांकरिया के हैं - ''उसकी आवाज में वही प्रेम, वही जादू था और पलक झपकते ही फिर एक आनंद नगरी का निर्माण होने लगा था, जिसमें सिर्फ मैं था और वह थी। उसने कहा, चलिए, कहीं बैठ का चाय पीते हैं। मैं निहाल हो गया। आज बहुत सारा जी लूंगा मैं। थोड़ी देर तक सपनों का एक रंगीन और खुशनुमा टुकड़ा हमारे साथ चलता रहा।''
स्त्री के पास कुछ हो न हो, छठी इन्द्रिय खूब सक्रिय होती है . . . और वर्जनाओं के बोझ तले उसकी चेतना में सही-गलत का मूल्यांकन करते रहने की चौकसी भी। प्रेमी से मिलने का रोमांच और पतिव्रता होने का दबाव - तमाम रोमांच भरे आह्लाद के बावजूद संस्कारों की लक्ष्मण रेखा के पार प्रेमी 'पर-पुरुष'
ही रह जाता है। मधु कांकरिया चूंकि रेशमा की ओर से बात नहीं करतीं, मैं लछमा की सिहरन और बढ़ती धड़कन के जरिए विजय की प्रेमातुरता के प्रति रेशमा की रिजर्वेशन को जान जाती हूं। विदा की वेला में गुसांई का स्वर कातर हो आया है। अटक-अटक कर वह जिस भाव-विह्वल स्वर में लछमा का नाम पुकार रहा है, उससे लछमा के 'मुंह का रंग अचानक फीका' होने लगा है। गुसांई को चुपचाप अपनी ओर देखते पाकर उसे संकोच होने लगा है। 'न जाने क्या कहना चाहता है' - वह मानो अरक्षित हो उठी है। यकीनन भीतर ही भीतर अपने को मजबूत करके प्रेमी की हर ओछी हरकत का प्रतिकार करने का हौसला भी जुटा लिया है उसने। 'कहीं फिर से प्रणय-निवेदन तो नहीं?' - खीझ और विरक्ति से सर्वांग कांपा हो तो हैरत की बात नहीं। शर्म से पानी-पानी होते हुए गुसांई ने लछमा से निवेदन तो किया ही है - ''कभी चार पैसे जुड़ जाएं तो गंगनाथ का जागर लगा कर भूलचूक की माफी मांग लेना। पूत-परिवार वालों को देवी-देवता के कोप से बचा रहना चाहिए।'' लछमा ने आश्वस्ति की गहरी सांस ली मानो रिडेम्पशन के इस पल में एक बार फिर गुसांई को पा लिया हो उसने। और गुसांई . . . वह सिहर गया है, प्रायश्चित और वचन-भंग की पीड़ा के कारण नहीं, अनावृत्त हो जाने की शर्म से कि जिस प्रेम की अंतरंग स्मृतियों को जीवन का संबल बना कर हृदय की गुह्यतम गहराइयों में छिपा रखा था, वही अब सतह पर सबके सामने प्रकट हो गया है। लेखक ने नहीं बताया कि लाज की आभा से उसका चेहरा सिंदूरी हो गया है, लेकिन यह कोई बताने की बात भी नहीं। सिर्फ समझने की बात है कि गुसांई की लाज में अपने गोपन रहस्य के उघड़ पड़ने से लछमा की लाज भी घुल गई है। समझने की बात तो यह भी है कि इस दोहरी लाज में सम्बन्ध की मिठास और ताजगी बने रहने के आह्लाद की लालिमा भी घुल गई है। कौन कहता है कि दोनों अकेले हैं और रिक्तहस्त रंक भी।
'यह सब कुछ ज्यादा ही रोमानी नहीं हो गया?' विजय मुझे झिंझोड़ देता है। ''जमाना बहुत तेजी से आगे बढ़ गया है, और आप हैं कि पचास साल पीछे जो गईं तो वहीं जम कर बैठ गईं। आजकल देखिए, फास्ट, सब कुछ फास्ट - बनाना,
तोड़ना,
आगे बढ़ना। वी एडोर एक्शन!'
. . . फिर स्पीड़ . . फतवेबाजी
. . . हिंसा
. . आतंक
. . . ''इन्हीं पायदानों पर आगे बढ़ते हो न तुम? पीछे लौटना हमेशा पुराना, कमजोर या अप्रासंगिक होना नहीं होता। पीछे बहुत मूल्यवान कुछ छूट जाए तो उसे सहेज कर लाना ही होगा - ऐसा मूल्यवान जो फिलहाल आचार-व्यवहार से गायब हुआ है; पीछे छूटा ही रह गया तो स्मृतियों से भी गायब हो जाएगा। प्रेम के आलोक में अपनी मनुष्यता को बनाए रखने का वरदान।''
मैंने देखा, लछमा के कंधे पर सिर रख रेशमा फूट-फूट कर रो रही है। ''मेरे पास दस हाथ हैं मां, बस, एक जोड़ी पांव नहीं। चाहती थी, विजय के पांवों पर खड़ा हो कर दसों हाथों से उसके सिर पर छाए आसमान को चौड़ और चौड़ा कर दूं। पर उसने सुनी ही नहीं मेरी बात! देखी ही नहीं मूझे चीरतीं मजबूरियां! . . . और आज भी . . . '
मैं सोच रही थी, जाने किस कुहासे में घिर गए हैं हम। तमाम प्रगतिशीलता और पश्चिमीकरण के बावजूद लड़कियों के पास चलने को लक्ष्योन्मुखी स्वतंत्र पांव नहीं, और दौड़ते-फांदते लड़कों के पास मजबूत इरादों से भरे हाथ नहीं। क्या इसलिए कि प्रेम और सम्बन्ध, हृदय और बुद्धि के समन्वयात्मक समंजन को जांचने-सिरजने के लिए शेखर जोशी जैसी आस्थाशील सृजनात्मकता धीरे-धीरे चुक रही है? क्या इसीलिए 'कोसी का घटवार' को युवा पीढ़ी की आचार संहिता की प्राथमिक पाठशाला का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए?
सम्पर्क-
डॉ0 रोहिणी अग्रवाल
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग,
महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय,
रोहतक
(आलेख में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
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