प्रभा मुजुमदार के कविता संग्रह पर ललन चतुर्वेदी की समीक्षा

 




कोई कवि लाख खुद को छुपाने की कोशिश कर, कविता चाहें अनचाहें कवि के परिवेश को उद्घाटित कर ही देती है। कविता लिखने के लिए और कोई योग्यता हो न हो, मनुष्य होना जरूरी होता है। कविता जबरन नहीं लिखी जा सकती बल्कि उसके लिए मूलतः संवेदनात्मक अनुभूति की आवश्यकता होती है। इस तरह साहित्य वस्तुतः रुचि का मसला होता है। साहित्य से सीधे सरोकार न रख कर प्रायः अन्य विषयों जैसे विज्ञान, गणित, दर्शन, प्रौद्योगिकी, राजनीति, विधि और अर्थव्यवस्था आदि से सरोकार रखने वाले कवि बेहतरीन कविताएं लिख रहे हैं। प्रभा मुजुमदार पेशे से भूवैज्ञानिक होने के बावजूद बेहतरीन कविताएं लिखती रही हैं। हाल ही में बोधि प्रकाशन, जयपुर से उनका पाँचवाँ कविता संग्रह 'नकारती हूँ निर्वासन' प्रकाशित हुआ है। इस कविता संग्रह की आलोचकीय तहकीकात की है कवि ललन चतुर्वेदी ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रभा मुजुमदार के कविता संग्रह पर ललन चतुर्वेदी की समीक्षा।



नकारती हूँ निर्वासन : 

असहमति और प्रतिरोध की कविताएँ 

                                                               

ललन चतुर्वेदी 


'नकारती हूँ निर्वासन' प्रभा मुजुमदार का पाँचवाँ कविता संग्रह है जो इसी वर्ष बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। यह बताना आवश्यक लग रहा है कि प्रभा जी पेशे से भूवैज्ञानिक रही हैं। मेरा व्यक्तिगत मत है कि विज्ञान के लोग जब कविता के परिसर में प्रवेश करते हैं तो चीजों की तथ्यात्मक पड़ताल करते हैं। उनकी वैज्ञानिक दृष्टि से कविताएँ संपन्न होतीं हैं। वे प्रचलित रूढ़ियों और परम्पराओं को ख़ारिज करते हुए अपने विचारों को प्रस्तुत करते हैं। इस प्रक्रिया में बहुत संभव है कि वे कल्पना की उड़ान भले ही न भरें लेकिन उनकी रचनाओं में संवेदना का विस्तृत संसार अवश्य प्रकट होता है।


कविताएँ चिंतन और परिवेश की उपज होतीं हैं। हम आस-पास के दृश्यों और घटनाओं की अनदेखी कर सृजन नहीं कर सकते। इस दृष्टि से कवि का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। प्रभा जी के आलोच्य संग्रह की कविताओं पर विचार करूं इसके पूर्व मुझे इस समय राष्ट्रकवि दिनकर का वह  वक्तव्य याद आता है जो उन्होंने ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने के पश्चात् दिया था- "कविता केवल कविता है, जैसे वृक्ष केवल वृक्ष है। वृक्ष अपनी जगह पर खड़ा है। वह किसी को नहीं बुलाता। फिर भी, लोग उसकी हरियाली देखकर खुश होते हैं, उसकी छाया में बैठते हैं और पेड़ अगर फलदार हुआ तो वे फलों को तोड़ कर खा लेते हैं। चेतना के तल में जो घटना घटती है, जो हलचल मचती है, उसे शब्दों में अभिव्यक्ति दे कर हम संतोष पाते हैं। यही हमारी उपलब्धि है। यदि देश और समाज को उससे कोई शक्ति प्राप्त होती है तो वह अतिरिक्त लाभ है।" आगे चल कर अपने वक्तव्य के सार रूप में वह एक और महत्वपूर्ण बात कहते है- "मेरी दृढ़ धारणा है कि कविता व्यक्ति द्वारा संपादित सामाजिक कार्य है और शुद्ध कविता समाज के लिए ही लिखी जाती है।" कविता के अन्य निकषों को यदि हम छोड़ भी दें तो इस वक्तव्य में इतनी बातें आ गयीं हैं जिन पर किसी भी कविता की परख की जा सकती है। आगे चल कर इसके आलोक में मैं 'नकारती हूँ निर्वासन' संग्रह की कविताओं पर विचार करूंगा।

 

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया है यह संग्रह इसी वर्ष आया है और संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए मेरी यह धारणा पुष्ट होती दिख रही है कि इसमें संकलित कविताएँ पिछले दो-तीन दशकों  के दरम्यान लिखी गयीं है। इनमें समय का वही ताप और तेवर दिखाई पड़ता है। यदि रचनाओं में वर्तमान समय की धड़कन नहीं हो तो वह किसी भी स्थिति में कल जीवित नहीं रह पाएंगी. कल जीने के लिए आज जीना बहुत जरूरी है. यह सत्य है कि समसामयिकता ही किसी रचना की एक मात्र कसौटी नहीं है। परन्तु उसमें वर्णित सत्य जब संवेदना के धरातल पर उतरता है तो वह कालांतर में भी प्रासंगिक हो उठता है। यही कारण है कि सदियों पुरानी रचनाएं आज भी लोक जिह्वा की सवारी कर रही हैं। हालांकि यह समय इतना खुरदुरा हो गया है कि जन भावनाओं को हम चाह कर भी कोमलकांत पदावली में अभिव्यक्त नहीं कर सकते। प्रभा जी की अनेक कविताओं में संयमित रूप से ही सही लेकिन तल्ख़ तेवर की मौजूदगी इस बात की तस्दीक करतीं हैं. एक उदाहरण प्रस्तुत है-


दुनिया के 

किसी भी शस्त्रागार में नहीं हैं 

शब्द से बड़ा मारक हथियार।

एक छोटी-सी कलम,

ढहा देती है 

अश्वमेध को निकले 

सम्राटों का आत्मविश्वास।

(शब्द-एक, पृष्ठ 18) 


किसी कवि के लिए शब्द से बड़ा हथियार और क्या हो सकता है। प्रभा जी कविताओं में शब्दों के प्रति यह अटूट आस्था हर जगह दिखाई देती है। यह समय ऐसा है कि लोग बिगाड़ के डर से  ईमान की बात करने में कतराते हैं, ऐसे में इस संग्रह की कविताएँ एक ईमानदार कवि की निर्भयता और अदम्य साहस के साक्ष्य प्रस्तुत करतीं हैं। उन्हें भरोसा है कि एक न एक दिन अन्धकार का घटाटोप छंटेगा-


अंधेरी कालकोठरी में 

किसी न किसी रास्ते 

उम्मीद की एक किरण,

प्रविष्ट हो ही जाती है,

चुपके से।

(शब्द-एक, पृष्ठ 20) 



प्रभा मुजुमदार


कवि को ऐसा लगता है और सच भी यही है कि जो सतह पर दृष्टिगोचर होता है वही सत्य नहीं है। संग्रह की कविताएँ इस हलचल को बखूबी दर्ज करती हैं। कवि के मन में सतत बेचैनी है. और इसकी प्रतिक्रिया में आक्रोश  के स्वर फूटते हैं। एक वाक्य में कहूं तो इन कविताओं में प्रतिरोध का स्वर हर जगह मुखर है। कवि  मूकदर्शक नहीं है। उसकी नजर समय पर है और समाज में व्याप्त व्यवस्थाजनित हरेक अन्याय और विषमता को वह अपनी कविताओं को प्रतिपाद्य बनाती हैं। इतना ही नहीं वह इन पर प्रहार भी करती हैं। वह कवि  की उस परंपरा को आगे बढ़ाती हुई कहती हैं जिसमें तिनके की निंदा करने मनाही की गई है। संग्रह की एक कविता 'चींटी' में लघुता की महत्ता को कुछ इस तरह चेतावनी भरे लहजे में अभिव्यक्त किया गया है-

 

यूँ तो बहुत छोटी होती है चींटी,

बिलकुल चींटी की तरह 

मगर उन्हें अनदेखा करने का परिणाम 

बहुत भारी होता है 

वे दर्ज करना जानती हैं 

अपनी पहचान,

अदृश्य रह कर भी।

(चींटी, पृष्ठ 60)  


इस संग्रह की कविताओं में विविधता है। कवि की दृष्टि से अनेक वर्ण्य विषय ओझल नहीं हो पाएं हैं। सूक्ष्म भावनाओं का चित्रण भी अनेक कविताओं में हुआ है। यहाँ प्रकृति के विभिन्न रंग-रूप हैं। वसन्त, नदी जैसे विषयों पर भी कविताएँ हैं लेकिन यहाँ भी कविता का मौसम थोड़ा अलहदा ही है। वह  प्रकृति के रूप-सौन्दर्य के  चित्र नहीं उकेरती अपितु इनकी दुरावस्थाओं पर गंभीर चिंता व्यक्त करती हैं। कोई भी व्यक्ति एक मन:स्थिति में लम्बे समय तक नहीं रह सकता। कवि भी इसका अपवाद नहीं है। वह तो स्वभाव से परिवर्तनकामी होता है। वह भी वसंत की प्रतीक्षा करता है। वह भी अनय  का अंत चाहता है। ये कविताएँ मुक्ति और परिवर्तन की आग्रही हैं। कवि के मानस का निर्माण परिवेश और परिस्थितयों से होता है। यही कारण हैं विभिन्न भाषाओँ की कविताओं में एक परिवेशगत फर्क हम महसूस करते हैं। कवि  के जीवन का एक निजी कोना भी होता है। एक तरफ उसकी रचनाएँ अपने निजी सन्दर्भों से निःसृत होती हैं तो दूसरी तरफ युग-बोध भी उसे पुकारता है। इस तरह उसका दायित्व द्विगुणित हो जाता है। पर कवि की निजता में भी जब समष्टि का सुख-दुःख बोलता है तो रचना का परिसर विस्तृत हो जाता है। इस संग्रह में स्थानान्तरण पर चार कविताएँ हैं। मेरी दृष्टि में स्थानान्तरण भी एक लघु विस्थापन ही है। इसकी पीड़ा से हम अछूते कैसे रह सकते हैं। रेल पर सवारी करते हुए स्मृतियों का रेला उमड़ पड़ता है। हम शहर छोड़ते हैं लेकिन उस शहर में हम थोड़ा सा छूट जाते हैं और शहर भी हममें थोड़ा सा बचा रह जाता है। इन बातों का इन चारों कविताओं में सुन्दर तरीके से समावेश हुआ है। नाते-रिश्ते पर भी एक-दो प्यारी कविताएँ है।

 

संग्रह के उतरार्ध तक पहुँचते ही कविताएँ अलग शक्ल अख्तियार कर लेती हैं। यहाँ कविताओं में आक्रोश और प्रतिरोध का स्वर मुखर हो उठता है। प्रसंगवश, इस पुस्तक के ब्लर्ब पर आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी द्वारा  व्यक्त विचारों से सहमत होना चाहूँगा- "इधर निर्वासित जनसमुदाय के साथ लगी रचनाकार निष्कंप स्वर में बता रही हैं कि आत्ममुग्ध तानाशाह अभेद्य-अपराजेय नहीं है। अपनी तस्वीर को अपलक निहारता वह 'नार्सिसिस्ट' शहंशाह 'निहत्थे लोगों की एकजुटता से' काँप उठता है। मुक्तिबोध को याद करें तो 'मिट्टी का जिरहबिख्तर पहने', वो 'रेत का-ढेर सा शहंशाह' मात्र है। संग्रह की शीर्षक कविता 'नकारती हूँ निर्वासन' का मूल भाव यही है कि अनादि काल से अब तक स्त्रियाँ सत्ता की नजरों में चुभती रही हैं। उनका सवाल पूछना ही जुर्म है और समय कोई भी हो स्त्रियों को सच्चाई के मार्ग पर चलने के बावजूद निर्वासन का दंश झेलना पड़ता है। परन्तु कवि इस निर्वासन को दृढ़तापूर्वक अस्वीकार करती है। इस कविता में भारतीय नारी के आधुनिक रूप के दर्शन होते हैं जो उचित भी है-


मगर फर्क है इस बार 

अनुनय-विनय नहीं,

वन-गमन तो कदापि नहीं 

सीधे नकारती है वह 

राजा के फरमानों को।


सुना चुकी है 

अपनी शर्तों पर 

जीने-जागने का निर्णय।

(नकारती हूँ निर्वासन, पृष्ठ 110)  


यह नारी का बदला हुआ रूप है, जिसकी स्वीकार्यता बहुत जरूरी है। इसके बाद की जितनी कविताएँ हैं उनमें स्पष्टतया प्रतिरोध का स्वर गूँज रहा है। कविता यहाँ वैचारिक धरातल पर उतर गयी है। यह सही है कि आज की कविताएँ विचार-प्रधान हो गयी हैं और इसका खामियाजा कविताओं को भुगतना पड़ता है। प्रभा जी ने कविता के इस पथ पर संतुलन साधने की पूरी कोशिश की है। फिर भी, विचारों के प्रवाह और भावनाओं के आवेग में कलम कहाँ रुकती है। संग्रह की अंतिम इक्कीस कविताएँ सीधे तौर पर सत्ता से मुखातिब होती हैं और बिना लाग-लपेट के पूरी निर्भयता से अपना आक्रोश प्रकट करती है। जनतंत्र, तानाशाह के लिए, राजा नंगा है, राजा ने कहा रात है, नीरो आदि कविताएँ इसके  कुछ उदाहरण हैं। इनके अंशों को उद्धरित करने से बेहतर है कि पाठक स्वयं इस संग्रह को पढ़ें तो तस्वीर साफ़ हो सकेगी।


फिलहाल, इस संग्रह से गुजरते हुए लगा कि यह एक ईमानदार कवि  की स्वीकारोक्ति है जिस पर संशय की कहीं कोई गुंजाइश नहीं बनती। यहाँ अभिव्यक्त विचारों से असहमत हुआ जा सकता है लेकिन इन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। यूँ तो समय किसी कृति का सही मूल्यांकन करता है लेकिन उन कविताओं को कभी न कभी अवश्य याद किया जाएगा जिसमें समय का साक्षी होने का सामर्थ्य हो। आशा करता हूँ कि असहमति और प्रतिरोध की इन कविताओं की ओर पाठकों की नजर अवश्य जायेगी।



ललन चतुर्वेदी 



सम्पर्क 


ललन चतुर्वेदी

मोबाइल : 9431582801

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