सुप्रिया पाठक का आलेख 'बापू के जन्मदिन पर ‘बा’ की याद'
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कस्तूरबा गांधी |
गांधी जी के महान बनने में जिनका हाथ था वे प्रायः अलक्षित ही रहीं। कस्तूरबा पर कम लिखा भी गया है। कस्तूरबा जिन्हें प्यार से 'बा' भी कहा जाता है, गांधी जी की सहधर्मिणी ही नहीं बल्कि एक मित्र और उनके लिए प्रेरक की तरह थीं। गांधी जी खुद भी यह स्वीकार करते हैं कि 'कस्तूरबा उनके जीवन की सहयात्री शक्ति और जीवन का अभिन्न अंग थी'। सुप्रिया पाठक अपने आलेख में लिखती हैं कि 'कई मौके ऐसे आए जब लगा कि गांधी जी कस्तूरबा को समझ नहीं पाए। दूसरे शब्दों में कहें तो कस्तूरबा के मन को समझने में गांधी जी असमर्थ रहे। बा के जीवन में ऐसे अनेक पड़ाव है जब ऐसा लगा कि वह निसहाय पत्नी के रूप में दिख रही हैं एवं एक गर्वीले एवं स्वाभिमानी पति के निर्णयों को मौन रह कर मानने के अलावा उनके पास कोई दूसरा चारा नहीं है लेकिन दूसरी ओर ऐसे भी मौके दिखाई पड़ते हैं जब उन्होंने अपने अधिकार का बेझिझक प्रयोग किया साथ ही अपनी पत्नी धर्म को पूरी निष्ठा और संकल्प के साथ निभाया भी।' आज गांधी जयंती के अवसर पर हम उनकी स्मृति को याद करते हुए पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं सुप्रिया पाठक का आलेख 'बापू के जन्मदिन पर ‘बा’ की याद'।
'बापू के जन्मदिन पर ‘बा’ की याद'
सुप्रिया पाठक
1857 की क्रांति के बाद हिंदुस्तान की धरती पर हो रहे परिवर्तनों ने जहाँ एक ओर नवजागरण की जमीन तैयार की, वहीं विभिन्न सुधार आंदोलनों और आधुनिक मूल्यों और रौशनी में रूढिवादी मूल्य टूट रहे थे, हिंदू समाज के बंधन ढीले पड़ रहे थे और स्त्रियों की दुनिया चूल्हे-चौके से बाहर नए आकाश में विस्तार पा रही थी । इतिहास साक्षी है कि एक कट्टर रूढिवादी हिंदू समाज में इसके पहले इतने बड़े पैमाने पर महिलाएँ सड़कों पर नहीं उतरी थीं। पूरी दुनिया के इतिहास में ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं। गाँधी ने कहा था कि हमारी माँओं-बहनों के सहयोग के बगैर यह संघर्ष संभव ही नहीं था, इसलिए जिन महिलाओं ने आजादी की लड़ाई को अपने साहस से धार दी, उनका जिक्र यहाँ लाजिमी है।
‘‘कस्तूरबा के संबंध में संक्षेप में कुछ कह पाना दुष्कर है और यह उनके प्रति न्याय भी न होगा। उनके लिए यह कह देना कि सीता, सावित्री, अरुंधती अथवा यशोधरा सदृश थीं, अपर्याप्त होगा। हम केवल यह भी नहीं कह सकते कि वे रामकृष्ण परमहंस की पत्नी शारदामणि के सदृश थीं। इतिहास भले स्वयं को दोहराता हो, किंतु व्यक्ति फिर से नहीं दोहराए जाते। कस्तूरबा कई कारणों से अद्वितीय थीं और उनका जीवन गांधी जी के असाधारण जीवन के लिए कई अर्थ में महत्त्वपूर्ण था, जिसके कारण वे बीसवीं शताब्दी के पैगंबर बन सके।’’ -रंगनाथ दिवाकर
कस्तूरबा गांधी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक ऐसी ही महत्वपूर्ण नेत्री के रूप में रहीं हैं। महात्मा गांधी जी की पत्नी के रूप में ही महशूर तथा सीमित कर दी गयी कस्तूरबा (बा) का कर्म क्षेत्र गांधी जी जितना व्यापक नहीं है लेकिन इसके बावजूद उनके व्यक्तित्व की गहराई एवं कार्य क्षेत्र की असीमिता हमें व्यापक तरीके से उन्हें देखने के लिए प्रेरित करती हैं। महात्मा गांधी जी का व्यक्तित्व इतना जगजाहिर है कि उन पर कई जीवनियाँ लिखी जा चुकी है, लेकिन कस्तूरबा पर ना तो उतनी सामग्री उपलब्ध है ना ही उनके समकालीन लोगों ने उन पर लिखने की जहमत उठाई जिनसे उनको संपूर्णता में जाना जा सके। कस्तूरबा पर कुल मिला कर तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें उपलब्ध है। सबसे पहले बनवाला पारीक और सुशीला नैयर द्वारा गुजराती में लिखी पुस्तक 'हमारी बा' जिसका हिंदी में भी अनुवाद हो चुका है। दूसरी महत्वपूर्ण पुस्तक मणिलाल गांधी जी के पुत्र अरुण गांधी जी और उनकी पत्नी सुनंदा गांधी जी द्वारा लिखी गई 'द फॉरगेटइन वूमेन' तीसरी एवं व्यापक शोध एवं प्रमाणिकता के साथ लिखी पुस्तक गिरिराज किशोर की 'बा' है। इन तीनों पुस्तकों को व्यवस्थित रूप से पढ़ने से कस्तूरबा के जीवन की व्यापकता का बोध होता है । कस्तूरबा का विवाह उपरांत जीवन ना सिर्फ गांधी जी के जीवन से प्रेरित है बल्कि समानांतर होते हुए भी पूरी तरह गांधी जी से जुड़ा हुआ है। गांधी जी के जीवन से कस्तूरबा का स्वतंत्र जीवन चुन कर निकालना एक दूरूह कार्य है, फिर भी कई ऐसे मौके दिखाई पड़ते हैं जब कस्तूरबा महात्मा गांधी जी से अपने निर्णय एवं उद्देश्यों में स्वतंत्र भी रहती हैं और कई मौके पर गांधी जी के साथ भी। कई मौके ऐसे पड़ते हैं जब वह गांधी जी की अनुगामिनी बन कर स्वतंत्रता संग्राम में एक समर्पित कार्यकर्ता की तरह कार्य करती हैं एवं कई ऐसे प्रसंग भी देखने को मिलते हैं जब उन्होंने स्वतंत्र निर्णय लेते हुए अपनी स्पष्ट पहचान विकसित की। गांधी जी के अनुसार कस्तूरबा उनके जीवन की सहयात्री शक्ति और जीवन का अभिन्न अंग थी। फिर भी, कई मौके ऐसे आए जब लगा कि गांधी जी कस्तूरबा को समझ नहीं पाए। दूसरे शब्दों में कहें तो कस्तूरबा के मन को समझने में गांधी जी असमर्थ रहे। बा के जीवन में ऐसे अनेक पड़ाव है जब ऐसा लगा कि वह निसहाय पत्नी के रूप में दिख रही हैं एवं एक गर्वीले एवं स्वाभिमानी पति के निर्णयों को मौन रह कर मानने के अलावा उनके पास कोई दूसरा चारा नहीं है लेकिन दूसरी ओर ऐसे भी मौके दिखाई पड़ते हैं जब उन्होंने अपने अधिकार का बेझिझक प्रयोग किया साथ ही अपनी पत्नी धर्म को पूरी निष्ठा और संकल्प के साथ निभाया भी। कस्तूरबा की सादगी की दीवानी मीरा बहन ‘बा’ के बारे में लिखती हैं-
‘‘जब हम लंबा और कठिन सफर करते थे, तब बाबू जी कहा करते, ‘बा हम सबको हराती हैं। इतना कम सामान और इतनी जरूरतें दूसरे किसी की हैं? मैं सादगी का इतना अधिक आग्रह रखता हूँ? फिर भी मेरा सामान बा के मुकाबले दोगुना है।’ हमारी सजग कोशिशों के बाद भी हम बा की स्वाभाविक, स्वच्छ और भव्य सादगी के साथ किसी तरह होड़ में टिक नहीं सकते थे। सारे दल में उनका बिस्तर सबसे छोटा होता था और उनकी नन्हीं-सी पेटी भी कभी अव्यवस्थित या ठूँसी-ठाँसी नहीं रहती थी।’’
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1915 में गांधी और कस्तूरबा दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के समय |
कस्तूरबा के मन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और पारिवारिक जिम्मेदारियों को ले कर कोई संकोच की स्थिति नहीं थी वह बहुत ही स्पष्ट तौर पर इन दोनों को बखूबी निभाती थीं। कस्तूरबा की सरलता और अधिक से अधिक सीखने की प्रवृत्ति उन्हें एक अलग अलग किस्म की महिला बनाती है। बा के जीवन में औपचारिक शिक्षा की स्थिति नहीं बन पाई फिर भी शिक्षाविहीन महिला होने के बाबजूद उन्होंने ऐसे कई निर्णय और कार्य किए जो आज की पढ़ी-लिखी महिलाएं भी नहीं कर पातीं। खासकर उस युग में जब स्त्रियों की शिक्षा कोई बड़ा मुद्दा नहीं था । सुशीला नैयर ने बा के बारे में लिखा है कि-
‘‘बा को नई चीजें सीखने का बहुत शौक था। आगाखाँ महल में उन्होंने पढ़ाई शुरू की, बैडमिंटन और पिंगपाँग सीखने का प्रयास किया। कैरम तो वे बहुत अच्छा खेलने लगी थीं और लगभग आखिर तक खेलती रहीं। जब वे बहुत दुर्बल हो गईं तो अपनी खाट पर लेट कर डा. गिल्डर और मीरा बहन इत्यादि का खेल देखा करती थीं और उसमें अपनी बीमारी भूल जाती थीं।’’
कस्तूरबा के जीवन में जो प्रंसग सबसे ज्यादा प्रेरक लगते हैं वह यह है कि ऐसी वातावरण में पली-बढ़ी महिला जिसकी सीमा घर की चौखट रही हो, वह देश की आजादी के संघर्ष में इतनी सक्रियता और निर्भयता के साथ हिस्सा ले रही है। कस्तूरबा शायद पहली ऐसी महिला थी जो दक्षिण अफ्रीका की धरती पर अपने सहयोगियों के साथ सत्याग्रह करते हुए जेल गईं और उनकी मृत्यु भी आगा खाँ पैलेसनुमा जेल में ही हुई। इन सब चुनौतियों का सामना कोई महिला तभी कर सकती है जब उनकी आस्था और सरोकार निजी हितों से बड़े हों और उस व्यक्ति में समाज को स्वयं में समाहित कर लेने की अद्भुत क्षमता हो।
कस्तूरबा गाँधी का जन्म 11 अप्रैल सन 1869 में काठियावाड़ के पोरबंदर नगर में हुआ था। कस्तूरबा के पिता ‘गोकुलदास मकनजी’ एक साधारण व्यापारी थे और कस्तूरबा उनकी तीसरी संतान थीं। उस जमाने में ज्यादातर लोग अपनी बेटियों को पढ़ाते नहीं थे और विवाह भी छोटी उम्र में ही कर देते थे। कस्तूरबा के पिता महात्मा गांधी जी के पिता के करीबी मित्र थे और दोनों मित्रों ने अपनी मित्रता को रिश्तेदारी में बदलने का निर्णय कर लिया था। कस्तूरबा बचपन में निरक्षर थीं और मात्र सात साल की अवस्था में उनकी सगाई छह साल के मोहन दास के साथ कर दी गई और तेरह साल की छोटी उम्र में उन दोनों का विवाह हो गया। कस्तूरबा का शुरूआती गृहस्थ जीवन बहुत कठिन था। उनके पति मोहनदास करमचंद गाँधी उनकी निरक्षरता से अप्रसन्न रहते थे और उन्हें ताने देते रहते थे। मोहनदास को कस्तूरबा का सजना, संवरना और घर से बाहर निकलना बिलकुल भी पसंद नहीं था। उन्होंने ‘बा’ पर आरंभ से ही अंकुश रखने का प्रयास किया पर ज्यादा सफल नहीं हो पाए। सन् 1906 में भरी जवानी में बापू ने ब्रह्मचर्य-व्रत ग्रहण किया, जिसके निर्वहण में बा ने पूरा-पूरा साथ दिया और अद्वितीय त्याग किया । गांधी जी जी के शब्दों में-
‘‘ब्रह्मचर्य का गुण मेरी अपेक्षा बा के लिए बहुत अधिक स्वाभाविक सिद्ध हुआ। शुरू में बा को इसका ज्ञान भी न था। मैंने विचार किया और बा ने उसको उठा कर अपना बना लिया। परिणामस्वरूप हमारा संबंध सच्चे मित्र का बना। मेरे साथ रहने में बा के लिए सन् 1906 से, असल में सन् 1901 से, मेरे काम में शामिल हो जाने के सिवा या उसके भिन्न और कुछ रह ही न गया था। वे अलग रह ही नहीं सकती थीं। अलग रहने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती, लेकिन उन्होंने मित्र बनने पर स्त्री के नाते और पत्नी के नाते मेरे काम को अपना काम बना लेने को ही उन्होने अपना धर्म माना। इसमें बा ने मेरी निजी सेवा को अनिवार्य स्थान दिया। इसलिए मरते दम तक उन्होंने मेरी सुविधा की देखरेख का काम छोड़ा ही नहीं।’’
कस्तूरबा गाँधी का अपना एक दृष्टिकोण था, उन्हें आज़ादी का मोल और महिलाओं में शिक्षा की महत्ता का पूरा भान था। स्वतंत्र भारत के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना उन्होंने भी की थी। उन्होंने हर क़दम पर अपने पति मोहनदास करमचंद गाँधी का साथ निभाया था। 'बा' जैसा आत्म-बलिदान का प्रतीक व्यक्तित्व उनके साथ नहीं होता तो गाँधी जी के सारे अहिंसक प्रयास इतने कारगर नहीं होते। जी. रामचंद्रन ने कस्तुरबा के बारे में लिखा है कि "भारत और विश्व के इतिहास के पन्नों पर बापू के पद-चिन्ह अंकित हैं। पर इन पद-चिन्हों के पीछे और इनकी अतल गहराई में बा की मूरत समाई हुई है। बापू और बा अभिन्न थे, दोनों एक-दूसरे के बिना अपने आरोहण में वे इतने ऊँचे नहीं उठ पाते, जिस कारण उनकी एक तेजोमय विरासत भारत और दुनिया को मिली।"
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कस्तूरबा के साथ गांधी जी |
कस्तूरबा ने अपने नेतृत्व के गुणों का परिचय भी दिया था। जब-जब गाँधी जी जेल गए थे, वो स्वाधीनता संग्राम के सभी अहिंसक प्रयासों में अग्रणी बनी रहीं। आजीवन संगिनी कस्तूरबा की पहचान सिर्फ यह नहीं थी। आजादी की लड़ाई में उन्होंने हर कदम पर अपने पति का साथ दिया था, बल्कि यह कि कई बार स्वतंत्र रूप से और गाँधीजी के मना करने के बावजूद उन्होंने जेल जाने और संघर्ष में शिरकत करने का निर्णय लिया। मीरा बेन को भी साबरमती जेल भेज दिया गया, जहाँ उनकी मुलाकात कस्तूरबा गांधी से हुई। यह पहला अवसर था जब कस्तूरबा और मीरा जेल में एक साथ बंद थीं। दोनों ए-क्लास कैदियों की श्रेणी में बंद थीं। रात में उन्हें बैरक में घूमने फिरने की इजाजत थी। दोनों आपस में बहुत बातें करतीं। बा कम बोलने वाली स्त्री थीं परंतु उनकी संवाद शैली गजब की थी। वह अपनी भाषा, व्यवहार एवं भाव भंगिमा से बात करती थीं। जेल में उनका स्वास्थ्य पहले से बेहतर हो रहा था।
वे जेल के पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों को उत्सुकता से निहारा करतीं। जेल के वार्ड में लगे हुए वृक्ष साबरमती आश्रम तक जाते थे जिन्हें देखकर वे आश्रम जीवन को याद कर भावुक हो जातीं। वह एक दृढ़ आत्मशक्ति वाली महिला थीं और गाँधी जी की प्रेरणा भी। गांधी जी की सहगामिनी बन कर बा ने गांधी जी को बृहत्तर परिदृश्य में अपनी भूमिका निभाने से कभी रोका नहीं। गांधी जी के अनुसार,
“बा में एक गुण बहुत बड़ी मात्रा में है, जो दूसरी बहुत-सी हिंदू स्त्रियों में न्यूनाधिक मात्रा में पाया जाता है। इच्छा से हो या अनिच्छा से, ज्ञान से हो या अज्ञान से, मेरे पीछे चलने में उन्होंने अपने जीवन की सार्थकता मानी है और शुद्ध जीवन बिताने के लिए मेरे प्रयत्न में मुझे कभी रोका नहीं। इसके कारण हमारी बुद्धि, शक्ति में बहुत अंतर होते हुए भी मुझे यह लगा कि हमारा जीवन संतोषी, सुखी और ऊर्ध्वगामी है”।
मोहन दास के साथ लगभग साठ सालों की लम्बी जीवन यात्रा में कस्तुरबा ने मोहन से बैरिस्टर, फिर महात्मा और अंत में बापू तक का सफर तय किया, वहीं कस्तूर भी पूरे भारत की ‘बा’ बन गईं। आश्रम की सहयोगिनी गोशी बहन ने बा के बारे में लिखा है कि ‘‘वे मानव-हृदय और मानव-चित्त की शुचिता और सरलता की प्रतीक सी थीं। जिस व्यक्ति को खुद ही पता न हो कि वह किस भूमि पर विचर रहा है, उसका वर्णन करने में वाणी असमर्थ रहती है। बा तो बा ही थीं। बिलकुल सीधी-सादी, लेकिन धीर और वीर। दूसरे का दोष तो उनके मन में कभी स्थान पाता ही न था।’’
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दक्षिण अफ्रीका में अपने तीन पुत्रों मणिलाल, रामदास और हरि लाल के साथ कस्तूरबा |
महात्मा गांधी जी राजनीतिक सूझबूझ से परिपूर्ण एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपने कई देशज प्रयोगों द्वारा आम जनता के दिलों में अपनी जगह बनाई और कस्तूरबा उनके हर प्रयोग का मुख्य पात्र बनी रहीं। बकौल गिरिराज किशोर- “वो एक स्काईलार्क की तरह थीं जो स्वतंत्र आकाश में उडते हुए भी अपनी जमीन से जुड़ा रहता है। दोनों के बीच समन्वय बनाए रखना बा की सबसे बडी उपलब्धि थी।"
अरविंद मोहन अपनी पुस्तक 'बा-बापू' में कुछ अति महत्वपूर्ण प्रश्नों से हमारा सामना कराते हैं। गांधी जी के दस्तावेजों की चर्चा करते हुए वे पूरे गांधी जी साहित्य में बा की अनदेखी को घोर अनर्थ के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुसार, यह सही है कि कस्तूरबा और महात्मा में फर्क है पर उससे बडी सच्चाई है कि बचपन से भूत से डरने वाले गांधी जी को रात में लघुशंका कराने से ले कर आगा खाँ पैलेस की कैद में उनकी हर जरुरत का ख्याल रखने वाली बा सिर्फ उनकी पत्नी या बच्चों की मां नहीं थी, बल्कि वह उनकी सबसे विश्वस्नीय और मजबूत सहयोगी थीं जिन्होंने किसी भी वक्त उनका साथ नहीं छोड़ा।
सनातनी व वैष्णव हिंदू होने के नाते शुरूआत में कस्तुरबा के मन में भी अस्पृश्यता को ले कर संकोच था। शुरुआत में वे छुआछूत को मानती भी थीं, लेकिन दक्षिण अफ्रीका में बा को बापू के मेहमानों का मल-मूत्र भी साफ करना पड़ता था, रोगियों की सेवा-शश्रूषा तो आम बात थी। भारत आने के बाद के दिनों में उन्होंने हरिजनों को भी सहृदयों की तरह अपना लिया था। लक्ष्मी नाम की एक हरिजन कन्या तो उनके साथ अपनी पुत्री की तरह ही रहती थीं।
बापू अब अश्वेत लोगों के लिए किए गए सत्याग्रह और आंदोलन में जेल गए तो बा ने बाहर रह कर भोजन ग्रहण करने का संकल्प लिया जो जेल में कैदियों को मिलता था मक्के का दलिया और सूखी डबलरोटी। इस दौरान दूध या चिकनाई को उन्होंने हाथ तक नहीं लगाया था। इसके चलते वे सख्त बीमार पड़ गई, लेकिन उन्होंने अपना संकल्प नहीं छोड़ा। महात्मा गांधी जी ने कस्तुरबा की दृढ़ इच्छा शक्ति के बारे में लिखा है- ‘‘वे (बा) हमेशा से बहुत दृढ़ इच्छा शक्ति वाली स्त्री थीं, जिनको अपनी नवविवाहित दशा में मैं भूल से हठीली माना करता था। लेकिन दृढ़ इच्छा शक्ति के कारण वे अनजाने ही अहिंसक असहयोग की कला में मेरी गुरु बन गईं।’’ बा की सादगी का वर्णन करते हुए प्रभावती जयप्रकाश नारायण ने लिखा है-
‘‘मुझे उन्होंने कभी नीचे नहीं सोने दिया। चारपाई की कमी होने पर वे मुझे अपने पास पलंग पर सुलाती थीं। कड़ाके की सर्दी में चार बजे उठ कर कमरों में झाड़ू लगातीं, स्नान के लिए पानी गरम करतीं और सफाई का काम समाप्त करके स्वयं स्नान करतीं और मुझे उठातीं। मुझे स्नान के लिए गरम पानी तैयार मिलता था। बा का जीवन त्याग, सेवा और प्रेम से भरा हुआ था। हम लड़कियाँ, जो बापू की सेवा करती थीं, कभी बा की सेवा करने जातीं, तो वे हँसतीं और यही कहतीं कि ‘तुम थक जाओगी, मुझे तो जरूरत नहीं है।’ उस वाणी में माँ का प्यार भरा होता। बा को यही लगता था कि उनकी लड़कियाँ क्यों तकलीफ उठाएँ। बरसात के दिनों में भी बा अपना ‘चेंबर पाट’ स्वयं उठा कर ले जातीं और साफ करतीं।’’
स्वतंत्रता संग्राम तथा आश्रम में अत्यधिक जुड़ाव के कारण बा कई बार गंभीर रूप से अस्वस्थ भी हुई, पर अपनी बीमारी के दिनों में भी बा को अन्य लोगों की अधिक चिंता रहती थी। वे एक धर्मभीरु और आस्तिक महिला थीं। एकादशी को वे फलाहार करती थीं और सोमवार, सोमवती अमावस, पूर्णिमा, जन्माष्टमी, शिवरात्रि आदि पवित्र तिथियों पर नियम धर्म से उपवास करती थीं। बीमारी में भी वे उपवास जारी रखती थीं। वस्तुतः मोहनदास को महात्मा और बापू बनाने में बा का बड़ा हाथ रहा। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने एक जगह लिखा है ‘‘उन दिनों भारत के तपस्वी गृहस्थ थे, क्योंकि तब घर मुक्ति-मार्ग में बाधा-रूप नहीं था।’’
इस बीच 1944 के फरवरी में कस्तूरबा गाँधी का स्वास्थ्य खराब होने लगा। धीरे-धीरे उनकी स्थिति और बिगड़ रही थी। वे मानसिक रूप से अवसादग्रस्त रहने लगीं थीं। पैलेस के वर्तमान सुप्रिटेंडेंट से अनुरोध करके जेल के अंदर के माहौल को खुशनुमा रखने के लिए बैडमिंटन और कैरमबोर्ड की व्यवस्था की गई। कभी-कभी बा भी इन खेलों में रुचि दिखातीं लेकिन अफसोस कि तमाम कोशिशों के बावजूद भी बा की स्थिति में कोई परिवर्तन होता हुआ नहीं दिख रहा था। वे लगातार खाना-पीना छोड़ रही थीं। बापू को उनके अंतिम समय का अंदाजा हो गया था इसलिए वे अपना अधिकांश समय बा की देखभाल में बिताते और उनके पास बैठे रहते।
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कस्तूरबा के पार्थिव शरीर के पास बापू |
22 फरवरी 1944 को बापू की बाहों में बा ने अंतिम सांस ली। वे चिरनिद्रा में विलीन हो गईं। बापू इस बार भी हमेशा की तरह शांत थे और बा की अगली यात्रा के लिए लोगों को निर्देश दे रहे थे। अंतिम संस्कार से कुछ घंटे पूर्व वे बंद कमरे में बा के मृत शरीर के पास अकेले बैठे रहे। ऐसा प्रतीत होता था कि वे बा से मौन संवाद कर रहे थे। गाँधी चाहते थे कि उनके बेटों की उपस्थिति में जेल के बाहर कस्तूरबा का अंतिम संस्कार परिवार और रिश्तेदारों के बीच हो लेकिन सरकार ने उनके इस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। बा के पार्थिव शरीर को स्नान करा कर एक खाली कमरे में लिटा दिया गया। एक बार फिर मीरा बेन ने बगीचे के रंग बिरंगे फूलों से बा का श्रृंगार किया। धूपबत्ती जलाई गई और गीता का पाठ शुरु हो गया। बा की चिता को भी महादेव भाई के बगल में अग्नि दी गई।
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सुप्रिया पाठक |
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