शशिभूषण मिश्र का आलेख 'एक सदी की बीहड़ यात्रा में लेखक का जीवन'
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मोहन राकेश |
'एक सदी की बीहड़ यात्रा में लेखक का जीवन'
शशिभूषण मिश्र
किसी लेखक का महत्व ‘पाठक मात्र’ के लिए उसकी रचना हो सकती है लेकिन व्यापक साहित्यिक बिरादरी में ‘केवल रचना के आधार पर’ लेखक का महत्व निर्धारित नहीं किया जा सकता, ख़ासतौर पर तब जबकि उस लेखक का पूरा जीवन एक खुली क़िताब के मानिंद सबकी पहुँच में हो। आलोचना और लेखकीय संस्कृति में किसी लेखक का महत्व निरूपित करते समय उसके व्यक्तित्व को दरकिनार नहीं किया जा सकता, मसलन यह देखना जरूरी हो जाता है कि उस लेखक का अपने समय में किस तरह का हस्तक्षेप था! उसकी लेखकीय पक्षधरता क्या रही है! साहित्यिक परंपरा को ले कर उसकी समझ क्या है! उसने दूसरे लेखकों को कितना पढ़ा है और उनकी रचनाओं के बारे उसकी रायशुमारी क्या है! अपने समकालीनों के बारे में वह क्या सोचता है! साहित्य और संस्कृति को लेकर उसका आलोचकीय विवेक क्या है क्योंकि आलोचकीय विवेक के बिना वह अपने समय और समाज का वास्तविक रेखांकन नहीं कर सकता।
उपर्युक्त बिन्दुओं के क्रम में हिंदी के ख्यात लेखक मोहन राकेश की जन्मशती वर्ष के विशेष अवसर पर तैयार किए गए इस लेख में उनकी रचनाओं के विश्लेषण के बजाए उनके ‘आलोचनात्मक विवेक और हस्तक्षेप’ को समझने की कोशिश की गयी है। मोहन राकेश मानते थे कि लेखक के लिए यह ज़रूरी है कि ‘जीवन के संबंध में उसका निश्चित दृष्टिकोण हो और वह मानव जीवन के व्यापक संघर्ष से हट-बच कर चलता हुआ जीवन-भर अनुभूति की वीरान पगडंडियाँ ही न खोजता रहे।’ वहाँ यह भी अपेक्षित है कि वह जीवन की परिस्थिति का मूल्यांकन स्वतन्त्र रूप से करे और जो भी मूल्यांकन वह करे उसे साहसपूर्वक दूसरों के सामने रख सके। पार्टी ह्विप से राजनीतिक स्ट्रेटेजी का निर्णय तो किया जा सकता है, परन्तु पार्टी ह्विप से साहित्य-रचना नहीं हो सकती क्योंकि साहित्य-रचना ‘स्ट्रेटेजी’ नहीं है, एक संभावनाशील यत्न है। वह जोर दे कर कहते हैं कि साहित्यकार में इतना साहस भी होना चाहिए कि वह ‘यह स्वीकार कर सके कि उसका किया हुआ मूल्यांकन ठीक नहीं था।’
वह मानते थे कि यदि एक लेखक आर्थिक रूप से स्वतन्त्र हो कर नहीं जी सकता तो लेखक के रूप में उसके व्यक्तित्व का विकास कुण्ठित होने लगता है। आजीविका के लिए लेखन के अतिरिक्त अन्य साधनों पर निर्भर करने वाले लेखक को जीवन में कई तरह के समझौते करने के लिए विवश होना पड़ता है और ये समझौते अनिवार्य रूप से उसके व्यक्तित्व को तोड़ते हैं। इस तरह आर्थिक समस्या एक लेखक के लिए चुनौती बन जाती है। वह लेखक, पाठक और प्रकाशक की त्रयी में सबसे बड़ा उत्तरदायित्व लेखक का मानते हैं। यदि परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं, तो भी एक लेखक के अन्दर लेखकीय जीवन स्वीकार करने का आग्रह क्यों न हो? मैं उन लोगों से सहमत नहीं जो यह कहा करते हैं कि भूख और अभाव सह कर ही एक लेखक सही अर्थ में लेखक बनता है। ऐसा कहना झूठ है, प्रवंचना है। भूख और अभाव लेखकीय जीवन की अनिवार्य शर्त नहीं है। ऐसा होता तो रवि बाबू और टाल्स्टाय महान लेखक न होते। परन्तु हाँ, भूख और अभाव के डर से एक लेखक समझौतेबाजी में पड़ जाये या अपने लेखन को बंधक रख कर बैठ जाये, यह बात समझ में नहीं आती। साहित्य रचना केवल फालतू समय में किया जाने वाला कर्म नहीं। अन्यान्य कलाओं की तरह इसके लिए भी व्यक्ति के पूरे समय और समूचे व्यक्तित्व का समर्पण आवश्यक है। केवल प्रतिभा ही एक लेखक का निर्माण नहीं करती, बल्कि वह एक बंद कमरे के लेन्स की तरह है। सही अर्थ में उसका उपयोग करने के लिए उसे जीवन के क्षेत्र में ले जाना आवश्यक है। इस तरह लेखक के लिए ‘रचना ही साधना नहीं, जीवन भी साधना है।’
कार्लो कपोला को दिए अपने अंतिम साक्षात्कार में मोहन राकेश ने लेखक के लिए विचारधारा और सामाजिक प्रतिबद्धता की ज़रूरत पर जिस तरह से बात की, उससे उनके पक्ष को समझना आसान हो जाता है। राकेश जी अपने जवाब में कहते हैं कि 'मेरे विचार में प्रत्येक लेखक की अपनी विचारधारा तथा प्रतिबद्धता होती है। मैं इसमें नहीं जाऊँगा कि मेरे साथियों की इस या उस प्रकार की विचारधारा रही है। मैं इतना कहूँगा कि हम एक प्रकार के संघर्ष में लगे हुए हैं- वह संघर्ष, जैसा कि मैंने पहले भी कहा था, एक व्यक्तिगत अनुभव से उत्पन्न होता है अर्थात एक ऐसा संघर्ष जो इस प्रकार की वास्तविकता से काफी हद तक जुड़ा हुआ है। लेकिन जब लोग प्रगतिवाद या फिर माक्सिवाद से प्रभावित विचारधारा पर बात करते हैं तो वह एक प्रकार की नारेबाजी लगती है या फिर लेखक का एक प्रकार नीति को ओढ़ना या फिर किसी विशेष पार्टी के हुक्म पर चलने के बारे में चर्चा करते हैं। इस प्रकार 'प्रगतिवादी' लेखक के नाम पर बहुत कुछ बेकार का लिखा गया है। जैसाकि मैंने पहले भी कहा है, हठधर्मी प्रगतिशील हमें अप्रगतिवादी या प्रतिक्रियावादी कहते थे, क्योंकि हम उनकी विचारधारा से सहमत नहीं हुए, जिसका अर्थ था कि लेखन एक विशेष प्रकार की नारेबाजी और घोषणाओं से प्रेरित होना चाहिए। दूसरी तरफ, हम गैर-प्रगतिवादी लेखकों की आलोचना और अस्वीकृति का निशाना भी बने क्योंकि हम अपने समय की निकटतम समस्याओं के प्रति तटस्थ नहीं रहे। अर्थात हमको, उनके विचार में, इन सब परिस्थितियों से ऊपर रह कर लेखन में अमूर्त विचार ही प्रस्तुत करने चाहिए थे। उनके विचार में अप्रगतिवादी विचारधारा का अर्थ यह था कि लेखक को अपने आस-पास की सामाजिक परिस्थितियों के प्रति तटस्थ रहना चाहिए। इसलिए वह एक बहुत ही कठिन परिस्थिति थी जिसमें हम अपने दृष्टिकोण को स्थापित करने के लिए जूझ रहे थे।
नई कहानी के बारे में वह स्पष्ट कहते हैं कि ‘मैं ऐसा नहीं मानता कि आज की कहानी ने पहले की कथा परंपरा से सर्वथा विच्छिन्न हो कर उसे 'पुरानी' की संज्ञा में बंद कर दिया है । जहाँ तक 'नयी कहानी' का संबंध है, उसके विषय में मैं अवश्य कहूँगा कि उसमें अवश्य कुछ गलतफहमी हुई है। कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव और मेरे द्वारा चलाया गया यह कोई 'आन्दोलन' नहीं था। दरअसल 1950 के लगभग कुछ 10-12 लेखकों का एक ग्रुप था जो कि मुख्यतः कहानी लिखने का शौक रखता था। फिर अचानक ऐसा लगा कि प्रायः लेखकों ने कविता से हट कर 'कहानी' लिखने में रुचि लेनी शुरू कर दी थी। इस अदला-बदली के कारण को विस्तृत रूप में भी समझाया जा सकता है, लेकिन यहाँ मैं गहराई में न जा कर सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि उस समय हम लोगों में एक अजीब-सी अकुलाहट थी; हम एक ऐसी तीव्र आकांक्षा लिये हुए थे और चाहते थे कि हम अपने समय के रंग को पकड़ पायें। वह यही अकुलाहट थी कि जिसने उस अदला-बदली को जन्म दिया, जिसका कि हवाला मैंने अभी दिया है। नयी कहानी ‘इस तरह एक चिह्न मात्र बन गया था, जो कि हमारे कहानी-लेखन के प्रयास को प्रेमचन्द के बाद की कहानियों से अलग कर सके।’ 'नयी कहानी' आन्दोलन एक आन्दोलन के रूप में नहीं शुरू हुआ था। हममें से बहुत-से लिख रहे थे, और अदला-बदली के इस माध्यम द्वारा जो कि आसपास के यथार्थ को व्यक्त करता था, हममें से बहुत-से एक-दूसरे के करीब आ गये, अर्थात् एक-दूसरे में समानता-सी स्पष्ट होने लगी और इसी को बाद में 'नयी कहानी आंदोलन' नाम दे दिया गया।'
वह ‘अधिक निर्वैयक्तिक दृष्टि’ को नयी कहानी की विशिष्टता मानते हुए रेखांकित करते हैं कि यथार्थ-चित्रण के क्षेत्र में लेखक की व्यक्तिगत भावुकता के लिए अवकाश नहीं होना चाहिए। कहानी की सफलता बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करती है कि कहानीकार चरित्रों और उनकी परिस्थितियों के विधान में कहाँ तक निःसंग, तटस्थ और अयुक्त रह पाता है और अपनी घृणा या संवेदना की अभिव्यक्ति परिस्थितियों के वैज्ञानिक विश्लेषण या संघटन द्वारा ही करता है। जीवन के प्रति लेखक का निजी भावाग्रह आवश्यक है, परन्तु जो देख कर वह भावाग्रह जन्म लेता है, उसे वैसे ही दिखा कर दूसरे में वही भावाग्रह जाग्रत करने की योग्यता उसमें हो, न कि स्वयं एक व्याख्याकार का रोल अदा करते हुए। आज का कहानीकार अपनी कलम की नोक को अपने दृष्टि-बिन्दु की तरह ही तीव्र करने में व्यस्त है। जो बिम्ब उसके सामने से गुजरते हैं और उस पर अपनी छाप छोड़ जाते हैं, उनका ऐसा विधान, जो दूसरे पर अपेक्षित प्रभाव की सृष्टि कर सके, ही उसकी उपलब्धि का नया आयाम है। कहानी के सम्पूर्ण प्रभाव की अभिव्यक्ति बिम्बों द्वारा ही हो, लेखकीय टिप्पणियों के लिए उसमें अवकाश न रहे, इस पूर्ति तक आज की कहानी धीरे-धीरे पहुँच रही है। ‘लेखक का मुख्य दायित्व अपने समय के प्रति है, एक कहानी-लेखक का विशेष रूप से, क्योंकि समय के यथार्थ की विविधता के अन्तर्गत एकसूत्रता का निर्देशन करने और निर्माणात्मक तथा विध्वंसात्मक शक्तियों की बहुमुखता के अन्तर्गत उनकी एकरूपता का परिचय देने का दायित्व मुख्यतया उसी पर आता है।’
मोहन राकेश नई कहानी आन्दोलन के साथ बाद की कहानियों की सीमाओं पर भी खुल कर बात करते हैं। वह लिखते हैं कि नयी कहानी समकालीन जीवन के यथार्थ का सही प्रतिनिधित्व नहीं कर पा रही, क्योंकि खंडगत जीवन के बहुत-से चित्रों के अन्दर आज के अखंड जीवन का सही प्रतिबिम्ब देखने को नहीं मिलता। अधिकांश कहानीकारों ने नागरिक या ग्रामीण जीवन की संकीर्णता या असंकीर्णता के जो चित्र अपनी कहानियों में प्रस्तुत किये हैं, उनसे आज के भारतीय जीवन के विराट् स्पंदन का सही अनुभव नहीं होता। कुछ लेखकों के दिमाग में यह बात समायी है कि आज का नागरिक जीवन इस तरह के दलदलों में फंसा है कि वहाँ स्वस्थ मानव के दर्शन नहीं हो सकते, इसलिए वे कहानी में ग्रामीण जीवन के चित्र प्रस्तुत कर के ही मानव के स्वस्थ-सुन्दर रूप का परिचय दे सकते हैं। बात इतने तक ही सीमित नहीं है कि कहानी के अन्तर्गत जिन चरित्रों को हम प्रस्तुत करते हैं, वे दुर्बल हैं या सबल, या कि जिस वातावरण को हम उठाते हैं, वह संकुल है या असंकुल। असुन्दर से दूर कहीं सुन्दर का भी सद्भाव है, निर्बल से दूर कहीं सबल भी वर्तमान है, क्या इतने मात्र से जीवन को कुछ संकेत मिल पाता है? जीवन निरन्तर विकास कर रहा है और उसके विकास-क्रम में ही वह सब कूड़ा-कचरा पैदा होता है, जो उसके विकास में बाधा पहुँचाना चाहता है। उसकी सड़ाँध से ऊब कर हम वहाँ चले जायें, जहाँ अपेक्षया अधिक ताजी हवा बहती है, तो क्या उससे वह सड़ाँध दूर होगी? हिंदी में ग्राम-जीवन को ले कर लिखी गयी कहानियों की प्रतिष्ठा के प्रसंग में कई बार ऐसी-ऐसी उद्घोषणाएँ की जाती हैं, जिनसे जीवन की विकास-यात्रा के संबंध में भ्रान्ति उत्पन्न हो सकती है। यह सच होते हुए भी कि भारत की अधिकांश जनसंख्या गाँवों में रहती है, इसमें संदेह नहीं कि गाँव हमारे जीवन के विकास-क्रम का अगला सोपान नहीं है। जीवन के विकास-क्रम को प्रभावित करने वाली समस्याएँ जिन राजनीतिक, आर्थिक और साम्प्रदायिक आवर्तों में जन्म लेती हैं, उनके केंद्र में निःसंदेह हमारे गांव नहीं हैं ।
वह सवाल उठाते हैं कि क्या सचमुच शहरों के मध्यवर्गीय जीवन में कुछ भी स्वस्थ और सुन्दर नहीं है? उन घुन खाये इंसानों के अन्दर कहीं भी मानव-सुलभ कोमलता नजर नहीं आती? मानव की दृढ़ता का परिचय नहीं मिलता? और गाँवों का जीवन क्या वास्तव में सुन्दर और उर्जस्वित मात्र ही है? झूठ, फरेब, चोरी और मक्कारी आदि की विडम्बनाओं से वह सर्वथा मुक्त है? ‘हमारा विश्वास है कि इस तरह कहानियों के वस्तु-सत्य के आधार पर जीवन के संबंध में एक दृष्टि बना लेना, या साहित्यिक उपलब्धियों के मान निश्चित करने लगना, एक स्वस्थ दृष्टि नहीं है।’ जीवन नगर और गाँव के भेद से अस्वस्थ और स्वस्थ नहीं है। स्वस्थ या अस्वस्थ जीवन के चित्रण के आधार पर साहित्य का उत्कर्ष सिद्ध नहीं होता। वस्तुतः जीवन एक इकाई है और उसे प्रभावित करने वाली शक्तियों के सूत्र शहरों और गाँवों में सर्वत्र फैले हुए हैं। उन शक्तियों का द्वन्द्व सब जगह अनुभव किया जा सकता है- नागरिक जीवन में अपेक्षया अधिक तीव्रता के साथ, क्योंकि द्वन्द्व के केन्द्र मुख्यतया शहर बल्कि उनमें भी बड़े-बड़े शहर हैं। यदि हमारी रचनाओं में उस द्वंद्व का सही परिस्पंदन नहीं झलकता, तो हमारी रचनाएँ आज के यथार्थ का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। उनके इस कथन में संदेह नहीं कि प्रेमचंद के समय का यथार्थ आज के यथार्थ से बहुत भिन्न है। उस समय की उपलब्धियों के आधार पर आज के लिए निष्कर्ष निकाल कर हम सही परिणाम पर नहीं पहुँच सकते ‘आज के यथार्थ का सही चित्रण करने के लिए हमें अपने जीवन की संकुलता और सड़ांध के बीच जीते हुए उसके खाके उतारने होंगे और उस सड़ाँध के बीच कुलबुलाती हुई तथा उसे दूर करने के लिए व्याकुल मानव-चेतना को प्रतिफलित करना होगा। मानव की जो ऊर्जस्विता आज के जीवन को शक्ति दे सकती है, वह इस संकुलता और सड़ांध से संघर्ष करके निखरती हुई ऊर्जस्विता होगी, हमें यह विश्वास खो देना नहीं होगा कि वातावरण की इस संकुलता के बीच भी मानक की शक्ति और कोमलता लुप्त नहीं हुई है। हम यदि उसका साक्षात्कार नही कर पाते तो यह हमारी दृष्टि का दोष है या हमारे अनुभव की न्यूनता है।
कहानी परंपरा का मूल्यांकन करते हुए वह प्रेमचंद और उनके बाद की कहानी के विभिन्न आयामों का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं कि “हिन्दी कहानी में यथार्थ की अवतारणा का श्रेय प्रेमचंद को दिया जाता है। वैसे अपने उदय काल में ही हिन्दी कहानी को प्रेमचंद, प्रसाद और गुलेरी जैसे कथाकारों ने ठीक दिशा दे दी, यह बहुत बड़ी बात थी। प्रेमचंद अपने काल के यथार्थ का बहुत विस्तृत क्षेत्र ले कर चले हैं। उस क्षेत्र के सभी पक्षों से उनका सहज और घनिष्ठ परिचय कई जगह आश्चर्य में डाल देता है। प्रेमचंद की रचनाओं के गौण चरित्र, जिन पर प्रेमचंद के आदर्शवाद का आरोप नहीं हुआ, अपनी स्वाभाविकता और प्रामाणिकता की गहरी छाप हृदय पर छोड़ते हैं।” (साहित्य और संस्कृति, पृष्ठ, 31) उनके द्वन्द्व और संवेद पाठक को अपने ही जीवन का अंग प्रतीत होते हैं। प्रेमचंद ने जिस जीवन-दर्शन को अपने आदर्श के रूप में अपनाया उसका खोखलापन बाद में स्वयं उन पर भी प्रकट हो गया, और उस आदर्श से परिचालित पात्रों में वह विश्वसनीयता नहीं आ पायी जो कील की तरह अन्तर की परतों को चीरती चली जाए “प्रेमचंद की कहानियों में बहुत से ऐसे स्थल मिलते हैं जहां पात्र नहीं परिस्थितियां बोलती हैं। 'कफन' इसी श्रेणी की कहानी है परंतु वहां स्थिति की अपेक्षा पात्र अधिक मुखर हो जाते हैं। जो जीवन से ध्वनित होना चाहिए वह किसी की जबान से सुनने को मिलता है । वहां लेखक और पाठक के बीच एक कोष्ठ रिक्त रह जाता है जिससे यथार्थ की शक्ति क्षीण हो जाती है और रचना का प्रभाव कम हो जाता है।” (उपर्युक्त, पृष्ठ, 32)
प्रेमचंद के बाद हिन्दी कथा-साहित्य दो सर्वथा अलग-अलग धाराओं में विभाजित हुआ जिनका प्रतिनिधित्व क्रमशः यशपाल और अज्ञेय की रचनाएँ करती हैं। मोहन राकेश मानते हैं कि यशपाल की रचनाओं का प्राणतत्व ‘सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन’ है तो अज्ञेय की रचनाओं के प्राण ‘गूढ़ सांकेतिकता’ में बसते हैं। उपन्यास के क्षेत्र में 'मनुष्य के रूप' और 'नदी के द्वीप' इन दो सीमाओं का संकेत देते हैं तो कहानी के क्षेत्र में 'प्रतिष्ठा का बोझ' एक दिशा है और 'साँप' दूसरी। परन्तु इन दोनों लेखकों और दोनों प्रतिनिधि धाराओं में एक बात सामान्य प्रतीत होती है और वह है - अतिशय रूमानी वातावरण की सृष्टि का मोह। अन्तर केवल इतना है कि ‘यशपाल यथार्थ की भूमि पर वर्तमान में रहते हुए ऐसा करते हैं और अज्ञेय एक कल्पित भावुकतापूर्ण विश्व की सृष्टि करके उसके अन्दर जा कर, परन्तु स्त्री और पुरुष के निकट संबंधों के वर्णन में दोनों की प्रतिभा रमती है। परिणामस्वरूप इन दोनों की रचना के निश्चित दायरे बन गये जिन के बाहर वे प्रयत्न करके भी नहीं निकल पाये।’ इस बीच जीवन ने कई करवटें लीं। समाज में कई तरह की हलचल और उथल-पुथल हुई। परन्तु उसने या तो इन्हें प्रभावित किया ही नहीं और किया भी तो उन्होंने उससे उतना ही ग्रहण किया जो इनकी निश्चित परिधि में समा सकता था। जीवन के बहुमुखी यथार्थ को चित्रित करने की जिस परंपरा का प्रेमचन्द ने सूत्रपात किया था, वह लगभग अछूती ही पड़ी रही।
कथाकार यशपाल की कहानियों पर कड़ी टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि यशपाल ने मध्य वर्ग के जीवन की विसंगतियों को केंद्र में रखते हुए कई मार्मिक कहानियाँ लिखीं, परन्तु उनका यथार्थ एकांगी था, एक ऐसा यथार्थ जिसमें मनुष्य के सौंदर्य और उसकी उदात्त वृत्तियों को आँख से ओझल रखा गया। ‘यशपाल को नग्नता के चित्रण का बहुत आग्रह रहा। क्या केवल कुत्सित मात्र ही यथार्थ है? क्या उस मध्य वर्ग के जीवन में जो जल्दी-जल्दी अपनी कुंठाओं की केंचुलियाँ तोड़ रहा है, कोई भी उजली रेखा नजर नहीं आती? जिस मनुष्य से उसकी मनुष्यता का विश्वास हो छीन लिया जायेगा, उसे हम बदल क्यों कर सकेंगे? मध्य वर्ग के जीवन में केवल खोखलापन और आडम्बर ही नहीं है, उस में भी बहुत कुछ है जो सजीव है और विकार-रहित है, और जिसकी रक्षा की जा सकती है।’
'समकालीन हिंदी कहानी और उसमें अभिव्यक्त मानवीय संकट' के संबंध में मोहन राकेश मानते थे कि ह्यूमन क्राइसिस का जो रूप पश्चिमी देशों में है वह रूप हमने नहीं भोगा है। इस बारे में उनके समकालीन लेखक कमलेश्वर भी लगभग यही बात रेखांकित करते हैं कि हमने यांत्रिकताजन्य ह्यूमन क्राइसिस की बजाय विदेशी यांत्रिकताजन्य आर्थिक दबाव को अधिक महसूस किया है। ‘भारतीयता और समकालीन हिंदी कहानी’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में मोहन राकेश कहते हैं कि ‘मैं भारतीय साहित्य के लिए ही भारतीयता की बात नहीं करता, प्रत्येक देश के साहित्य में उस देश का 'पन' होता है। यहीं पर एक बात स्पष्ट कर देना शायद समीचीन होगा - और वह यह कि 'आंचलिकता और यूनीवर्सेलिटी आपस में विरोधी 'टर्म' नहीं हैं, यूनीवर्सेलिटी में एप्रीसिएशन भी रहता है और एसीमिलिशन भी। यही कारण है कि एक प्रबुद्ध संस्कारशील व्यक्ति किसी भी देश की कलाओं-फाइन आर्ट्स का आस्वादन कर सकता है और आप्लावित हो सकता है। अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए 'मैला आँचल' का उदाहरण देना चाहता हूँ। मुझे लगता है कि इतना 'रीजनल' होते हुए भी उसमें अपनी 'यूनीवर्सेलिटी' है। और मुझे तो यह भी लगता है कि रेणु वारसा के किसी गाँव को संवेदन के उस स्तर पर ले कर उसे अभिव्यक्ति नहीं दे सकते थे।’
मोहन राकेश के लेखकीय व्यक्तित्व से नाटक और रंगमंच को अलग कर के देखना असंभव है। रंगमंच और नाटक पर विचार करते हुए वह लिखते हैं कि एक तो अपने यहाँ, विशेष रूप से हिन्दी में, उस तरह का संगठित रंगमंच है ही नहीं जिसमें नाटककार के एक निश्चित अवयव होने की कल्पना की जा सके, दूसरे उस तरह की कल्पना के लिए मानसिक पृष्ठभूमि भी अब तक बहुत कम तैयार हो पायी है। रंगमंच का जो स्वरूप हमारे सामने है, उसकी पूरी कल्पना परिचालक और उसकी अपेक्षाओं पर निर्भर करती है। नाटककार का प्रतिनिधित्व होता है एक मुद्रित या अमुद्रित पाण्डुलिपि द्वारा, जिसकी अपनी रचना-प्रक्रिया मंचीकरण की प्रक्रिया से अलग नाटककार के अकेले कक्ष और अकेले व्यक्तित्व तक सीमित रहती है। इसीलिए मंचीकरण की प्रक्रिया में परिचालक को कई तरह की असुविधा का सामना करना पड़ता है। नाटककार से उसे कई तरह की शिकायत भी रहती है; ऐसे में यदि नाटककार समझौता करने के लिए तैयार हो, तो उसकी पाण्डुलिपि की मनमानी शल्य-चिकित्सा की जाने लगती है- संवाद बदल दिये जाते हैं, स्थितियों में कुछ हेर-फेर कर दिया जाता है और चरित्रों तक में हस्तक्षेप किया जाने लगता है। वह जोर दे कर कहते हैं कि "रंगमंच की पूरी प्रयोग-प्रक्रिया में नाटककार केवल एक अभ्यागत, सम्मानित दर्शक या बाहर की इकाई बना रहे, यह स्थिति मुझे स्वीकार्य नहीं लगती। न ही यह कि नाटककार की प्रयोगशीलता उसकी अपनी अलग चारदीवारी तक सीमित रहे और क्रियात्मक रंगमंच की प्रयोगशीलता उससे दूर अपनी अलग चारदीवारी तक। इन दोनों को एक धरातल पर लाने के लिए अपेक्षित है कि नाटककार पूरी रंग-प्रक्रिया का एक अनिवार्य अंग बन सके । साथ यह भी कि वह उस प्रक्रिया को अपनी प्रयोगशीलता के ही अगले चरण के रूप में देख सके ।"(मोहन राकेश, साहित्य और संस्कृति, पृष्ठ, 72) ध्यान दें तो आप पाएंगे कि मोहन राकेश का अभिप्राय नाटक की रचना-प्रक्रिया के रंगमंच की प्रयोगशीलता के साथ जुड़ सकने की सम्भावनाओं से है। एक नाटक की रचना यदि रंग-प्रक्रिया के अन्तर्गत होती है, तो बाद में उसे कहाँ-कहाँ और किस-किस रूप में खेला जाता है, इसमें नाटककार की भागिता का प्रश्न नहीं रह जाता, रह जाता है केवल उसके अधिकारों का प्रश्न।
मोहन राकेश की चिंता यह भी थी कि रंगमंच को दर्शक तक ले जाने या दर्शक को रंगमंच तक लाने के लिए हमें क्या उपाय करने चाहिए? प्रयोगशील रंगमंच को आर्थिक आधार पर किस तरह जीवित रखा जा सकता है? किन तकनीकी या दूसरे चमत्कारों से रंगमंच को सामान्य दर्शक के लिए अधिक आकर्षक बनाया जा सकता है? सर्वांग (टोटल) रंगमंच की सम्भावनाएँ क्या हैं? विसंगत रंगमंच के बाद की दिशा क्या होगी? घटना-विस्फोट के प्रयोग हमें किस रूप में करने चाहिए?
भारतीय रंग-शिल्प पर बाहरी दृष्टि से विचार किए जाने की समस्या पर विचार करते हुए वह रेखंकित करते हैं कि बाहरी दृष्टि के कारण ही हम अपने को न्यूनतम उपकरणों की अपेक्षा से बँधा हुआ महसूस करते हैं और यह अपेक्षा तकनीकी विकास के साथ-साथ उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। साथ ही हमारी निर्भरता भी बढ़ती जा रही है और हम अपने को एक ऐसी बन्द गली में पा रहे है जिसकी सामने की दीवार को इस या उस ओर से बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता पा कर ही तोड़ा जा सकता है है - "मुझे लगता है कि हम इस गली में इसलिए पहुँच गये हैं कि हमने दूसरी किसी गली में मुड़ने की बात सोची ही नहीं-किसी ऐसी गली में जो उतनी हमवार न होते हुए भी कम-से-कम आगे बढ़ते रहने का मार्ग तो दिये रहती। तकनीकी रूप से समृद्ध और संश्लिष्ट रंगमंच भी अपने मन में विकास की एक दिशा है, परन्तु उससे हट कर एक दूसरी दिशा भी है और मुझे लगता है कि हमारे प्रयोगशील रंगमंच की वही दिशा हो सकती है। वह दिशा रंगमंच के शब्द और मानव-पक्ष को समृद्ध बनाने की है - अर्थात् न्यूनतम उपकरणों के साथ संश्लिष्ट से संश्लिष्ट प्रयोग कर सकने की। यहीं रंगमंच में शब्दकार का स्थान महत्वपूर्ण हो उठता है- उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण जितना कि हम अब तक समझते आये हैं।” (नाटककार और रंगमंच, उपर्युक्त, पृष्ठ, 74)
मोहन राकेश जिस सजग लेखकीय संलग्नता से हिंदी कथा परंपरा के हरावल लेखकों पर विचार करते हैं, उससे अधिक अधिकार से ‘नाटक और रंगमंच’ को विकसित करने वाली समृद्ध परंपरा का विश्लेषण करते हैं। भारतेंदु बाबू के अवदान को रेखांकित करते हुए वह लिखते हैं कि ‘हिन्दी नाटक के उदय काल में भारतेन्दु बाबू ने दकियानूसी परंपरा से हट कर नये रंगमंच की स्थापना का प्रथम प्रयत्न किया था। परन्तु अपने सीमित साधनों और व्यापक सहयोग के अभाव के कारण उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली – ‘भारतेन्दु के मौलिक नाटकों में रंगमंच के संबंध में उनकी स्पष्ट दृष्टि का परिचय अवश्य मिलता है। लोकरुचि और परंपरा दोनों को मान्यता देते हुए उन्होंने संस्कृत नाटक के रंगशिल्प को नये साँचे में ढालने का प्रत्यन किया। भारतेन्दु की पात्र-कल्पना तथा उनके दृश्य-संयोजन ‘जन-साधारण में नाटक की स्थापना की दृष्टि को’ व्यक्त करते हैं।’ भारतेन्दु की दृष्टि को आगे विकसित किया जाता तो अब तक हिन्दी रंगमंच का एक निश्चित रूप हमारे सामने आ गया होता। परन्तु उनके बाद रंगमंच का क्षेत्र 'वीर अभिमन्यु' जैसे नाटकों के लिए छोड़ कर हिन्दी के साहित्य-स्रष्टाओं ने एक दूसरा ही मार्ग चुन लिया। प्रसाद जी ने पारसी कंपनियों की परंपरा से तो नाता तोड़ा पर न उन्होंने भारतेन्दु की परंपरा को आगे ले जाने का प्रयत्न किया और न ही रंगमंच की किसी नयी परंपरा का संकेत दिया। यद्यपि उनका विचार था कि परिष्कृत बुद्धि के अभिनेता हों, सुरुचि-सम्पन्न सामाजिक हों और पर्याप्त द्रव्य काम में लाया जाये तो, उनके नाटक अभिनीत हो सकता कर अभीष्ट प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं, पर उनके नाटकों के शिल्प को देखते हुए उनसे सहमत होना असम्भव प्रतीत होता है। उन्होंने अपने विचार की पुष्टि के लिए 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' जैसे संस्कृत नाटकों का उदाहरण दिया है। परन्तु शाकुन्तलम् तथा अन्य संस्कृत नाटकों में जो अपनी ही एक यूनिटी है, वह प्रसाद जी के नाटकों में नहीं पायी जाती। 'शाकुन्तलम्' पूरा का पूरा अभिनेय है। रथ के दृश्यों के संबंध में यह कहा जा सकता है कि वे रंगमंच पर प्रस्तुत नहीं किये जा सकते, परन्तु वास्तव में वहाँ रंगमंच पर रथ की उपस्थिति का आभास-मात्र देना अभिप्रेत है- 'पश्य' के बाद वर्णित किया जाने वाला सब कुछ नेपथ्य में संकेतित होता है, रंगमंग पर घटित होता नहीं दिखाया जाता। इसी तरह भास के नाटक भी असंदिग्ध रूप से अभिनेय हैं। परन्तु प्रसाद जी के नाटकों के संबंध में यह नहीं कहा जा सकता- ‘प्रसाद जी का रंगमंच के साथ संपर्क नहीं रहा, शायद इसीलिए वे रंगमंच की सीमाओं से परिचित नहीं हो सके... 'चंद्रगुप्त' नाटक के द्वितीय अंक के आठवें दृश्य में मालविका और चंद्रगुप्त रावी के तट पर कुछ सैनिकों के साथ खड़े हैं और नदी में दूर पर कुछ नावें दिखायी दे रही हैं। सिंहरण के संकेआईत करने पर नावें चली जाती हैं। फिर एक नाव तेजी से आती है और उस पर से अलका उतर पड़ती है। हमें आश्चर्य होता है कि ऐसे-ऐसे दृश्यों की योजना करते समय प्रसाद जी ने किस तरह के रंगमंच की कल्पना की होगी? यदि यह कहा जाये कि चित्रपट को दृष्टि में रखकर उन्होंने ऐसा किया होगा तो और भी खेद होता है क्योंकि चित्रपट के नाटक की और कई अपेक्षाएँ हैं और उसमें संवाद बहुत कम होते हैं।
राकेश जी मानते थे कि भारतीय रंगमंच का निर्माण पाश्चात्य रंगमंच की नकल में ही हुआ है, इसलिए उसका अपना व्यक्तित्व अभी तक निखर नहीं पाया। पाश्चात्य नाटक प्रायः ड्राइंग-रूम के सेट पर लिखा जाता रहा है, इसलिए हमारे यहाँ का सामाजिक नाटक भी अधिकांशतः मध्यम वर्ग के घर के ऐसे सेट को दृष्टि में रख कर लिखा जाता रहा है, जहाँ मेज-कुर्सियाँ, बुक-शेल्फ और टेबल-लैंप इत्यादि चीजें अनिवार्य-सी होती हैं। ज्यादा हिन्दुस्तानीपन लाना हुआ तो महावीर आदि की तसवीरें पृष्ठभूमि में लटका दी गयीं। इस तरह के सेट की कल्पना नाटक को अधिकांशतः शहरी वर्ग तक सीमित कर देती है और नाटककार के लिए जीवन के वस्तु विस्तार को भी सीमित कर देती है- ‘रंगमंच के विषय में सोचते हुए हम पाश्चात्य नाटक के रंग-शिल्प को दृष्टि में रखें और हिन्दी के निजी रंगमंच के विकास की बात करें, इसमें असंगति ही प्रतीत होती है। हिन्दी रंगमंच के विकास से निःसन्देह हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि अत्याधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न रंगशालाएँ राजकीय या अर्द्ध-राजकीय संस्थाओं द्वारा बनवा दी जायें, जहाँ हिन्दी के नाटककारों की रचनाओं का प्रदर्शन किया जा सके। यह प्रश्न केवल आर्थिक सुविधा का नहीं, एक सांस्कृतिक दृष्टि का है। हिन्दी का वास्तविक रंगमंच राजकीय आयोजनों से नहीं, समर्थ नाटककारों और अभिनेताओं तथा दिग्दर्शकों के हाथों विकसित होगा।’ यदि नाटक जीवन के द्वन्द्वों का चित्रण करेगा तो रंगमंच को भी जीवन की परिस्थितियों के अनुकूल ढलना होगा। हिन्दी रंगमंच को हिन्दी-भाषी प्रदेश की सांस्कृतिक आकांक्षाओं का प्रतीक बनना होगा। हमारा रंगों और राशियों का विवेक नये रंगमंच की सज्जा को बल देगा। हमारे दैनंदिन जीवन के राग-रंग को प्रस्तुत करने के लिए, हमारे ब्याह-त्यौहारों के स्पंदनों को आकार देने के लिए जिस रंगमंच की आवश्यकता है, वह पाश्चात्य शैली के रंगमंच से कहीं खुला होना चाहिए।
मोहन राकेश का मूल विरोध ‘परिचालना-पक्ष पर दिए जाने वाले अतिरिक्त बल’ को ले कर था; जिससे वह रंगमंच को मुक्त करना चाहते थे। वह मानते थे कि शब्दों का रंगमंच केवल शब्दकार का रंगमंच नहीं हो सकता - शब्दकार, परिचालक और अभिनेता, इनके सहयोगी प्रयास से ही उसके स्वरूप का अन्वेषण और परिसंस्कार किया जा सकता है। इसका स्वीकृति-पक्ष है - शब्दकार को अपनी रंग-परिकल्पना का आधार-बिन्दु मान कर चलना और अस्वीकृति-पक्ष उन सब आग्रहों से मुक्ति जिनके कारण रंग-परिचालना का मानवेतर पक्ष उत्तरोत्तर अधिक बल पकड़ता दिखायी देता है। लेकिन नाटककार को इस मानसिक ग्रन्थि से मुक्त होना होगा कि पूरी रंग-प्रक्रिया का नियामक वह अकेला है। उस स्थिति में वह अकेला नियामक होगा जब इस तरह की रंग-प्रक्रिया के अन्तर्गत एक नाटक का निर्माण हो चुकने के बाद वह उसे प्रस्तुत करने जा रहा हो - अर्थात् जब अन्ततः नाटक एक निश्चित पाण्डुलिपि या मुद्रित पुस्तक का रूप ले चुका हो। परन्तु जिस रंग-प्रक्रिया के अन्तर्गत वह पाण्डुलिपि निर्मित हो रही हो, उसमें मूल नियामक नाटककार ही हो सकता है और परिचालक वह मुख्य सहयोगी जो उसके हर अमूर्त विचार को एक मूर्त आकार देकर या न दे सकने की विवशता सामने ला कर स्वयं भी लेखन-प्रक्रिया में उसी तरह हिस्सेदार हो सकता है जैसे प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया में नाटककार।
रविशंकर और हेब्बार के साथ ‘परंपरा आधुनिकता और भारतीयता’ पर बातचीत के दौरान मोहन राकेश उस बेहद बुनियादी बिंदु की ओर ध्यान खींचते हैं जिसको ले कर हमारे यहाँ बहुत घालमेल किया जा रहा है- “परंपरा सतत विकासशील होती है और अपने विकास-क्रम में अनेक प्रभावों को आत्मसात करती जाती है। आज जो परंपरा है उसमें कई शताब्दियों के बाहरी प्रभाव आत्मसात किए जा चुके हैं। इसीलिए प्रयोग और परंपरा, आधुनिकता और भारतीयता- इन्हें मैं अनिवार्यतः विरोधी नहीं मानता। लेकिन जातीय चेतना के नाम पर अपने संस्कारों को रूढ़ बनाना या अंतरजातीय चेतना के नाम पर विजातीय संस्कार ख्वाहमख्वाह आरोपित करना, दोनों ही गलत बाते हैं।” (आधुनिकता के तत्व बनाम भारतीयता के तत्व, उपर्युक्त, पृष्ठ, 113-114)
लेखकीय प्रतिबद्धता के सवाल पर उनकी मानेखेज टिप्पणी से असहमत होने की बहुत कम गुंजाइश है कि ‘एक लेखक को प्रतिबद्ध तो होना चाहिए, लेकिन किसी विशेष परिभाषित विचारधारा से नहीं’। प्रत्येक लेखक किसी विचारधारा से संबद्ध होता है, वह जिस किसी या इस या उस विचारधारा के विरुद्ध ही क्यों न हो, वह भी किसी विचारधारा की विरोधी विचारधारा से सम्बद्ध हो जाता है। हमारी विशेष विचारधारा मार्क्सवादी ही थी। हम उसी से जुड़े रहे, लेकिन हम किसी पार्टी-विशेष के प्रति जवाबदेह नहीं थे। एक तरह से यह उस प्रकार की विचारधारा थी जो कि विशेष ब्रांड की राजनीति में तो विश्वास रखती थी लेकिन राजनीतिज्ञों द्वारा संचालित राजनीति की अवज्ञा करती थी। हमने विचारधारा को तो स्वीकृत किया लेकिन उसके पक्षधरों को अस्वीकृत किया, क्योंकि हम उन लोगों से बिलकुल भी सहमत नहीं थे जो उस समय कम्यूनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक पक्ष को चला रहे थे। उनके सोचने का तरीका हमसे इतना भिन्न था कि हम अपने को उसका एक हिस्सा कैसे बना पाते? फिर भी, नयी कहानी आन्दोलन के काफी लेखक वामपंथी विचारधारा के थे। दूसरी तरफ मेरा कहना यह नहीं है कि ‘लेखक की प्रतिबद्धता पूर्णतया किसी विचारधारा से होनी ही चाहिए, कम-से-कम हमारे आन्दोलन में तो अवश्य ही, क्योंकि लेखक की प्रतिबद्धता अपने समय की उभरती हुई यथार्थता से भी होती है। इसीलिए ही लेखक को हर समय जीवन के बदलते स्वरूप के साथ अपनी विचारधारा को भी बदलना पड़ता है।’
मोहन राकेश की लेखकीय-आलोचकीय और जीवनगत दृष्टि के निचोड़ को उनके इस कथन में देखा जा सकता है कि ‘प्रतिबद्धता की बात मैं अपने या अपनी कला के सदर्भ में न सोच कर जीवन और उसके यथार्थ के संबंध में ही सोचता हूँ। मैं अपनी कला से प्रतिबद्ध हूँ, क्योंकि अपने परिवेश और उसके निरन्तर बदलते यथार्थ से प्रतिबद्ध हूँ। जीवन से हट कर अपने अकेलेपन में प्रतिबद्धता मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखती।' प्रतिबद्धता की बात मैं अपने या अपनी कला के सदर्भ में न सोच कर जीवन और उसके यथार्थ के संबंध में ही सोचता हूँ। मैं अपनी कला से प्रतिबद्ध हूँ, क्योंकि अपने परिवेश और उसके निरन्तर बदलते यथार्थ से प्रतिबद्ध हूँ। जीवन से हटकर अपने अकेलेपन में प्रतिबद्धता मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखती।
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शशिभूषण मिश्र |
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शशिभूषण मिश्र बहुत अच्छा लिखते हैं। सारगर्भित लेख।
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