रवि नन्दन सिंह का आलेख ’सर्वोदय’ को पढ़ते हुए
किताबों ने इस दुनिया को बदलने में प्रमुख भूमिकाएं निभाई हैं। थॉमस पेन द्वारा लिखी गई किताब 'कॉमन सेंस' (Common Sense) ने अमरीकी क्रांतिकारियों को आजादी प्राप्त करने के लिए प्रेरित करने में अग्रणी भूमिका निभाई। नपोलियन बोनापार्ट ने अपने वक्तव्य में यह बात कही कि अगर रूसो न हुआ होता तो फ्रांसीसी क्रान्ति नहीं हुई होती। ज्ञातव्य है कि रूसो की 'सोशल कांट्रेक्ट' नामक किताब को क्रांतिकारी हमेशा अपने पास रखते थे। इसी क्रम में जॉन रस्किन की किताब 'अनटू दिस लास्ट: का नाम लिया जा सकता है जिसने गांधी जी के जीवन को ही बदल कर रख दिया। रस्किन की इस किताब से गांधी जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इसका गुजराती में अनुवाद 'सर्वोदय' नाम से। कर दिया। सर्वोदय का मतलब होता है सबका उदय अथवा सबका विकास। 'सर्वोदय' ऐसे वर्गविहीन, जातिविहीन और शोषणमुक्त समाज की स्थापना करना चाहता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति और समूह को अपने सर्वांगीण विकास का साधन और अवसर मिले। रवि नंदन सिंह लिखते हैं "रस्किन की पुस्तक 'अनटू दिस लास्ट' के चारों निबंध प्रथम बार 1860 ई. में लंदन के 'कार्नहिल मैगजिन' में धारावाहिक रूप से छप चुके थे। उसी वर्ष ये निबंध न्यूयार्क की 'हार्पर मैगजिन' में भी प्रकाशित हुए। इन चारों निबंधों के प्रकाशन के साथ ही उनकी गंभीर आलोचना भी शुरू हो गयी। रस्किन ने अनेक प्रहारों को सहने के बावजूद चारों निबंधों को मई 1862 ई. में अपनी पुस्तक 'अनटू दिस लास्ट' के रूप में प्रकाशित किया। इन निबंधों में व्यक्त विचार यूरोप में विकसित 18 वीं-19 वीं सदी के पूँजीवादी अर्थशास्त्र की आलोचनात्मक पड़ताल करते हैं। रस्किन इस अर्थ में समाजवाद के अग्रदूत ठहरते हैं। इन निबंधों ने औद्योगीकरण तथा उसके द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों पर तीव्र प्रहार किया। कुछ विद्वान इस रूप में रस्किन को 'ग्रीन मूवमेंट' का - प्रणेता भी सिद्ध करते हैं।" आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रवि नन्दन सिंह का आलेख ’सर्वोदय’ को पढ़ते हुए।
’सर्वोदय’ को पढ़ते हुए
रवि नन्दन सिंह
'सर्वोदय' गाँधी जी की अनुदित कृति है जो रस्किन की पुस्तक 'अनटू दिस लास्ट' का सार है। 'अनटू दिस लास्ट' का गाँधी के हाथ में आना और उसे पढ़ा जाना एक ऐतिहासिक घटनाक्रम है, क्योंकि रस्किन की इस पुस्तक को पढ़ने के पश्चात गाँधी अंदर से काफी परिवर्तित हो गए थे। इस पुस्तक ने गाँधी पर जादुई असर किया था। गाँधी ने यह पुस्तक अपनी एक रेलयात्रा के दौरान पढ़ी थी। इसके बारे में अपनी आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' में गाँधी लिखते हैं कि "इस पुस्तक को हाथ में ले कर मैं छोड़ ही न सका। उसने मुझे अपने आगोश में ले लिया। ट्रेन शाम को डरबन पहुँचने के बाद मुझे सारी रात नींद नहीं आयी। मैंने पुस्तक में दिए गए विचारों को जीवन में अमल करने का इरादा किया। मेरा विश्वास है कि जो चीज मुझमें गहराई से भरी हुई थी, उसका स्पष्ट प्रतिबिम्ब मैंने रस्किन के इस ग्रन्थ में पाया।" बाद में गाँधी ने इस पुस्तक के बारे में लिखा कि 'यह पुस्तक खून और आँसू से लिखी गयी है।' रस्किन की इस पुस्तक को पढ़े जाने की घटना भी आकस्मिक एवं इत्तेफाकन घटी थी।
यह घटना मार्च 1904 की है। गाँधी दक्षिण अफ्रीका में जोहांसवर्ग से डरबन जा रहे थे। उनका साप्ताहिक पत्र 'इण्डियन ओपीनियन' जून 1903 ई. से शुरू हो चुका था और डरबन से छप रहा था। उस समय उस पत्र के प्रकाशन में कुछ कठिनाईयाँ आ रही थीं। उन्हीं कठिनाईयों के समाधान के लिए गाँधी डरबन जा रहे थे। जोहांसबर्ग से डरबन की यात्रा चौबीस घण्टे की थी। जोहांसबर्ग स्टेशन पर उन्हें छोड़ने के लिए गाँधी के अंग्रेज मित्र हेनरी पोलाक आए हुए थे। उन्होंने गाँधी को सफर में पढ़ने के लिए एक पुस्तक दी ताकि गाँधी की यात्रा कुछ पढ़ते हुए गुजरे। यह पुस्तक थी जान रस्किन की 'अनटू दिस लास्ट'। हेनरी पोलाक कुछ दिन पहले ही गाँधी के मित्र बने थे। पोलाक जोहांसबर्ग से प्रकाशित होने वाले पत्र 'द क्रिटिक' के सम्पादक थे। गाँधी से उनकी मुलाकात जोहांसवर्ग के एक 'वेजिटेरियन सोसायटी' में हुई थी। पोलाक लियो टालस्टाय को पढ़ने के बाद 'वेजिटेरियन' बन चुके थे। वे एडोल्फ जस्ट की पुस्तक 'रिटर्न टू नेचर' भी पढ़ चुके थे जो गाँधी को अत्यन्त पसंद भी। उस 'वेजिटेरियन सोसायटी' में इसी पुस्तक पर बातचीत करते हुए दोनों ने पाया कि उनके विचार आपस में बहुत मिलते हैं और दोनों घनिष्ट मित्र बन गए थे।
रस्किन द्वारा लिखी गयी इस पुस्तक ('अनटू दिस लास्ट') ने गाँधी के जीवन-दर्शन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। इसे पढ़ने के बाद गाँधी ने न सिर्फ अपनी जीवन शैली बदलने का निर्णय किया, बल्कि तदनुसार लोगों की जागरूक करने के लिए एक आश्रम बनाने का भी निर्णय किया। डरबन से 14 मील दूर एक पहाड़ी पर 100 एकड़ ज़मीन खरीदी गयी और वहाँ फीनिक्स आश्रम की नीव पड़ी। 'इण्डियन ओपीनियन' समाचार पत्र का कार्यालय अब फीनिक्स आश्रम में स्थानान्तरित कर दिया गया। रस्किन की पुस्तक को आम लोगों तक पहुँचाने के लिए गाँधी ने स्वयं 1908 ई. में 'सर्वोदय' नाम से इसका अनुवाद किया। पहले यह अनुवाद गुजराती में हुआ, बाद में हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में किया गया। इस पुस्तक में रस्किन की मूल पुस्तक में दिए गए चार निबंधों का अनुवाद है।
रस्किन की पुस्तक 'अनटू दिस लास्ट' के चारों निबंध प्रथम बार 1860 ई. में लंदन के 'कार्नहिल मैगजिन' में धारावाहिक रूप से छप चुके थे। उसी वर्ष ये निबंध न्यूयार्क की 'हार्पर मैगजिन' में भी प्रकाशित हुए। इन चारों निबंधों के प्रकाशन के साथ ही उनकी गंभीर आलोचना भी शुरू हो गयी। रस्किन ने स्वयं लिखा है कि 'ये आलोचनाएं बहुत हिंसक थी ('वेरी वायलेंटली क्रिटिसाइज्ड')। यहाँ तक कि प्रकाशकों पर पत्रिका को चार महीने में बन्द करने का दबाव डाला गया। इन निबंधों के विरोध में सम्पादक के नाम अनेक पत्र पहुँचने लगे। रस्किन ने अनेक - प्रहारों को सहने के बावजूद चारों निबंधों को मई 1862 ई. में अपनी पुस्तक 'अनटू दिस लास्ट' के रूप में प्रकाशित किया। इन निबंधों में व्यक्त विचार यूरोप में विकसित 18 वीं-19 वीं सदी के पूँजीवादी अर्थशास्त्र की आलोचनात्मक पड़ताल करते हैं। रस्किन इस अर्थ में समाजवाद के अग्रदूत ठहरते हैं। इन निबंधों ने औद्योगीकरण तथा उसके द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों पर तीव्र प्रहार किया। कुछ विद्वान इस रूप में रस्किन को 'ग्रीन मूवमेंट' का - प्रणेता भी सिद्ध करते हैं।
रस्किन की पुस्तक का सार प्रस्तुत करते हुए 'सर्वोदय' की प्रस्तावना में गाँधी लिखते हैं कि "पश्चिम के देशों में यह माना जाता है कि बहुसंख्यक लोगों का सुख, उनका अभ्युदय ही मनुष्य का कर्तव्य है। सुख का अर्थ केवल शारीरिक सुख, रूपये-पैसे का सुख किया जाता है। इसी तरह बहुसंख्यक लोगों को सुख देने का उद्देश्य रखने के कारण पश्चिम के लोग थोड़ों को दु:ख पहुँचा कर भी बहुतों को सुख दिलाने में कोई बुराई नहीं मानते। --- यह ईश्वरीय नियम के विरूद्ध आचरण है।" पश्चिम के इस विकासवादी सिद्धान्त की आलोचना करते हुए गाँधी प्रस्तावना में आगे लिखते हैं कि "आजकल भारत में हम पश्चिम वालों की बहुत नकल कर रहे हैं। कितनी ही बातों में हम इसकी जरूरत भी समझते हैं, पर इसमें संदेह नहीं कि पश्चिम की बहुत सी रीतियाँ खराब हैं, और यह सभी स्वीकार करेंगे कि जो खराब है उससे दूर रहना उचित है।"
गाँधी बाहरी समृद्धि की जगह आन्तरिक समृद्धि पर बल देते हैं। वे अन्तरात्मा की आवाज सुनते हैं। इस अर्थ में उनका वैचारिक तल रस्किन के तल के बराबर था। उनके वैचारिक तल को ऊँचा उठाने में रस्किन की इस पुस्तक ने उन पर गहरा प्रभाव छोड़ा था। इस संबंध में गाँधी लिखते हैं कि "हम धन के लिए विदेश जाते हैं। उसकी धुन में नीति को, ईश्वर को भूल जाते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि हमें विदेश में रहने के लाभ के बदले उलटे बहुत हानि होती है अथवा विदेश यात्रा का पूरा-पूरा लाभ नहीं मिलता। सभी धर्मों में नीति का अंश तो रहता ही है, पर साधारण बुद्धि से देखा जाय तो भी नीति का पालन आवश्यक है। जान रस्किन ने सिद्ध किया है कि सुख इसी में है। उन्होंने पश्चिम वालों की आँखे खोल दी हैं और आज यूरोप और अमरीका के भी कितने ही लोग उनकी शिक्षा के अनुसार चलते हैं। भारतीय जनता भी उनके विचारों से लाभ उठा सके, इस उद्देश्य से हमने उक्त पुस्तक का इस ढंग से सारांश देने का विचार किया है कि जिससे अंग्रेजी न जानने वाले भी उसे समझ लें।"
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जॉन रस्किन |
रस्किन का प्रथम निबंध है 'रूट्स ऑफ आनर' जिसका सार गाँधी ने 'सचाई की जड़' शीर्षक से प्रस्तुत किया है। 'सर्वोदय' का यह प्रथम अध्याय है। इसमें मानव-अर्थशास्त्र का परीक्षण किया गया है। सामान्यतः अर्थशास्त्र हानि-लाभ का ही अध्ययन करता है। प्रत्येक मनुष्य की इच्छा होती है कि वह धन अर्जित करे, सम्मान प्राप्त करे और जीवन में उन्नति करे। जीवन में उन्नति करने का अभिप्राय सामान्य रूप से अधिकार प्राप्त करना, आराम की सुविधाएं एकत्र करना और समाज के समक्ष प्रदर्शन करना है। इसके लिए मनुष्य हर तरह के हथकण्डे अपनाता है। इसमें मनुष्य का पास-पड़ोस भी महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। गाँधी लिखते हैं कि "आपके रूपये की शक्ति इस बात पर अवलंबित है कि आपके पड़ोसी के रूपये की कितनी तंगी है। जहाँ गरीबी है वहीं पर अमीरी का प्रभाव हो सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि एक आदमी को धनवान होना हो तो उसे अपने पड़ोसियों को गरीब बनाए रखना चाहिए।" वस्तुतः लाभ का आधार श्रम का शोषण है, अर्थात् जितना अधिक शोषण, उतना अधिक लाभ। "अर्थशास्त्री अनेक बार यह मान लेते हैं कि इस तरह लोगों को तंगी में रखने से राष्ट्र का लाभ होता है। सब बराबर हो जाय तो यह नहीं हो सकता।"
इस प्रथम अध्याय में गाँधी अमीरी-गरीबी पर आधारित अर्थशास्त्र का विश्लेषण करते हुए धनवान होने की गहन पड़ताल करते हैं। उनके अनुसार धनवान वही है जो आन्तरिक रूप से समृद्ध है। बाहर से धनवान दिखने वाले वस्तुतः अंदर से कंगाल ही होते हैं। अर्थशास्त्र बाहर से धनवान होने को ही अपना अभिप्रेत मानता है। अतः अर्थशास्त्र का मूल प्रश्न है कि मालदार होने का बाहरी उपाय क्या है? जो इस शास्त्र के अनुसार चलते हैं वे निश्चय ही धनवान होते हैं और जो नहीं चलते हैं वे कंगाल हो जाते हैं। यूरोप के सभी धनिकों ने इसी शास्त्र के अनुसार चल कर पैसा पैदा किया है। इसके विरूद्ध दलीलें उपस्थित करना व्यर्थ है। हरेक अनुभवी व्यक्ति जानता है कि पैसा किस तरह आता और किस तरह जाता है।" यहाँ गाँधी यह बताने का प्रयास करते हैं कि जीवन के नैतिक नियम अर्थशास्त्र के नियम से अलग होते हैं। दोनों के बीच विरोधाभास है। व्यक्ति और समाज नैतिक नियमों से पथभ्रष्ट हो कर धनवान तो हो जाते हैं, किन्तु उन्हें कितनी बड़ी हानि होती है, इसे वे देख भी नहीं पाते। रस्किन ने नीति और अनीति को समझाने के लिए अपनी पुस्तक में अनेक उदाहरण दिए हैं। उन्हीं उदाहरणों से गाँधी भी समझाने की कोशिश करते हैं। एक उदाहरण मालिक और नौकर का लेते हैं। अर्थशास्त्र का सामान्य नियम है कि मालिक नौकर को कम से कम तनख्वाह दे कर अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करता है। उसका लाभ इसी बात में है कि नौकर की कम से कम तनख्वाह दे कर अधिक से अधिक काम ले सके। वहीं नौकर की कोशिश होगी कि मालिक को धोखे में रख कर, फरेब और भ्रष्ट तरीके से अधिक से अधिक लाभ कमा ले। इस तरह दोनों का उद्देश्य है लाभ कमाना। इसके लिए दोनों अनीति का साधन अपनाते हैं। "प्रायः देखा जाता है कि जब मालिक चतुर और मुस्तैद होता है तब नौकर अधिकतर दबाव के कारण ज्यादा काम करता है। इसी तरह जब मालिक आलसी और कमजोर होता है तब नौकर का काम जितना होना चाहिए उतना नहीं होता।" गाँधी रस्किन के आधार पर इसे गलत ठहराते हैं। दोनों के अनुसार मालिक और नौकर के बीच धन का नहीं प्रेम का बंधन होना चाहिए। वे मानते हैं कि सहानुभूति रखने वाले मालिक का नौकर अपेक्षाकृत अधिक और अच्छा काम करता है। वे सहानुभूति एवं परोपकार को मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति मानते हैं। ऐसी स्थिति में अर्थशास्त्र का नियम अप्रभावी हो जाता है। उनके अनुसार अच्छे कामगार का इनाम यही है कि वह अपने काम के लिए पंसद किया जाय। कम तनख्वाह लेने वाला किन्तु अनाड़ी कामगार मालिक को नुकसान ही पहुँचाता है।
दूसरा उदाहरण रस्किन सेनापति और सैनिक का देते हैं। उनकी मान्यता है कि जो सेनानायक अपने सैनिकों के प्रति स्नेह, सहानुभूति और सद्भाव रखता है, उसके सैनिक उसके लिए जान देने को तैयार रहते हैं। "जिस सेना का सरदार अपने सिपाहियों से घनिष्टता रखता है, उनके प्रति स्नेह का व्यवहार करता है, उनकी भलाई से प्रसन्न होता है, उनके सुख-दुःख में शरीक होता है, उनकी रक्षा करता है, सारांशतः जो उनके प्रति सहानुभूति रखता है, वह उनसे चाहे जैसा कठिन काम ले सकता है।" इतिहास में अनेक ऐसे उदाहरण दिखाई पड़ते हैं, जहाँ सैनिक अपने सेनानायक के प्रति अच्छी भावना नहीं रखते हैं, वहाँ बड़ी से बड़ी सेना भी हार जाती है। अतः स्पष्ट है कि सैनिक एवं सेनानायक के बीच स्नेह-सहानुभूति का बल ही सेना का वास्तविक बल है। इस उदाहरण से रस्किन आगे समझाते है कि इस प्रकार की भावना मालिकों एवं मजदूरों में नहीं होती है। मालिक और मजदूरों के बीच का संबंध लेन-देन और लाभ की भावना, मांग और आपूर्ति के नियमों पर टिका होता है। उनके बीच प्रीति के बदले अप्रीति, सहानुभूति के बदले प्रतिद्वंद्विता की भावना दिखाई देती है। उस सैनिक का काम जो राज्य के लिए मरने को तैयार करता है। साधारण लाभ के लिए की जाने वाली मजदूरी से अच्छा माना जाता है। क्योंकि सैनिक अपनी जान राज्य को सौंप देता है।
जिस प्रकार सैनिक राज्य के लिए, मनुष्यों के लिए अपनी जान देने के लिए तैयार करता है, उसी तरह व्यापारी, डॉक्टर, वकील आदि को भी जनता के सुख के लिए धन और प्राण की परवाह नहीं करनी चाहिए। गाँधी लिखते हैं कि "जो मनुष्य समय पर मरने के लिए तैयार नहीं हैं, वह जीना किसे कहते हैं यह नहीं जानता।" डॉक्टर का कर्तव्य है कि बिना हानि-लाभ को ध्यान दिए रोगी का इलाज करे। प्लेग के समय भाग जाने के बदले, चाहे खुद प्लेग का शिकार हो जाए, उसे वहाँ मौजूद रह कर रोगियों का इलाज करना चाहिए। इसी तरह वकील का कर्तव्य है कि मुवक्किल को हर संभव न्याय दिलाए। न्याय के लिए मरना भी पड़े तब भी उसे इसका यत्न करना चाहिए कि न्याय ही हो। इसी तरह धर्मोपदेश का कर्तव्य है कि सत्य की शिक्षा देने में लोग मार डालें तो भी मरते दम तक झूठ के बदले उसे सत्य की ही शिक्षा देते रहना चाहिए।
यह सामान्य नियम व्यापार में भी लागू होता है। किन्तु "विचार करने पर दिखाई देता है कि व्यापारी सदा के लिए स्वार्थी ही मान लिया गया है। व्यापारी का काम भी जनता के लिए जरूरी है, पर हमने मान लिया है कि उसका उद्देश्य अपना घर भरना है। कानून भी इसी दृष्टि से बनाए जाते हैं कि व्यापारी झपाटे के साथ धन बटोर सके। चाल भी ऐसी ही पड़ गयी है कि ग्राहक कम से कम दाम दे और व्यापारी जहाँ तक हो सके अधिक माँगे और लें। लोगों ने खुद ही व्यापार में ऐसी आदत डाली और अब उसे उसकी बेईमानी के कारण नीची निगाह से देखते हैं। इस प्रथा को बदलने की जरूरत है।"
रस्किन की मान्यता है कि जिस तरह सैनिक राज्य के सुख के लिए जान देता है, उसी तरह व्यापारी को जनता के सुख के लिए धन गवाँ देना चाहिए। व्यापारी का काम कमाना नहीं बल्कि लोगों की माँग के हिसाब से आपूर्ति करना है। भिन्न-भिन्न काम करते हुए औरों की तरह व्यापारी के लिए भी जान देने का अवसर आए तो उसे प्राणों का समर्पण कर देना चाहिए। “ऐसा व्यापारी चाहे उसे कैसा ही संकट आ पड़े, चाहे वह भिखारी हो जाए, पर न तो खराब माल बेचेगा और न लोगों को धोखा ही देगा। साथ ही अपने यहाँ काम करने वालों के साथ अत्यन्त स्नेह का व्यवहार करेगा।" जिस तरह जहाज के खतरे में पड़ जाने पर कप्तान का कर्तव्य होता है कि वह स्वयं सबके बाद जहाज से उतरे, उसी तरह अकाल इत्यादि संकटों में व्यापारी का कर्तव्य है कि अपने आदमियों की रक्षा अपने से पहले करे।
इस तरह प्रथम अध्याय का सार यही है कि हर समय हर आदमी दूसरे आदमी के साथ परोपकार की भावना रखे और सहानुभूति रखे तो परिणाम अच्छा होता है। इससे समाज में समरसता बनी रहती है। "कुछ लोग कह सकते हैं कि यह नियम ठीक नहीं क्योंकि स्नेह और कृपा का बदला अनेक बार उल्टा ही मिलता है और नौकर सिर चढ़ जाता है। पर यह दलील ठीक नहीं है।" सहानुभूति करने वालों के साथ अन्य लोगों का व्यवहार अपेक्षाकृत अच्छा ही होता है। सद्वृत्ति की भावना मनुष्य की आन्तरिक ताकत है और लेन-देन का कायदा बस एक सांसारिक नियम है। अतः सभी को अपने आन्तरिक बल पर विशेष ध्यान देना चाहिए। बाहर की शक्ति आती-जाती है, मनुष्य का असली संबल तो उसका आन्तरिक बल है।
'अनटू दिस लास्ट' का दूसरा निबंध है 'वेंस आफ वेल्थ' । इसका अनुवाद गाँधी ने 'दौलत की नसें' शीर्षक से किया है। 'सर्वोदय' का यह द्वितीय अध्याय है। इस अध्याय का मूल सार प्रस्तुत करते हुए गाँधी लिखते हैं कि "धनबल से नीतिबल अधिक काम करता है। जहाँ धन काम नहीं देता वहाँ सद्गुण काम देता है।" यहाँ भी गाँधी रस्किन का सार प्रस्तुत करते हुए सद्गुण पर बल देते हैं। यह सद्गुण मनुष्य की आन्तरिक समृद्धि है। यही सच्ची समृद्धि है। गाँधी लिखते हैं कि "सच्ची दौलत सोना-चाँदी नहीं बल्कि स्वयं मनुष्य ही है। धन की खोज धरती के भीतर नहीं बल्कि मनुष्य के हृदय में करनी है।" गाँधी और रस्किन मनुष्यता को ही सबसे बड़ी पूँजी मानते हैं। यदि दुनिया के सभी कार्य-व्यापार सद्गुणों पर आधारित हो जाय तो संसार के सभी मनुष्य समृद्ध हो जाएंगे। सभी मनुष्य तन, मन एवं मान-सम्मान से समृद्ध हो जाएंगे, जबकि ऐसा है नहीं । हर जगह असमानता की गहरी एवं चौड़ी खाई है। एक ऐशो-आराम फरमाता है, आलस्य में दिन गुजारता है और दूसरा मजदूरी करता हुआ भी कष्ट में जीवन-निर्वाह कर रहा है। क्योंकि हमारा समाज अन्याय पर टिका है। हर तरफ अन्यायपूर्ण व्यवहार है। इसके लिए रस्किन कृषि, व्यापार आदि विभिन्न क्षेत्रों से उदाहरण देकर समझाने की कोशिश करते हैं। गाँधी उनका सार ग्रहण कर लिखते हैं कि "नीति-अनीति का विचार किए बिना, धन बटोरने के नियम बनाना, केवल मनुष्य की घमण्ड दिखाने वाली बात है। सस्ते से सस्ता खरीद कर महँगे से महँगा बेचने के नियम के समान लज्जाजनक बात मनुष्य के लिए दूसरी नहीं है।" वे बताते हैं कि राष्ट्र में धन का प्रवाह शरीर में रक्त संचार की तरह है। यदि शरीर में रक्त-संचार कहीं अवरूद्ध हो जाय अथवा कहीं रक्त का जमाव हो जाय तो व्यक्ति अस्वस्थ हो जाएगा, मर भी सकता है। उसी प्रकार राष्ट्रीय धन का कहीं अवरूद्ध हो जाना या संचित हो जाना भी राष्ट्रीय अस्वास्थ्य का सूचक है। एक स्थान पर धन का संचय राष्ट्रीय हानि है, भले ही उससे किसी व्यक्ति को लाभ पहुँच रहा हो।
रस्किन की आलोच्य पुस्तक का तृतीय अध्याय है 'क्वी ज्यूडीकेंटिस टेरम'। इसका सार गाँधी ने 'अटल इंसाफ' शीर्षक से प्रस्तुत किया है। इस अध्याय में इस बात पर विचार किया गया है कि जैसे-तैसे धन कमाने का परिणाम क्या होता है। इससे व्यक्ति एवं राष्ट्र का कितना नफा-नुकसान होता है। "अंग्रेज मुँह से तो कहते हैं कि धन और ईश्वर में परस्पर विरोध है और गरीब के घर ही ईश्वर वास करता है, पर व्यवहार में वे धन को सर्वोच्च पद देते हैं।" यह दोनों स्थितियाँ विरोधाभासी हैं। एक तरफ ईश्वर है, दूसरी तरफ धन है और व्यवहार में धन को ही अधिक महत्व मिलता है। अंग्रेज लोग "अपने धनी आदमियों की मिन्नते करके अपने को सुखी मानते हैं और अर्थशास्त्री शीघ्र धनोपार्जन करने के नियम बनाते हैं, जिन्हें सीख कर लोग धनवान हो जाएं।" व्यवहार में हम कुछ करते हैं और आदर्श के रूप में कुछ सोचते हैं। हम व्यवहार में देखते हैं कि धनवान अधिक धनवान होता जाता है और गरीब अधिक गरीब होता जाता है। व्यापार में प्रायः धोखेबाजी, दगा, फ़रेब, चोरी जैसी अनीतियों से काम लिया जाता है। व्यापारी चाहता है कि अधिक से अधिक लाभ कमा लूँ और ग्राहक चाहता है कि अधिक से अधिक बचा लूँ। इस प्रकार व्यवहार बिगड़ जाता है और द्वन्द्व पैदा हो जाता है। एक तरफ अमीरी और गरीबी के बीच खाईं बढ़ती जाती है। दूसरी तरफ असंतोष बढ़ता जाता है। फलतः आक्रोश और विद्रोह पैदा होता है और हड़तालें बढ़ जाती हैं। वहाँ धन ही परमेश्वर हो जाता है और सच्चे परमेश्वर की पूछ कम हो जाती है। अर्थशास्त्र की मान्यता है कि प्रतिस्पर्धा बढ़ने से राष्ट्र समृद्ध होता है, जबकि व्यवहार में दिखाई पड़ता है कि प्रतिस्पर्धा बढ़ने के साथ मजदूरों का शोषण भी बढ़ जाता है, महंगाई बढ़ती जाती है और अमीर-गरीब के बीच खाई चौड़ी होती जाती है। धन का मनमाना व्यवहार बढ़ने से बुराईयाँ बढ़ती हैं और धन विषतुल्य बन जाता है। रस्किन के अनुसार धन का अर्जन और उपभोग न्याय और नीति पर आधारित होना चाहिए। धन को नदी की तरह ऊपर से नीचे की ओर बहना चाहिए, अर्थात् जहाँ आवश्यकता हो वहीं जाना चाहिए। अतः लोगों को जैसे भी हो सके पैसा पैदा करने की शिक्षा देना उन्हें उल्टी अकल सिखाने जैसा है।
रस्किन की किताब के चौथे एवं अन्तिम निबंध ’एड वोलेरम’ का अनुवाद गाँधी ने 'सत्य क्या है' शीर्षक से किया है। इस अध्याय में भी नीति एवं अनीति के विमर्श को आगे बढ़ाया गया है। नीति एवं शुभत्व के मार्ग पर चल कर अर्जित धन एवं साधन को श्रेष्ठ बताया गया है। रस्किन के अनुसार सच्चा आदमी ही धन है और जहाँ नीति है वही राष्ट्र सम्पन्न है। धन तो साधन मात्र है और उससे सुख एवं दुःख दोनों पैदा हो सकते हैं। धन जब बुरे मनुष्य के हाथ में पड़ता है तब दु:ख पैदा होता है। गलत हाथ में पड़ने से धन की गति भी गलत कार्यों की तरफ हो जाती है और उसका परिणाम भी गलत होता है। उदाहरण के लिए गोला-बारूद बनाने में लगा धन कभी अच्छा परिणाम नहीं दे सकता और उससे मनुष्य और राष्ट्र दोनों को क्षति पहुँचती है। धन की तरह श्रम की दिशा भी अच्छी एवं बुरी हो सकती है। सच्चा श्रम वही है जिससे कोई मंगलकारी वस्तु उत्पन्न हो। यह उपयोगी एवं मंगलकारी वस्तु वहाँ है जिससे मानव जाति का भरण-पोषण हो सके। अर्थशास्त्र द्वारा स्वीकृत धनार्जन के नियम से धनार्जन तो हो सकता है किन्तु उससे व्यक्ति एवं समाज दोनों दुःखी रहते हैं। रस्किन कहते हैं कि अर्थशास्त्र के नियमों का पालन करते हुए यूरोप के देशों ने कारखानों की कतार खड़ी कर ली है, उत्पादन बढ़ा लिया है तथा अनेक उद्योगपतियों को जन्म दिया है। खेती-बाड़ी छोड़ कर अनेक आदमी शहरों की ओर भागते हैं। बाहर की स्वच्छ वायु छोड़ कर कारखानों वाले नगरों की गंदी हवा में रात-दिन साँस लेने को सुख मानते हैं। लोभ एवं लालच के वशीभूत जीवन जीने को अपनी सफलता मानते हैं। भोग-विलास का सामान जुटाने के लिए रात-दिन मजदूरी करते हैं। अपने मन का काम करने के लिए उनके पास समय नहीं है। कोई रूचि का काम सीखने के लिए फुर्सत नहीं है। विवेक खो कर किसी भी प्रकार से धनार्जन करना ही उनका मुख्य उद्देश्य है।
रस्किन की पुस्तक 'अनदू दिस लास्ट' के चार अध्यायों का सार प्रस्तुत करने के बाद गांधी ने अपनी कृति 'सर्वोदय' में 'सारांश' नाम से पाँचवाँ अध्याय प्रस्तुत किया है। इसमें वे पाठकों से अपेक्षा करते हैं कि रस्किन के विचारों के अनुसार यदि पाठकगण अपना आचरण बदल सकेंगे तो वे (गाँधी) अपना परिश्रम सफल समझेंगे। गाँधी लिखते हैं कि "रस्किन ने जो बातें अपने भाईयों अर्थात् अंग्रेजों के लिए लिखी हैं वे अंग्रेजों के लिए यदि एक हिस्सा लागू होती है तो भारतवासियों के लिए हजार हिस्से लागू होती है।" आगे कहते हैं कि "हिन्दुस्तान में नए विचार फैल रहे हैं। आजकल के पाश्चात्य शिक्षा पाए हुए युवकों में जोश आया है, यह तो ठीक है, पर जोश का अच्छा उपयोग होने से अच्छा और बुरा होने पर बुरा परिणाम होता है।" आगे गाँधी स्वराज्य का अभिप्राय बताते हैं। उनके अनुसार "स्वराज्य का वास्तविक अर्थ है अपने ऊपर काबू रखना। यह वहीं मनुष्य कर सकता है जो स्वयं नीति का पालन करता है, दूसरों को धोखा नहीं देता, माता-पिता स्त्री-बच्चे, नौकर-चाकर, पड़ोसी सबके प्रति अपने कर्तव्य का पालन करता है।"
'सारांश' में गाँधी बाताते हैं कि भारत की पराधीनता का कारण स्वयं भारत ही है। वे कहते हैं कि इसका कारण हम स्वयं हैं। हमारी फूट, हमारी अनीति, हमारा अज्ञान ही उसका कारण हो ये बातें दूर हो जाँय तो हमें एक उंगली भी न उठानी होगी और अंग्रेज भारत से चुपचाप चले जाएंगे। तब हम स्वराज को हासिल कर सकेंगे। बम का साधन अपनाने वाले आन्दोलनकारियों को गांधी संदेश देते हैं कि "बमबाजी से बहुत लोग खुश होते दिखाई देते हैं। यह केवल अज्ञान और नासमझी की निशानी है। यदि सब अंग्रेज मार डाले जा सकें तो उन्हें मारने वाले ही भारत के मालिक बनेंगे। तब अंग्रेजों का नाश करने वाले बम अंग्रेजों के चले जाने के बाद भारतीयों पर बरसेंगे। अर्थात् भारत गुलाम ही रहेगा।" गाँधी आगे लिखते हैं कि "जिस तरह पापकर्म से अंग्रेजों को मार कर सच्चा स्वराज नहीं प्राप्त किया जा सकता, उसी तरह भारत में कारखाने खोलने से भी स्वराज नहीं मिलने का। जहाँ केवल धन ही लोभ है, वहाँ कुछ और हो ही कैसे सकता है? स्वराज हमें नीतिमार्ग से प्राप्त करना है। वह नाम का नहीं वास्तविक स्वराज होना चाहिए। ऐसा स्वराज नाशकारी उपायों से नहीं मिल सकता है। उद्योग की आवश्यकता है, पर उद्योग सच्चे रास्ते से होना चाहिए। भारत भूमि एक दिन स्वर्णभूमि कहलाती थी, इसलिए कि भारतवासी स्वर्णरूप में थे। भूमि तो वहीं है पर आदमी बदल गए हैं, इसलिए यह भूमि उजाड़ सी हो गयी है। इसे पुनः स्वर्ण बनाने के लिए हमें सद्गुणों द्वारा स्वर्णरूप बनना है। हमें स्वर्ण बनाने वाला पारसमणि दो अक्षरों में अन्तर्निहित है और वह है 'सत्य'। इसलिए अगर प्रत्येक भारतवासी 'सत्य' का ही आग्रह करेगा तो भारत को घर बैठे ही स्वराज्य मिल जाएगा।"
संक्षेप में रस्किन की पुस्तक 'अनटू दिस लास्ट' में जिन नैतिक एवं तात्विक मूल्यों का प्रतिपादन किया गया है, उसने गाँधी पर जादुई प्रभाव डाला था। इस पुस्तक के विचारों ने गाँधी को पूरी तरह अपने में डुबा दिया था। गाँधी जिन मानव-मूल्यों में आस्था रखते थे और जिन मूल्यों के आधार पर रामराज्य की स्थापना का आदर्श रखते थे, उन्हीं मूल्यों का सार रस्किन ने अपनी पुस्तक में प्रस्तुत किया है। इससे प्रभावित हो कर गाँधी ने सर्वोदय की अवधारणा को विकसित किया। यद्यपि यह अवधारणा भारतीय सांस्कृतिक गहराई में पहले से ही विद्यमान थी किन्तु उसका गांधी से पुनः स्पर्श कराने का कार्य रस्किन की इस छोटी सी, किन्तु मूल्यवान कृति ने ही किया है। यह जीवन को रूपान्तरित करने वाली पुस्तक है तथा सभी के लिए उपादेय है।
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रवि नन्दन सिंह |
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