चन्द्रभूषण का आलेख प्राचीन नागार्जुन दो थे या एक'

 

चन्द्रभूषण


प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा में नागार्जुन का नाम अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अभी तक परंपरागत रूप से यह बात मानी जाती रही है कि नागार्जुन नाम के एक ही व्यक्ति हुए हैं जो प्रख्यात दार्शनिक हुआ करते थे। इन नागार्जुन को हम शून्यवाद की प्रस्थापना और माध्यमिक दर्शन के लिए जानते हैं। लेकिन एक दूसरे भी नागार्जुन हुए हैं जो जाने माने रसायनशास्त्री थे जिनका उल्लेख पाल शासक राम पाल (1069-1122 ई.) के समकालीन वैद्यराज चक्रपाणि दत्त ने अपने चर्चित ग्रंथ ‘सर्वसारसंग्रह’ में बार-बार किया है। आयुर्वेदाचार्य नागार्जुन, सिद्धों की परम्परा में हुए। इनका समय 8वीं -9वीं शती है। यह समय आयुर्वेद में रसचिकित्सा, धातुवाद का है। प्रबंधचिंतामणि से पता चलता है कि नागार्जुन पादलिप्त सूरि के शिष्य थे। इसी पुस्तक के अनुसार ये पारद से स्वर्ण बनाने में सफल हुए थे। नागार्जुन के नाम से कई योग आयुर्वेद में प्रचलित हैं। नागार्जुन एक थे या दो, इस तथ्य की तहकीकात करते हुए चन्द्रभूषण लिखते हैं "दार्शनिक नागार्जुन और रसायनशास्त्री नागार्जुन की पहचान में अंतहीन घपले की कई वजहें हैं, लेकिन दोनों की विश्व दृष्टि में मौजूद समरूपता इसकी बहुत बड़ी वजह है। दार्शनिक नागार्जुन मन के भीतर भी प्रेक्षण लेते हैं, लेकिन बाहरी प्रेक्षणों में रसायनशास्त्री नागार्जुन जरा बीस ही पड़ेंगे। अफसोस कि उनका कोई ग्रंथ अभी उपलब्ध नहीं है। उन्हें दार्शनिक नागार्जुन से अलग मानने की एक वजह तो यही है कि धातुओं से दवा बनाने की कोई चर्चा सातवीं सदी ईसवी से पहले भारत में तो क्या, दुनिया में कहीं भी नहीं मिलती। धातुएं हर जीव के लिए जहरीली होती हैं, यह समझ बहुत पहले से संसार में लगभग हर जगह मौजूद है। ऐसे में दार्शनिक नागार्जुन को सात सौ साल जीने वाला मान कर ही हम दोनों नागार्जुनों को एक कह सकते हैं, लेकिन सहज तर्कबुद्धि इसकी इजाजत नहीं देती।" आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं चन्द्रभूषण का आलेख प्राचीन नागार्जुन दो थे या एक'।



'प्राचीन नागार्जुन दो थे या एक'


चन्द्रभूषण


नागार्जुन पांच-छह सौ साल के अंतर पर हुए दो व्यक्तित्व हैं या सात सौ तक साल जीते रहने वाले एक ही हैं, यह विवाद हल ही नहीं हो पा रहा है। अब से हजार साल पहले पाल वंश के शासन काल में, जब बौद्ध धर्म की जड़ें कम से कम पूर्वी भारत में मजबूती से जमी हुई थीं, विग्रहपाल तृतीय (शासन काल 1041-1067 ई.) और इस वंश के सबसे प्रतापी राजाओं में से एक, रामपाल (1069-1122 ई.) के समकालीन वैद्यराज चक्रपाणि दत्त अपने चर्चित ग्रंथ ‘सर्वसारसंग्रह’ में नागार्जुन को बार-बार उद्धृत करते हैं। नीचे दिया हुआ अंश ‘लोहे को मारने’ के बारे में है।   

 

‘अब मैं लोहे के विज्ञान का वर्णन करता हूं, जो सिद्ध नागार्जुन का बताया हुआ है-


‘बहेड़ा, अपराजिता, हड़जोड़, पुनर्नवा और गेंदे की लुगदी बना कर, उसमें लोहे की छड़ को लपेट कर कंडे की आंच में उसे पिघलने की हद तक  तपाया जाए, फिर हर्रै के अवलेह (चटनी) में डुबाया जाए। फिर लोहे के ही हथौड़े से पीट-पीट कर इस लोहे का चूरा बनाया जाए और हर्रै की लुगदी में मिला कर कई बार इसे कड़ाही में भूना जाए।’ (उद्धरण प्रफुल्ल चंद्र राय की किताब 'हिस्ट्री ऑफ हिंदू केमिस्ट्री' से)


आगे चक्रपाणि कहते हैं कि इस तरह मार दिए जाने (मानव शरीर के लिए ग्राह्य बना दिए जाने) के बाद लोहे का उपयोग कई बीमारियों की दवा के रूप में और कभी-कभी अन्य दवाओं के साथ मिला कर किया जाता है। भारतीय भेषज्य शास्त्र के इतिहास में लोहा, सोना, जस्ता, पारा आदि धातुओं को मारने (उन्हें दवा के रूप में ग्रहण किए जाने योग्य बनाने) का जिक्र सम्राट हर्षवर्धन (606-647 ई.) का दौर गुजर जाने के बाद ही मिलना शुरू होता है। उसके पहले चरक और सुश्रुत की संहिताओं में, साथ ही वैद्यराज वाग्भट के शास्त्र में भी दवाएं बिना किसी अपवाद के पेड़-पौधों से और कभी-कभी नमक, शोरा या घोंघे की राख जैसे सहज उपलब्ध पदार्थों से प्राप्त की जाती थीं।


प्राचीन काल के जिन नागार्जुन के बारे में एक औसत पढ़े-लिखे हिंदुस्तानी को थोड़ी-बहुत जानकारी हुआ करती है, वे एक दार्शनिक हैं। बहुत बड़े दार्शनिक, जिन्हें हम शून्यवाद की प्रस्थापना और मध्यमक दर्शन के लिए जानते हैं। तिब्बत में दर्शन के क्षेत्र में बुद्ध के बाद जिस एक व्यक्ति का नाम लिया जाता है वे नागार्जुन ही हैं और उनकी लिखाई को मूल रूप में बचा कर रखने का श्रेय भी तिब्बत को ही जाता है। 





भारत के वैचारिक दायरे में बुद्ध की तरह नागार्जुन का विलोप कभी नहीं हुआ था, लेकिन उनके उद्धरण यहां केवल खंडन के लिए दिए गए मिलते थे। राहुल सांकृत्यायन 1936 में तीसरी या चौथी बार तिब्बत गए तो वहां से नागार्जुन का लिखा संस्कृत ग्रंथ ‘विग्रहव्यावर्तिनी’ उतार कर लाए, और पहली बार इस ग्रंथ से ही पता लगा कि उनकी प्रस्थापनाएं वास्तव में क्या थीं।


दुनिया भर के दर्शनों पर परिचयात्मक टिप्पणियों वाली अपनी किताब ‘दर्शन दिग्दर्शन’ में राहुल सांकृत्यायन नागार्जुन का वर्गीकरण एक ‘अनात्मवादी, अभौतिकवादी’ दार्शनिक के रूप में करते हैं। यह एक विचित्र वर्गीकरण है, हालांकि नागार्जुन के बाद असंग और वसुबंधु समेत कई विज्ञानवादी बौद्ध दार्शनिकों के नाम इस सूची में जुड़ते चले जाते हैं। 


मार्क्सवादी चिंतन में दर्शनों का जो एक मोटा विभाजन आइडियलिज्म (भाववाद) और मैटीरियलिज्म (भौतिकवाद) के रूप में मिलता है, उनका दूसरा नामकरण आत्मवाद और अनात्मवाद के रूप में भी कर दिया जाता है। नागार्जुन इस विभाजन में नहीं अंटते, लेकिन उनकी सबसे बड़ी बात यह है कि भौतिकवादी न होते हुए भी भीतरी-बाहरी प्रेक्षणों के लिए वे अपनी दृष्टि खुली रखते हैं और दुनिया को समझने के काम में वे भी बुद्ध जितने ही सहज हैं।          


दार्शनिक नागार्जुन और रसायनशास्त्री नागार्जुन की पहचान में अंतहीन घपले की कई वजहें हैं, लेकिन दोनों की विश्व दृष्टि में मौजूद समरूपता इसकी बहुत बड़ी वजह है। दार्शनिक नागार्जुन मन के भीतर भी प्रेक्षण लेते हैं, लेकिन बाहरी प्रेक्षणों में रसायनशास्त्री नागार्जुन जरा बीस ही पड़ेंगे। अफसोस कि उनका कोई ग्रंथ अभी उपलब्ध नहीं है। उन्हें दार्शनिक नागार्जुन से अलग मानने की एक वजह तो यही है कि धातुओं से दवा बनाने की कोई चर्चा सातवीं सदी ईसवी से पहले भारत में तो क्या, दुनिया में कहीं भी नहीं मिलती। धातुएं हर जीव के लिए जहरीली होती हैं, यह समझ बहुत पहले से संसार में लगभग हर जगह मौजूद है। ऐसे में दार्शनिक नागार्जुन को सात सौ साल जीने वाला मान कर ही हम दोनों नागार्जुनों को एक कह सकते हैं, लेकिन सहज तर्कबुद्धि इसकी इजाजत नहीं देती।


बहरहाल, ‘रसरत्नाकर’ नाम से नागार्जुन के जिस ग्रंथ का जिक्र बार-बार आता है, उसकी कोई प्रति अब तक खोजी नहीं जा सकी है। उन्नीसवीं सदी में इससे उतारे हुए कुछ भोजपत्र कश्मीर लाइब्रेरी में मिले थे, जिनकी सामग्री ‘रसार्णव’ में हूबहू मिलती है। (शैवतंत्र की परंपरा में पड़ने वाले मध्यकालीन भेषज्य शास्त्र के इस महत्वपूर्ण ग्रंथ पर हम जल्द ही हम विस्तार से चर्चा करेंगे।) जो हवाले नागार्जुन के नाम से दिए जाते हैं, जैसे ऊपर दिया हुआ है, उनमें वनस्पतियों, जैविक पदार्थों, धातुओं और विधियों के अंतहीन ब्यौरे मौजूद हैं। आश्चर्य होता है कि इंसानों के इलाज के लिए बताए गए संवेदनशील नतीजों तक पहुंचने से पहले इस व्यक्ति ने अपने जीवन में कितनी सारी चीजें देखी, परखी और आजमाई होंगी। 


दार्शनिक दृष्टि और आस्था की समरूपता, साथ ही रसायनशास्त्री नागार्जुन की अक्षरदेह (लिखित ग्रंथ) का न मिलना दोनों नागार्जुनों को एक बना देने वाली समझ की बुनियाद है, लेकिन इसके पीछे तीसरी वजह यह काम करती है कि दोनों का भूगोल कमोबेश एक-सा है। पूर्व-दक्षिण में भारत के मध्य भाग को सींचने वाली दो बड़ी नदियों गोदावरी और महानदी के बीच का इलाका, जहां अभी आंध्र प्रदेश, तेलंगाना ओडिशा, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र फैला है। 


ये वजहें इतनी ताकतवर हैं कि तिब्बत के लोग तो किसी भी सूरत में यह मानने को राजी नहीं होते कि नागार्जुन एक नहीं दो हैं। उनकी दंतकथाओं में दार्शनिक नागार्जुन बहुत बड़े तांत्रिक भी हैं। चौरासी महासिद्धों में एक तो वे हैं ही। ऐसे में उनका रसायनज्ञ होना उनके बहुमुखी चमत्कारी व्यक्तित्व का एक हिस्सा भर है।


चौदहवें (वर्तमान) दलाई लामा 2013 में छत्तीसगढ़ के सिरपुर इलाके में गए तो वहां प्राचीनकाल में बौद्ध, जैन, शैव, शाक्त और वैष्णव मंदिरों-मूर्तियों की एक साथ अक्षुण्ण उपस्थिति देख कर बहुत प्रसन्न हो गए। फिर अगले ही साल, 2014 में वे दोबारा सिरपुर गए तो वहां सिंहधुर्वा पहाड़ियों में स्थित चंदादाई की गुफाओं तक गए। स्थानीय आदिवासी समुदाय इन गुफाओं को अपनी देवी चंदादाई से जोड़ता है, लेकिन जिस गुफा में बैठ कर दलाई लामा ने बीस मिनट ध्यान किया, उसकी ख्याति अब नागार्जुन गुफा के रूप में हो गई है और गाइड पर्यटकों को उसकी सैर कराने लगे हैं। 


ध्यान रहे, सिरपुर छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले का एक छोटा सा कस्बा है। 21वीं सदी में भारत की यह सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक खोज लोगों का जितना ध्यान खींच रही है, उतनी खोजबीन अभी यहां नहीं हुई है। मसलन, सिरपुर (पुराना नाम श्रीपुर) नगरी के बसने का इतिहास ईसा की पांचवीं-छठीं सदी से पहले नहीं जाता और आठवीं-नवीं सदी से स्थानीय सत्ता का केंद्र ओडिशा की तरफ बढ़ जाने के साथ ही इसका महत्व कम होने का सिलसिला शुरू हो जाता है। पुरातत्वविदों ने सिरपुर में महानदी के तट के बिल्कुल करीब जिस जगह की पहचान ‘प्राचीन बाजार’ के रूप में की है, उसका ढांचा दवा और बहुमूल्य रसायनों के निर्माण का ही लगता है। 


ऐसे में सिरपुर का जुड़ाव ईसा की दूसरी सदी में या उसके पहले हुए दार्शनिक नागार्जुन के बजाय सातवीं-आठवीं सदी ईसवी में हुए रसायनज्ञ नागार्जुन से ज्यादा बनता हुआ लगता है। बिल्कुल संभव है कि दलाई लामा ने अपने ध्यान में दोनों नागार्जुनों को याद किया हो, लेकिन ज्यादा संभावना उस नागार्जुन की स्मृति में जाने की ही लगती है, जो 700 साल मजे में जीते रहे!   





अपनी सिरपुर यात्रा में दो जगहों से मैंने महानदी को देखा। शुरू में गंधेश्वर महादेव के मंदिर से, जो लगभग इसके कगार पर बना है और जब-तब मिलते रहने वाले प्राचीन अवशेषों से समृद्ध है। गया की तरह शिव और बुद्ध के बीच यहां कोई टकराव नहीं है। बुद्ध मूर्तियां भी इज्जत से प्रतिष्ठित हैं, बस उनकी पूजा नहीं होती। दूसरी बार उसी ‘प्राचीन बाजार’ से देखा, जहां से पारादीप बंदरगाह से होते हुए दक्षिण-पूर्व एशिया से लेकर चीन तक के बाजारों के लिए कोई डेढ़ हजार साल पहले यहां से नावों पर मूल्यवान वस्तुओं की लदाई होती रही होगी। 


यहां मिले रोमन सिक्के भी संग्रहालयों में रखे हैं, यानी कोई सप्लाई चेन पश्चिम की तरफ भी जरूर रही होगी। सबसे बड़ी बात यह कि हर्षवर्धन के बाद सदियों लंबा जो अंधेरा भारतीय इतिहास पर छाया दिखता है, उसी में इस नगरी की चहल-पहल गूंज रही थी। 


जिस दौर की हम बात कर रहे हैं, वह कच्चे तेल और खनिज पदार्थों जैसे भारी सामानों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार का नहीं था। निर्यात सामग्री के रूप में अफीम का चलन भी 19वीं सदी ईसवी से ब्रिटिश साम्राज्य का चलाया हुआ है। मसालों का व्यापार बहुत पहले से चला आ रहा है, लेकिन भारत के पूर्वी तटों की ख्याति मसालों के लिए कभी नहीं रही। 


अभी कुछ समय पहले थाईलैंड के एक समुद्र तट से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर हजार साल पहले डूबे जिस जहाज को फिर से खोजा गया है, उससे चीन की बनी बहुमूल्य बोनचाइना क्रॉकरी तथा भारत में बनी पीतल और हाथी दांत की बुद्धमूर्तियां निकली हैं। जाहिर है, सस्ते कच्चे माल से बनाए गए महंगे सामान ही उस दौर में सबसे ज्यादा चलन में थे और दवाएं इस श्रेणी में बहुत ऊपर आती होंगी। ऐसे में रसायनशास्त्री नागार्जुन अगर यहां सिरपुर में कभी रहे हों, उनकी शिष्य परंपरा यहां मौजूद रही हो, तो इस इलाके में वे लोग कई कारणों से पूज्य रहे होंगे।

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