सौम्य मालवीय की कविताएं

 

सौम्य मालवीय 



सौम्य मालवीय का जन्म 25 मई, 1987 को इलाहाबाद में  हुआ। इन्हें बचपन से ही कविता का परिवेश और संस्कार मिला है जो इनकी कविताओं में सहज ही देखा जा सकता है। कविताएँ लिखने के  अतिरिक्त अनुवाद में भी इनकी रुचि है। दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स के समाजशास्त्र विभाग से उन्होंने गणितीय ज्ञान के समाजशास्त्र पर पी-एच.डी. की डिग्री प्राप्त की है और इसी विषय पर आजकल अंग्रेज़ी में सतत लेखन करते रहे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के कई महाविद्यालयों में अध्यापन के बाद वे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मंडी हिमाचल प्रदेश के मानविकी एवं समाज विज्ञान विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। ''घर एक नामुमकिन जगह है' (2021) नामक उनके कविता संग्रह को 2022 के भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। हाल ही में उनका दूसरा कविता संग्रह 'एक परित्यक्त पुल का सपना' (2024)  प्रकाशित हुआ है।


सुनने सुनाने में पहाड़ भव्य लगता है लेकिन इस भव्य के भी अपने दुःख हुआ करते हैं। इस समय दुनिया में जो प्राणी, जो चीजें अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं उनमें से पहाड़ भी एक है। मनुष्य ने पहाड़ की भव्यता को ग्रसित कर लिया है। दिन रात चलती क्रसर मशीनें पहाड़ की छाती में घुस कर उसे चिन्दी चिन्दी कर दे रही हैं। अब वह अपना दर्द कहे भी तो कैसे कहे, किससे कहे? उसके बारे में कई प्रचलित मान्यताएं हैं जिनसे बाहर निकल कर कोई कुछ सुनना ही नहीं चाहता फिर कोई भी उसकी व्यथा कथा को समझेगा कैसे? युवा कवि सौम्य मालवीय ने पहाड़ों के दर्द को शिद्दत से महसूस किया है। वे उचित ही कहते हैं 'पहाड़ धरती का शहीद है/ उसकी हर साँस का शाहिद बन/ ग़र्क़ होता है धीमे-धीमे अपनी ही घाटियों में'। सौम्य कम लिखते हैं लेकिन उम्दा कविताएं लिखते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सौम्य मालवीय की अनेक रंगों की कुछ कविताएं।



सौम्य मालवीय की कविताएं 


                          

अब तक लौटा नहीं शब्द                                                                                                                             

बहुत दिन हुए घर से निकला 

अब तक लौटा नहीं शब्द 


अपनों में रुसवा हुआ-ताने सुने-बोल सहे 

बाहर निकला – लोगों ने कहा बाहरी है 

फ़िज़ूल है कौड़ी भर का भी नहीं 

कुछ ने कहा पश्चिमी 

कुछ बोले फ़ारस से आया है 

बाज़ ‘घुसपैठिया’ कहने से भी नहीं चूके  

पता नहीं चला कब, कैसे 

हर ओर एक गाली सा उछाला जाने लगा!


बस एक दिन ख़ामोशी पर पैर रख कर निकल गया 

तब से लौटा नहीं शब्द 


न जाने कहाँ होगा?

न पैसे रख कर निकला है 

न ढंग से कपड़े ही पहने हैं 

फ़ोन वो रखता नहीं 

अपना चश्मा भी यहीं छोड़ गया है 

छोटी उमर में ही नज़र कमज़ोर हो गई थी 

बोलने से अधिक टटोलने लगा था शब्द 


पिछले दिनों 

जो शब्द छोड़ कर चले गए भाषा को 

उन सब में सबसे छोटा 

सबसे सहल था 

भाषा अक्सर चिंता करती थी उसकी 


भाषा में अब बहुत सी ख़ाली जगहें हैं 

एक अदद जगह उस शब्द की भी है 


मैं कविता में लिख देता उसे 

यदि इतने भर से उसका पुनर्वास हो जाता 


पर जो जीवन में नहीं

वो कविता में कैसे - कब तक हो सकता है?


कविता में भी अब बहुत सी ख़ाली जगहें हैं 

जिनके बीच से हो कर 

करम-ए-दुनिया से मुहर-ब-लब 

मरी हुई धूप टहलती है

              


पढ़ी जा रही किताब                                                                                                 

धीमे-धीमे हाथों से छूट रही है किताब 

शब्द बह रहे हैं एक दूसरे में 

चंद लाइनें पढ़ने के बाद 

फिर फिर लौटता हूँ पहली सतर के पहले शब्द पर 

एक हाथ की उँगलियाँ किताब के सीने पर पड़ी हैं 

उसी हाथ के अँगूठे पर टिकी है किताब की रीढ़ 

और दूसरे हाथ ने किताब और पहले हाथ को एक साथ थाम रखा है 

बिखर रहा है यह स्थापत्य 

जैसे जैसे बढ़ रही है नींद की जादुई लतर 

लैम्प अपनी रोशनी एक जगह टिकाकर सो चुका है 

तलवों के खुले हुए पंख भी बंद हो चुके हैं 

आँखें देख रही हैं सिर्फ़ अपने देखने की परछाईं 

समय आ गया है कि अब किताब को 

वैसे ही खुला हुआ पर औंधा कर 

सिरहाने की मेज़ पर रख दूँ 

उस पर निकाल कर धर दूँ अपना चश्मा भी 

बुरी ख़बरों से भरे हुए दिन को कुछ इस तरह करूँ विदा 

कि अगली सुबह आख़िरी पढ़ी हुई जगह पर निशान लगाकर 

शेल्फ़ में सजा सकूँ किताब को 

एक पढ़ी जा रही किताब का साथ ख़ुद को देकर 

शुरू करूँ अगला दिन 

नींद में पूरी तरह गाफ़िल होने से पहले 

दिल-ए-नातवाँ के लिए इससे बड़ा भरोसा कुछ भी नहीं!





चाँद! तुम निकलते रहना ग़ज़ा के आसमान में 
                                                                           
चाँद!
तुम निकलते रहना ग़ज़ा के आसमान में
ढँक जाओ भले धुएँ से ग़ुबार से
पर झाँकना इस ज़मीन पर कालिख मिटा कर
जैसे सदा बदलियाँ हटा कर निकलते रहे हो
 

चाँद!
तुम घोलते रहना भूमध्यसागर में नमक
उठाते रहना तरंगें
उसकी मख़मली सतह पर झिलमिलाते रहना
ग़म से भरी रातों में
भूख से जलती हवाओं के बीच
भेजना वो बयार
जो अपने दामन में लिए आती है ज़िंदगी का स्वाद


चाँद!
अपनी चाँदनी फेरते रहना बच्चों के सिरों पर
उनकी हड्डियाँ गिनना
हड्डियों से चिपके उनके जिस्म पर 
डालना शफ़क़त भरी छाया
सूखे होठों पर रखना मीठी ओस की बूँदें
पर देखना उन्हें कोई भरम न देना
रोटी नहीं चाँद ही दिखना
और बने रहना आँखें उठाने का सबब


चाँद!
जैतून की पत्तियों के बीच छुपना
उसके मुजस्स्मे जैसे तने पर
खुरचना अपना वजूद
कटे हुए-जले हुए दरख़्तों के नाम फ़ातिहा पढ़ना
सूने आँगनों में लगाना
अन्तरिक्ष की दूब
झुलसी हुई दीवारों पर गिराना
शाखाओं का साँवला आलस

चाँद!
मलबे पर डालना मरमरीं बुरादा
कुछ ख़ाक उठा लेना
और मल लेना अपने चेहरे पर
कोई दिलासा मत देना दबी हुई कराहों को
बस शरीक रहना

चाँद!
तुम्हारी ज़मीन पर फीका है गुरुत्वाकर्षण का बल
और धरती पर है तुमसे छः गुना ज़्यादा
इसीलिए रहते हैं यहाँ वज़नदार लोग
अपने आप में धँसे हुए
चाँद!
शीतल बने रहना
ठंडे मत पड़ना वज़्नी लोगों की तरह

सुहूर के वक़्त देखना
ख़ाली चूल्हों की गहराई
टटोलना खोई हुई आँच और बुलावा देना ईद को
भला क्या फ़ाक़े होंगे तो ईद न होगी!

चाँद!
दुनिया के तमाम आसमानों में चमक रहे हैं
तरह-तरह के सूरज
पर ये फटे हुए तम्बू सा आसमान ख़ास तुम्हारे लिए है

चाँद!
तुम निकलते रहना ग़ज़ा के आसमान में!
तुम अपनी नज़र में जो भी हो
ग़ज़ा की ये ज़मीं
अब तुम्हें एक गवाह की तरह देखती है!



पहाड़ धरती का शहीद है

                                    

क्या कह सकता है पहाड़ 

कहीं उठ कर चल तो नहीं सकता 

समेट नहीं सकता अपनी सलवटें 

अपने पैर मोड़ कर-सर गोड़ कर बैठ नहीं सकता 


उसे तो रहना है सर उठाये  

कंधे से कंधा मिलाये 

उसकी नदियाँ बौखलाती हैं 

बदलियाँ बजर ढहाती हैं 

वो समझाता ही है

कहता है धीरज से बहो-हरो मेरा दुख 

छाओ-बोते रहो धमनियों में आसमान 


वो ढहता है अपनी ही मिट्टी में 

एक-एक कर टूटती हैं शिलाएँ

दरकती है देह-जल सूखता है पत्थरों का 

वो नहीं किसी का संतरी-किसी का पासबाँ

राजमार्ग, सुरंगें, खनिज चूसने के यंत्र 

कितना भी दावा धरें उस पर 

राष्ट्रीय सम्पदा कह कर 

हक़ीक़त तो ये है कि 

पहाड़ धरती का शहीद है 

उसकी हर साँस का शाहिद बन

ग़र्क़ होता है धीमे-धीमे अपनी ही घाटियों में 


निर्जन अरण्य में चढ़ाता है

एकांत की हाँडी 

पकाता है विद्रोह से भरा सन्नाटा 

जैसे जेसीबी-स्टोन क्रशर 

की मुख़ालिफ़त में!


जिसे विपत्ति कहते हैं हम-आप 

उसके अस्तित्व की लड़ाई है 

पहाड़ कभी लौटता नहीं 

हमेशा मोर्चे पर रहता है 

आपदा-प्रबंधन के नियम 

राहत-कोषों की ख़ैरात

भूल जाते हैं ये छोटी सी बात कि 

पहाड़बीती ही आपबीती है 


इससे पहले कि लोग उठा सकें दर्द कोहसार-नुमा 

जीवन बहाल हो जाता है

फ़ाइलें बंद हो जाती हैं। 



पंद्रह अगस्त क़ब्ल जन्माष्टमी                                              

प्रभु तुम भी आधी रात की संतान और मुल्क भी 


विप्लव के बीच प्रकट हुए तुम

जन्मा देश भी बरबरिय्यत के दरम्यान 


कारागार में अवतार लिया तुमने 

जेलों में रचा गया वतन 


तुम्हारी अलौकिकता का कहना ही क्या त्रिभुवनराई 

राष्ट्र का होना भी कुछ कम चमत्कारी न था 


संयोग है 

कि पंद्रह अगस्त के अगले ही दिन आई है जन्माष्टमी 

पर बुझ गई हैं आधी रात की संतानों की शक्तियाँ 


कौन सा आपातकाल है ये 

कि सुब्ह होती है जैसे गुलाबी तलवे में बहेलिये का तीर धँसा हो 

शाम आती है बाँसुरियों की रुसवाई लिए 


एक ही स्वर में 

‘इन्क़लाब ज़िंदाबाद’ और ‘हज़रत कृष्ण अलैहिररहमा’ कहने वाला शायर 

जान पड़ता है दूर किसी युग की 

भूली हुई कहानी 

और लिंच हो जाते हैं कोई आमा साहब आज़मी ये कहते 

‘तराना बलब हैं हज़ारों कन्हैया, न जाने इन्हें बाँसुरी कब मिलेगी’


कृष्ण, साँवला होना था इस देश का नसीब 


किसने चाहा था ये निर्मम उजाला 

जिसमें लीलाएँ ख़त्म हो जाएँ 

टूट-टूट कर बिखर जाएँ महारास के नूपुर।  



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग कवि विजेन्द्र जी की है।)


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