सदानंद शाही की डायरी में दूधनाथ सिंह
सदानंद शाही की डायरी में दूधनाथ सिंह @ IIAS शिमला
लिखने से जीना संभव हुआ
सदानन्द शाही
5 अक्तूबर 2004
शाम को अपने कमरे में पंकज चतुर्वेदी के साथ बैठा था। यों ही कुछ बातचीत हो रही थी। तबतक दूधनाथ जी ने दस्तक दी। पंकज ने ही दरवाजा खोला। दूधनाथ जी के आते ही बैठकी महफिल में बदल गयी। तरह तरह की बातें और दूधनाथ सिंह की दूधिया हंसी। इसी बीच दूधनाथ जी के पास फैजाबाद से अनिल सिंह (हिन्दी कवि और दूधनाथ जी के शिष्य) का फोन आया। गुरु शिष्य में कुछ देर बात हुई। बातचीत खत्म करते हुए दूधनाथ जी ने थोड़ा ज़ोर से कहा कि रघुवंश मणि को बता देना कि मेरे साथ पंकज चतुर्वेदी भी बैठे हैं। पता नहीं क्यों यह वाक्य सुन कर पंकज थोड़े असहज हो गए। पंकज दूधनाथ सिंह से पूछने लगा कि यह आखिरी वाक्य आपने क्यों कहा। बार बार पूछने पर दूधनाथ जी ने बताया कि रघुवंश मणि कह रहे थे कि पंकज ने मुझसे कहा कि आपको क्या पड़ी थी दूधनाथ सिंह का इंटरव्यू लेने की। यह सुनते ही पंकज का मूड उखड़ गया। उसने दूधनाथ जी से अपनी स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश की, पर दूधनाथ जी अपना काम कर चुके थे।
घूमते फिरते बात दूधनाथ जी के लेखन की ओर मुड़ गयी। उनका उपन्यास 'आखिरी कलाम' चर्चा में था। अयोध्या मुद्दे पर यह अकेली महत्वपूर्ण कृति है। इस मिल रही प्रसंशा से दूधनाथ सिंह प्रसन्न हैं। मैंने बीच में रोक कर उनसे कहा कि आप ‘माई का शोकगीत’ और ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ जैसी शानदार कहानियाँ लिखने के बाद बीच-बीच में खराब कहानियाँ क्यों लिख देते हैं। मेरा इशारा 'नमो अंधकारम' और 'निष्कासन' जैसी टार्गेटेड कहानियों की ओर था, जिसमें कुछ मित्रों/ छात्रों को लक्ष्य करके लिखा गया था। दूधनाथ सिंह ने मुझसे इतनी सहमति जताई कि निश्चय ही ‘माई का शोकगीत’ और ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ मेरी बेहतर कहानियाँ हैं, पर इसमें 'निष्कासन' का नाम भी जोड़ना चाहूँगा। जो भी वजह रही हो दूधनाथ जी ने 'नमो अंधकारम' को डिफ़ेंड करने की कोशिश नहीं की, सिवाय यह कहने के कि कहानी के बाद भी मार्कण्डेय जी या मालती जी से मेरे सम्बन्धों में कोई फर्क नहीं पड़ा। इस बहसा-बहसी में काफी देर हो गयी थी। उधर से निर्मला जी ने साझी दीवाल जो प्लाईवुड की थी, खटखटाना शुरू किया और दूधनाथ जी ने विदा ली। उनके जाने के बाद भी हम लोग उन्हीं की चर्चा करते रहे। पंकज का कहना था कि मुझे दूधनाथ जी की सभी कहानियाँ कंट्राइव लगती हैं। पंकज इस बात पर भी चकित था कि मैंने दूधनाथ जी के सामने ही उनकी कुछ कहानियों को टार्गेटेड और खराब कह देने का साहस कैसे कर दिया।
6 अक्तूबर 2004
आज संस्थान में पंकज चतुर्वेदी ने कुँवर नारायण पर पर्चा पढ़ा। दूधनाथ जी की अध्यक्षता में। अपेक्षा के अनुरूप बहुत अच्छी प्रस्तुति। सुनते हुए मेरे मन की कुछ गांठें खुलीं। हम उन्हें 'आत्मजयी' के रचनाकर और दार्शनिक कवि के रूप में जानते रहे हैं। पंकज की प्रेरणा से हम कुंवर नारायण की ओर उन्मुख हुए। हालाँकि कुँवर नारायण के विष्णुकुटी में मैं उनसे कभी 1992-1993 में मिल चुका था और उनकी सहजता की छाप मन पर आजीवन बनी रही।
आज रात खाने के वक्त फिर घंटी बजी। दरवाजे पर हाथ में दूध का गिलास लिए दूधनाथ जी खड़े थे। भीतर आए। वे दूध पीते रहे और बात करते रहे। दूध पीते हुए दूधनाथ सिंह को देखना भी एक सुख था। बातचीत का सिलसिला कुछ ऐसा जमा कि रात कौन कहे भोर के तीन बज गए। दूधनाथ जी ने कहा कि 'नामवर के निमित्त' के लिए बी एच यू ने जगह न दे कर वैसी ही गलती की, जैसी हजारी प्रसाद द्विवेदी को निकाल कर। मैं इस प्रकरण के बारे में मैं बहुत नहीं जानता था लेकिन जितना जानता था कुछ प्रतिवाद किया। संभवत: 'नामवर के निमित्त' आयोजन के स्थानीय कर्ता-धर्ता कथाकार काशी नाथ सिंह इस बात को ले कर स्वयं अनिच्छुक थे। शायद वे नहीं चाहते थे कि यह आयोजन बी एच यू में हो। आयोजन को ले कर ऐसी गोपनीयता बरती जा रही थी जैसे वह कोई साहित्यिक आयोजन नहीं, कोई षडयंत्र हो। मैंने यह भी कहा कि अगर मुझे मालूम होता तो मैं ही बी एच यू में जगह कि व्यवस्था सुनिश्चित कर देता। पर दूधनाथ जी अपने स्टैंड पर बने रहे। मुझे भी कोई गरज नहीं थी कि मैं उस मुद्दे पर ज्यादा बहस करूँ जिससे मेरा सीधा सरोकार नहीं था। वजह जो भी रही हो 'नामवर के निमित्त' कार्यक्रम का बी एच यू में न होना हम सब के लिए एक टीस की तरह सालता रहेगा।
बहरहाल बात आगे बढ़ गयी। और दूधनाथ सिंह और उनके लेखन के बारे में बात होने लगी। दूधनाथ सिंह ने पी-एच. डी. नहीं की थी। इसलिए उन्हें प्रोफेसर नहीं बनने दिया गया। ‘बनने नहीं दिया गया’ का मैं खास तरह से इस्तेमाल कर रहा हूँ। विश्वविद्यालयों और अकादमियों में कुंठाकलित हृदयों की कमी नहीं है, ऐसे लोग प्राय: उन लोगों के पीछे पड़े रहते हैं जिनमें कुछ मौलिक प्रतिभा होती है। दूधनाथ सिंह आजीवन इसके शिकार होते रहे । मैं उन्हें 1988-89 से जानता हूँ। उनके भीतर एक खास तरह का खिलंदड़ व्यक्ति निवास करता है। वे जब मिलते हैं एक खास तरह के आनंद भाव में मिलते हैं। कुल मिला कर लोकतान्त्रिक स्वभाव। उन पर जब जब हमले हुए, जब अपमानित करने की कोशिशें हुईं उन्होंने इसका जवाब लेखन से दिया। आज की सारी रात जो बातें हुईं उसे निष्कर्षत: इस प्रकार कह सकते हैं- लिखने से सुख मिला, लिखने से जीना संभव हुआ, लिखने से जीने का हाथ पैदा हुआ, लिखने से दुनिया को पहचाना, लिखने से हम सयाने हुए, लिखने से हमारी विचित्र नमकहराम उदासी बार बार लौट कर आई। लिखने से हमने जाना कि हम एबनारमल आदमी हैं, लिखने से ही हमने जाना कि कमीनापन, उजड्डता, क्रूरता बुरी बाते हैं, लिखने से हमने प्यार करना सीखा, लिख कर हम मुक्त हुए और खुल कर रोए, आदि आदि इत्यादि।
दूधनाथ सिंह के बारे में आलोचकों ने जब जब यह कहना शुरू किया कि वे चुक गए हैं, उन्होंने एक रचनात्मक विस्फोट से इसका जवाब दिया। 'यमगाथा', 'धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे' या 'आखिरी कलाम' रचनात्मक विस्फोट ही है। हम तीन बजे रात तक बात करते रहे। बातचीत का कुल हासिल यही रहा कि लेखक के लिए लिखना ही प्रज्ञा है और लिखना ही उपाय है।
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