शिवदयाल का आलेख 'गांधी-लोहिया-जयप्रकाश : तीन द्युतिमान तारे'

 

महात्मा गांधी 



अक्टूबर का महीना भारतीय सन्दर्भ में इसलिए उल्लेखनीय है कि इसी महीने में भारत की तीन प्रमुख विभूतियों का जन्म हुआ। ये विभूतियां हैं महात्मा गांधी, राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण। भारतीय इतिहास में इन तीनों का अवदान विशिष्ट है। गांधी जी ने अहिंसा के हथियार से अंगेजों को पराभूत किया। लोहिया जी आजादी के बाद गैर कांग्रेसवाद के जनक थे जबकि जय प्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा दिया जिसने आजाद भारत में पहली बार गैर कांग्रेसी शासन को सम्भव बनाया। कवि एवम विचारक शिवदयाल ने इन तीनों विभूतियों पर एक महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शिवदयाल का आलेख 'गांधी-लोहिया-जयप्रकाश : तीन द्युतिमान तारे'।



'गांधी-लोहिया-जयप्रकाश : तीन द्युतिमान तारे'


शिवदयाल


भारत के चित्त पर पिछले दो सौ सालों में जिस राजनीतिक व्यक्तित्व का सबसे गहरा, सबसे व्यापक और स्थाई प्रभाव पड़ा है, जो अपने जन्म के डेढ़ सौ वर्ष बाद भी विद्वानों, राजनीतिकों ही नहीं, सर्व सामान्य भारतीय जन की चर्चाओं में रहता है चाहें जिस भी कारण से, वह निर्विवाद रूप से गांधी जी ही हैं, मोहनदास करमचंद गांधी। अफगानिस्तान की सीमा से ले कर बर्मा (म्यांमार) तक कश्मीर से ले कर कोलंबो तक जिस एक नेता को गांव-कस्बे, शहर, जंगल, मैदान-पठार-पहाड़ में लोग जानते थे, उसे अपना मानते थे, वह महात्मा गांधी ही थे। ऐसी सर्वव्यापी उपस्थिति गांधी जी के पहले शायद ही किसी जन नेता की रही हो। शासक, व्यापारी, कलाकार, विद्वान से ले कर मजदूर, किसान, पददलित वर्ग गांधी जी किसी के लिए भी अनजान नहीं थे। यह आधुनिक इतिहास की अपने आप में विरल घटना है। सवाल है कि गांधी जी की ऐसी सार्विक पहुंच और उपस्थिति कैसे बनी कि वह अपने आप में संपूर्ण भारत को जोड़ने वाली एक कड़ी बन गए? कांग्रेस की भी अखिल भारतीय उपस्थित गांधीजी के माध्यम से ही बनी।


वे 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटे। तब गोरों का आतंक था और वे उनसे लड़ाई जीत कर आए थे। कांग्रेस के नरम दल के नेता गोपाल कृष्ण गोखले को गांधी जी में भारत के लिए संभावना नजर आई। दक्षिण अफ्रीका में आजमाए अहिंसक प्रतिकार का उपयोग वे भारत में भी कर सकते थे। लेकिन यह तो पूरा एक महादेश था गोरों के कब्जे में। यह किसी एक शहर, प्रांत या क्षेत्र का मामला नहीं था। कल का एक गौरवशाली देश या कि महादेश औपनिवेशिक शोषण और दमन में पिस कर ग्लानि और गर्त में गिरा पड़ा था आत्महीन और आत्मविस्मृत। गोखले ने गांधी जी को कहा मोहन, पहले तुम भारत को देखो और जानो। गांधी जी ने भारत को जानने के लिए यात्राएं की। उन्होंने जीवन भर यात्राएं कीं। उन्होंने भारत को केवल देखा और जाना नहीं बल्कि भारतीय जन के साथ एकात्मता स्थापित की। उनके बीच उनके जैसे हो कर रहे, उनके कहीं का अनुभव उनके साथ रह कर किया। उनकी मुक्ति के उपाय में लगे। सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, स्वनिग्रह के अस्त्रों से संसार की सबसे क्रूर सत्ता के प्रतिकार के साथ-साथ सत्य और न्याय पर आधारित एक नवीन सभ्यता के संधान और निर्माण में लगे। प्रतिकार, संघर्ष और रचना की पूरी सैद्धांतिकी ही विकसित की जिसका एक प्रमुख पक्ष आत्म-परिष्कार भी था। लोगों ने उन्हें अवतार व उद्धारक माना, वंदनीय माना। जैनेंद्र ने उन्हें 'अकाल पुरुष' कहा और सोहनलाल द्विवेदी ने उन्हें 'युगावतार' माना।


गांधी जी के पीछे निहत्थे, बलहीन, निस्तेज, गोरी सरकार ही नहीं अपने ही लोगों द्वारा पीड़ित और बहिष्कृत स्त्री-पुरुषों की पंक्ति बनती चली गई। इसमें न भाषा बंधन बनी, न जाति, न क्षेत्र। भारत की मुक्ति के लिए यह फ्रंटलाइन तैयार हो रहा था, अभूतपूर्व मोर्चा जिसे उपनिवेशवादी सत्ता से टकराना था, भारत में स्वराज लाना था। ऐसा नहीं कि गांधी जी के पहले भारत में राष्ट्रीय भावना थी ही नहीं, हमारे पुरखे 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम लड़ चुके थे और इसका अकथनीय मूल्य उन्हें चुकाना पड़ा था। जगह-जगह छोटे-बड़े विद्रोह होते रहे थे। पिछले डेढ़ सौ सालों में, खासकर आदिवासियों ने विद्रोहों की एक शृंखला ही बना दी थी। इसके अलावा भी कहीं स्थानीय शासकों और काश्तकारों का विद्रोह था, तो कहीं संन्यासियों-फकीरों का। लेकिन गांधी जी ने पहली बार भारत के वंचित और बहिष्कृत समाज को भी भारतीय राष्ट्रवाद से जोड़ा। यह काम तब तक स्वतंत्रता आंदोलन की कोई धारा नहीं कर सकी थी, वह भी लगभग अखिल भारतीय स्तर पर। महिलाओं को राष्ट्रीय आंदोलन से बड़े पैमाने पर जोड़ना भी अपने आप में अभूतपूर्व कार्य था।


गांधी जी कई अथों में अपने पूर्ववर्ती या समकालीन नेताओं से अलग थे। एक तो सत्य-अहिंसा के मार्ग पर चल कर रामराज्य स्थापित करने के लिए उन्होंने निर्बलों को आत्मबल की लाठी पकड़ाई, साध्य-साधन का अंतर मिटा दिया, फिर एक राजनीतिक लड़ाई को आध्यात्मिक उत्थान और उपलब्धि से जोड़ दिया। यहीं वे आत्मद्रोही, प्रकृतिद्रोही, पूंजीवादी सभ्यता के विकल्प प्रस्तुत करने की ओर बढ़ते हैं। ध्यान में रखने की बात है कि 1917 में पूंजीवाद का विकल्प साम्यवाद के रूप में रूस में व्यापक हिंसा और दमन के माध्यम से ही आया था। इन दोनों व्यवस्थाओं का फर्क इतना था कि उत्पादन के साधनों का स्वामित्व समाज की ओर से राज्य ने संभाल लिया था। उत्पादन के तौर-तरीके वही थे, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन। ऊपर से मजदूर कामगार-किसान पार्टी के दास हो गए। उनका अपना स्वत्व भी न रहा। सर्वहारा अपनी ही तानाशाही में बेजुबान कठपुतली बना दिया गया।


गांधी जी भारतीय स्वराज के आंदोलन को मानव जाति के लिए तीसरे विकल्प सहज, प्रकृति संवेदी और मानवीय सभ्यता की स्थापना का माध्यम बनाना चाहते थे। केवल अंग्रेज को भारत के बाहर करना उनका उद्देश्य नहीं था, बल्कि उपनिवेशवादी भारत के स्थान पर कैसे भारत का निर्माण करना है, उनकी मूल चिंता यहीं थी।


गांधी जी मानते थे कि अंग्रेजों ने दो तरह से भारत को सांघातिक क्षति पहुंचाई थी, एक तो उन्होंने ग्राम-व्यवस्था को नष्ट कर दिया, दूसरे कि भारत की पारंपरिक शिक्षा प्रणाली को ध्वस्त कर दिया जो कि ब्रिटिश पूर्व भारत में बहुत हद तक समावेशी थी। यही क्षेत्र राष्ट्रनिर्माण की उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता में थे। 1934 में सरदार पटेल को लिखे पत्र में उन्होंने कहा 'ग्राम उद्योग संघ के पीछे विचार यह है कि जो कुछ गांव में उत्पादित हो सकता है वह हो, और उसे ग्रामीण क्षेत्र से ही खरीदा जाए। इससे हम पर जी गांव का ऋण है, उसे कुछ हद तक चुका सकते हैं। ग्राम उत्पादित कागज, कलम, स्याही, छुरी, साबुन, चीनी, आटा, गुड़, चावल आदि का उपयोग करना यदि हम अपना प्रमुख कर्तव्य मान लें तो लाखों रुपए गांव की झोली में जाएंगे और इससे गांव का महत्व बढ़ेगा। तभी ग्राम स्वराज का हमारा सपना साकार होगा जो कि एक अहिंसक स्वराज होगा।' ऐसी कल्पना थी गांधी जी की ग्राम पुनर्निर्माण को ले कर। विकेंद्रीकरण उनका कोई फैंसी आइडिया, यानी काल्पनिक या हवाई ख्याल नहीं था, बल्कि भारत की परिस्थितियों में इसका ठोस वास्तविक आधार था। विकेंद्रित अर्थव्यवस्था के साथ ही उद्योग-व्यापार के स्वामित्व यानी उत्पादन के साधनों पर सीधे राज्य के नियंत्रण के स्थान पर उन्होंने ट्रस्टीशिप का विचार दिया। उद्योगपति अपने को मालिक नहीं ट्रस्टी माने। खेद की बात है कि स्वतंत्र भारत में गांधी जी के वारिसों ने ही इन पर ध्यान नहीं दिया, गांधी विचार को ही त्याग दिया, केवल उनका नाम ढोते रहे। गांधी जी तो अलग वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था चाहते थे लेकिन 1943-44 तक आते-आते वे मानो कांग्रेस के लिए निष्प्रयोज्य हो गए। पढ़े-लिखे तथाकथित आधुनिक और प्रगतिशील (गांधी जी के कथन में हृदयहीन बुद्धिजीवी) गांधी जी की अनदेखी और अवहेलना करते थे जबकि आम भारतीय के लिए वे बापू और महात्मा थे। आज भी गांधी जी की राजनीति, उनके कतिपय निर्णय और बयानों पर प्रश्न उठाए जा सकते हैं। लेकिन सभ्यता-चिंतन में अब भी वे अनन्य हैं और बने रहेंगे।


जिन दिनों गांधी जी कांग्रेस के एकछत्र नेता थे, उन्होंने 1934 में कांग्रेस छोड़ दिया, संगठन से अलग हो गए गोकि संगठन पर उनका अप्रत्यक्ष नियंत्रण बना रहा। 1934 में ही सविनय अवज्ञा आंदोलन के उतार के समय कांग्रेस के अंदर समाजवादियों ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बना ली। इसके पीछे जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, राम मनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, युसूफ मेहर अली आदि नेता थे। ये लोग कांग्रेस को समाजवादी आदर्शों से जोड़ना चाहते थे और स्वतंत्र भारत में एक समाजवादी राज्य की स्थापना करना चाहते थे। ये लोग गांधी जी का खुल कर विरोध करते थे जबकि जवाहर लाल को अपना ही नेता मानते थे। वैसे जवाहर लाल कभी भी खुल कर उनके पक्ष में नहीं आए और समाजवादी दूर-दूर से इन पर अपना प्यार और विश्वास लुटाते रहे। जवाहर लाल गांधी जी के बाद का जो पदानुक्रम था, उससे बाहर आना नहीं चाहते थे। गांधी जी के बाद जवाहर लाल, सरदार पटेल और राजेंद्र प्रसाद की तिकड़ी थी। मौलाना आजाद को भी इसमें जोड़ा जा सकता है, लेकिन चलती इन्हीं तीनों की थी। समाजवादी जवाहर लाल को छोड़ पटेल और प्रसाद को संकीर्ण और अनुदार मानते थे। बरसों इनके बीच वैचारिक दूरी बल्कि मनमुटाव बना रहा।


राम मनोहर लोहिया 


यहां जयप्रकाश को छोड़ पहले लोहिया पर आते हैं। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया 1910 में जन्मे थे। जयप्रकाश से भी 8 वर्ष छोटे, जवाहर लाल से कोई 21 साल छोटे। उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय और कोलकाता विश्वविद्यालय से पढ़ाई की और आगे की पढ़ाई के लिए जर्मनी चले गए। वहां उन्होंने अर्थशास्त्र में पी-एच. डी. की, विषय था 'नमक सत्याग्रह की आर्थिकी' (इकोनॉमिक्स आफ साल्ट सत्याग्रह)। वे 1933 में भारत लौट आए और पूरी तरह से स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। उन्होंने मार्क्सवाद का गहन अध्ययन किया था और समाजवादी आदर्शों से प्रभावित थे। 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना में वे भी शामिल थे। वे गांधी जी से शुरुआती मुलाकातों में प्रभावित हुए, हालांकि गांधी जी से शुरू में ही टकराव की स्थिति भी बनी। जवाहर लाल ने उन्हें कांग्रेस के विदेश विभाग में रखा, जहां वे दो वर्ष तक रहे। लोहिया प्रखर मेधा के मौलिक विचारक थे। यूं  वे अन्य सोशलिस्टों की तरह जवाहर लाल से प्रभावित रहे लेकिन बाद में बाद के वर्षों में उनके प्रबल विरोधी बन गए। लोहिया ऐसे समाजवादी थे जिसका मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांतों से मतभेद था। मार्क्स ने वर्षों की उत्पत्ति का कारण आर्थिक माना था जबकि लोहिया का मानना था कि वर्गों की उत्पत्ति के तीन आधार हैं जाति, संपत्ति और भाषा। इस प्रकार वे द्वंदात्मक भौतिकवाद में विश्वास रखते हुए भी हिंसक कांति के विरुद्ध थे। वे क्रांति के लिए अहिंसक सिविल नाफरमानी या सविनय अवज्ञा का आश्रय लेना चाहते थे। वे रूढ़िवादी मार्क्सवाद को मृत सिद्धांत मानते थे और संगठित समाजवाद को मरणासन्न संगठन। डॉ. लोहिया विकेंद्रित समाजवाद के समर्थक थे जिसका आधार छोटी मशीनें, सहकारी श्रम और ग्राम सरकार मिल कर बनाते थे। लोहिया केवल वर्ग की समाप्ति नहीं जाति व्यवस्था का भी उन्मूलन चाहते थे और इसी आधार पर स्वतंत्र भारत में सोशलिस्ट पार्टी की नीतियां उन्होंने बनाई और लगातार जूझते रहे। वास्तव में गांधी जी और कांग्रेस की कई नीतियों के विरोधी होते हुए भी समाजवादी अलग गुट बना कर भी कांग्रेस से अलग होने का साहस नहीं जुटा सके। वे स्वतंत्रता आंदोलन की मुख्य धारा में शामिल रहना चाहते थे और उपनिवेशवाद की समाप्ति के लिए कटिबद्ध थे। इस लक्ष्य में कम्युनिस्टों की तरह का दोहरापन नहीं था। इसीलिए रूढ़िवादी समाजवाद से मतभिन्नता होने के अलावा भी समाजवादी वास्तव में राष्ट्रवादी थे। राष्ट्रवाद और समाजवाद का युग्म हमेशा से समाजवादियों का आदर्श रहा, हालांकि बीते कुछ दशकों में राष्ट्रवाद पर इनका जोर कम हो गया जैसा कि समाजवादी आदर्शों से भी उनका विचलन हुआ। यहां यह भी बात ध्यान देने की है कि जितना वे मार्क्सवाद से हटे उतने ही वह गांधी जी के निकट आए। गांधी जी और कांग्रेस से वे केवल रणनीतिक तौर पर ही निकट नहीं थे बल्कि यह कहीं न कहीं उनका सैद्धांतिक ठौर भी था।


जवाहर लाल एक कड़ी थे जो समाजवादियों का राजनीतिक लाभ भी उठाते थे, कांग्रेस संगठन पर दबाव बनाने के लिए। गांधी जी से डॉक्टर लोहिया का द्वंद्वात्मक संबंध रहा। लोहिया और उनके सोशलिस्ट साथियों ने उनके अहिंसा और विकेंद्रीकरण के विचार को माना। लोहिया विकेंद्रित अर्थतंत्र और विकेंद्रित राज व्यवस्था के हिमायती थे। लेकिन गांधी जी जहां कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था के हिमायती थे, वहीं लोहिया जाति विनाश के सिद्धांत पर चले। दूसरी ओर गांधी जी दलविहीन लोकतंत्र के माध्यम से स्वराज लाना चाहते थे जबकि लोहिया संसदीय लोकतंत्र चलाना चाहते थे भले ही राजसत्ता का ढांचा 'चौखंभा राज' का हो जिसके चार स्तर हों, ग्राम, जिला, प्रांत और केंद्र। उन्होंने संसदीय लोकतंत्र में भागीदारी और समाजवादी सरकार को संभव बनाने के लिए अपने साथियों को तीन सूत्र दिए : वोट (अधिकार प्रयोग), जेल (विरोध-प्रतिरोध), और कुदाल (रचना)। ये तीनों सूत्र गांधी विचार से प्रेरित हैं। वैसे डॉक्टर लोहिया और उनके साथियों ने अहिंसक प्रतिरोध की गांधी जी की विरासत को आगे बढ़ाया। उन्होंने सिविल नाफरमानी या सविनय अवज्ञा का प्रयोग कर समाजवादी राजनीति को आगे बढ़ाया। लोहिया जी परतंत्र भारत में कोई पच्चीस बार और स्वतंत्र भारत में बारह बार जेल गए। हर बार उनकी रिहाई न्यायालय के आदेश पर हुई, कांग्रेस शासन ने उन्हें नहीं छोड़ा। स्वतंत्र भारत में उनके साथ दुर्व्यवहार भी हुआ। डॉक्टर लोहिया गोवा मुक्ति (1946) के लिए भी सक्रिय रहे, साथ ही नेपाल में राणा शाही के खिलाफ भी आंदोलन किया (1951)। इसके अलावा एक विरल घटना में वह 1964 में अमेरिका में रंगभेद के खिलाफ आंदोलन करते हुए भी गिरफ्तार हुए।


स्वतंत्रता पश्चात 1948 में  'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी' कांग्रेस से अलग हो गई और केवल सोशलिस्ट पार्टी रह गई। पार्टी बाद में 'प्रजा सोशलिस्ट पार्टी' और फिर 'संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी' बन गई। जयप्रकाश 1954 में पार्टी से अलग हो कर सर्वोदय आंदोलन में शामिल हो गए। लोहिया जी ने समाजवादियों के लिए चार मौलिक कार्यक्रम दिए - दाम बांधो, जाति तोड़ो, अंग्रेजी हटाओ और हिमालय बचाओ। ये चारों कार्यक्रम अर्थनीति, समाज नीति, भाषा नीति और रक्षा नीति से संबंधित हैं और वास्तव में राष्ट्र निर्माण के कार्यक्रम हैं। विश्व शांति के लिए उन्होंने विश्व संसद स्थापित करने की मौलिक कल्पना की। गांधी जी के उपवास और वैयक्तिक सत्याग्रह को तज कर डॉक्टर लोहिया ने सक्रिय जन प्रतिरोध का रास्ता अपनाया। वह अपने को 'कुजात गांधीवादी' कहते थे। वे भारत की परंपरा के सकारात्मक तत्वों और प्रतीकों का समाजवादी आंदोलन को गति देने के लिए उपयोग करना चाहते थे और करते थे। जाति के साथ ही स्त्री के मामले में भी उनके मौलिक विचार और स्थापनाएं थीं। डॉ लोहिया ने समाजवादी भारत के निर्माण के लिए सप्त क्रांति का आह्वान किया जिसमें चार प्रकार की असमानताएं (लैंगिक, प्रजाति, जातीय, आर्थिक असमानता), औपनिवेशिक शासन का खात्मा, नागरिक स्वतंत्रता, तथा सत्याग्रह के पक्ष में अहिंसक मार्ग का अनुसरण शामिल हैं। इसमें लगभग सभी बिंदुओं पर गांधी विचार का प्रभाव दिखाई देता है। लोहिया जी ने कहा, 'स्वतंत्रता और रोटी अवियोज्य हैं।' संसदीय राजनीति में उनका यह कथन बार-बार उद्धत किया जाता है 'जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं।' यह भी कि 'सड़कें सूनी हों तो संसद आवारा हो जाती है।' लोहिया समाजवादी सरकारों के कर्तव्यों और तौर-तरीकों को ले कर कितने संवेदनशील और सख्त थे यह इस बात से स्पष्ट हो जाता है कोच्चि गोलीकांड में सात लोगों के मरने के बाद उन्होंने केरल के सोशलिस्ट मुख्यमंत्री से इस्तीफा मांगा था। इसको ले कर पार्टी में गंभीर मतभेद उभरे थे। यह भी सच है कि डॉक्टर लोहिया को अपने ही साथियों के हाथों लांछन और अपमान सहना पड़ा।


डॉ लोहिया गैर-कांग्रेसवाद के जनक थे और 1967 में नौ राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें स्थापित करने में सफलता पाई थी। इसमें उन्होंने जनसंघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को एक चटाई पर बैठाया था। 1967 में डॉक्टर लोहिया के आकस्मिक और असामयिक निधन से समाजवादी आंदोलन को गहरा धक्का लगा। समाजवादी पहले ही गुटों में बंटे थे, फिर दलों में बिखर गए। उनका कोई सर्वमान्य नेता नहीं रहा जबकि लोहिया जी के बाद भी अनेक प्रखर और वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध समाजवादी मौजूद थे।


जय प्रकाश नारायण 



डॉ लोहिया के निधन के दस साल बाद तानाशाही बनाम लोकशाही के मुद्दे पर समाजवादियों को फिर से एक जगह पर ले आए जयप्रकाश नारायण, जो कल तक उनके सबसे बड़े नेता थे और अब संपूर्ण क्रांति के प्रणेता आह्वानकर्ता लोकनायक जयप्रकाश थे। जेपी आंदोलन में समाजवादियों ने जोर-शोर से हिस्सा लिया था। लोकतंत्र को बचाने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ लगभग सभी दल जनता पार्टी में शामिल हुए। जनसंघ दूसरा प्रमुख घटक था जनता पार्टी का। 1977 में आपातकाल के बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी की जीत को 'दूसरी आजादी' कहा गया। जयप्रकाश ने 1942 के बाद दूसरी बार देश का नेतृत्व किया था। इस समय तक वे गांधीवादी सर्वोदय नेता बन चुके थे बल्कि इससे भी आगे निकल गए थे सर्वोदय से संपूर्ण क्रांति की ओर।


गांधी जी के असहयोग आंदोलन का जयप्रकाश पर गहरा प्रभाव पड़ा था। वे आई.एस-सी. से आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चले गए। गांधी जी और जयप्रकाश का संबंध द्वन्द्वात्मक था। जयप्रकाश की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी प्रभावती गांधी जी के साबरमती आश्रम में रहीं, उनकी पुत्री की तरह। गांधी जी का उन पर प्रभाव इस सीमा तक हुआ कि प्रभावती ने बिना अपने पति जयप्रकाश से बात किए आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया। पत्नी के संकल्प को जयप्रकाश ने जीवन भर निभाया। इस प्रकार जयप्रकाश के सर्वथा निजी जीवन में भी गांधी जी ने प्रभाव डाला था। लेकिन दोनों के बीच वैचारिक दूरी गांधी जी के जीवित रहते बनी रह गई। यह वैचारिक दूरी प्रभावती जी के साथ भी तब तक बनी रही।


जयप्रकाश 1929 में भारत लौटने के बाद से ही भारतीय परिस्थितियों में समाजवाद की प्रयोज्यनीयता पर विचार करते रहे। उपनिवेशवाद इसमें सबसे बड़ी रुकावट था इसलिए उन्होंने स्वयं को ब्रिटिश साम्राज्यवाद का दुश्मन नंबर एक घोषित किया। वे स्वातंत्र्यचेता समाजवादी थे, वे ऐसे समाजवाद में विश्वास रखते थे जिसमें मनुष्य न तो पूंजी का दास होगा न ही दल या राज्य का गुलाम होगा। जयप्रकाश 1940 से गांधी विचार के निकट आए जबकि रामगढ़ कांग्रेस में अपने प्रसिद्ध प्रारूप प्रस्ताव 'स्वराज की रूपरेखा' में अन्य बातों के अतिरिक्त यह भी प्रस्तावित किया कि गांव को यथासंभव स्वशासी तथा आत्मनिर्भर बनाने के लिए ग्राम जीवन का पुनर्गठन किया जाएगा। उन्हें यह भी चिंता है कि समाजवाद कहीं भौतिकवाद में परिणत या रिड्यूस ना हो जाए। इसी प्रस्ताव में वे जातीय पदानुक्रम वाले भारतीय समाज में सामाजिक न्याय को सुनिश्चित और सुलभ कराने का संकल्प व्यक्त करते हैं। आगे 1946 में 'समाजवाद की मेरी तस्वीर' में वे आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं और लोकतांत्रिक समाजवादी के रूप में सामने आते हैं। स्वतंत्रता पश्चात सोशलिस्ट पार्टी मोटे तौर पर लोकतांत्रिक समाजवाद को अपने लक्ष्य के रूप में स्वीकार करने लगी थी। 1950 में जयप्रकाश कहते हैं कि समाजवाद का उद्देश्य स्वतंत्र मनुष्यों के समाज का निर्माण करना है जिसमें ऐसे मानवीय मूल्यों का समावेश हो जिनका बलिदान दलीय हितों या सिद्धांतों या उद्देश्य पूर्ति के लिए नहीं किया जा सकता। इससे भी आगे बढ़ कर वह कहते हैं कि समाजवाद यदि गांधीवाद से नहीं जुड़ेगा तो संकट में पड़ेगा। वे लगातार, कहीं तीव्र गति से गांधी जी के विचारों के निकट आ रहे थे। 1951 में ही उन्होंने 'समाजवाद और सर्वोदय' शीर्षक लेख में तीन स्तरों पर समाजवादियों को गांधीवाद से जोड़ने को कहा पहला, गांधीवाद के नैतिक और आचारिक आधार, अधिक स्पष्ट रूप से साध्य और साधन के ऐक्य को मनाना होगा। दूसरा, संघर्ष और प्रतिकार की विधियों और औजारों सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा जैसे अहिंसक प्रतिरोध के साधनों को अपनाना होगा। तीसरा, राजनीतिक और आर्थिक विकेंद्रीकरण को लक्ष्य बनाना होगा ताकि सर्वसत्तावाद से बचा जा सके।


उल्लेखनीय तथ्य यह है कि जयप्रकाश जैसे-जैसे समाजवाद से आगे लोकतंत्र, वैयक्तिक स्वतंत्रता, विकेंद्रीकरण और वास्तविक लोकतंत्र जैसे विषयों पर चिंतन कर रहे थे, वैसे-वैसे वे संसदीय लोकतंत्र में रुचि और आकर्षण खोते जा रहे थे। वे समुदायवादी या सामुदायिक लोकतंत्र की और बढ़ने लगे थे। 1952 में इक्कीस दिनों के उपवास के बाद उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को सदा के लिए त्याग दिया। सोशलिस्ट पार्टी में न केवल वैचारिक मतभेद बढ़ रहा था बल्कि व्यक्तित्वों की टकराहट भी खुल कर सामने आ रही थी। 1954 में लोहिया ने कोच्चि गोली कांड के प्रायश्चितस्वरूप सोशलिस्ट मुख्यमंत्री का इस्तीफा मांगा। इसको ले कर पार्टी में तीखे मतभेद हुए जो कभी समाप्त नहीं हुए। सोशलिस्ट पार्टी का बैतूल अधिवेशन ऐसा था जिसने जयप्रकाश का रहा-सहा मोह भी तोड़ दिया। वे सर्वोदय आंदोलन को नजदीक से देखते रहे थे। 'सबै भूमि गोपाल की' मंत्र में उन्हें भारत की भूमि समस्या के हल के अलावा एक ग्राम और समुदाय आधारित अहिंसक क्रांति आसन दिखाई दे रही थी। 1954 में उन्होंने दलीय राजनीति से अपने को एकदम अलग कर सर्वोदय को जीवनदान की घोषणा बोधगया में कर दी। जिस व्यक्ति को देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखा जाता था (तब भी जबकि वह विरोधी दल में थे और 1952 और 1957 के चुनाव हार चुके थे), उसका यह अप्रत्याशित कदम पूरे देश को हिलाने वाला था। वे विनोबा भावे के साथ प्राणप्रण से इस अहिंसक प्रयोग में लगे। सर्वोदय आंदोलन में गति आई। दूसरी ओर वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था पर उनका चिंतन लगातार बलता रहा।


1959 में जयप्रकाश ने अपनी प्रसिद्ध कृति 'भारतीय राज्य की पुनर्रचना : एक सुझाव' में एक विकेंद्रित वास्तविक लोकतांत्रिक राज्य का मॉडल प्रस्तुत किया जिसमें भारत की प्राचीन ग्राम्य-व्यवस्था (ग्राम कम्यून) और गांधी जी के 'ग्राम स्वराज' और 'विकेंद्रित अर्थव्यवस्था' की झलक थी। साथ ही यह वैकल्पिक राज व्यवस्था अनुषंगी विकेंद्रित अर्थव्यवस्था पर अवलंबित थी। यह व्यवस्था ग्राम, प्रखंड, जिला और राज्य से होती यानी नीचे से ऊपर, केंद्र तक पहुंचती थी। बाद में 1961 में जयप्रकाश ने अपने विचारों को और परिमार्जित कर 'लोक स्वराज'' में प्रस्तुत किया। यह संसदीय लोकतंत्र का वैकल्पिक संदर्श यानी मॉडल था, और गांधी जी की कल्पना को कहीं और आगे बढ़ कर मूर्तिमान करने वाला था। यह जयप्रकाश का मौलिक वैचारिक योगदान है जिसमें लोकतंत्र को अधिक से अधिक भूमिस्थ और वास्तविक बनाने का यत्न दिखाई देता है। जयप्रकाश गांधी जी की ही तरह भारतीय गांवों को फिर से खड़ा करना चाहते थे जिन्हें उपनिवेशवाद ने पूरी तरह नष्ट कर दिया था। कहीं न कहीं उनका यह भी विश्वास था कि भारत में जो जातिग्रस्तता दिखाई देती है, उसके पीछे भी उपनिवेशवादी नीतियां और अंग्रेजों की बनाई जमींदारी जैसी उत्पीड़क व्यवस्था थी। इसी दौर में जातीय भेदभाव और शोषण बहुत बढ़ा। आम भारतीय किसान अपनी पारंपरिक शिक्षा प्रणाली से कट कर निरक्षर बना दिया गया। इसके पीछे जातिगत भेदभाव की नीति होती तो 1947 में साक्षरता का प्रतिशत केवल 15 नहीं हो सकता था। जयप्रकाश ने डॉक्टर धर्मपाल को उपनिवेश काल में भारत की शिक्षा पर शोध करने के उनके निश्चय के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित किया और अपनी विख्यात शोध पुस्तक 'अ ब्यूटीफुल ट्री' धर्मपाल ने उन्हीं को समर्पित की है। ध्यातव्य है कि एन सिंह इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज पटना में डॉ धर्मपाल को सीनियर फेलोशिप प्रदान की थी। जयप्रकाश आरंभ से ही इस संस्थान से जुड़े थे। धर्मपाल ने यह सिद्ध कर दिया स्वयं ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश सरकार के दस्तावेजों से कि भारत में जो परंपरागत शिक्षा प्रणाली थी वह समावेशी थी। हर गांव में हर जाति के बच्चे पाठशालाओं में पढ़ते थे। जिस बनियादी शिक्षा की वकालत गांधी जी ने की थी वह ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश सरकार के दस्तावेजों से, कि भारत में जो परंपरागत शिक्षा प्रणाली थी वह समावेशी थी। हर गांव में हर जाति के बच्चे पाठशालाओं में पढ़ते थे। जिस बुनियादी शिक्षा की वकालत गांधी जी ने की थी वह ग्रामीण भारत में सुलभ थी। शिक्षा का प्रबंध का भार स्वयं स्थानीय समुदाय उठता था। जब गांव की व्यवस्था बदली, समुदाय की शक्ति हर प्रकार से क्षीण होती चली गई, और जहां गांव दरिद्र हुए वहीं ग्रामवासी निरक्षर होने को अभिशप्त हो गए।


जयप्रकाश गांधी जी की तरह वर्ण व्यवस्था के पक्ष में कुछ नहीं कहते लेकिन जातिगत बंधनों को तोड़ने और भेदभाव और शोषण-दमन को समाप्त करने का आवाहन अंत तक करते हैं। वे यह भी मानते हैं कि आरक्षण व्यवस्था के अंतर्गत एक न्यूनतम आर्थिक स्तर का ध्यान रखना आवश्यक है ताकि वास्तविक जरूरतमंदों तक उसका लाभ पहुंचे (बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने क्रीमी लेयर का प्रावधान किया)। वास्तव में जयप्रकाश के सामुदायिक चिंतन में जाति का स्थान एक प्रकार से गौण है जबकि लोहिया जाति को कभी नहीं भूलते। वे जातीय शोषण को हजारों वर्ष से चल रहा उत्पीड़न मानते हैं। वे ब्राह्मण-बनिया को भी अपने समाज चिंतन में लक्ष्य करते हैं। और आगे बढ़ कर 'सौ में पिछड़ा पावे साठ' की वकालत करते हैं। लोहिया संसदीय राजनीति के माध्यम से सामाजिक बदलाव चाहते हैं। वहीं जयप्रकाश संसदीय लोकतंत्र में संभावना नहीं देखते, और कहते हैं कि संसदीय राजनीति अभी और गिरेगी, टूटेगी फूटेगी, उसके मलबे से लोकनीति जन्म लेगी जो जनता को, लोक को शक्तिमत बनाएगी। लोकशक्ति का राज्यशक्ति पर वास्तविक अंकुश तभी संभव हो सकेगा। तभी भारत में वास्तविक जनतंत्र स्थापित होगा। जयप्रकाश एक न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था के लिए भी अपने स्तर से सक्रिय थे। इसमें वह एशिया और अफ्रीका के देशों की भूमिका को बहुत महत्वपूर्ण मानते थे। वे 'वर्ल्ड पीस ब्रिगेड' के अध्यक्ष मंडल के सदस्य भी थे।


जिस दौर में जयप्रकाश लोकतंत्र की नई सैद्धांतिकी गढ़ रहे थे, नई स्थापनाएं प्रस्तुत कर रहे थे, देश के समक्ष उपस्थित ज्वलंत मुद्दों कश्मीर, नागालैंड, विदेशी आक्रमण आदि पर खुल कर अपनी राय व्यक्त कर रहे थे और इस क्रम में 'जयप्रकाश गद्दार है' जैसी तोहमतें भी झेल रहे थेः पंचायती राज, चुनाव सुधार, प्रतिनिधि वापसी का अधिकार, भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था, राज्यवाद की बढ़त में व्यवस्था में अंतिम आदमी की साझेदारी की मांग कर रहे थे देश सत्तर के दशक के आरंभ में ही सर्वसत्तावाद की ओर बढ़ रहा था। बेतहाशा महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारों की बढ़ती फौज से समाज में बेचैनी और तनाव भर रहा था और शासन दमन का रास्ता अपनाने पर तुला हुआ था। इधर सर्वोदय आआंदोलन में ठहराव आ गया था। ठीक इसके विपरीत हिंसक क्रांति के प्रयोग चल रहे थे, पड़ोसी देश के शासनाध्यक्ष को अपना नेता मानने वाले समूह और दल सक्रिय हो रहे थे। ऐसे में जयप्रकाश ने 'लोकतंत्र के लिए युवा' (यूथ फॉर डेमोक्रेसी) का आह्वान किया। परिस्थितियां ऐसी बनीं कि 1973 में गुजरात के बाद 1974 में बिहार में छात्रों का जबरदस्त आंदोलन हुआ। जयप्रकाश ने इसका नेतृत्व करके उसे देशव्यापी जन-आंदोलन बना दिया। गांधी जी के अहिंसक प्रतिकार के अस्त्रों का उन्होंने प्रयोग किया जिन्हें सर्वोदय ने छोड़ दिया था। उन्होंने युवा आक्रोश को एक क्रांतिकारी स्वरूप देने का कार्य किया और 'संपूर्ण क्रांति' का आह्वान किया। अर्थव्यवस्था से ले कर अध्यात्म तक जिसमें समाविष्ट था। उन्होंने लोकतांत्रिक राजनीति में संवेदना, नैतिकता और अंततः अध्यात्म का योग किया। संपूर्ण क्रांति के आवाहनकर्ता जयप्रकाश वंचितों के वर्ग संगठन और शांतिपूर्ण वर्ग संघर्ष को भी सत्याग्रह का एक रूप मानते हैं। वे वंचितों का हक नहीं मिलने पर हिंसक संघर्ष की भी आशंका व्यक्त करते हैं। सबसे बड़ी बात, वे अपने इन वैचारिक और दैहिक उद्योगों से भारत के प्राचीन गौरव की पुनर्स्थापित करना चाहते हैं जैसा कि गांधी जी स्वराज के रूप में रामराज्य स्थापित करना चाहते थे।


गांधी-लोहिया-जयप्रकाश इन तीनों विभूतियों ने स्वतन्त्रता आंदोलन काल से ही भारत की कई पीढ़ियों को प्रभावित ही नहीं किया, उनका मार्गदर्शन किया है, आज भी कर रहे हैं। आज जैसा भी भारत है, इसमें उनका योगदान अप्रतिम है। भारतीय समाज, राजनीति और राजव्यवस्था पर इनकी अमिट छाप है जो कभी मिट नहीं सकती, धुंधली नहीं हो सकती।

 

(नवनीत, अक्तूबर 2025 अंक में प्रकाशित)



शिव दयाल 



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