परांस-7 : शाश्विता की कविताएं

 

कमल जीत चौधरी 



मनुष्य इस ब्रह्माण्ड का श्रेष्ठ जीव है। लेकिन अपनी श्रेष्ठता के मद में वह तमाम ऐसे काम भी करता जा रहा है जिसमें अमानवीयता कहीं अधिक है। सामाजिक और नैतिक ही नहीं बल्कि पर्यावरणीय स्तर पर भी मनुष्य ने तमाम दिक्कतें पैदा की हैं। ऐसे में वाकई मनुष्य होने के नाते हमारी जिम्मेदारियां अलग किस्म की हैं। शाश्विता अपनी एक कविता में लिखती हैं "हमारे सम्मुख यह मौलिक ज़िम्मेदारी है/ प्रेत होती मानसिकता से/ समस्त वायुमंडल का शोधन करना/ प्रेत हो जाने की हर सम्भावना को/ मूलतः विरेचित करना/ प्रत्येक दिशा में भटकते दिशाहीन प्रेत को/ सम्पूर्ण विश्वास के साथ मानवीय सम्बोधन देना/ प्रेम की सच्ची सत्ता के साथ प्रेत-प्रतिकूलता को/ विजयी स्पर्श देना"। शाश्विता की इधर की कविताओं में दर्शन का प्रभाव बढ़ा है। दर्शन अनुभवों का एक ऐसा आईना हमारे सामने रख देता है जो हमें चिन्तन मनन करने के लिए प्रेरित करता है।


अप्रैल 2025 से कवि कमल जीत चौधरी जम्मू कश्मीर के कवियों को सामने लाने का दायित्व संभाल रहे हैं। इस शृंखला को उन्होंने जम्मू अंचल का एक प्यारा सा नाम दिया है 'परांस'। परांस को हम हर महीने के तीसरे रविवार को प्रस्तुत कर रहे हैं। इस कॉलम के अन्तर्गत अभी तक हम अमिता मेहता, कुमार कृष्ण शर्मा, विकास डोगरा, अदिति शर्मा, सुधीर महाजन और दीपक की कविताएं प्रस्तुत कर चुके हैं। इस क्रम में आज हम सातवें कवि  की शाश्विता की कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं। कॉलम के अन्तर्गत शाश्विता की कविताओं पर कमल जीत चौधरी ने एक सारगर्भित टिप्पणी भी लिखी है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शाश्विता की कविताएं।



परांस-7

जैसे लौ देखती है अंधकार को  


कमल जीत चौधरी


डॉ. शाश्विता की कविताओं का प्रथम श्रोता रहा हूँ। एक लम्बे अंतराल के बाद इनकी तीसेक कविताएँ सामने आईं। यह सामना; सुन्दर रहा। यहाँ आत्मरक्षा की नहीं, आत्मसमर्पण की आवश्यकता रही। जो दस-ग्यारह कविताएँ 'परांस' के लिए चुनी हैं, इनसे इनकी अब तक की काव्य-यात्रा का सटीक पता चल जाता है। इनकी कविताई को ले कर; मुझे इनसे हमेशा अधिक अपेक्षाएँ रही हैं। अब भी हैं। बारह साल पहले भी डॉ. शाश्विता की कविताओं पर एक बहुत छोटी-सी टिप्पणी लिखी थी। उसे पुनः पढ़ते हुए जाना कि अब उस कहे में कुछ विस्तार हो सकता है। यह सुखद है कि मेरे भी देखने-समझने की यात्रा जारी है। 


'परांस'; धरती, पानी और जड़ों की ओर देखते हुए; सृजन पर सृजित करने का सयंत उपक्रम है। यह आयोजन अंगूठे से ज़मीन माप कर; प्रतीक्षारत रह कर, अंततः अनाज से एक सामूहिक डेहरी भरने जैसा है। 


'मैं देखूँ न देखूँ

कहूँ न कहूँ

रहूँ न रहूँ - तुम देखना मुझे

जैसे देखती है चाँदनी समग्र को 

जैसे देखती है लौ अंधकार को।'

                             

(जैसे देखती है लौ)


यह कवि की सृष्टि है, यहाँ लौ; अंधकार को देख रही है। ग़ज़ब यह कि पाठक देखती की जगह निहारती पढ़ रहा है। लौ तो अंधकार को नष्ट कर देती है। फिर यह कैसी लौ है? यह वास्तविक लौ है, जो अंधकार से प्यार करती है। उसे गले लगा कर, स्वयं में समाहित करती है। इस देखने में कविता है, और इस कविता में देखना है। प्रिय कवि धूमिल के शब्दों में 'कविता; भाषा में आदमी होने की तमीज़ है।' आलोच्य कवि को यह सुन्दर हासिल है। सच्ची कविता, निरंतर; बाहरी और आंतरिक स्तर पर आदमीयत की तलाश करती है। इनके यहाँ एक तरफ सतरंगी आकार पाने वाली रूह है, और दूसरी ओर किसी की मैली काया में बेबसी की धूप से झुलसने वाली स्त्री है। डॉ. शाश्विता; कविता को आत्म-साक्षात्कार मानती हैं। वे अक्सर स्वयं से मुलाकात करने में सफल रहती हैं। इस साक्षात्कार के लिए किया गया इनका सतत संघर्ष, इनके भावों में दिखता है। यहाँ दर्शन और आध्यात्म के कुछ सौपान नज़र आते हैं, मगर पुनः कह रहा हूँ कि धरती के जन-जीवन-यथार्थ को यह कविताएँ; कहीं भी नहीं भूलतीं। कवि को भूलना नहीं चाहिए कि इस नहीं भूलने से ही यह कविताई सम्भव हुई है। इनकी कविताओं में आने वाला 'वह', 'माँ' और 'उसे' दरअसल लौकिक भी है, और अलौकिक भी। यह उपदेश की नहीं, बल्कि संदेश की कविताएँ हैं। निमंत्रण की कविताएँ हैं: 


'प्रवेश द्वार को तुम्हारा इंतिज़ार है,

आओ तुम...'                     


यहाँ स्वीकृति, उत्सवधर्मिता, साधुवाद का भाव सम्मलित है, और इतर इनकार का साहस भी है। एक अनहद नाद है। यह शब्द-ध्वनि-महिमा की कविताएँ हैं। यह ऐसे दरवाज़ों की कविताएँ हैं, जो अन्दर की ओर खुलते हैं। यह किसी भी भाँति कर्तव्यच्युत और समाज-च्युत नहीं हैं। यहाँ दूब से ओस के सपने छिन जाने की छटपटाहट भी है; और सूखे के कालचक्र से नमी बचाने का संकल्प भी है। 'सहवेदना' जैसी कविता वही लिख सकता है, जो मानव-मन की पीड़ा, उसके अभाव, दरिद्रता और संवेदना को अपना समझता है। जो वेदना; सादृश्य, उपस्थित, समान और साथ है, वह सहवेदना हुई। इस आलोक में इनकी कविताई हाथ और हाथ के रिश्ते को उकेरती है। अँधेरे में स्वयं अपना हाथ और हिम्मत ढूंढ़ती है। अपना हाथ उस हाथ में  देना चाहती है, जो गुलमोहर हो। यहाँ आंतरिक लय और संगीतात्मकता एक सूत्र है, जो कवि को अँधेरे में गुम नहीं होने देता। यह कविताई अँधेरे के सघन, मर्मस्पर्शी तथा सुन्दर बिंब सृजित करती है। कवियों को भावानुरूप; अलहदा कहन व भाषा को प्राप्त होना होता है। आलोच्य कवि की 'घोषणा', शीर्षक कविता; इस शर्त पर खरी उतरती हुई, नया शिल्प चुनती है। हालांकि यह एक सामान्य कविता है। 


ऐसी कविताओं के चुनाव से बचता हूँ, जो बिग बॉस के काम आएँ। इधर कुछ विशेष रंगों, शब्दों, स्थानों, चिन्हों आदि का ग़ज़ब सरलीकरण किया जा रहा है। जन-नायकों को ही नहीं छीना जा रहा, बल्कि प्रगतिशील चिंतकों के चिंतन, अच्छे कवियों की काव्यपंक्तियाँ, सुन्दर आलोचकों की स्थापनाएँ, इतिहासकारों की लिखत आदि भी इस्तेमाल की जा रही हैं। यह सन्दर्भ कटा काल है। इसमें संपादकों की जिम्मेवारी बढ़ जाती है। कविता-कला में ऐसा अवकाश देना श्रेयस्कर नहीं है, जिससे क्रूरता किसी अन्य ढंग से हावी होने का सुअवसर प्राप्त कर ले। मगर दुखद सत्य है कि यह अक्सर हो रहा है, मसलन आज किसी प्रगतिशील पंक्ति से भी प्रतिगामी विचार-पक्ष में माहौल बनाया जा रहा है। हिन्दी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना जी की एक प्रसिद्ध कविता, 'गिरना' की अंतिम पंक्तियाँ देखें: 


'तय करो अपना गिरना

अपने गिरने की सही वजह और वक़्त

और गिरो किसी दुश्मन पर

गाज की तरह गिरो

उल्कापात की तरह गिरो

वज्रपात की तरह गिरो

मैं कहता हूँ

गिरो।'


यहाँ दुश्मन कौन है? इस घातक दौर में 'सही वजह और वक़्त' भी अपने हिसाब से देखा जा रहा है। सन्दर्भ से काट कर उपरोक्त काव्य पंक्तियों का सरलीकरण हो सकता है। एक भीड़; किसी न्याय, सत्य और सुन्दर पर गिरने को आतुर हो सकती है। एक संख्याबल किसी कम को कटघरे में खड़ा कर सकता है। डॉ. शाश्विता ने भी जाने-अनजाने कुछ काव्यपंक्तियाँ और ऐसे शब्द लिखे हैं, जिन्हें लिखना स्थगित करना ठीक था। सभी कवियों-कलाकारों को ऐसा लेखन स्थगित करना चाहिए, जिससे जन और जनपक्षधर विचार-भूमि का अहित हो। मैंने आलोच्य कवि की ऐसी कविताओं को 'परांस' में नहीं चुना, जो किसी भी भांति ग़लत के हक़ में साधी जा सकती थीं। 'तेरी मिट्टी में मिल जावां, गुल बन के मैं खिल जावां, इतनी सी है दिल की आरजू...' हमें इस गीत के अवदान पर सोचना चाहिए। क्या इस गीत में 'गुरुओं और स्वतंत्रता सेनानियों के अपूर्व त्याग' और 'नदियों में बहने और खेतों में लहराने' के भाव हमें बदल सके? बदल सके तो किसके हक़ में, हमारे महान महादेश भारत के या किसी विशेष विचार के पक्ष में? आत्ममंथन करें कि कोरी भावुकता से भरे गलों या सुरों और रूहानी आवाज़ में क्या फ़र्क होता है, और आज अंडरटोन क्या-क्या घटित हो रहा है। 


लगभग सभी आलोचक स्थानीयता को रेखांकित करते हैं। मेरा भी मानना है कि एक कवि के लिखे में उसकी मिट्टी और भाषा की महक होनी चाहिए। लिखे में उसका परिवेश; विशेषकर कार्यक्षेत्र और घर दिखना ही चाहिए। इससे उसकी कलम की प्रामाणिकता सिद्ध होती है। आलोच्य कवि की कविताएँ पढ़ते हुए; यह नहीं जाना जा सकता कि वे डुग्गर अथवा जम्मू-कश्मीर की कवि हैं। मगर क्या ऊपर कही प्रमाणिकता की बात स्त्रियों पर भी लागू होती है? नहीं, यह नहीं हो सकती। उनकी जगह कहाँ है? वह तो भाव-संसार में रहती हैं। डॉ. शाश्विता एक आयुर्वेदिक डॉक्टर हैं, और बरसों से कविता और अध्यात्म से इनका नाता है। इनकी कविताई में जम्मू-कश्मीर की समस्याएँ नहीं, बल्कि स्त्री मन- संसार के उत्तर और समाधान मिलते हैं। इनकी कविताओं में इनके घर में; इनके द्वारा लगाए गए दर्जनों पौधों के अलावा मनवाल-मानसर-सुरईंसर के पहाड़ी मोड़ों और पगडंडियों की झलक देखी जा सकती है। मगर इन्हें आने वाले दिनों में स्थानीय होने की नई पगडंडियां और नई परिभाषाएँ तलाश करनी होंगी। वर्जिनिया वुल्फ याद आ रही हैं, उन्होंने लिखा है कि औरत के पास लिखने के लिए एक कमरा होना चाहिए। आलोच्य कवि के पास अपना एक कमरा है, जो इनके भाव-अभाव-संसार की ज़मीन है। जहाँ  इनके कवि बनने के कारण विद्यमान हैं। यह स्थानीयता कुछ मुखर हो। आखिर एक कमरे की भी स्थानीयता होती है, और औरतों की एक बड़ी दुनिया  बिना इसके पूरी-पूरी अभिव्यक्त नहीं हो सकती। जिनके पास अपना कमरा नहीं है, उन औरतों का जीवन भी अन्य कमरों के इर्द-गिर्द, अन्दर-बाहर ज़हर पीता है। 


मिर्ज़ा ग़ालिब के शब्दों में- 


'है कुछ ऐसी ही बात कि चुप हूँ, 

वर्ना क्या बात कर नहीं आती', 


यह 'कुछ बात' यहाँ बहुत बड़ी बात है। चुप रहने का एक कारण है। 'मैंने उसे छुआ' शीर्षक कविता में एक चुपी है। किस कारण? यानी कुछ बात है। पीड़ितों, वंचितों, ग़रीबों के बोलने पर उनके बारे में मत बनाए जाते हैं। उन्हें मालूम है कि यह मत उनके पक्ष में नहीं होंगे, इसलिए चुपी श्रेयस्कर है। कविता में ऐसे पात्र अभिभूत करते हैं, जिनका चरित्रांकन विशेष ढांचे में फिट न आए। जो अनकहे में बहुत रह जाएँ, उसे समझा जाना ज़रूरी है। डॉ. शाश्विता के पास ऐसी कविताएँ हैं:


उसके' अधखुले होठों पर 

बेज़ुबान बातें थीं 

विरासत में थे मैले दिन 

बदनाम रातें 

कुछ ज़िद थी 

थोड़े हौसले भी 

इन्सान हो पाने की कोशिश 

जीने का सामान भी था...

         

मैंने वो सब सुना 

जो उसने कभी न कहा 

मैंने वो सब छुआ 

जो भी उसने छुपाया...'

                    

(मैंने वह सब छुआ)


हमारे समाज में नकारात्मक रूप में कही जाने वाली एक उक्ति, 'प्यार अंधा होता है' बहुत प्रचलित है। मगर इससे मुझे सकारात्मक दृष्टिकोण मिलता है। सिर्फ़ सांसारिक आँखों का स्वामी प्यार नहीं कर सकता; पूरे प्यार तक नहीं पहुँच सकता। प्यार करने के लिए अंधा होना ज़रूरी है। प्यार का यह अंधापन; अंधे आदमी का सच्चा अंधापन है। सबकुछ साफ देखने वाला अंधापन। आलोच्य कवि की एक कविता, 'जन्मजात अंधी' का एक अंश उद्धरित है:


'उसने

त्वचा के रोये रोये से,

दिशाओं का,

साक्षात्कार किया

स्पर्श के,

नैसर्गिक सम्बोधन की

हर सम्भावना को 

उसने

स्वीकार किया...'

                     

(जन्मजात अंधी)


अच्छा कवि परकाया प्रवेश करता है। यह प्रवेश किसी को परेशान नहीं करता, बल्कि बिना दस्तक दिए हवा में कदम रखता है, एक चिड़िया की भांति किसी घर के भीतर घर बना कर; सुख-दुख का साक्षी बन कर; वापस अपनी उड़ान लेकर लौट जाता है। आलोच्य कविता इसका सशक्त प्रमाण है। यह कविता एकार्थी-भाव की कविता नहीं है। यह कविता 'दिन-रात के सौन्दर्य में निरंतर निष्पक्ष बने रहने' की प्रेरणा देती है। डॉ. शाश्विता समतावादी हैं। इन्हें प्रकृति के माध्यम से साम्य भाव उकेरना बखूबी आता है। इनकी 'रात' और 'तीलीभर रोशनी' जैसी कविताएँ भी इसी श्रेणी में आती हैं:


'अँधेरे में डूब जाते हैं 

उजाले में फैले सारे भ्रम

अँधेरे में हम

आँख खोल कर देखने का प्रयास करते हैं

टटोलते हैं हाथ और हिम्मत

थामते हैं हाथ

नहीं पूछते उसकी जाति

नहीं देखते रंग और धर्म

हमारे स्पर्श में

आती है सिहरन

जो दिलाती है लहू की याद...'

                                     

(तीली भर रोशनी)


इनके पास अँधेरे, स्पर्श, अद्वैत, वेदना और सुन्दर देखने-सुनने की कविताएँ हैं। आलोच्य कवि स्पर्श करने के लिए नहीं; स्पर्श देने के लिए कहती है। यहाँ सूरदास के 'दधि दान' का स्मरण होता है। यहाँ ऊँचाई कहीं है तो सिर्फ़ सुर में है। यह कविताई साफ जल के घाट तक ले जाती है। यह प्रसव से पहले पिता को देखतीं, और माँ बनने के बाद पहली बार नवजात को देखती कविताएँ हैं। यहाँ इतना प्यार और ममता है कि बुरे से बुरे कहे जाने वाले के लिए भी मुक्तिकामना है। 'प्रेतमुक्ति' शीर्षक; कविता में कवि ने प्रेत की पीड़ा देखी है। दरअसल वे सारे मनुष्य; जीते जी प्रेत ही हैं, जिन्हें हवस है, जो अशांत हैं, जो ग़लत में डूबे हैं। लोक अनुसार इनकी चिताओं पर इनकी बुरी इच्छाओं-कामनाओं और लिप्साओं की लकड़ियां फटती रहेंगी। इस कविता में प्रेत को ले कर अन्य नैरेटिव है। प्रेत तो डरने-डराने के काम में लाए जाते हैं, और हमारी कवि उसकी पीड़ा, विवशता और व्यथा समझने का प्रयास कर रही है: 


'उसके स्मरण में हैं 

सारी भौतिकता

पीड़ाएँ सारी

व्यथाएँ सारी

संचित वेग और भरपूर उद्विग्नता...' 

                                  

(प्रेतमुक्ति)


संत क्षमाशील होते हैं। उनकी यह क्षमाशीलता उन्हें महान बनाती है, मगर यह मुक्ति कतई नहीं दे सकती इसके लिए उन्हें अन्य अच्छे कर्म करने होते हैं। उनसे कठिन तप की अपेक्षा की जाती है। संतों के अलावा संसार में स्त्रियां भी हैं। यह स्त्रियां; माफ़ करके मुक्त होने की कला में सिद्धहस्त हैं: 


'बू से लथपथ 

उसकी साँसें 

जिस्म हो जाने को बेताब 

जब घुटन देना चाहती हैं मुझे 

रोज़ की तरह... 

मुक्ति की छटपटाहट में मैंने चाहा 

नदी हो जाऊँ

बाढ़ में बदल जाऊँ

उठाऊँ तूफान 

बह जाए दर्द सारा 

कारण सारा...

फिर एक दिन मैं माफ़ कर देती हूँ उसे 

और मुक्त हो जाती हूँ...'

  

ऐसी मुक्ति प्रेरणादायक है। यहाँ पराजय नहीं है। इस माफ़ी में एक दण्ड छिपा है। जैसे इस कविता की 'मैं' में हिम्मत जगी, ऐसे ही इसे देने की क़ुव्वत हरेक औरत में पैदा हो। यही कामना है। डॉ. शाश्विता के जीवन-अनुभव और व्यापक, सूक्ष्म, गहरे और सघन हों। वे लिखें, नित प्रयोग करें, एकरसता से बचें और बहुत ज़्यादा पढ़ें। इससे आगे की कविताई के लिए इन्हें खूब शुभकामनाएँ! 


सम्पर्क:


कमल जीत चौधरी

ई मेल : jottra13@gmail.com



शाश्विता



कवि-परिचय:

डॉ. शाश्विता ने पहली बार नौवीं कक्षा में कुछ लघु कहानियाँ लिखीं। फिर एक अंतराल के बाद कविताएँ लिखना शुरू कीं। दो दशकों की काव्ययात्रा में वे प्रेरणा, अभिव्यक्ति, पहली बार, खुलते किवाड़, दैनिक जागरण आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। इन्होंने आकाशवाणी, कला अकादमी जैसे मंचों से काव्य पाठ भी किया है। इनकी कविताएँ; जम्मू-कश्मीर के चुनिंदा कवियों की किताब, 'मुझे आई डी कार्ड दिलाओ' (स. कमल जीत चौधरी) में प्रमुखता से प्रकाशित हुई हैं। फ़िलहाल इनका कोई कविता-संग्रह शाया नहीं हुआ है।

   


शाश्विता की कविताएं 


मैंने उसे छुआ   


उसके अधखुले होठों पर 

बेज़ुबान बातें थीं 

विरासत में थे मैले दिन 

बदनाम रातें 

कुछ ज़िद थी 

थोड़े हौसले भी 

इन्सान हो पाने की कोशिश 

जीने का सामान भी था...


मैंने वो सब सुना 

जो उसने कभी न कहा 

मैंने वो सब छुआ 

जो भी उसने छुपाया...

 


मुक्ति


बू से लथपथ 

उसकी साँसें 

जिस्म हो जाने को बेताब 

जब घुटन देना चाहती हैं मुझे 

रोज़ की तरह... 

मुक्ति की छटपटाहट में मैंने चाहा 

नदी हो जाऊँ

बाढ़ में बदल जाऊँ

उठाऊँ तूफान 

बह जाए दर्द सारा 

कारण सारा...


फिर एक दिन मैं माफ़ कर देती हूँ उसे 

और मुक्त हो जाती हूँ...



जन्मजात अंधी


उसने

त्वचा के रोये रोये से,

दिशाओं का,

साक्षात्कार किया

स्पर्श के,

नैसर्गिक सम्बोधन की

हर सम्भावना को 

उसने

स्वीकार किया


आहट की

छोटी से छोटी,

इकाई

उसकी संवेदनाओं को,

रोमांचित कर

देह में,

गूँज भर देती...


रगो में,

दौड़ता अंधकार

उसके अंतस को

आकार देता रहा,

जैसे

कोख के,

गहरे अँधेरे में,

साँस लेता है जीवन

वह,

धरती की

हर करवट को

पोर-पोर 

महसूस करती,

पगडंडियों की गंध उसे

मंज़िल के करीब ले जाती

वह जन्मजात अंधी लड़की

दिन और रात के,

सौंदर्य में,

निरंतर...निष्पक्ष बनी रही।



प्रेत मुक्ति


वह अचानक प्रकट होता है

कुछ विचित्र स्वभाव के साथ

सम्पूर्ण वर्चस्व के साथ; दर्शाता है अपनी सत्ता

वह अस्तित्व में है,

कुंठित भावनाओं के साथ

विचलित मानसिकता के साथ; 

माहौल में पूरी तरह स्वतंत्र...

उद्दंड संकेतों के साथ वह 

हमारी शांति में उतरता है

उसके स्मरण में हैं 

सारी भौतिकता

पीड़ाएँ सारी

व्यथाएँ सारी

संचित वेग और भरपूर उद्विग्नता


विपरीत मनोवृत्ति में अतृप्त कहानी को वह 

अपनी ही तरह दोहराएगा

जवलंत प्रश्नचिन्हों में ग्रस्त वह प्रेत आपदाओं के साथ पुनः पुनः आएगा

हमारे सम्मुख यह मौलिक ज़िम्मेदारी है

प्रेत होती मानसिकता से 

समस्त वायुमंडल का शोधन करना

प्रेत हो जाने की हर सम्भावना को 

मूलतः विरेचित करना

प्रत्येक दिशा में भटकते दिशाहीन प्रेत को 

सम्पूर्ण विश्वास के साथ मानवीय सम्बोधन देना

प्रेम की सच्ची सत्ता के साथ प्रेत-प्रतिकूलता को 

विजयी स्पर्श देना

करना आह्वान प्रथम स्पन्दन का...

कि

बिना किसी प्रताड़ना; प्रेत विसर्जित हो जाए

पुनः कभी आवृत्त न हो पाए 

प्रेत मुक्त हो जाए।

   




तीली भर रोशनी                                                                              तमाम चेहरे                                  

एक हो जाते हैं

लम्बा गहरा अँधेरा

जब फैलता है

सर से पाँव तक

   

अँधेरे में हम देखते हैं

उजाले के सपने

तलाशते हैं अपने हिस्से की ज़मीन

संभल कर पाँव रखने के लिए


अँधेरे में डूब जाते हैं 

उजाले में फैले सारे भ्रम

अँधेरे में हम

आँख खोल कर देखने का प्रयास करते हैं

टटोलते हैं हाथ और हिम्मत

थामते हैं हाथ

नहीं पूछते उसकी जाति

नहीं देखते रंग और धर्म

हमारे स्पर्श में

आती है सिहरन

जो दिलाती है लहू की याद

 

घोर सघन अँधेरा

परत-परत गिरह खोलता है

तमाम आवाज़ें खामोश हो जाती हैं

जब अँधेरे का सन्नाटा बोलता है

हम पीते हैं

बूँद-बूँद तन्हाई

सुनते हैं महीन कम्पन

नाभि की

धड़कन की

और अचानक महसूस करते हैं

जीवन का अहसास

अँधेरे में

बच्चा कहता है - माँ

 

माँ जो हो जाती है

तिली भर रोशनी

फैल जाती है

गहरे स्याह अँधेरे में।



प्रवेश द्वार को तुम्हारा इंतिज़ार है


इन पंखड़ियों की गलियों में, 

हृदय परिधि के सम्मुख

इस शीतल एकांत में 

अगर आओ तुम!


इस पुलकित अँधेरे में प्रेम प्रकाश है बहुत 

कोई आवरण नहीं यहाँ 

गहन सन्नाटे में बस आरम्भ है तुम्हारा


इस प्रेम-परिधि की स्वयं कोई परिधि नहीं

यहाँ आनन्द है भरपूर ...

सम्पूर्ण मस्ती, 

श्रृंगार भरा मधुर आलिंगन है


यह पगडंडियाँ तुम्हें सीमाओं के पार ले जाएँगी 

इन पगडंडियों की एक ही मंज़िल है... प्रेम


प्रवेश द्वार को तुम्हारा इंतिज़ार है,

आओ तुम...

   


सहवेदना


मेरे घर की जूठन घिसती,

तेरे हाथों की लकीरों को, देना चाहती हूँ मैं...

कोई और विस्तार...

तेरी जवान उम्र की झुर्रियों को...

उतरन

दया

और

घृणा से कुछ अलग देना चाहती हूँ...

नारियल

फल

और

काली दाल में कैद, परिवार की बलाओं के साथ

कुछ और भी

मैं जानती हूँ,

तीस दिन की जी तोड़ मेहनत,

तुम्हारी हथेलियों पर,

छन से गिरते चंद सिक्कों का संगीत नहीं

मैं देना चाहती हूँ, 

तुम्हारी मजबूर आँखों को

एक तृप्त एहसास...!


तेरी उमंगों के पंछी

कहाँ कूकते हैं मन की बगिया में,

यह चाहते हैं

खुला आकाश...

कुछ बूँदे

...और...

आग

देना चाहती हूँ

तुम्हें,

गीली मिट्टी की

खुशबू

छोटी-छोटी आशाओं में

क्षितिज का इंतिज़ार

...तेरी...

मैली काया में

मैं ही

सुलग रही हूँ

बेबसी की धूप लिए,

ऐ अजनबी,

तुम मेरे दिल में धड़कती,

मेरे अक्स का रूप हो

...मैं...

देना चाहती हूँ

तुम्हें कुछ और भी

कुछ भी

जो तुम,

चाहती हो


चाहती हूँ

मैं भी शायद

पुरस्कार और प्रमाण

तेरे... मेरे... होने का।


   




अद्वैत 


जहाँ, नीली नदी

और,

गहरी होती है

आसमान

कुछ और,

खामोश...

बादलों की तलब,

और

जवान होती है,

बूँदे थिरकती हैं हरिताल पर


वहाँ... जहाँ,

अगणित संभावनाओं में,

...तुमने...

उतारा है मुझे

समय की इकाई से,

कुछ आगे...

समय की इकाई से,

आगे

जहाँ, कुछ नहीं रहता शेष

तुम्हारी धड़कनों से उतर,

साँसें ओढ़ती हैं मुझे

अंततः देती हैं 

विराम

उस सांवली गहराई को छूना है

तमाम अर्थो में उतरना है,

अस्तित्व होना है...आज

स्पर्श दो मुझे।

  


घोषणा


नाम- अबला

जाति- लज्जा

कुल- बेबसी

गुण- पंगु

स्थान- चार दीवारी

कर्म- प्रतीक्षा

पर्यायवाची - बेचारी, अकेली, कमज़ोर

उपयोगिता- पहली सुबह से अगली सुबह तक


ऐसी स्त्री, अब नहीं पाई जाएगी

वह आ चुकी है

लाल रंग के साथ,

छातियों में, भुजाओं में

कौंध जाएगी 

पहली चीख से,

अनंत गूंज तक वह रगों में, फैल जाएगी


नकाबपोश, अब नज़र नहीं आएँगे

वह

चेहरों को मौलिकता दिलाएगी

उसकी पहचान

कुछ

इस तरह है:


नाम - प्राण

जाति- मानवता

कुल- जीवन

गुण- समानता

कर्म- प्रेम

पर्यायवाची - तुलसी, अमृता

स्थान - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश

उपयोगिता - दूध को पहली बूंद से अंतिम अग्नि तक।





जैसे देखती है लौ 


मैं कहूँ न कहूँ

रहूँ न रहूँ-

तुम छूना मुझे

छूना... 

जैसे प्रभाकर की पहली किरण छूती है 

सुबह को

जैसे छूती है खुशबू पराग को 

ओस जैसे गुलाब को

जैसे छूते हैं मेघ वसुधा को 

देते हैं हरितिमा धरा को 

तुम छूना मुझे अंतरंग 

जैसे छूता है पलाश को बसंत 

अंजलि भर दोष हर लेना

प्रेम अर्घ्य देकर, सींच देना पोर - पोर अनंत


मैं देखूँ न देखूँ

कहूँ न कहूँ

रहूँ न रहूँ --- तुम देखना मुझे

जैसे देखती है चाँदनी समग्र को 

जैसे देखती है लौ अंधकार को।



रात


जब सो रही थी, 

शहर भर की थकान 

तमाम बेईमानियां भी सो रहीं थीं

सो रहीं थीं 

जब खुद को बचाए रखने की 

ईमानदार कोशिशें...

संबंधों में फैलती उदासी भी 

सो रही थी...

निराशाएं कहीं 

जब करवटे ले रहीं थीं

वह...  

धरती और आकाश के बीच 

अभेद 

चांदनी को ओढ़े

सम्पूर्ण अस्तित्व संभाले

फैल रही थी 

अपनी ही तरह 

सदियों से...

खामोश... विराट 


ठीक उसी समय

मैंने देखा आईना

आज फिर

तन्हा... गर्भित.. संवेदित 

उम्मीद से है रात।

  


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क

  

मोबाइल नम्बर- +91 97973 18366 

टिप्पणियाँ

  1. अच्छी कविताओं पर विस्तृत और पठनीय टिप्पणी। उस पर आपका अग्रलेख। बढ़िया पोस्ट है।

    डॉ डी एम मिश्र

    जवाब देंहटाएं

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