शर्मिला वोहरा जालान का आलेख ‘हिंद स्वराज’ एक साहित्यिक कृति : उद्धरणों के आलोक में
‘हिंद स्वराज’ एक साहित्यिक कृति : उद्धरणों के आलोक में
शर्मिला वोहरा जालान
लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए गांधी जी ने नवंबर 1909 में संवाद शैली में गुजराती में ‘हिंद स्वराज’ लिखा था। दिसंबर 1909 में ‘इंडियन ओपिनियन’ में गुजराती मूल रूप में यह पुस्तक प्रकाशित हुई थी। जनवरी 1910 में इसका पुस्तकाकार रूप प्रकाशित हुआ। मार्च 1910 में भारत की ब्रिटिश सरकार ने पुस्तक को जब्त कर लिया। गांधी जी ने बहुत शीघ्र इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया। इसके जब्त होने की कोई सूचना नहीं है।
वस्तुतः यह पाश्चात्य आधुनिक सभ्यता की समीक्षा है। उसको स्वीकार करने पर प्रश्न चिन्ह है।
“पाठक - अब तो आपको सभ्यता का अर्थ बताना होगा। आपके विचार से तो जिसे हम सभ्यता कहते हैं वह असभ्यता हुई।
संपादक - मेरे ही नहीं, लेकिन अंग्रेज लेखकों के विचार से भी यह सभ्यता असभ्यता है। इस विषय पर बहुत सी पुस्तकें लिखी गई हैं। इस सभ्यता के रोग से राष्ट्र को बचाने के लिए संस्थाएं भी स्थापित हो रही हैं। एक बड़े अंग्रेज लेखक ने तो ‘सभ्यता उसका कारण और इलाज’ (सिविलाइजेशन, इट्स कॉज एंड क्योर) नाम की पुस्तक लिखी है, जिसमें सभ्यता को एक प्रकार का रोग बताया है।”
“पाठक - इन बातों को हम जान क्यों नहीं पाते?
संपादक - इसका कारण तो स्पष्ट है। अपने ही विरुद्ध बोलने वाले विरले ही होते हैं। आधुनिक सभ्यता की मोहनी से मोहित जन उसके खिलाफ क्यों लिखने लगे?”
(‘हिन्द स्वराज’ के छठे प्रकरण में ‘सभ्यता’)
‘हिंद स्वराज’ पश्चिमी सभ्यता की समीक्षा है।साहित्य भी एक तरह से सभ्यता की समीक्षा माना जाता है। इस तरह से यह कृति साहित्यकार के करीब आती है, और साहित्यकार इस कृति के करीब आते हैं।
गांधी जी के लेखन में साहस और प्रतिभा के दर्शन होते हैं। एक ऐसे लेखक का साहस और जोखिम नजर आते हैं, जो किसी लेखक को सच्चा लेखक बनाता है।
यह साहित्यिक रचना नहीं है परंतु जिस साहस और प्रतिभा के साथ लिखा गया है यह साहित्यिक कृति बन गई है।
“संपादक - आपको थोड़ा सब्र से काम लेना होगा। सभ्यता का असभ्य रूप आपको जरा मुश्किल से ही समझ में आएगा। वैद्य हकीम कहते हैं, क्षय का रोगी मृत्यु के क्षण तक जीने की इच्छा रखता है। इस रोग का घातक प्रभाव ऊपर से नहीं दिखाई देता बल्कि रोगी के चेहरे पर झूठी सुर्खी आ जाती है, जिससे वह अपने-आपको भला चंगा समझता है और अंत में जिंदगी से हाथ धोता है। यही हाल सभ्यता का है। वह अदृश्य रोग है, उससे होशियार रहिए।” (हिन्द स्वराज-हिंदुस्तान की हालत-2, पृष्ठ-36)
“संपादक - इतना तो आप समझ ही सकते हैं कि रेलें न हो तो हिंदुस्तान पर अंग्रेजों का जितना काबू आज है उतना ना रहेगा। रेलों ने ही यहां प्लेग की महामारी फैलाई। रेलें न हो तो लोगों का एक से दूसरी जगह जाना बहुत कम हो जाए और छूत वाली वाली बीमारियां सारे देश में ना फैलें। हम पहले स्वभाविक रूप में ‘सैग्रिगेशन’ (सूतक) मानते थे। रेलों से अकाल बढ़ा है क्योंकि रेल का सुभीता पा कर लोग अपना अनाज बेच डालते हैं। जहां महंगी अधिक हो वहां अनाज खिंच जाता है। लोग लापरवाह हो जाते हैं और अकाल का दुख बढ़ता है। रेलों से दुष्टता भी बढ़ रही है, बुरे आदमी अपनी बुराई अब ज्यादा तेजी से फैला सकते हैं। हिंदुस्तान के पवित्र स्थान अपवित्र हो गए हैं। पहले लोग बड़े कष्ट कठिनाइयां उठा कर वहां पहुंच जाते थे, इसलिए सच्चे भक्ति भाव वाले ही भगवत भजन के लिए वहां जाते थे। अब तो ठगों की टोली ठग विद्या दिखाने के लिए ही वहां पहुंच जाती है।"
एक तरफ व्यापक समाज रेलगाड़ी, पोस्ट ऑफिस, और अस्पताल का उपयोग कर रहा था, तो दूसरी तरफ वे उनकी आलोचना कर रहे थे। उनके लिखने में हमको एक ऐसे लेखक का जोखिम और साहस और सच्चाई नजर आती है जो एक लेखक को सच्चा लेखक बनती है।
“अंग्रेजी राज्य की एक मुख्य कुंजी उसकी अदालतें हैं और अदालतों की कुंजी वकील हैं। वकील वकालत छोड़ दें और यह पेशा वेश्यावृत्ति के जैसा हीन समझा जाने लगे तो अंग्रेजी हुकूमत की इमारत एक दिन में ढल जाए। वकीलों की ही बदौलत हम हिंदुस्तानियों पर यह लांछन लगाया गया है कि हमें झगड़ा रुचता है और अदालत कचहरी से हमें वैसी ही प्रीति है जैसी मछली को पानी से।
वकीलों के बारे में मैंने जो कुछ कहा है वह जजों पर भी चरितार्थ होता है यह दोनों तो मौसेरे भाई और एक दूसरे का बल बढ़ाने वाले हैं।” (हिन्द स्वराज, पृष्ठ-49)
कोर्ट अदालत पश्चिमी सभ्यता से जन्मी संस्थाएं हैं। भारतीय लोग इस पर इस पर विश्वास जमा नहीं पाते, भरोसा नहीं रख पाते। निर्मल वर्मा एक जगह अपनी इंटरव्यू में कहते हैं - उन्होंने एक ऐसे न्यायाधीश के संस्मरण पढ़े जो बंगाल में थे और जो कहते थे कि गावं का आदमी ग्राम-पंचायत में सच बोलता था और कोर्ट में झूठ बोलता था।
गांधी जी का तर्क था कि भारतीय लोग पारंपरिक संस्थाओं पर भरोसा करते हैं और उनका विकास पाश्चात्य सभ्यता से बाधित होता है।
गांधी जी ने पश्चिमी सभ्यता की आलोचना करते हुए, पश्चिमी सभ्यता की समीक्षा करते हुए, आधुनिक सभ्यता की आलोचना और समीक्षा करते हुए जिस भाषा का उपयोग किया है ‘हिंद स्वराज’ पढ़ते हुए उसकी तरफ ध्यान जाता है।
गांधी का भाषा चिंतन क्या है?
हम जानते हैं कि हम भाषा के द्वारा परिभाषित होते हैं। हम भाषा में अपना यथार्थ रखते हैं । भाषा भीतर के सत्य और बाहर के यथार्थ के बीच सेतु का काम करती है। भाषा महज संवाद का साधन नहीं है। सिर्फ तात्कालिक लक्ष्य को प्राप्त करना ही नहीं है तात्कालिक लक्ष्य को प्राप्त करने के बाद भी शब्द शक्तियों की सत्ता कायम रहती है। भाषा केवल ध्वनि मात्र नहीं है। अर्थ की संवाहक भी है।
भाषा सिर्फ विचारों, विश्वासों और सिद्धांतों को प्रकट करने का माध्यम भर नहीं होती। बल्कि उसमें एक जाति के सांस्कृतिक बिंब, ऐतिहासिक स्मृतियां और पारंपरिक संस्कारों के स्वर भी हमें सुनाई पड़ते हैं।
गांधी जी मौखिक परंपरा से आए हुए थे। कथावाचक और प्रवचन सुनने सुनाने की उस समय जो परंपरा थी वही भाषा उन्होंने विकसित की। ‘हिंद स्वराज’ की प्रस्तावना में लिखते हैं-
“सरलता की दृष्टि से यह लेख पाठक और संपादक के बीच संवाद के रूप में लिखे गए हैं।”
यहाँ संवाद रूप पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। वे संवाद, बोलने सुनने सुनाने में विशेष बल देते। बोलना और सुनना देशी रूप है। सुनना विशेष महत्व रखता है। सुनना केवल ध्वनि को सुनना नहीं है। शब्द अर्थ के संवाहक होते हैं। जिसमें स्मृति और मिथक जीवित रहते हैं। संवेदनाओं का एक स्थाई रूपाकार हमारे अंदर होता है। भाषा मिथक और संस्कृति का अंतर्संबंध इस तरह के सुनने में और संवाद में बनता है।
गांधी जी जिस भाषा में संवाद कर रहे थे, वे अपनी बात उस आदमी को भी समझाना चाह रहे थे जो सबसे पीछे खड़ा, अंतिम आदमी है। साधारण लोगों के देश में, जहाँ निरक्षर लोग ज्यादा थे और जहां शिक्षा का माहौल नहीं था गांधी जी सीधी सच्ची खड़ी बात नितांत सरल ढंग से कह रहे थे। बोलचाल की भाषा का उपयोग कर रहे थे। जनता की बात को जन भाषा में रख रहे थे। गूढ़ बातों को सरलता से कहना ही उनका लक्ष्य था। उनकी बड़ी बातें भी घरेलू सम्प्रेषणीय और आत्मीय थी।
गांधी जी अपनी भाषा में विशेषण के प्रति बहुत सचेत थे। इसका अच्छा उदाहरण हमें नारायणभाई देशाई की ‘गांधी कथा’ में मिलता है। नारायणभाई कथा की शुरुआत में कहते हैं कि –
......कभी-कभार उनके पत्र का ड्राफ्ट तैयार करना पड़ता। अपने ड्राफ्ट में जब नारायणभाई (बाबला) ने एक गुजराती कवि के लिए ‘कविवर’ शब्द का इस्तेमाल किया तब गांधी जी ने पूछा-
“क्या उनको गुजराती भाषा के कवियों में श्रेष्ठ समझते हो?”
“तो मैंने कहा- “बहुत अच्छा लिखने वाले हैं| कवि को लिखना है, तो थोड़ी तारीफ करके लिखना।”
उन्होंने कहा- “विशेषण लिखने में भी सत्य की रक्षा हमारी पहली शर्त होनी चाहिए।”
गांधी जी भाषा में सत्य के आग्रह पर बल देते। उनकी भाषा सच्ची सहज सरल खड़ी भाषा थी।
वे साधन शुचिता की बात करते थे।
लोग कहते हैं, “आखिर साधन तो साधन ही है।” मैं कहूंगा, “आखिर तो साधन ही सब कुछ है।” जैसे साधन होंगे, वैसा ही साध्य होगा। साधन और साध्य को अलग करने वाली कोई दीवार नहीं है। वास्तव में सृष्टिकर्ता ने हमें साधनों पर नियंत्रण (और वह भी बहुत सीमित नियंत्रण) दिया है; साध्य पर तो कुछ भी नहीं दिया। लक्ष्य की सिद्धि ठीक उतनी ही शुद्ध होती है, जितने हमारे साधन शुद्ध होते हैं। यह बात ऐसी है, जिसमें किसी अपवाद की गुंजाइश नहीं है। यंग इंडिया (17-7-1924)”
उनके जीवन में जैसी सादगी थी वैसी ही भाषा में। उन्होंने सारा जीवन पत्रकारिता को दिया। इंडियन ओपिनियन (अंग्रेजी), यंग इंडिया (अंग्रेजी), हरिजन (हिंदी) नवजीवन (गुजराती), निकाला। ऐसे सादगीपूर्ण भाषा वह क्यों लिखते थे? वे जानते थे कि देश में कम पढ़े लिखें लोग ज्यादा हैं। हिंदी उर्दू का मेल-मिलाप और मेल -जोल पर जोर दिया। उनके पाठकों में हर तरह के लोग थे। वे व्यापक भारतीय समाज को संबोधित कर रहे थे। विभिन्न भाषयी संस्कृतियों वाले के समाज को संबोधित कर रहे थे।
गांधी जी के जीवन की ही तरह उन की भाषा का प्रभाव उस काल के कई साहित्यकारों पर पड़ा। आधुनिक रचनाकारों पर भी पड़ा। हम जैनेंद्र और प्रेमचंद की भाषा को देख सकते हैं | बाद में उनकी तपस्वियों जैसी भाषा का प्रभाव प्रसंग याद आता है कि चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन ने “मजदूर आवाज” अखबार निकाला। गांधी जी ने सुझाव दिया अगर मजदूरों के लिए निकाल रहे हो तो अक्षर बड़े होने चाहिए। छोटे अक्षर पढने में उनको सुविधा नहीं होती। वह बहुत सचेत थे।
उन्होंने हिंदुस्तानी का व्यापक स्तर पर समर्थन भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और बाद के वर्षों में अनुपम मिश्र के गद्य- ‘आज भी खड़े हैं तालाब’ में नजर आता है।
मुल्कराज आंनद के उपन्यास – ‘अनटचेबल’, रजा राव का ‘कंठापूरा’ को भी हम देख सकते हैं।
गांधी जी अपने चिंतन-मनन में हठधर्मी इन्सान कभी नहीं रहे। ग्रहणशील और उदार रहे। अपने विचारों से निरंतर संघर्ष में लगे हुए रहते। वह अपने विचारों में सतत परिवर्तनशीलता बनाये रखते थे। उनके विचारों में जो लचीलापन है उसका पता हमें इससे चलता है। वे कहते हैं –
‘मैं अपने जीवन में परिवर्तन करता रहता हूं। अगर आपको मेरे कोई वाक्य से दुविधा हो तो मेरा अंतिम वाक्य देखिए। मेरा बाद का वाक्य जो है पहले वाक्य से आगे बढ़ा हुआ वाक्य होगा। मैं प्रयास करता रहता हूँ।’
‘हिंद स्वराज’ के अंतिम अध्याय में कहते हैं- अपने मन का राज्य स्वराज है, और उसकी जो कुंजी है वह सत्याग्रह में है। अन्याय से लड़ना और अहिंसक ढंग से अन्याय का विरोध करना उसके लिए खड़ा होना, मुकाबला करना| सत्याग्रह की कुंजी आत्मबल और करुणा बल है। करुणा बल इसलिए कहते हैं कि अपने लिए तो सभी संघर्ष करते हैं, लेकिन दूसरों के लिए संघर्ष वही करता है जिसके अंदर करुणा का भाव होता है।
गांधी जी सत्याग्रह के साथ स्वदेशी भाषा की भी बात करते हैं। स्वदेशी भाषा, अपनी भाषा, मातृभाषा में ज्ञान प्राप्त करने की बात करते हैं।
अपनी इस टिप्पणी के अंत में कहना चाहूंगी कि गांधीजी की पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ एक साहित्यिक कृति है। उसमें सभ्यता की आलोचना जिस साहस के साथ की गई है जो जोखिम उन्होंने उठाए हैं वही लेखक के जोखिम होते हैं। गांधी जी ने जिस भाषा का प्रयोग किया वह सच्ची, सादगीपूर्ण सरल और पारदर्शी है।
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शर्मिला जालान |
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