स्वप्निल श्रीवास्तव की कहानी 'बादल और बारिश'
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स्वप्निल श्रीवास्तव |
'बादल और बारिश'
स्वप्निल श्रीवास्तव
प्रेमिल वर्मा की कविताओं की मैं मुरीद थी। मैं पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएं पढ़ती रहती थी। उनकी कविताओं में बला की बेचैनी थी। ऐसा लगता था कि उनके भीतर कोई लावा जमा हो गया हो जिसे वे अपनी कविताओं में व्यक्त कर रहे हैं जिसे पढ़ कर मैं उदास हो जाती थी। मैंने कहीं पढा था कि कोई लेखक या कवि अपनी रचनाओं में खुद को व्यक्त करता है। प्राय: अधिकाश कवि अपनी कविताओं में क्रांतिकारी चेतना को व्यक्त करते हैं। इस तरह की कविताएं मुझे कृत्रिम लगती हैं। जो लोग ऐसी कविताएं लिखते हैं और समाज को बदलने का दावा करते हैं, वे अपनी जिंदगी को बदल नही पाते। मैं मानती हूँ कि जिन कविताओं में संवेदना नहीं होती, वे दिल को छू नही पाती। प्रेम और क्रांति एक दूसरे में विरोध में नहीं बल्कि वे एक दूसरे की पूरक हैं। जब हम प्रेम करते हैं तो वह भी एक तरह की क्रांति है। प्रेम करते हुये हम उन रूढ़ियों और परंपराओं को तोड़ते हैं जिन्होंने इस समाज को जकड़ रखा है।
मैंने बहुत से विश्व प्रसिद्ध कवियों की कविताएं पढ़ी हैं। वे जिस उद्दाम चेतना के साथ क्रांति की कविताएं लिखते हैं, वही शिद्दत उनकी प्रेम कविताओं में दिखाई देती है। प्रेमिल ने दोनों के मनोभूमि पर कविताएं लिखी हैं। लेकिन साफ–साफ कहूँ कि मुझे उनकी प्रेम कविताएँ ज्यादा पसंद है। मैंने उन्हें अपनी व्यक्तिगत डायरी में दर्ज कर लेती थी। जब भी इच्छा होती उसे पढ़ लेती थी। जिंदगी में अगर वे कभी मिलेंगे तो उन्हें यह डायरी दिखाऊँगी। जब मैं उनकी कविताएं पढ़ती थी तो उसके नीचे उनका पता दर्ज होता थी। प्रेमिल किसी सरकारी नौकरी में थे उनका अधिकांश समय पश्चिम के जिलों में गुजरा है। मैं जिस शहर में रहती हूँ उससे वे जगहे बहुत दूर हैं।
इसके बावजूद उनसे मिलने की प्रबल इच्छा होती थी। मैं यह देखना चाहती थी कि उनकी कविताओं को पढ़ते हुए मैंने उनकी जो छवि बनायी थी वह मेरे सोचने के अनुरूप है या नहीं। मैं पास के शहरों में रहने वाले कई कवियों – लेखकों से मिली हूँ उन्होनें मुझे निराश किया है। वे जिन मूल्यों की स्थापना अपनी रचनाओं में करते हैं, वे उसके विपरीत होते हैं। जो लेखक थोड़े मशहूर हो गये हैं, वे बातचीत में अपने ज्ञान का प्रदर्शन करते हैं। वे जरा सा भी सहज नहीं होते। उनसे दोबारा मिलने की इच्छा नहीं होती। मुझे यह डर बना रहता था कि अगर प्रेमिल से मेरी मुलाकात हो जाए तो कहीं उनके प्रति बनायी हुई धारणा न टूट जाए। इससे अच्छा तो यह होगा कि उनसे न मिलूँ। उनकी कविताएं पढ़ते हुये मैं यह महसूस करती थी कि वह उन सब कवियों से जरूर अलग होंगे जो साहित्य को अपनी जागीर समझते हैं और अपने तिगड़म से साहित्य में टिके हुये हैं।
कहा जाता है कि अगर आप सच्चे दिल से किसी चीज की इच्छा करते हैं तो वह जरूर मिलती है। पूरी कायनात उसे पूरा करने में लग जाती है।लोगों के जीवन में इसके प्रमाण भी मिलते हैं। मेरी कामना थी कि मैं प्रेमिल से मिलूं और यह देखूँ कि जो कुछ उन्होंने अपनी कविताओं में लिखा है क्या उसका भाव उनके जीवन और स्वभाव में हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुये तमाम तरह की कल्पनाएं करती रहती थी। उनकी कविताओं के अलावा उनके जीवन का विवरण मुझे नहीं पता था। मैं अपनी डायरी अपने पास रखती थी जब भी मैं कालेज जाती थी उनके कविताओं की डायरी मेरे पास रहती थी। मेरी सहेलियों ने डायरी देख कर यह कहा कि ये किसकी कविताएँ हैं। मैं उन्हें क्या जबाब देती, उन्हें कविता का क ख ग नही मालूम। उनका साहित्य से कोई सरोकार नहीं था जबकि वे हिन्दी की अध्यापिकाएं थीं। उनका ज्ञान मध्य काल तक सीमित था, वे उसके आगे सोच ही नही सकती थी। उनकी सिर्फ यही दिलचस्पी थी कि माह के शुरू में वेतन मिल जाए और वे अपनी मनपसंद चीजें खरीद सकें। उनके पास कोर्स के अतिरिक्त कोई किताब नहीं थी। वे पत्र –पत्रिकाएं नहीं खरीदती थी, साहित्य का विमर्श उनके लिये गैर–जरूरी था।
***
सुबह सुबह मैंने अखबार में देखा की प्रेमिल वर्मा ने आज चार्ज ले लिया है। यह खबर पढ़ कर मुझे लगा कि मेरी मुँहमागी मुराद पूरी हो गयी है। इस सूचना को पढ़ कर मैं जैसे नृत्य मुद्रा में आ गयी थी। यह सुखद सूचना मैं किसी से नही बाँट सकती थी। यह बात तो साबित हो गयी थी कि जिस चीज को हम चाहते हैं वह उपलब्ध हो जाती है। उसके लिये हमें लंबा इंतजार करना पड़ता है। प्रेमिल मेरे लिये चीज नही मेरे प्रिय कवि थे। उनकी कविताएँ पढ़ कर मैं उनकी दीवानी बन गयी थी। कभी कभी सोचती हूँ कि आखिर ऐसा क्यों हुआ था? उनसे मेरा क्या रिश्ता था? उनके प्रति आकर्षण की वजह उनकी कविताएं थीं। यह भी सोचती थी कि वे अकेले कवि नही थे, बहुत से कवि कविताएं लिख रहे थे लेकिन उनकी कविताएं मुझे क्यों पसंद आती थीं। वे मेरे वेबलेन्थ पर कैसे आ गये थे।
मुझे पता था जो भी जिलास्तरीय अधिकारी आते हैं, वे अफसर हास्टल में रहते हैं। जनपद के बड़े हकीमों के लिये बंगलों में रहने की व्यवस्था होती है। अफसर हास्टल मेरे घर के पास था, यह मेरे लिये खुशी की बात थी। शहर के मुख्य सड़क के बाएं और दायें तरफ अधिकारियों की रिहाइश थी। उससे थोड़ा आगे बस स्टेशन था। जहां से मैं कालेज जाने के लिए बस पकड़ती थी। शहर से तीस किलोमीटर मेरा कालेज था जहां मैं बस से पास के कस्बे में पढाने जाती थी। मेरा कालेज एक घने जंगल के बीच स्थित था, रास्ते में खूब हरियाली थी, वहाँ रंग-बिरंगी तितलियाँ उड़ती रहती थीं। एक पेड़ पर बया के घोंसले लटक रहे थे, घोंसलों में चिड़ियाएं चहक रही थीं। यह मेरे लिए मुग्धकारी दृश्य था, सड़क से एक किलोमीटर का रास्ता आसानी से कट जाता था। जंगल में कई तरह के परिंदे दिखाई देते थे। कुछ पहचाने थे तो कुछ एकदम नये। उन्हें देख कर मैं चकित हो जाती थी। मुझे लगता था कि दुनिया आश्चर्यों से भरी हुई है लेकिन हम अपने काम में इतने मशरूफ़ होते हैं कि उन्हें देखते ही नहीं।
मैंने यह तय किया कि मैं प्रेमिल से एक सप्ताह बाद मिलूँगी। तब तक वे व्यवस्थित हो जायेंगे। मेरे पिता भी सरकारी नौकर थे, किसी एक शहर में उनका ठिकाना नहीं था। दो तीन साल बाद उनका तबादला हो जाता था। हम लोग पढ़ाई –लिखाई के कारण अपने शहर में ही रुक गये था और यदा कदा उनसे मिलने जाया करते थे।उनका ट्रांसफर दूर नहीं होता था इसलिए वे द्वितीय शनिवार और रविवार के दिन आ जाते थे। मुझे यह भी पता नहीं था कि प्रेमिल शादीशुदा हैं या नहीं, उनके कितने बच्चे होंगे। उनकी उम्र क्या होगी। मैं तो उनकी कविताओं को जानती थी, मुझे उनकी पृष्ठभूमि का पता नहीं था। परिवार को एक जनपद से दूसरे जनपद मे तबादले में कम तनाव नहीं होता। पूरी गृहस्थी एक जगह से लाद कर दूसरे शहर में लाना होता है। मैंने तय किया कि उनसे रविवार के दिन ही मिलूँगी, उस दिन दफ्तर की कोई झंझट नही होगी।
अन्य दिनों की तुलना में रविवार का दिन काफी व्यस्त नहीं होता। उस दिन कचहरी बंद रहती है शोर शराबा कम रहता है। संभवतः रविवार का आविष्कार इसलिये हुआ हो कि आदमी सप्ताह भर काम करने के बाद आराम फरमा सके। यह भी बताया जाता है कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना के बाद रविवार के दिन छुट्टी पर था। हालकि मध्यवर्गीय जीवन में छुट्टी का कोई दिन नही होता, रविवार के दिन आधे अधूरे काम पूरे करने होते हैं। बस इतना सुख तो मिलता है कि रविवार का दिन परिवार को समर्पित हो जाता है। घोड़ों को भी अस्तबल में आराम करने दिया जाता है ताकि वे ताकत के साथ काम कर सकें। आदमी भी तो घोड़े की तरह एक नस्ल है। आदमी की जिंदगी के तमाम रुपक घोड़ों से लिये गये हैं।
रविवार का दिन था, आकाश में बादल छायें हुए थे। यह अन्य रविवार से भिन्न था। आज मुझे प्रेमिल से मिलने जाना था, उनसे मिलने के ख्याल से चेहरा सुर्ख हो उठा था। मैं कभी आफिसर हॉस्टल नहीं गयी हूँ, कोई जरूरत नहीं पड़ी। माँ ने कहा – अकेले मत जाओ, अपने बड़े भाई के बेटे रोहन को साथ ले – जमाना बहुत खराब है, किसी पर भी भरोसा नही किया जा सकता। माँ ने यह बात बेवजह नहीं कही थी, इस छोटे शहर में ऐसी घटनाएं होती रहती थी।यह शहर पुराना जनपद का मुख्यालय था जिसमें तमाम विभागों के कार्यालय थे। उसमें रहने वाले लोग दकियानूस थे लेकिन जबसे आधुनिक सभ्यता की हवा चली लोगों के रहन–सहन बदल गये थे। यह बदलाव विचारों के स्तर पर नहीं बल्कि पहनावे के आधार पर दिखाई देने लगा था। लड़कों–लड़कियों के बात–व्यवहार में फिल्मी अंदाज नजर आते थे। लड़के मजनूँ की तरह लड़कियों का चक्कर लगते रहते थे। यदा –कदा लड़कियों की लड़कों के साथ भागने की सूचनाएं मिलती रहती थी।
मैं माँ से कोई बात नहीं छिपाती थी। वह जानती थी कि प्रेमिल मेरे प्रिय कवि हैं। मैं उन्हें प्रेमिल की कविताएं सुनाया करती थी और वह उससे मुतासिर होती रहती थी। माँ को साहित्य का मेरी तरह ज्ञान नहीं था लेकिन वह कविता का मर्म समझ जाती थी। माँ को मैंने ही बताया था कि प्रेमिल की पोस्टिंग यहाँ हो चुकी है, उन्होंने ही सलाह दिया था कि किसी रविवार के दिन जाना उचित होगा। वे मुझ पर भरोसा करती थी, वह मुझे अन्य बहनों–भाइयों की अपेक्षा मुझसे ज्यादा प्यार करती थी। मैं उम्र में सबसे छोटी थी, मुझे इस योग्यता का फायदा मिला।
यह तो अच्छा था कि रोहन मेरे साथ था इसलिये घबडाहट थोड़ी कम थी। रोहन के साथ मैं भी अफसरों के नेमप्लेट देखने लगी। हॉस्टल बड़ा नही था, दो मंजिलो में बटा हुआ था। कुल मिला कर बीस पचीस छोटे फ्लेटनुमा रिहाइश थी। अचानक प्रेमिल के नाम की तख्ती चमक उठी। मैं उनसे क्या कहूँगी – आने का सबब पूछेगे तो क्या उत्तर दूँगी। इन सब सवालो–जबाबों का मैं रिहर्सल कर चुकी थी। मुझे लगा कि मैं किसी से मिलने नही बल्कि किसी इंटरव्यू में जा रही हूँ। प्रेमिल के नाम की तख्ती चमक उठी। मुझे कालबेल बजाने में संकोच हो रहा था , यह काम मैनें रोहन को सौप दिया। घंटी बजाने के बाद इंतजार करने लगी। दरवाजा खुला सामने प्रेमिल मौजूद थे। उम्र यही कोई 40-45 के आसपास थी। रंग सांवला लेकिन आकर्षक था। वे उन अफसरों की तरह नहीं थे जो इस उम्र में थक से जाते हैं और अपने प्रति लापरवाह हो जाते हैं। वे इस वय में भी स्मार्ट लगे।
उन्होंने पूछा -आपको किस्से मिलना हैं?
“जी – मेरा नाम सुहानी है। मैं डिग्री कालेज में हिन्दी पढ़ाती हूँ। आपकी कवितायें मुझे अच्छी लगती हैं। मुझे आपके आने की खबर मिली तो मिलने चली आयी।"
“सो नाइस आफ यू, कह कर उन्होंने अपने ड्राइंगरूम में बैठने का इशारा किया। ड्राइंगरूम अभी पूरी तरह से व्यवस्थित नहीं था। जगह जगह चीजें बिखरी हुई थी, मेज किताबों से भरी हुई थीं। कभी-कभी बात का कोई सिरा पकड़ में नहीं आता कि बात कहां से शुरू की जाए, सो मैंने कहा – सर कब आये हैं।
“बस एक सप्ताह हो गया है अभी सब कुछ अव्यवस्थित है।"
“जी सर यह दिखाई दे रहा है।"
‘परिवार कब तक आएगा?'
“आई एम एलोन। मैं अविवाहित हूँ।"
इस बात को उन्होंने बेहद तकलीफ के साथ कहा था। वे शादी के उम्र को लांघ चुके थे जो मध्यवर्गीय परिवार में निर्धारित किया गया है। उन्होंने क्यों विवाह नहीं किया जबकि वे एक अच्छे सरकारी पद पर थे। पहली मुलाकात में यह बात पूछना उचित नही था। थोड़ी देर देर के बाद वह हमारे बीच से गये तो ट्रे में तीन कप काफी और बिस्कुट के साथ आये। मैंने कहा, अरे आपने क्यों तकलीफ की। हम चाय पी कर आये हैं। उत्तर में उन्होंने कहा – ठीक है। मेरे साथ चाय पीने में कोई हर्ज नहीं है। इसी बहाने बातचीत होगी।
“इधर क्या पढ़ रही हो ?”
“कुछ नहीं बस कुछ पत्र–पत्रिकाएं और कुछ किताबें।"
“आपको किस तरह की किताबें पसंद हैं।"
“मुझे रोमांटिक और ट्रेजिक उपन्यास पसंद हैं।"
“ ऐसा क्यों?"
“क्योंकि उनकी स्मृति देर तक रहती है।"
बातचीत में घंटे भर का समय बीत गया और हमें पता नहीं लगा। प्रेमिल की सहजता ने मुझे आकर्षित कर लिया था। उनके बातचीत का लहजा अच्छा लगा। यह कवि और पाठक के बीच की बातचीत थी। सरकारी अफसर होते हुये भी उनके भीतर किसी तरह का अहंकार नहीं था। जाते समय उन्होंने अपना कविता संग्रह 'यादों के पक्षी' भेंट किया और उस पर लिखा – अपनी प्रिय पाठिका सुहानी को सस्नेह। उनकी हस्तलिपि सुंदर थी उनका हस्ताक्षर भी अलग था। उन्होंने अपना मोबाइल नंबर दिया और मेरा नंबर भी दर्ज किया।
उन्होंने हम दोनों को विदा किया तो मैनें कहा – कभी मेरे घर आइये – यहाँ से बस थोड़ी दूर है।
उनके हास्टल से निकल कर मैं पीछे मुड़ कर देख रही थी। वे बालकनी से हमें देख रहे थे तो मुझे उनकी कविता – 'जाते हुए देखना' की याद आ गयी। मैं इस कविता की रचना प्रक्रिया के बारे में सोचने लगी। यह काल्पनिक कविता नहीं थी। वह उनके जीवन के किसी घटना की ओर संकेत कर रही थी। बहरहाल अभी क्या सोचना यह तो इब्तिदा था।
**
माँ मुझे देख कर खुश हो गयी। प्रेमिल के बारे में विस्तार से पूछा। उनकी पारिवारिक स्थिति और स्वभाव की जानकारी ली। क्या उम्र होगी? इसके जबाब में मैंने बताया – यही कोई 40-45 के उम्र के होंगे।
“अभी तक विवाह क्यों नही किया जबकि वे बड़े पद पर हैं?"
“इसके बारे पूछना मुझे अच्छा नहीं लगा? यह तो बहुत संवेदनशील विषय है।"
यह तहकीकात करते समय माँ को जरूर मेरी उम्र का ध्यान आ गया होगा। मेरी और उनकी उम्र में बीस साल का अंतर था। घर पहुँचने के बाद मैं बेताबी में उनका कविता संग्रह पढ़ने लगी। उनकी कविताओं ने मुझे घेर लिया था। उनकी ज्यादातर कविताओं में गहरी पीड़ा थी।कभी–कभी लगता था कि वे मेरे भाव को शब्द दे रहे हो।
शाम को उनका फोन आया और कहा – आपसे मिल कर बहुत खुशी हुई।
“मुझे भी आपसे मिल कर बहुत अच्छा लगा।आपकी कविताएं पढ़ी उसमें जिंदगी का दर्द और गहरी उदासी है।"
“जो हमें जीवन मिलता है कविताओं में वही अभिव्यक्त होता है।"
यह कहते हुये उनकी आवाज ठहर गयी थी। खुशी और उदासी में हमारे स्वर एक जैसे नही होते हैं। जरूर उनकी जिंदगी में कोई ऐसा वाकये रहे होंगे जो उनकी कविताओं में सुनाई दे रहे थे। प्रेमिल अक्सर मुझसे शाम के समय बात करते थे। आठ–नौ के बीच उनके फोन का इंतजार करती थी जब उनका फोन नही आता, खुद फोन मिला देती थी। मेरी आवाज को सुन कर वह चहक उठते थे, इधर मेरा भी यही हाल था।
यह सुबह के दस बजे का समय था, इत्तफाक से रविवार का दिन था। आकाश में घने–घने बादल थे, बीच-बीच में बिजली चमक उठती थी। मैं सोचती थी कि अगर बादल बरस जाये तो मेरी मुराद पूरी हो जाए, कई दिनों से उमस थी। बारिश के दिनों में मैं अक्सर खिड़की के पास बैठती थी ताकि बारिश को देख सकूँ। बारिश का संगीत मुझे बहुत पसंद था। बस्ती में बने टीन की छतों पर जब बारिश की बूंदे बरसती थी तो अदभुत ध्वनि सुनाई पड़ती थी। बारिश का आलाप सुनाई पड़ने लगा था। कभी-कभी मन मचल उठता था कि खूब बारिश हो और मैं भीगूँ लेकिन लोग क्या कहेंगे यह सोच कर रुक जाती थी।
अचानक घंटी बजी और लगा किसी ने मुझे डिस्टर्ब कर दिया है। इस बारिश में आखिर कौन हो सकता है। अमूमन लोग ऐसे मौसम में किसी के घर जाने से बचते हैं। मैं बारिश के दृश्य को अधूरा छोड़ कर दरवाजे खोलने के लिये बढ़ी तो देखा सामने प्रेमिल खड़े हैं। वे आधे से ज्यादा भींग चुके थे। मैं थोड़ी घबड़ा गयी थी, बेखुदी में बैठक का दरवाजा खोला और उन्हें बैठने के लिये कहा। दौड़ कर तौलिया ले आयी और कहा कि सर पोंछ लें अन्यथा ठंड लग जाएगी। प्रेमिल का आना मेरे लिये किसी बादल के आने जैसा था। मैने पंखे की रफ्तार तेज कर दी ताकि उनके कपड़े सूख जाये।
उन्होंने कहा – माफ करना मैं गलत समय पर आ गया हूँ। जब हॉस्टल से बाहर निकला था तब नहीं लगा था कि बादल इतने जल्दी बरस जाएंगे। मुझे बादलों का बरसना अच्छा लगता है, बारिश मेरा प्रिय मौसम है।"
“आप अपनी गाड़ी से आ जाते।"
“मैं सरकारी काम में गाड़ी का उपयोग करता हूँ। कहीं शहर में जाना होता है तो स्कूटर से जाता हूँ इससे प्राइवेसी बनी रहती है। ड्राइवर का खलल मुझे पसंद नहीं है। आपका घर दूर नहीं है इसलिये पैदल ही निकल पड़ा।"
अजीब अफसर थे प्रेमिल। यहाँ तो अधिकारी सरकारी सुविधाओं का दुरुपयोग करते रहते थे और खूब दिखावा करते थे। यह आदमी तो अलग मिट्टी का बना था। उनके पास सरकारी गाड़ी थी जिसका इस्तेमाल वे जनपद मुख्यालय के बाहर दौड़े के लिये करते थे। उनका दफ्तर मेरे घर से थोड़ा आगे पड़ता था अक्सर सड़क पर मिल जाते थे। हास्टल से दफ्तर वे सरकारी गाड़ी से जाते थे और दफ्तर के बाद स्कूटर उनका हमसफ़र होता था। मैं पास के कस्बे के कालेज में पढ़ाती थी। जब वे रास्ते में मुझे रिक्शे का इंतजार करते देखते थे। मुझे बस स्टेशन पर छोड़ देते थे।
मेरे घर से बस स्टेशन एक किलोमीटर की दूरी पर था। मैं बस से कस्बे की दूरी तय करती थी। उसके लिये मैने एम एस टी बनवा ली थी। वे मुझे बस पर बैठा देते थे और बुकस्टाल से कोई मैगजीन खरीद कर मुझे थमा देते थे। यह लगभग उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। कभी ड्राइवर उनके साथ होता तो कभी खुद गाड़ी चला कर आते थे। जब तक बस चल नहीं जाती थी, वे मुझसे दुनिया –जहान की बातें किया करते थे। एक बार तो बस की स्ट्राइक हो गयी तो उन्होंने मुझे अपनी गाड़ी से कालेज तक पहुंचाया और पाँच बजे मुझे लेने आ गये। उन्होंने मुझसे कहा – चलो किसी रेस्तरा में चाय पीते हैं।
रेस्तरा थोड़ा कस्बे से दूर था। अभी नया–नया बना था। यह कस्बा थोड़ा आधुनिक हो गया था। धीमे–धीमे रिकार्ड प्लेयर से गानों की ध्वनि आ रही थी। रेस्तरा का मालिक फरमाइश पर गीत बजा देता था। रेस्तरा में हल्की–हल्की रोशनी थी लेकिन चेहरा साफ दिखाई देता था। उन्होंने चाय और टोस्ट के लिये आर्डर दिया और मैनेजर के कान में कुछ कहा। यह पहला अवसर था जब हम साथ–साथ थे। आधे घंटे के बाद गीत बजने लगा – 'अभी न जाओ छोड़ कर कि दिल अभी भरा नही।' यह मेरा भी प्रिय गीत था लेकिन उसका कोई संदर्भ नही था। आज वह कड़ी मिल गयी थी।
यह गाने की आवाज थी कि उनका कोई अनुरोध था, इसे समझना मुश्किल नहीं था। कभी-कभी हम जब कोई बात नहीं कह पाते तो उसे किसी न किसी माध्यम से व्यक्त करते हैं। हम अपनी भावनाओं को बताने के लिये प्रतीक का उपयोग करते हैं। यह शाम का वक्त हमारे लिये यादगार था, कोई लम्हा जब बीत जाता है तो उसे खाली समय में याद करने का सुख अलग होता है। शाम गहरा रही थी, हमारे आस-पास अंधेरे की परछाई बिखर रही थी।
मैंने अनमने भाव से प्रेमिल से कहा – अब हमें चलना चाहिए। हालांकि मैं रुकना चाहती थी लेकिन यह संकोच था कि देर हो जाने के बाद घर वाले क्या कहेंगे? अमूमन पाँच के बाद मेरी कक्षाएं खत्म हो जाती थी और मैं घर छ: या साढे छ: बजे पहुँच जाती थी। यहाँ तो शाम के सात बज गये थे। प्रेमिल ने मुझे घर के पास वाली सड़क पर छोड़ दिया था। मेरे भीतर यह सवाल था कि अगर माँ देरी से आने का कारण पूछेगी तो क्या जबाब दूंगी। क्या मुझे सच–सच बता देना चाहिए या इस चोरी को छुपा लेना चाहिए? इसी उधेड़बुन में मैं फंसी हुई थी। अच्छा हुआ कि माँ ने मुझसे कुछ नहीं पूँछा। मैं बाल–बाल बच गयी।
***
अक्सर प्रेमिल मेरे घर आते और मैं उनके हास्टल पहुँच जाती थी। जिस दिन हम नहीं मिलते थे। फोन पर मुलाकात हो जाती थी। माँ को प्रेमिल का व्यवहार अच्छा लगने लगा था। एक दिन माँ ने कहा – प्रेमिल को लंच पर बुलाओ न? मैंने उनसे अनुरोध किया तो वे सहर्ष मान गये। रविवार का दिन था। उनका दफ्तर और मेरा कालेज बंद रहता था। उस दिन प्रेमिल कुर्ते पैजामे में थे। कवि से ज्यादा शायर लग रहे थे।मैंने दस्तरखान सजा दिया था। गुलदान में फूल लगा दिये थे। रूम फ्रेशर से खुशबू फैल रही थी। टेप–रिकार्डर पर गीत नहीं म्यूजिक प्ले कर दिया था। यह सोच कर मैं हैरान थी कि आखिर मैं ऐसा क्यों कर रही हूँ।
मैं यह भी जानती थी कि इस रिश्ते की उम्र ज्यादा नहीं है। मेरे जीवन में उनकी कोई स्थायी जगह नहीं बन पाएगी। विवाह की कोई संभावना नहीं थी। मेरे और उनकी उम्र में बीस साल का फासला था। इसे न तो परिवार लांघने देगा और न मैं तैयार हो पाऊँगी। मध्यवर्गीय परिवार में मुझ जैसी लड़की के पास इतनी हिम्मत कहां है। हम अपने जीवन में बड़ी बड़ी बातें करते है लेकिन जीवन में उसका अनुवाद नहीं कर पाते।
लंच में मैंने पनीर की सब्जी और मिक्स दाल बनाई थी। उसमें मक्खन की छौंक लगा दी थी। चावल को जीरे से फ्राई कर दिया था। खाने के आखिर में खीर भी बना ली थी। प्रेमिल ने प्रेम से लंच खाया और मेरे पाक–कला की तारीफ करते रहे। वह कहने लगे कि घर के खाने का लुत्फ ही अलग है। मेरा रसोइया तो अभी खाना बनाना सीख रहा है जो कुछ भी बनाता है उसे खाना पड़ता है। कोई विकल्प नहीं है।
मेरा मन हुआ कि उनसे कहूं कि अगर आपने शादी कर ली होती तो रोज अच्छा खाना खाने को मिलता। लेकिन यह पूछने का यह सही समय नहीं था। लंच के बाद जब वे जाने को हुये तो माँ ने कहा – अभी कहां जा रहे हैं थोड़ी देर रुकिए और काफी पी कर जाइए। सुहानी बहुत अच्छी काफी बनाती है। कभी-कभी आते रहिये। आपका आना अच्छा लगता है।
मैं जो कहना चाहती थी माँ ने उसे कह दिया था। वे लंच रूम से बैठक में आ चुके थे। खिड़कियों से उमड़ते–घुमड़ते बादल दिखाई दे रहे थे। काश! वे बरस जाते और मौसम सुहावना हो जाता।
धीरे–धीरे हमारे संबंध आत्मीय होते जा रहे। प्रेमिल मेरे जीवन की खाली जगह भर रह थे जैसे किसी कैनवास पर कोई चित्रकार कूची से रंग भर रहा हो। हम दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षित हो रहे थे। यह प्रेमी प्रेमिका का कोई संबंध नही था, दोस्ती का रिश्ता था। वे इस शहर के नागरिक नहीं थे। वे तब तक इस शहर में रहेगे जब तक उनका ट्रांसफर नहीं हो जाता। फिर हमारे रास्ते अलग हो जायेंगे। मैं सोचती थी – क्या एक स्त्री–पुरुष के बीच प्रेम का रिश्ता इसलिये बनता है कि वह विवाह की मंजिल तक पहुँच जाये?
शहर के लोगों को इस बात का पता चल चुका था कि इस शहर में हिन्दी के कवि प्रेमिल का आगमन हो चुका है। मैं उनसे मिलती–जुलती हूँ। यह बात लोगों को मालूम हो चूकी थी। इस छोटे से शहर में लोग किसी लड़की का किसी लड़के से मिलना पसंद नहीं करते थे। कोई न कोई अफवाह उड़ाते रहते थे। मैं इस बात से बेखबर नहीं थी लेकिन इसकी परवाह नहीं करती थी। समाज में लोग प्रेम की महिमा तो गाते हैं लेकिन चैन से नहीं रहने देते।
शहर के साहित्यिकों ने मुझे संपर्क कर के अनुरोध किया कि प्रेमिल के सम्मान में कोई गोष्ठी की जाए। मैंने यह प्रस्ताव प्रेमिल के सामने रखा तो उन्होंने कहा “मुझे नहीं यह बात तुम्हें तय करनी है – जब तक मैं इस शहर में हूँ, मेरे ऊपर तुम्हारा सर्वाधिकार है।"
उनकी यह बात सुन कर मैं गुरूर से भर गयी और सोचा किसी छुट्टी के दिन काव्य पाठ का आयोजन होगा। छुट्टियों के दिन लोग खाली रहते हैं और आसानी से आ सकते हैं। अब जगह की समस्या थी तो प्रेमिल ने कहा कि अफसर हास्टल में एक हाल है। वही इंतजाम हो जाएगा। चाय आदि की व्यवस्था मेरे ऊपर छोड़ दो। मैं अपने चपरासी से कह कर यह काम कर दूंगा।
आफिसर हास्टल के हाल में मेज और कुर्सियाँ लगा दी गयी थी। मैंने चुपके से अपने बैग में फूलमालायें रख ली थी ताकि जब वे मंच पर बैठे तो उन्हें पहनाई जा सके। प्रेमिल पहली बार यहाँ के कवियों से मुखातिब हो रहे थे। बड़े सरकारी होने के बावजूद लोग उनकी सहजता से चकित थे। इस गोष्ठी में उपस्थित सभी कवियों को कविताएं पढ़नी थी लेकिन मुख्य रूप से प्रेमिल का काव्य पाठ होना था। संचालन की जिम्मेदारी मेरी थी, मैं उनकी कविताओं की पाठक थी। हर कवि को एक या दो कविताओं का पाठ करना था, उसके बाद प्रेमिल की बारी थी। प्रेमिल ने छंद कविता सुनाई –
यह जीवन है, कैसा जीवन
जो चाहा वह मिला नहीं
नहीं रहा कोई आकर्षण।
हालांकि यह उनकी प्रारम्भिक कविता थी। वे अतुकांत कविताओं के कवि थे। यहाँ वे तुक की कविताएं सुना रहे थे। उनकी ये कविताएं बेहद प्रगाढ़ थी, उसमें आवेग था। मुझे लगा कि उनकी ये कविताएं उनकी आत्मकथा का हिस्सा है। मैं उनकी अन्य कविताएं सुनना चाहती थी। संचालक की हैसियत से मैंने उनसे अनुरोध किया। उन्होंने मेरी मनपसंद कविता – निरापद , चांद का चेहरा और जो चले गये सुनायी।
जब प्रेमिल कविता पढ़ रहे थे तो मैं उनके भाव को देख रही थी, उनके चेहरे पर परछाइयाँ आ जा रही थीं। कविताओं को पढना एक कला है, जो कविताएँ पढने के बाद नहीं समझ में नहीं आती, कवि के मुख से पढने के बाद उनके अर्थ समझ में आ जाते हैं। कुछ कवि हडबडी में कविता पाठ करते हैं, जैसे कि उनकी ट्रेन छूट रही हो। प्रेमिल आहिस्ते–आहिस्ते कविता पढ़ रहे थे कविता के एक–एक शब्द दिल में उतर रहे थे। गोष्ठी खत्म होने के बाद आकाश में बादल घिर रहे थे। प्रेमिल लोगों का अभिवादन कुबूल रहे थे, उन्होंने मुझसे कहा –तुम रुक कर जाना।
***
वे बादलों और बारिश के दिन थे, वे अचानक प्रकट हो जाते थे। जिस दिन छतरी ले कर जाओ उस दिन नही बरसते थे और जब छतरी भूल जाओ वे हमें भिगो देते थे। बादल और बारिश से मेरा पुराना रिश्ता था। मैं सावन के महीने में पैदा हुई थी। उस दिन का मौसम बहुत सुहाना था इसलिए पापा ने मेरा नाम सुहानी रखा था। मैनें कहीं पढ़ा था कि आदमी जिस मौसम में पैदा होता है, उसके गुण उसके स्वाभाव में आ जाते हैं। शायद इसलिए मैं बारिश को भरपूर इंजॉय करती थी। साल भर से मैं बारिश का इंतजार करती रहती थी और जब बादल जाने लगते थे, मैं उदास हो जाती थी। जीवन के यादगार पल बारिश में ही घटित हुए थे। बारिश के दिनों में ही प्रेमिल से मुलाकात हुई थी।
प्रेमिल ने मेरी तन्द्रा भंग करते हुए कहा – लोग चले गये हैं, आओ हास्टल चलते हैं। तुम अच्छी सी काफी बनाना, हम बालकनी में बैठ कर काफी पियेंगे और बारिश का इंतजार करेंगे। मैं चाहता हूँ बादल खूब बरसे और तुम देर तक रुकी रहो। मेरा मन हुआ कि उनसे कहूँ बारिश का इंतजार क्यों? मैं सहज ही रुक सकती हूँ।
प्रेमिल से मिलते–जुलते आधा साल बीत चुका था। मैं थोड़ी ढीठ हो चुकी थी। उनसे बेतकल्लुफ़ होकर उनसे कोई बात पूछ सकती थी। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा कि यहाँ आए हुए छ: माह बीत चुके हैं। कभी भी मेरे ऊपर ट्रांसफर की तलवार लटक सकती है। अगर तुम्हें आपत्ति न हो तो जनपद में किसी जगह घूमने चलें। यहाँ एक घना जंगल है जिसके बीच में तालाब है, उसमें खूब मछलियाँ हैं। मैं तुम्हारी माँ से तुम्हारे लिये अनुमति मांग लूँगा।
ट्रांसफर की बात से मैं विचलित हो गयी थी।आदमी आदमी के बीच संबंध बन तो जाते है लेकिन ट्रांसफर के बाद मिलना-जुलना मुश्किल हो जाता है। मैं इस बात पर विचार करने लगी कि मुझे उनके सान्निध्य का लाभ लेना चाहिए।समय तेजी के साथ बीत रहा था। अच्छे दिनों की मियाद कम होती है। वे जल्दी बीत जाते हैं।
प्रेमिल सुबह सुबह गाड़ी लेकर आ गये थे। उनके साथ ड्राइवर नहीं था। खुद गाड़ी चला कर आये थे। इस तरह की यात्राओं में वे ड्राइवर को तकलीफ नही देते थे। वे कोई विघ्न नही चाहते थे। मैंने यात्रा के लिए कुछ नाश्ते तैयार कर लिये थे। साथ में पानी और चाय का थर्मस था। जंगल के रास्ते में चाय की कोई दुकान नहीं थी। जंगल के तालाब तक पहुँचने के लिए बीस किलोमीटर का रास्ता तय करना पड़ता था। रास्ते पर अजीब सी खुशबू थी जो पेड़ों और वनस्पतियों से छन कर आ रही थी। रास्ते पक्षियों के कलरव से भरे हुये थे। मैं उनके साथ आगे की सीट पर सिकुड़ कर चिड़िया की तरह बैठी हुई थी।
जैसे गाड़ी आगे बढ़ने लगी ठंडी हवा का झोंका हमारे चेहरे को छूने लगा था। इससे हमें लग गया था कि हम अपनी मंजिल के पास पहुँच रहे हैं।हम थोड़ा थक गये थे। गाड़ी से उतर कर तालाब के पास के बेंच पर बैठ गये थे। मैनें उन्हें थर्मस से पानी निकाल कर पीने को दिया। उन्होंने मुझसे कहा – क्या मैं सिगरेट पी सकता हूँ?
“आपको कभी सिगरेट पीते हुये नही देखा है।"
‘बस मैं छिप–छिप कर पीता हूँ। अब तुमसे क्या छिपाना। तुम्हें मेरी कमजोरियाँ भी मालूम होना चाहिए। यह भी जानना चाहिए कि मैं कितना बुरा आदमी हूँ।"
“खुदा करे कि इस दुनिया में आप जैसे बुरे आदमी हो।"
मेरी बात सुनकर वे मुस्कराने लगे। मुझे यह लगा कि यही अवसर है कि उनके जीवन के बारे उनसे कुछ जानना चाहिए। उनकी कविता में जो पीड़ा व्यक्त हुई है, उसके स्रोत कहां है? मैंने उनसे कहा – क्या आपसे कोई व्यक्तिगत सवाल पूछ सकती हूँ?
“बिल्कुल तुम्हें हक हैं।"
“आपने विवाह क्यों नही किया जबकि आप इतने बड़े पद पर हैं।"
“कोई मुझे मिला नही?”
“यह बात सच नहीं है, आप मुझसे कुछ छिपा रहे है।
“बस मुख्तसर सा यही जबाब है – जिसके लिये मैनें दुनिया छोड़ दी थी। वह मुझे छोड़ कर चली गयी। 40-45 की उम्र है बहुत कुछ बीत चुका है और बाकी भी बीत जाएगा। तुम्हें शैलेन्द्र का गीत याद हैं न।
बहुत दिया देने वाले ने तुझको
आँगन ही न समाय तो क्या कीजे
बीत गये जैसे ये दिन रैना
बाकी कट जाये दुआ कीजे।
कभी यह पूरा गीत सुनना, यह गीत नही जीवन का दर्शन है।
मुझे लगा कि मैंने उनकी किसी कमजोर नस को छू लिया है। उनकी आंखे उदास हो गयी थी। मुझे लगा कि अनजाने में मुझसे कोई पाप हो गया हो। मैंने विषय परिवर्तन करते हुए कहा – चलिए तालाब के आस-पास चक्कर लगाते हैं।देखिये कितने खूबसूरत लग रहे हैं ये जंगली फूल, इन्हें कोई नहीं उगाता लेकिन ये कितने जीवंत लग रहे हैं।
“तुम कुछ फूल चुन लो इसे अपने जूड़े में लगाना।"
“मैंने थोड़ा ढीठ होते हुए कहा – आप ही इसे मेरे जूड़े में लगा दीजिए।
मैंने इस तरह का अनुरोध पहली बार किया था।मेरा और उनका संबंध किसी प्रेमी–प्रेमिका की तरह नहीं था। बस हम मित्र थे। शादी के सवाल पर जिस तरह का जबाब दिया उससे मैं न जाने कितने अपराधों से मुक्त हो गयी थी। प्रेम संबंध परिणय में परिवर्तित हो जाए, यह जरूरी तो मैंने। लेकिन आम अवधारणा तो यही है जो प्रेम करते है, वे विवाह की मंजिल तक पहुंचना चाहते हैं।
उन्होंने अपने कैमरे से मेरी तस्वीर उतारी। एक राहगीर की मदद से हम दोनों कैमरे में कैद हो चुके थे। दोपहर धीरे–धीरे ढल रही थी। प्रेमिल मुझे तालाब के पास ले गये और कहा – इन मछलियों को देखो, ये कितना किलोल कर रही हैं। लेकिन उनकी दुनिया सीमित है, जब बारिश होगी तो वे अपनी सीमाओं को लांघ कर जल की धारा में बहने लगेंगी। अगर इन्हें नदियों का संग–साथ मिलता तो वे ज्यादा उन्मुक्त हो जाती।
प्रेमिल हर बात में किसी न किसी रुपक की खोज करने लगते थे। मुझे उन्हें सुनना अच्छा लगता था। उनके सामने बहुत कम बोलती थी। मैं उनकी बातों को अपनी डायरी में नोट करती रहती थी जैसे मैं उनकी कविताओं को दर्ज करती थी। कवि जो बोलता है, वह कविता ही तो होती हैं। शहर में हमारी मित्रता को लेकर तमाम तरह की बातें कर रहे थे। मैं उसकी परवाह मैंने करती थी। उनके साथ बिताएं हुए क्षण मेरे लिये मूल्यवान थे।
***
अच्छे दिन बहुत दिन तक मैंने रहते। उनके पंख निकल आते हैं। वे हमारे बीच से उड़ कर चले जाते हैं। प्रेमिल बार–बार कहते थे कि किसी जनपद में एक डेढ़ साल से ज्यादा मैंने रहते है। सरकार को उनकी कार्य शैली नही पसंद नही आती। वे किसी राजनीतिक दबाव में काम नही करते, इसका खामियाजा उन्हें उठाना पड़ता हैं।अभी साल भर नही बीता था कि उनके ट्रांसफर का परवाना आ गया। ट्रांसफर की जगह थी शाहजहाँपुर, जो मेरे शहर से ज्यादा दूर थी । आसपास का कोई जिला होता तो मिलने में सहूलियत होती।
वे बेहद उदास मन से मेरे घर आये। मेरी तरह माँ भी उदास थी। अभी चार्ज देने–लेने में एक दो सप्ताह का समय लगता। इस अवधि में मैं उनसे खूब मिलना चाहती थी। शहर इमारतों और सड़कों से नहीं बनते, उसमें रहने वाले लोगों से उसे जाना जाता है। वे ही शहर की पहचान बनाते हैं। कभी दूर से उड़ कर कुछ पक्षी यहाँ आ जाते हैं और हम उनसे जुड़ जाते हैं। हम यह यकीन करने लग जाते हैं कि वे शहर के स्थायी निवासी बन जाएंगे। यह भूल जाते हैं कि उड़ना ही उनका स्वभाव है। प्रेमिल मेरे लिये इसी तरह के पक्षी थे।
प्रेमिल के उड़ने का दिन तय हो गया था। हम सब उन्हें विदा करने रेलवे स्टेशन पहुँच चुके थे, उसमें उनके स्टाफ के भी लोग थे। मैं अपने आँसू नही छिपा पा रही थी, उनके सहयोगी भावुक हो रहे थे। प्रेमिल का स्वभाव ही ऐसा था कि वे सबको अपना बना लेते थे। सहयोगियों के साथ परिवार जैसा व्यवहार करते थे।
रेल के जाने की सीटी बज चुकी थी। उन्हें विदा करने के लिये हमारे हाथ हिल रहे थे। जब तक ट्रेन ओझल नही हुई थी। हम उसे जाते हुये देखते रहे। उनके कविता की ये पंक्तियाँ याद आ रही थीं -
जाऊंगा तो लौटूँगा जरूर
कब लौटूँगा यह नहीं मालूम
अगर नहीं वापस हुआ
तो कभी–कभार दिख जाऊंगा
बस अड्डे रेलवे स्टेशन पर
किसी प्रिय की प्रतीक्षा करते हुये।
सम्पर्क
स्वप्निल श्रीवास्तव
510-अवधपुरी कालोनी
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