नवमीत नव का आलेख 'जीवन का विकास'





पृथ्वी पर जीवन का विकास कोई चमत्कार नहीं बल्कि क्रमिक घटनाओं के चलते हुए परिस्थितिजन्य विकास का परिणाम था। यह जीवन सरलता से जटिलता की तरफ की एक दिलचस्प यात्रा है। पृथ्वी पर जीवन के विकास पर नवमीत नव लिखते हैं "यह एक रोचक कहानी है लेकिन इसकी कोई स्क्रिप्ट या पूर्वनिर्धारित योजना नहीं थी। न ही कोई अलौकिक या अप्राकृतिक रचयिता ने इसको गढ़ा था।" गतिशील पदार्थ था और लगातार विकसित होती हुई प्रकृति थी। और थे प्रकृति के नियम। वे नियम जो पदार्थ के मूलभूत गुण यानी उसकी गतिशीलता में निहित थे।" नवमीत ने बड़े रोचक और सहज तरीके से पृथ्वी पर जीवन की पहेली को सुलझाने का प्रयास किया है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं नवमीत नव का आलेख 'जीवन का विकास'।



'जीवन का विकास'


नवमीत नव


यह सब शुरू हुआ था बिग बैंग से। बिग बैंग के साथ स्पेस टाइम और पदार्थ, जिस रूप में हम इसे समझते हैं या कहें कि समझने की कोशिश कर रहे हैं, के वर्तमान स्वरूप की शुरुआत हुई थी। यूनिवर्स का उद्विकास हुआ।  क्वार्क्स, सब एटॉमिक कण, एटम्स, मॉलिक्यूल्स, सितारे, सुपरनोवा, ब्लैक होल्स, ग्रह, उल्काएं, उपग्रह, गैसें, धरती, वायुमंडल, पानी एंड सो ऑन। 


"लेकिन नवमीत, यह कहानी तो हम कितनी ही बार पढ़ चुके हैं, सुन चुके हैं।" मैं सोचता हूँ।


"हाँ, यह एक रोचक कहानी है लेकिन इसकी कोई स्क्रिप्ट या पूर्वनिर्धारित योजना नहीं थी। न ही कोई अलौकिक या अप्राकृतिक रचयिता ने इसको गढ़ा था।"


गतिशील पदार्थ था और लगातार विकसित होती हुई प्रकृति थी। और थे प्रकृति के नियम। वे नियम जो पदार्थ के मूलभूत गुण यानी उसकी गतिशीलता में निहित थे। 


विपरीत तत्वों की एकता और उनका द्वन्द्व। उनके अंतर्विरोध जो पूरी कायनात में मची हलचल का कारण थे। हमारी धरती के महासागर भी हलचल से परिपूर्ण थे। डार्विन की मानें तो ये महासागर विभिन्न रसायनों से बने "गर्म सूप" जैसे थे। तो हुआ यूँ कि अमीनो एसिड्स और न्यूक्लियोटाइड्स की प्रक्रियाओं और प्राकृतिक परिस्थितियों के चलते आरएनए का उद्भव  हुआ था और आरएनए से आगे डीएनए का विकास हुआ। इन अणुओं ने आपस में मिल कर गुच्छे बनाये और फिर कार्बनिक अणुओं से बने ये गुच्छे अपनी प्रतिलिपियाँ बनाने लगे।


"लेकिन नवमीत, यह भी तो कोई पूर्वनिर्धारित योजना नहीं थी। यहाँ तक कि इनमें कोई संवेदना भी नहीं थी। यह सब कुछ परिस्थितिजन्य था।" मैं खुद को बताता हूँ।


"हाँ, सिर्फ गतिशील पदार्थ है, और पदार्थ के अंतर्विरोध हैं, अंतर्विरोधों के साथ ही तो गति और परिवर्तन है। हलचल भी तो इसी से है।"


"मात्रा में परिवर्तन के बाद गुणों में परिवर्तन अवश्यंभावी होता है अगर सही अंतर्विरोध और परिस्थितियाँ मौजूद हों तो। गुणात्मक छलांगें लगती हैं। एटम से मॉलिक्यूल और निर्जीव मॉलिक्यूल में संवेदना पैदा होना.. ... गुणात्मक छलांग ही तो है। नहीं?"


"लेकिन संवेदना की जरूरत क्यों पड़ी होगी?", मैं फिर सोचता हूँ।


प्रकृति पोषक भी है और विनाशक भी है। क्योंकि यह प्रकृति की "प्रकृति" है। इसलिये प्राकृतिक चयन भी मौजूद है। अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग कोशिकाएँ प्राकृतिक चयन के चलते अलग अलग रूप धारण करने लगी थी। रूप अलग थे और प्रकार अलग थे। 


सूक्ष्म जीव थे। इनमें भी जैव विविधता थी। कोई हमलावर था तो किसी को हमले से बचना था। पहले रसायनों के गुच्छे बन रहे थे, अब कोशिकाओं के बनने लगे थे। 


"पर्यावरणीय दबाव और भीतरी संघर्ष के साथ प्राकृतिक चयन ने फिर करवट ली। कोशिकाओं के गुच्छे अब एक इकाई के रूप में अलग अलग कार्य करने लगे। एक कोशिकीय जीव से बहु कोशिकीय जीव में उद्विकास। यह भी तो मात्रात्मक से गुणात्मक में एक परिवर्तन था।"


जाहिर है। बहरहाल कोशिका अब स्वतंत्र इकाई नहीं थी बल्कि बहुत सी कोशिकाएँ मिल कर कार्य कर रहीं थी। कोशिकाओं के बीच अब एक प्रकार का श्रम विभाजन हो गया था। कुछ कोशिकाएँ ऊर्जा ग्रहण करती थी, कुछ पोषक तत्व ग्रहण करती थीं, तो कुछ उनके चयापचय में भूमिका अदा कर रहीं थी।


इन्हीं में कोशिकाओं के किसी समूह ने अलग हो कर एक कार्य विशेष अपना लिया। यानी संवेदना का। यानी सिग्नल पकड़ना और भेजना। यह प्रारंभिक तंत्रिका तंत्र था। 





"यानी एक और गुणात्मक परिवर्तन। राइट?" मैं फिर सोचता हूँ।


"राइट। यह जीव में अनुभव की शुरुआत थी। तंत्रिका कोशिकाएँ सिग्नल भेजने लगीं तो उन सिग्नलों के दोहराव से ‘सिनैप्स’ मजबूत होने लगे। अनुभव स्मृति में बदलने लगा। और इस तरह चेतना का प्रथम स्पंदन आता है।"


बहरहाल करोड़ों वर्ष तक प्राकृतिक चयन और म्यूटेशन ने भीतरी व पर्यावरणीय कारकों के चलते धरती को जैव विविधता से सरोबार कर दिया था। कितने जीव और जैव प्रजातियां आयीं और चली गयीं। कितने महाविनाश हुए और फिर नये युगों का आरम्भ हुआ। एडियाकारा, कैंम्ब्रियन, जुरासिक...।


जुरासिक काल के बाद छोटे-छोटे चूहे जैसे जानवरों का विकास हुआ। इन्हीं में से आगे चल कर स्तनधारियों का एक ग्रुप विकसित हो गया था जिसे हम प्राइमेट कहते हैं। इन्हीं प्राइमेट्स की एक प्रजाति अफ्रीका में निवास करती थी, जिसका नाम था ऑस्ट्रेलोपिथिकस। यह एक नर-वानर था। यानी मानव और वानर के बीच की कड़ी। यह पेड़ों से उतर कर जमीन पर आया था। 


जब यह जमीन पर खड़ा हुआ तो इसके हाथ आज़ाद हो गये। इन हाथों ने औजार बनाए। औजार से श्रम किया गया, श्रम के साथ प्रकृति को प्रत्यक्ष रूप से बदला गया और इस बदलाव की प्रक्रिया में इसने खुद को भी बदल डाला।


"खुद को बदल डाला? वह कैसे, नवमीत?" यह मेरा फेवरेट सवाल है।


"वह ऐसे कि श्रम के माध्यम से प्रकृति के साथ संघर्ष करते हुए उन्हें अनुभव की प्राप्ति हुई और फिर अनुभव से श्रम परिष्कृत हुआ। इस तरह अनुभव व श्रम के द्वन्दवात्मक रिश्ते के साथ मस्तिष्क का विकास हुआ। इस दौरान काम हुआ और काम ने साझेदारी की मांग की। साझेदारी ने सामूहिकता और फिर समाज का निर्माण किया। वानर अब मानव बन गया था। यह एक और गुणात्मक परिवर्तन था।"


“श्रम ने मनुष्य को बनाया है”,  एंगेल्स ठीक ही तो कहते हैं। 


तंत्रिका से चेतना उत्पन्न हुई। मस्तिष्क अब सिर्फ अनुभव नहीं करता था, विचार करता था। वह स्मृति रखता था, योजना बनाता था। इन सबने भाषा को जन्म दिया। भाषा के साथ संवाद आया। भाषा ने सिर्फ संवाद नहीं रचा, बल्कि स्मृति को साझा किया, अनुभव को पीढ़ियों में हस्तांतरित किया। अब चेतना अकेली नहीं थी, अब वह सामूहिक और सामाजिक चेतना बन गई थी। यह संस्कृति की नींव रखी गयी। यह भी मात्रात्मक से गुणात्मक परिवर्तन था। यानी चेतना से संस्कृति का उदय।


मनुष्य का उद्विकास कई पड़ावों से हो कर गुजरा है। ऑस्ट्रेलोपीथिकस, होमो इरेक्टस, हैबिलिस, नलेडी, हाईडलबर्गेन्सिस, नियंडरथल, डेनिसोवा, सेपियन्स और बीच में छूट गये तमाम प्राचीन मानव। मानव की चेतना, औजार, उसका समाज, सामाजिक ढांचा, भाषा, संस्कृति तमाम चीजें एक दूसरे के साथ अंतर्विरोधों और अंतरसम्बन्धों की द्वन्द्वात्मकता से जुड़ी हुई और एक दूसरे पर प्रतिक्रिया करती हुई विकसित हुईं हैं।


उसने सिर्फ औजार नहीं बनाए थे, उसने मिथक भी गढ़े थे, कहानियाँ भी रची थीं। उसने प्रकृति को बदलते हुए प्राकृतिक घटनाओं को कुछ समझा और कुछ समझ नहीं आया तो उसके जहन में कुछ सवाल भी उठे थे। 


यह सब कैसे बना होगा? 


इसे कौन नियंत्रित करता है? 


मनुष्य नहीं करता तो क्या कोई अलौकिक शक्ति है?....


या फिर प्रकृति ही सब कुछ है?.....



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