संतोष भदौरिया का आलेख 'औपनिवेशिकता, प्रतिबंधन और पग-पग प्रतिवाद'

 

सन्तोष भदौरिया


भारत के स्वतन्त्रता संघर्ष में प्रेस की भूमिका अहम रही है। शायद ही कोई ऐसा स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी हो जो कोई पत्र, पत्रिका न निकालता हो या पत्र पत्रिकाओं में लेख न लिखता हो। इस तरह हमारे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी बौद्धिक तौर पर भी बेहद जागरूक थे और पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से ब्रिटिश शासन के विरुद्ध अपना आक्रोश व्यक्त करते थे। इन्हें दबाने के लिए ब्रिटिश शासन को कई बार दमनकारी कानून बनाने पड़े। फिर भी प्रतिरोध की ज्वाला कभी थमी नहीं, बल्कि प्रतिरोध निरन्तर चलता ही रहा। चांद, स्वदेश, सैनिक, वर्तमान आदि पत्र पत्रिकाओं का प्रतिरोध प्रबल था। कुछ पर ब्रिटिश शासन को प्रतिबंध भी लगाना पड़ा। हिन्दी की प्रतिबंधित पत्रकारिता पर प्रोफेसर सन्तोष भदौरिया का महत्त्वपूर्ण काम है। आज पहली बार पर हम उनका आलेख 'औपनिवेशिकता, प्रतिबंधन और पग-पग प्रतिवाद' प्रस्तुत कर रहे हैं।



'औपनिवेशिकता, प्रतिबंधन और पग-पग प्रतिवाद'

                                         

संतोष भदौरिया 


हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के विकास का इतिहास भारतीय राष्ट्रीयता के विकास का समानान्तर एवं पूरक है और यही कारण है कि तत्कालीन हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के अध्ययन के बिना स्वतन्त्रता आन्दोलन का इतिहास-लेखन यदि असम्भव नहीं तो अपूर्ण अवश्य होगा। इन पत्र-पत्रिकाओं में ब्रिटिश भारत की शोषित-पीड़ित जनता की दु:ख भरी कहानी के साथ स्वतन्त्रता आन्दोलन के ऐतिहासिक दस्तावेज भी मिलेंगे। भारत में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया को हम राष्ट्रीयता के विकास और स्वतन्त्रता आन्दोलन की गतिविधियों से अलग कर के नहीं देख सकते। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में व्यापक राष्ट्रीय संवेदनाओं से सम्बद्ध हो कर भारतीय जनमानस को स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु आन्दोलित एवं उत्प्रेरित करने में महती भूमिका निभायी। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ब्रिटिशकालीन भारत की शोषित-पीड़ित जनता की स्वातन्त्र्याकांक्षाओं और अभिलाषाओं की मूकवाणी को प्रखरता प्रदान की।


किसी भी देश में पत्र-पत्रिकाओं की स्वतन्त्रता और स्वायत्तता आवश्यक है। प्रजातन्त्र में यदि पत्रों की स्वतन्त्रता पर किसी प्रकार का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आघात लगता है तो यह प्रजातन्त्र की आत्मा के विरुद्ध होगा, क्योंकि पत्र-पत्रिकाओं की स्वतन्त्रता वास्तव में एक राजनीतिक स्वतन्त्रता है।1 इसी सन्दर्भ में मार्टिन किंग्सले की मान्यता है कि ‘पत्रों की स्वतन्त्रता प्रजातान्त्रिक व्यवस्था का पहला अनिवार्य नियम है, जिसे प्राप्त करने के लिये यह तत्व शताब्दियों से संघर्षरत है। पत्रों की स्वतन्त्रता का तात्पर्य बिना सेन्सर के समाचारों को प्रकाशित करने और बिना किसी दबाव के आलोचना की स्वतन्त्रता से है।’2 किसी भी राजनीतिक या गैर-राजनीतिक आन्दोलन की उपलब्धि बहुत हद तक पत्र-पत्रिकाओं पर निर्भर करती है। सत्रहवीं, अठारहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दी में राष्ट्र के रूप में समन्वित होने के लिये तत्कालीन व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष हेतु और आधुनिक राज्य, समाज और संस्कृति की स्थापना के लिये यूरोप में पत्र-पत्रिकाओं के दुर्जेय अस्त्र का उपयोग किया गया।


नेपोलियन बोनापार्ट का यह वाक्य था कि ‘उसे हजारों संगीनें उतना भयभीत नहीं करतीं, जितना कि एक समाचार-पत्र।’3 भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के विकास और उसको संचालित करने का दायित्व भारतीय पत्रकारिता ने उठाया। स्वतन्त्रता आन्दोलन प्रारम्भ होने के पूर्व ही भारतीय पत्र-पत्रिकाओं ने राजनीतिक समस्याओं को अपनी विषयवस्तु के रूप में चुना। प्रख्यात पत्रकार ए. ई. चार्लटन ने लिखा कि ‘जब से भारतीय सम्पादकों ने देश की स्वतन्त्रता के लिये लेखनी का उपयोग करना आरम्भ किया, उसके पहले से ही समाचार-पत्रों ने राजनीतिक विषयों में गहरी दिलचस्पी लेना प्रारम्भ कर दिया था।’4 भारतीय पत्रकारिता के प्रति ब्रिटिश सरकार का रवैया आरम्भ से ही दुर्भावनापूर्ण रहा। भारत में मुद्रण-कला और पत्रकारिता के उद्भव एवं विकास को उसने हमेशा प्रतिकूल शक्ति का अशुभ विकास माना। वस्तुत: भारतीय पत्रकारिता के जन्मदाता यूरोपीय पत्रकार थे। इसके बावजूद ब्रिटिश सरकार ने इन सजातीय पत्रकारों के प्रति असहिष्णुता का व्यवहार किया। तत्कालीन परिस्थिति का ज़िक्र करते हुए बंगाल के प्रख्याल पत्रकार स्व. क्षेमेन्द्र प्रसाद घोष ने लिखा है कि, ‘तत्कालीन सरकार समाचार-पत्रों से बचने के लिये सावधान रहती थी।’5 भारतीय पत्रकारिता की स्वाधीनता पर ब्रिटिश सरकार का पहला आक्रमण प्रथम भारतीय समाचार-पत्र ‘हिक्कीज ग़जट’ (बंगाल गजट) पर ही हुआ। भारतीय पत्रकारिता के आदिजनक हिक्की को एक वर्ष की कैद और दो हजार रुपये जुर्माना की सजा हुई।6 भारतीय पत्रकारिता की स्वाधीनता पर जन्मत: ब्रिटिश सरकार की कोपदृष्टि रही।


गवर्नर-जनरल वेलेजली का भारत-आगमन भारतीय पत्रकारिता के उस दौर में हुआ जब ब्रिटिश शासक पत्रकारों की आलोचना के विषय बन चुके थे। वेलेजली आरम्भ से ही समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता का विरोधी था। अप्रैल 1799 में समाचार-पत्रों के प्रति अपनी विचारधारा को व्यक्त करते हुए अपने सेना के सर्वोच्च अधिकारी इल्यूरेड क्लार्क को स्पष्ट किया कि, ‘मैं सम्पादकों की इस पूरी जाति के लिये आचरण के नियम प्रेषित करने का अवसर शीघ्र ही निकालूँगा। इस बीच यदि इन हानिकर प्रकाशन को शान्त नहीं कर सकते तो इतना करने की कृपा करें कि उनके पत्रों को बलपूर्वक बन्द कर दें और उन्हें यूरोप रवाना कर दें।’7 भारतीय पत्रकारिता की स्वाधीनता को बाधित करने वाला प्रथम प्रेस-अधिनियम वेलेजली के शासन काल में 13 मई, 1799 को सामने आया। इस प्रेस-अधिनियम के अनुसार पत्र के मुद्रक के लिये पत्र के अन्त में अपना नाम प्रकाशित करना, पत्र के सम्पादक और संचालक को अपना नाम और निवास-स्थान का पता सरकार के सेक्रेटरी को प्रेषित करना, सरकारी अधिकारी के निरीक्षण के पूर्व पत्र न प्रकाशित करना तथा रविवार को पत्र का प्रकाशन न करना, अनिवार्य कर दिया गया।8 साथ ही इसमें यह भी व्यवस्था की गयी कि जो नियमों का पालन नहीं करेगा, उसे दण्ड एवं निर्वासन की स़जा भुगतनी होगी। मेटका़फ की जीवनी के निम्नलिखित उद्धरण से ब्रिटिश सरकार की नीति का और खुलासा होता है। ‘उन दिनों हमारी यह नीति थी कि भारत के लोगों को जहाँ तक हो सके, बर्बरता और अन्धकार में रखा जाये और देशी जनता में ज्ञान फैलाने के किसी भी प्रयत्न का कड़ाई से विरोध किया जाये।‘9


गवर्नर जनरल वेलेजली द्वारा भारतीय पत्रकारिता की स्वतन्त्रता पर लगाये गये अंकुश के परिणामस्वरूप प्रेस से सम्बन्धित जो नियम बनाये गये, वे प्राय: 1818 तक चलते रहे, जिसके कारण भारतीय पत्रकारिता के विकास की प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। वेलेजली के पश्चात् आये गवर्नर जनरल लॉर्ड लॉर्ड हेस्टिंग्स के दौर में भारतीय समाचार-पत्रों को थोड़ी स्वतन्त्रता हासिल हुई। वेलेजली की अपेक्षा हेस्टिंग्स कुछ उदार प्रकृति का था। 19 अगस्त को लॉर्ड लॉर्ड हेस्टिंग्स ने पत्रों के सम्पादकों के मार्गदर्शन हेतु कुछ साधारण नियम बनाये, साथ ही सेन्सर-प्रथा को समाप्त कर दिया। अब पत्रों में उन विषयों की चर्चा वर्जित थी जिनसे सरकार की सत्ता पर प्रभाव पड़ता हो अथवा जिनसे सार्वजनिक हितों की हानि होती हो।10


भारतीय पत्रकारिता का इतिहास उसकी स्वाधीनता के अनवरत ह्रास का इतिहास रहा है। जिस अनुपात में भारतीय राष्ट्रीयता का विकास हुआ, उसी अनुपात में भारतीय समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता पर आघात हुआ।11 लॉर्ड हेस्टिंग्स के कार्यकाल में पत्रों के प्रति उसकी उदारतावादी नीति के फलस्वरूप भारतीय पत्रकारिता के विकास को जो नयी गति प्राप्त हुई, वह अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकी। सन् 1822 में ब्रिटिश सरकार ने सर टॉमस मुनरो को समाचार-पत्रों की समस्या पर सुझाव प्रेषित करने के लिये कहा। टॉमस मुनरो ने अपनी ‘डेंजर ऑफ ए फ्री प्रेस इन इण्डिया’ शीर्षक टिप्पणी में समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता को भारत में ब्रिटिश सरकार के लिये अत्यन्त हानिकारक बताया।12 लॉर्ड हेस्टिंग्स का परवर्ती जॉन एडम भारतीय समाचार-पत्रों के लिये ह्रास का कारण साबित हुआ। टॉमस मुनरो की टिप्पणी को कार्यरूप में परिणत करते हुए 14 मार्च, 1823 को उसने कठोर प्रेस-नियम निर्धारित किये जो वेलेजली से भी एक कदम आगे थे। अब लाइसेन्स या अनुमति-पत्र प्राप्त किये बगैर पुस्तकों व पत्रों को प्रकाशित करना तथा प्रेस का प्रयोग करना अपराध माना गया। प्रकाशन-सम्बन्धी सरकारी लाइसेन्स के लिये प्रार्थना-पत्र देते समय एक हल़फनामा देना भी आवश्यक कर दिया गया। इस हल़फनामा में पत्रिका, समाचार-पत्र या पुस्तिका के प्रकाशक का नाम एवं पूरा पता देना आवश्यक था। इन नियमों के विरुद्ध कार्य करने पर जुर्माना एवं कारावास के दण्ड की व्यवस्था थी।13 जॉन एडम द्वारा भारतीय समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता पर किये गये आघात ने भारतीय जनमानस में आक्रोश की सृष्टि की।


सर चार्ल्स मेटाकॉफ 


गवर्नर-जनरल लॉर्ड अमहर्स्ट के शासन काल में सन् 1925 में प्रेस से सम्बन्धित एक नया कानून बना जिसके अनुसार किसी पत्र के किसी भी सरकारी कर्मचारी का किसी प्रकार का सम्बन्ध निषिद्ध घोषित किया गया।14 इसके बाद आये भारत के नये गवर्नर जनरल विलियम बेण्टिक का दृष्टिकोण भारतीय प्रेस के प्रति उदारवादी था। उसने समाचार-पत्रों के साथ सहिष्णुता का व्यवहार किया। ‘भारतीय प्रेस का मुक्तिदाता’ नाम से ख्यात मेटका़फ ने पत्र-पत्रिकाओं की स्वतन्त्रता में सक्रिय रुचि दिखलायी। समाचार-पत्रों को जनमत-जागरण, विचार-अभिव्यक्ति तथा दर्शन एवं ज्ञान के आदान-प्रदान तथा उसके प्रसार का एक सशक्त माध्यम मानते हुए उसकी स्वतन्त्रता का समर्थन किया।15 


सन् 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता-संग्राम की असफलता ने ब्रिटिश सरकार को चौकन्ना कर दिया, जिससे अंग्रेजी सरकार का दमनचक्र तीव्र हो गया। इसी दौरान 13 जून, 1857 को समाचार-पत्रों की स्वाधीनता पर पुन: आघात हुआ। लॉर्ड कैनिंग द्वारा प्रतिपादित प्रेस-सम्बन्धी एक कानून जिसे गेंगिंग ऐक्ट (गलाघोंटू कानून) कहते हैं, के द्वारा समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता पर पुन: प्रहार किया गया। प्रेस-अधिनियम में यह प्रावधान रखा गया कि सरकार मुद्रणालयों की स्थापना पर नियन्त्रण एवं पुस्तकों तथा समाचार-पत्रों के वितरण पर प्रतिबन्ध भी लगा सकती थी। इसी के द्वारा प्रेस-स्थापना और समाचार-पत्रों के प्रकाशन के लिये लाइसेन्स लेना अनिवार्य कर दिया।16 यद्यपि इस प्रेस-अधिनियम की अवधि मात्र एक वर्ष की थी, फिर भी अनेक हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ इससे प्रभावित हुईं।17


सन् 1857 की क्रान्ति की असफलता ने भारतीय मन:स्थिति को अवसादपूर्ण बना दिया, जिसका स्पष्ट प्रभाव भारतीय सामाजिक और राजनैतिक स्थिति के साथ हिन्दी पत्रकारिता पर भी पड़ा। अंग्रेजी सरकार के दमन, अत्याचार एवं आतंक ने हिन्दी पत्रकारिता के विकास को लगभग अवरुद्ध कर दिया। केनिंग के दमनकारी कानून की अवधि समाप्त होने एवं राजनीतिक चेतना में नयी उमंग आने पर हिन्दी पत्रकारिता भी पुन: जागृत हो कर अग्रसर हुई। 1857 के दौर की हिन्दी पत्रकारिता का स्वर राष्ट्रीयता से परिपूर्ण था। स्वाधीनता, स्वदेशी एवं मातृभूमि की सेवा की इन्हीं विचार-भावनाओं से अभिभूत इस युग यानी उन्नीसवीं शताब्दी के परवर्ती काल में हिन्दी में कई ऐसे यशस्वी एवं विचारशील पत्र प्रकाशित हुए जिन्होंने पत्रकारिता के विकास एवं राष्ट्रीय चेतना के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। वस्तुत: इस दौर में भी हिन्दी पत्रकारिता अंग्रेजी सरकार के दमन-चक्र से पूर्णत: मुक्त नहीं रही। सन् 1867 के ‘प्रेस ऐण्ड रजिस्ट्रेशन ऑफ बुक्स ऐक्ट’ के द्वारा समाचार-पत्रों और पुस्तकों के मुद्रण एवं प्रकाशन पर पुन: नियन्त्रण लगाया गया।18 परन्तु भारतीय पत्रकारों ने संक्रान्ति की इस चुनौती को भी स्वीकार कर पत्रकारिता के विकास के साथ ही भारतीय मानस-मनीषा में जागृति उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत की।


भारतेन्दु-युग में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का मुख्य उद्देश्य था—तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक व्यवस्था में व्याप्त अन्धविश्वासों व कुरीतियों आदि का खुलासा करना। जातीय सुधार की इस प्रक्रिया में राजनीतिक चेतना भी काम कर रही थी। दलित और पराजित भारत में स्वाधीनता की आकांक्षा पुन: जोर पकड़ रही थी। असहाय एवं पीड़ित भारतीय जनता के विचारों की अभिव्यक्ति के माध्यम हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ थीं, जो प्रमुख अस्त्र के रूप में कार्य कर रही थीं। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में अचानक वृद्धि, उनकी बढ़ती लोकप्रियता एवं भारतीय जनता पर उसके प्रभाव को देख कर सरकार ने फिर दमन का मन बनाया। इसके फलस्वरूप लॉर्ड लिटन के शासन काल में भारतीय भाषा के समाचार-पत्रों पर अंकुश लगाने के लिये 14 मार्च, 1878 में ‘वर्नाक्युलर प्रेस ऐक्ट’ की घोषणा की गयी जो मद्रास के अतिरिक्त सभी प्रान्तों में प्रभावी हुआ।19 इस प्रेस-अधिनियम के द्वारा जिला मजिस्ट्रेट तथा पुलिस कमिश्नर को ऐसी शक्ति प्राप्त हो गयी, जिससे वह समाचार-पत्रों से जमानत माँग सकते थे तथा किसी भी प्रकाशित सामग्री को जब्त कर सकते थे।20 तत्कालीन हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने भी अपने दायित्व का पूर्ण पालन करते हुए इसके विरुद्ध गहरा क्षोभ व्यक्त किया। ‘वर्नाक्युलर प्रेस ऐक्ट’ भारतीय पत्रों के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह था। इसीलिए सभी पत्र-पत्रिकाओं ने इसका खुल कर विरोध किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म से एक वर्ष पूर्व जिस नवीन राजनीतिक चेतना का विकास हो रहा था, उसके परिणामस्वरूप हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में एक नये युग की शुरुआत हुई। 


ब्रिटिश सरकार के अन्तर्गत हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं पर दमन का शिकंजा कसता जा रहा था। उसी के अनुरूप हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ भी राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत तथा मातृभूमि की सेवा के लिये अदम्य उत्साह के साथ विकास-पथ पर अग्रसर थीं। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के विकास की दृष्टि से उन्नीसवीं शताब्दी तेजस्वी पत्रकारिता का युग था। यही कारण था कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतीय भाषाओं में बड़ी संख्या में अनेक महत्त्वपूर्ण पत्र विभिन्न प्रान्तों में प्रकाशित हुए।21 उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय जनमानस में जिस व्यापक असन्तोष की व्याप्ति थी, वह बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में एक जन-आन्दोलन के रूप में सामने आया।


सन् 1857 से 1905 के बीच हिन्दी पत्रकारिता का विकास संकुचित रहा। परन्तु क्रान्ति की अग्नि शान्त होने पर हिन्दी पत्रकारिता में नयी चेतना मुखरित हुई जो राष्ट्रीयता एवं स्वतन्त्रता से पूरित हुई। वस्तुत: स्वाधीनता आन्दोलन के इस दौर में हिन्दी की किसी प्रतिबन्धित पत्रिका का ब्योरा प्राप्त नहीं हुआ। किन्तु अनेक ऐसी पत्रिकाएँ थीं जिन्होंने स्वाधीनता आन्दोलन की अगुआई की, जिनमें भारत प्रकाश (मुरादाबाद), भारतोदय (कानपुर), रसिक पथ एवं प्रयोग मित्र (इलाहाबाद), बुद्धि प्रकाश (लखनऊ), भारत भूषण (बनारस), बुन्देलखण्ड पन्थ (झाँसी) आदि उल्लेखनीय हैं। इसके अलावा हिन्दी प्रदीप (प्रयाग), ब्राह्मण (कानपुर), हिन्दुस्तान (कालाकांकर) प्रमुख राजनीतिक पत्र थे जिन्होंने कांग्रेस की नीतियों का समर्थन किया।


लॉर्ड कर्जन 


भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक ने एक नया आयाम जोड़ा। लॉर्ड कर्जन भारत में ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि के रूप में आये। कर्जन ने आते ही भारतीयों में व्याप्त राष्ट्रीय भावना को देख कर बंगाल को दो हिस्सों में बाँट देने की योजना बनायी, जिससे विद्रोह एवं विरोध का स्वर और तेज हुआ। यही वह समय था जब सन् 1905 में रूस पर जापान की विजय हासिल हुई और इटली को पराजय का मुँह देखना पड़ा। सम्पूर्ण एशिया में एक नयी आशा और उत्साह का जन्म हुआ। भारतीयों ने अपनी हीन भावना का परित्याग किया और एक विश्वास पैदा हुआ कि ब्रिटिश शासन से भारत की मुक्ति सम्भव है। जापान की विजय ने सम्पूर्ण भारत और विशेषकर बंगाल को एक नयी शक्ति और प्रेरणा प्रदान की।22


बारीन्द्र कुमार घोष



वस्तुत: बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक की हिन्दी-पत्रकारिता का मूल स्वर साहित्यिक होते हुए भी राजनीतिक था। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने हिन्दी साहित्य के विकास में योगदान दिया ही, साथ ही राजनीतिक चेतना के निर्माण का कार्य भी किया। भारतीय राजनीति में बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दो दशकों में केन्द्र बिन्दु के रूप में बाल गंगाधर तिलक रहे। तिलक के प्रभाव से नये राजनीतिक दर्शन की प्रस्तुति क्रान्तिकारी आन्दोलन के रूप में हुई। क्रान्तिकारी आन्दोलन का आरम्भ महाराष्ट्र से हुआ था, पर इसका प्रधान केन्द्र बंगाल था।23 बंगाल में इस आन्दोलन के पुरस्कर्त्ता वारीन्द्र कुमार घोष, भूपेन्द्र नाथ दत्त थे। बंगाल में क्रान्तिकारियों का पहला प्रमुख संगठन ‘अनुशीलन समिति’ था। क्रान्तिकारी राजनीति के प्रचार-प्रसार हेतु बंगाल के क्रान्तिकारियों ने पत्र-पत्रिकाओं को अपना माध्यम बनाया। ‘अनुशीलन समिति’ के क्रान्तिकारी गुट ने खुल कर क्रान्ति के प्रचार हेतु मार्च 1906 में ‘युगान्तर’ नामक पत्र निकाला।24 भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के इस दौर में क्रान्तिकारी गतिविधियों के प्रचार हेतु हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं को माध्यम बनाया गया। भारतीय जनता को धार्मिक एवं राजनीतिक शिक्षा दे कर क्रान्ति के लिये प्रोत्साहित किया गया। सरकारी अफसरों की हत्या, बम-काण्ड जैसी हिंसक कार्यवाहियाँ क्रान्तिकारियों के लिये आम हो गयीं। क्रमश: क्रान्तिकारी आन्दोलन विकसित होता रहा। फलत: अनेक गुप्त एवं क्रान्तिकारी संगठनों का जन्म हुआ।


बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही हिन्दी समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता पर तीव्र आघात हुआ। समाचार-पत्रों की सजीवता को ब्रिटिश कानूनों ने नष्ट किया। कानून इतने व्यापक थे कि पत्रों की प्रक्रिया प्रभावित हुई। लगभग सभी उग्रवादी पत्रों का प्रकाशन क्रमश: बन्द होने लगा। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान देश में जो राजनीतिक प्रतिक्रिया आरम्भ हुई, उसका व्यापक प्रभाव हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं पर पड़ा। युद्ध-काल के समाचारों को जानने की सामान्य जन की उत्कण्ठा ने हिन्दी-भाषी क्षेत्रों की हिन्दी पत्रकारिता पर व्यापक उत्तरदायित्व का बोझ डाल दिया। सम्भवत: इन्हीं आवश्यकताओं के फलस्वरूप इस वर्ष देश से हिन्दी के उच्च कोटि के राजनीतिक साप्ताहिक पत्रों का प्रकाशन हुआ। यद्यपि प्रथम विश्वयुद्ध के आरम्भ होते ही ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत रक्षा अधिनियम जैसे कानूनों द्वारा समाचार-पत्रों की सीमा को और संकुचित कर दिया गया, परन्तु इस तरह की दमनात्मक कार्यवाहियों के बावजूद पत्रों के विकास की प्रक्रिया अग्रसर रही।


प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का एक नया युग प्रारम्भ हुआ। यह हिन्दी पत्रकारिता के विकास का चरमोत्कर्ष-काल था। इस बीच उसे अनेक दमनकारी कानूनों और विपरीत परिस्थितियों से जूझना पड़ा। गाँधी-युग के पूर्व की हिन्दी पत्रकारिता का मूल स्वर राजनीतिक कम, साहित्यिक अधिक था। गाँधी जी के आने पर हिन्दी पत्रकारिता को नवीन स्वर मिला। पत्रकारिता में नये जीवन-मूल्यों और आदर्शों की स्थापना हुई जिसमें तत्कालीन विचार-संकल्पों एवं उस युग की राजनीतिक परिस्थितियों का प्रभाव देखा जा सकता है। गाँधी-युग के प्रारम्भ में व्यापक राष्ट्रीय संवेदना और शाश्वत मूल्यों को विद्रोह के स्तर पर समन्वित करने में तत्कालीन प्रतिबन्धित पत्र-पत्रिकाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।


भारतीय जनमानस में जब स्वाधीनता के प्रति नयी लहर जोर पकड़ रही थी, उस समय तक हिन्दी की पत्र-पत्रिकाएँ राजनीतिक दृष्टि से परिपक्व हो चुकी थीं। भारत के राजनीतिक क्षितिज पर महात्मा गाँधी के आविर्भाव से स्वाधीनता आन्दोलन को जो नयी दिशा प्राप्त हुई, उसे जनजीवन से सम्पृक्त करने तथा राजनीतिक चेतना के विकास के साथ ही ब्रिटिश सरकार के कार्यों एवं नीतियों की कटु आलोचना एवं भर्त्सना करके लोक-भावना को उत्तेजित करने में हिन्दी की प्रतिबन्धित पत्र-पत्रिकाओं ने प्रभावी ढंग से काम किया। रौलट ऐक्ट के विरोध में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने देशव्यापी अभियान छेड़ा। अधिकांश हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने उत्तेजक लेखों एवं टिप्पणियों के माध्यम से नौकरशाही के क्रूर अत्याचारों एवं मनमाने तरीकों के विरुद्ध रोष व्यक्त करते हुए विधेयक के विरुद्ध जनता को संघर्ष के लिये प्रेरित किया। महात्मा गाँधी द्वारा प्रारम्भ किये गये सत्याग्रह आन्दोलन को हिन्दी पत्रकारिता ने आगे बढ़ाया, साथ ही उपयुक्त वातावरण का निर्माण किया। विभिन्न हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में लेख, टिप्पणियाँ एवं कविताएँ प्रकाशित होती रहीं।


हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं ने जनरल डायर और ओडायर के कार्यों की कटु आलोचनाएँ कीं, जबकि अंग्रेजी पत्रों ने न केवल डायर के कार्यों को क्षमा प्रदान की, अपितु फौजी शासन को उचित भी ठहराया।25 हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह पूरी तत्परता से किया। हिन्दी की प्रतिबन्धित पत्रिका ‘स्वदेश’ ने सरकारी दमन नीति, अत्याचार एवं निरंकुशता का घोर विरोध किया एवं सरकार के अमानुषिक कार्यों की भर्त्सना करते हुए उत्तेजक लेख, कविताएँ एवं टिप्पणियाँ प्रकाशित कीं।26 प्रतिबन्धित पत्र ‘स्वदेश’ के अग्रलेखों में वस्तुत: स्वाधीनता आन्दोलन की भावनाओं की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति होती थी। ‘स्वदेश’ का स्वर उग्र तो था ही, परन्तु उसमें क्रोध, विरोध एवं व्यंग्य का भी पुट होता था। ‘कत्लेआम’ शीर्षक सम्पादकीय की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं—


वाह रे।

उनका कलेजा

कत्लेआम, और वह ख़याल?

कोई क्या कर लेगा मुझ पर 

करके दावा खून का? 27






‘स्वदेश’ के इसी अंक में ब्रिटिश सरकार को धिक्कारती हुई कविता की अधोलिखित पंक्तियाँ पत्र के उग्र स्वरूप को स्पष्ट करती हैं—


जब हुक़्म हो गया तो

किसी ने किया न उज्र।

जाने को सब लड़ाई पै

तैयार हो गये।

इतना दिया है हमने, इसी बार फण्ड में

बच्चे गदाये कूच-ओ

बाजार हो गये

अतएव

रौलट का तुमने कर दिया

कानून कैसे पास?

इन्सा़फ वाले हो के दिले-आ़जार हो गये

हैं हम कि यह हमारी

व़फाओं का सिला

बेजुर्म आप कत्ल को तैयार हो गये?28


पंजाब से सर माइकेल ओडायर के निरंकुश प्रशासन एवं सत्याग्रह आन्दोलन के दमन पर तीव्र प्रहार इस पत्र (स्वदेश) द्वारा हुआ।29 सैनिक शासन की तीव्र आलोचना करते हुए पत्र ‘स्वदेश’ ने लिखा—‘हम समझते थे कि भारत सरकार सर ओडायर के कूटनीति-रूपी बैल को अपनी शीतल छाया में और अधिक न बढ़ने देगी, परन्तु ऐसा नहीं। भारत सरकार ने सर ओडायर की पीठ ठोंक दी है और अब उसका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ गया है। त्राहि-त्राहि की सदाओं से आसमान गूँज उठा है। देश के सुख और शान्ति के नाम पर आज जिस स्वेच्छाचारिता से लोग जिबह हो रहे हैं, उस सुख और शान्ति का रूप बड़ा बेढब है। हम तिलमिला उठते हैं।30 


सरकारी हिंसा और दमन-नीति पर उत्तेजक लेखों के अलावा हिन्दी की प्रतिबन्धित पत्र-पत्रिकाओं ने स्वातन्त्र्य आन्दोलन को प्रेरणा प्रदान करने तथा राजनीतिक प्रचार हेतु अपने अभियान को जारी रखा। प्रतिबन्धित पत्र-पत्रिकाओं द्वारा जहाँ एक तरफ सरकारी दमन-नीति एवं क्रूर नौकरशाही के अत्याचारों तथा अन्यायों के विरुद्ध लोक-चेतना का निर्माण हुआ, वहीं अंग्रेजी दमन-चक्र की गति और तीव्र ही गयी। प्रेस-ऐक्ट रूपी तलवार का प्रयोग पत्र-पत्रिकाओं पर और अधिक तेज हो गया। पत्रकारिता के विरोध में देशव्यापी दमनचक्र प्रारम्भ हो गया। उन्हें जब्त किया गया, उनसे जमानतें माँगी गयीं। उनके प्रसार पर रोक लगायी गयी। सेन्सरशिप, पत्रकारों का निर्वासन एवं चेतावनियाँ आदि की कार्यवाही कर के हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का मुँह बन्द करने का प्रयास किया गया।31 अनेक भाषाओं की देश-विदेश में ख्यात पत्र-पत्रिकाओं से भारी-भरकम जमानतें वसूल की गयीं, जब्त की गयीं एवं उनका प्रकाशन रोका गया और सम्पादकों को स़जाएँ दी गयीं।32


सन् 1919 में पंजाब के अन्तर्गत ‘प्रेस ऐक्ट’ को बड़ी कठोरता से लागू किया गया। देश के अन्य भागों से प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्रों का प्रवेश पंजाब में निषिद्ध कर दिया गया जिसमें उत्तर प्रदेश का एकमात्र हिन्दी साप्ताहिक ‘स्वदेश’ भी था।33 13 मई, 1919 को पंजाब सरकार के आदेशानुसार सार्वजनिक सुरक्षा के लिये अहितकर मानते हुए ‘स्वदेश’ के पंजाब में प्रवेश पर रोक लगा दी गयी थी।34 अंग्रेजी नौकरशाही की इन करतूतों ने ‘स्वदेश’ को और भी अधिक उग्र बना दिया। राष्ट्रीय पथिक द्वारा लिखित ‘कयामत होने वाली है’ शीर्षक कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ ‘स्वदेश’ की चरम उग्रता की परिचायक हैं-


सितमगर! सोच ले दम भर, तेरी दरख्वास्त जाली है। 

ताबूत है, बेजान है, मुर्दार डाली है।

नहीं हैं ये सुलह के ढँग, नहीं क़ौमी तरक्की के।

अरे! टुक झाँक, नीचे तो तेरी बुनियाद खाली लो है।

ये खूँ है बेगुनाहों का, दबाया जा नहीं सकता।

हश्र तक वह पुकारेगा कि, ये तजवीज काली है।

सम्हल जा व़क्त है, अब भी बदल यह चाल बेढ़ंगी।

तेरी रफ्तार पर बरपा क़यामत होने वाली है।35


उपर्युक्त कविता अंग्रेजी सरकार की दृष्टि में अत्यधिक आपत्तिजनक और राजद्रोहात्मक थी, जिसके फलस्वरूप हिन्दी साप्ताहिक पत्र ‘स्वदेश’ के सम्पादक को सरकार द्वारा 13 जून, 1919 को चेतावनी दी गयी।36 पंजाब सरकार पर प्रहारात्मक स्वर के कारण पत्र को पुन: 30 जून, 1919 को चेतावनी दी गयी।37


सन् 1928 भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के साथ-साथ हिन्दी पत्रकारिता की विकास की दृष्टि से भी अत्यधिक उल्लेखनीय वर्ष रहा। गाँधी और गाँधी के असहयोग आन्दोलन ने क्षेत्रीय पत्रकारिता को गहरे तक प्रभावित किया। फलस्वरूप इस दौरान अनेक भाषाओं में नयी पत्र-पत्रिकाओं का जन्म हुआ, जिन पर गाँधी-विचार का प्रभाव था और जो सत्याग्रह आन्दोलन के प्रतिश्रुति थे।38 हिन्दी पत्रकारिता के प्रकाशन में गत वर्ष जो तेजी आयी थी, वह इस वर्ष के प्रारम्भ में उग्र राजनीतिक गतिविधियों के कारण और गतिशील हो गयीं। गाँधीवादी आदर्शों की स्थापना एवं भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में प्रभावकारी भूमिका के निर्वाह हेतु कानपुर से दैनिक ‘वर्तमान’ का प्रकाशन आरम्भ हुआ, जिसके सम्पादक, प्रकाशक, कानपुर के प्रसिद्ध स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी पण्डित रमा शंकर अवस्थी थे। सरकारी सूत्रों के अनुसार ‘वर्तमान’ का प्रकाशन 22 अक्टूबर, 1920 को असहयोग आन्दोलन को व्यापक समर्थन प्रदान करने हेतु हुआ था।39 सरकार ने इस पत्र को उग्रवादी पत्रों की सूची में रखा था। यह उग्रवादी प्रकाशनों के लिये विख्यात था।40 राजनीतिक चेतना के परिणामस्वरूप इस दौरान पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में तेजी आयी। साथ ही उनकी प्रसार-संख्या में बढ़ोतरी हुई। सन् 1920-21 के दौर में भारी संख्या में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन का उद्देश्य वस्तुत: स्वाधीनता आन्दोलन को सहयोग प्रदान करना था।


भारतीय काउन्सिलों के प्रति देशवासियों के दृष्टिकोण को परिवर्तित करने में तत्कालीन हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने प्रभावकारी भूमिका का निर्वाह किया। काउन्सिल-बहिष्कार पर प्रतिबन्धित हिन्दी पत्र ‘स्वदेश’ का ‘वोटरों सावधान’ शीर्षक सम्पादकीय की पंक्तियाँ इन्हीं भावनाओं को उजागर करती हैं—‘प्यारे भारतवासियो! सँभल जाओ! यह तुम्हारी पहली परीक्षा है। देखो, अपने पैर पर अपने हाथों कुल्हाड़ी मत चलाओ। याद रखो कि काउन्सिल में जाकर अथवा किसी को भेजकर तुम अपने देश के लिये पुण्य नहीं कमा रहे हो, बल्कि पाप बटोर रहे हो। अब तक तो आप खुद दासता की जंजीरों में जकड़े थे, अब आप इस प्रकार अपनी आगे आने वाली सन्तानों को भी उसी बन्धन में बाँध रखना चाहते हो।41 स्वतन्त्रता आन्दोलन को गति प्रदान करने हेतु हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने विविध रूपों में रचनाएँ प्रकाशित कर, जनजीवन को आन्दोलित किया। आन्दोलन के प्रारम्भ होते ही हिन्दी पत्र ‘वर्तमान’ ने एक कविता प्रकाशित की, जिसमें बड़े ही भावनात्मक एवं मार्मिक शब्दों में लोगों से असहयोग आन्दोलन में भाग लेने का आह्वान किया गया।42 ‘वर्तमान’ के ही एक अन्य अंक में विद्यार्थियों को उत्तेजित करते हुए कहा गया कि वे कर्मक्षेत्र में आगे बढ़ें और वीरों की तरह अपना बलिदान कर दें।43 स्वाधीनता आन्दोलन की गतिविधियाँ ज्यों-ज्यों तेज होती गयीं, उसी अनुपात में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का स्वर भी राष्ट्रीय आकांक्षा को उद्वेलित करने में तीव्रतर होता गया।





भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन और उससे जुड़ी राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं के प्रति अंग्रेजी सरकार की दमनात्मक कार्यवाहियों के बावजूद राजनीतिक आन्दोलन सन् 1922 में उग्रता की चरम सीमा तक पहुँच गया। इसी वर्ष हिन्दी ‘चाँद’ (इलाहाबाद) का प्रकाशन भी हिन्दी साहित्य और भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना है। साहित्यिकता के आवरण में राजनीति, स्त्री-शिक्षा, सामाजिक सुधार आदि विषयों पर उत्कृष्ट सामग्रियों का प्रकाशन कर ‘चाँद’ ने हिन्दी पत्रकारिता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। सम्पादक रामरख सिंह सहगल थे।


सन् 1919-1922 के चार वर्षों के दौरान विभिन्न हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के सर्वेक्षण और पत्रों से सम्बन्धित सरकारी गोपनीय टिप्पणियों के अध्ययन के अनुसार यह बात स्पष्ट होती है कि गाँधी-युगीन स्वाधीनता आन्दोलन के प्रारम्भिक दौर की हिन्दी की पत्रकारिता महात्मा गाँधी से प्रभावित रही। सम्पूर्ण देश में, विशेषतया सत्याग्रह एवं असहयोग आन्दोलन के प्रचार-प्रसार एवं उसकी सफलता का अधिकतम श्रेय हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं को है। राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत बहुसंख्यक हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने अपनी प्रभावशाली भूमिका से उसमें नवशक्ति का संचार किया। हिन्दी पत्रों में आन्दोलन की गतिविधियों, असहयोग के कार्यक्रम, सरकारी दमन, स्वयंसेवकों एवं नेताओं की गिरफ्तारी, राष्ट्रीय नेताओं के सन्देश, वक्तव्य, आन्दोलन को उत्प्रेरित करने वाले समाचार तथा सम्पादकीय अग्रलेखों को प्रमुखता से प्रकाशित किया जाता था।


असहयोग आन्दोलन के पश्चात् देश की राजनीतिक पृष्ठभूमि में बहुतायत में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन इस तथ्य को उजागर करता है कि राजनीतिक चेतना एवं हिन्दी पत्रकारिता के विकास की प्रक्रिया का गति-क्रम प्राय: एक-साथ गतिशील था। यद्यपि प्रेस-अधिनियम में शिथिलता प्रदान कर दी गयी थी, फिर भी अंग्रेज सरकार का दमनचक्र हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं पर प्राय: यथावत् था। सन् 1923 की सरकारी रिपोर्ट के अनुसार आपत्तिजनक लेखों के प्रकाशन के सन्दर्भ में इस वर्ष हिन्दी के प्रतिबन्धित पत्र ‘स्वदेश’ एवं ‘वर्तमान’ दोनों को चेतावनी दी गयी।44 भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का यह दौर जहाँ सांवैधानिक आन्दोलनकारियों के राजनीतिक उत्कर्ष का समय था, वहीं राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय पत्रकारिता के विकास का भी उत्कर्ष-काल था।


सन् 1925 भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में एक महत्त्वपूर्ण वर्ष के रूप में मान्य है। वह भारत की हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की शृंखला में भी एक नयी कड़ी जोड़ता है। यद्यपि इस वर्ष अनेक हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ, किन्तु अधिकतर मासिक पत्र थे। इसी वर्ष हिन्दी पत्र ‘सैनिक’ ने हिन्दी की तेजस्वी पत्रकारिता की गतिशील परम्परा को अग्रसर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। सन् 1923-24 की हिन्दी पत्रकारिता के केन्द्र बिन्दु महात्मा गाँधी थे। राष्ट्रवादी हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के प्राय: प्रत्येक अंक में उन पर रचनाएँ प्रकाशित होती रहती थीं। इनमें उनकी रिहाई के विषय प्रमुख होते थे। सन् 1924 में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का स्वर महात्मा गाँधी की कारावास से मुक्ति के प्रश्न पर और मुखरित हो उठा। प्राय: सभी राष्ट्रवादी हिन्दी पत्रों ने महात्मा गाँधी की अविलम्ब रिहाई की माँग की। ‘स्वदेश’ ने अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा— ‘‘महात्मा गाँधी को अब कारावास में अधिक दिनों तक रहने की आवश्यकता नहीं है। सरकार को अविलम्ब और बिना शर्त उनकी रिहाई का आदेश कर देना चाहिए।45 अन्तत: हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं द्वारा उत्प्रेरित व्यापक जनमत की अब और अधिक उपेक्षा करना सम्भवत: अंग्रेजी सरकार के लिये सम्भव नहीं था। फलस्वरूप सन् 1924 में महात्मा गाँधी कैद से मुक्त किये गये। इस अवसर पर हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने उनकी रिहाई के समाचार को अपनी पत्रिकाओं में प्रमुख स्थान प्रदान किया। उनकी स्तुति में निबन्ध और कविताएँ प्रकाशित की गयीं।


असहयोग आन्दोलन के पश्चात् सक्रिय हुई देशव्यापी क्रान्तिकारी गतिविधियों को उत्तेजना और सक्रियता वस्तुत: हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं से ही प्राप्त हुई। हिन्दी पत्रकारिता के विशिष्ट उन्नायकों ने अपनी ओजपूर्ण लेखनी से क्रान्तिकारी आन्दोलन को जन-आन्दोलन से जोड़ने के साथ ही युवा-वर्ग को स्वातन्त्र्य संघर्ष हेतु प्रेरित किया। क्रान्तिकारी आन्दोलन के परिपे्रक्ष्य में अधिकांश हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का दृष्टिकोण हिंसात्मक गतिविधियों के प्रति असहमति व्यक्त करते हुए भी उन्हें अप्रत्यक्ष समर्थन प्रदान करता था। वे क्रान्तिकारी आन्दोलन को अहिंसात्मक आन्दोलन के साथ सहायक तत्त्व के रूप में जोड़ना चाहती थीं। उनका प्रयास होता था कि क्रान्तिकारी आन्दोलन अहिंसात्मक आन्दोलन के सहायक एवं साधक हों। वे पूरक हों, बाधक नहीं। ब्रिटिश सरकार के कानूनी शिकंजे से बचते हुए उनका स्वर अहिंसा में हिंसा को प्रतिबिम्बित करना था। इस सन्दर्भ में हिन्दी के प्रतिबन्धित पत्र ‘वर्तमान’ की टिप्पणी उल्लेखनीय है— ‘अब साम्राज्यवाद के दुर्गों को ध्वंस करने और स्वराज प्राप्त करने का निर्णय लिया गया है। युवक-समुदाय इस हेतु भारी-से-भारी कुर्बानी देने को तैयार बैठा है। अब क्रान्ति बहुत दूर नहीं। एक ही झटके में दासता की बेड़ियों को तोड़ दो। जेल और फाँसी के तख्ते तुम्हारे युद्ध-स्थल हैं। मजदूरों को राष्ट्रीय संग्राम में अपने पूरे शौर्य के साथ अपनी शक्ति को प्रदर्शित करने का समय आ गया है। यह वास्तविक संघर्ष का समय है। अब वह दिन दूर नहीं, जब हम जेलों के फाटक खोलेंगे।’46 एक अन्य अंक में ‘वर्तमान’ में एक शीर्षक था—‘हम क्रान्ति करेंगे ‘जिसमें लिखा गया—‘हमारी प्रचण्ड क्रान्ति को हजारों नौकरशाह रोक नहीं सकेंगे। हम गोपनीय ढंग से क्रान्ति की तैयारी करने में लीन हैं।47 हिन्दी पत्रकारिता के क्रान्तिकारी प्रकाशनों के इतिहास में गोरखपुर से प्रकाशित ‘स्वदेश’ के विजयांक का प्रकाशन उल्लेख्य है। 7 अक्टूबर, 1924 के ‘स्वदेश’ के विजयांक में ऐसी विद्रोह एवं क्रान्तिकारी पाठ्य सामग्री थी कि वह तत्काल सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया।48 इस प्रकार की दमनकारी नीति के बाद क्रान्तिकारी प्रकाशनों का क्रम अवरुद्ध नहीं हुआ।


हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में काकोरी-काण्ड से सम्बन्धित गिरफ्तारियों की व्यापक प्रतिक्रिया हुई। गिरफ्तारियों की कटु निन्दा की गयी। जेल में हो रहे अत्याचार की हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने खुलेआम भर्त्सना की। प्रतिबन्धित हिन्दी पत्र ‘सैनिक’ ने लिखा कि — ‘गिरफ्तार व्यक्तियों को बेडियाँ पहनने तथा उन्हें तन्हाई में रखने का अधिकारियों का कार्य अत्यन्त अमानवीय, बर्बर एवं निन्दनीय है।’ ‘सैनिक’ ने शासन से अनुरोध किया कि जब तक अपराध प्रमाणित नहीं हो जाता, इस पर कोई रोक न लगाकर इन्हें जमानत पर छोड़ दिया जाना चाहिए।49 हिन्दी के दैनिक एवं साप्ताहिक पत्रों में इस प्रकार की टीका-टिप्पणी ने जहाँ सरकार की दमन-नीति की निन्दा कर क्रान्तिकारियों के प्रति सुरक्षात्मक दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया, वहीं मासिक पत्रिकाओं ने कारागार-बन्दियों की प्रशस्ति एवं सहानुभूति में अनेक तरह की रचनाएँ प्रकाशित कीं।


काकोरी-काण्ड पर की गयी कार्यवाहियों पर ‘चाँद’ का स्वर अन्य पत्रों की अपेक्षा अधिक उग्र, भाव-प्रधान एवं संवेदनशील है। ‘चाँद’ ने न केवल सरकारी पत्रों की खबर ली, वरन् कांग्रेस एवं सरकारी व्यवस्था को फटकारते हुए अनेक प्रश्न भी उपस्थित किये। शहीदों के प्रति ‘समाज का दायित्व’ शीर्षक ‘चाँद’ के अग्रलेख की पंक्तियाँ हिन्दी पत्रकारिता के गौरवशाली पृष्ठ हैं, जिनमें इन बलिदानियों के प्रति समाज के कर्त्तव्यों का बोध कराया गया है।50 हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रति सतत जागरूक रहीं। कांग्रेस के अहिंसात्मक असहयोग आन्दोलन को समर्थन देकर भारतीय जनता में लोकप्रिय बनाया। साथ ही कानूनी शिकंजे से अपने-आपको बचा कर क्रान्तिकारियों और उनके हिंसात्मक कार्यों से असहमति प्रकट करते हुए उन्हें ब्रिटिश सरकार के कोप से बचाने और निर्दोष सिद्ध करने का अथक प्रयास भी किया। उन्हें अप्रत्यक्ष समर्थन प्रदान किया गया। इसी दौरान नयी क्रान्तिकारी शक्तियों का उदय हुआ जिनसे भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन को संघर्ष की नयी प्रेरणा मिली। वह मजदूरों एवं किसानों की अपार शक्ति थी।


हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं को साम्यवादी एवं समाजवादी विचारधारा ने काफी प्रभावित किया। बोल्शेविक के प्रचार-प्रसार हेतु अनेक रचनाओं का प्रकाशन हुआ। समाजवादी विचारधारा के विस्तार के साथ ही उससे जुड़ी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन तीव्र गति से आरम्भ हो गया। हिन्दी पत्र ‘वालण्टियर’ जिसे अंग्रेजी सरकार ने जब्त कर लिया था, इसी विचारधारा का पत्र था।51 इसी सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि आगरा का ‘सैनिक’ भी बाद में साम्यवादी एवं बोल्शेविज्म का समर्थन करने लगा था।52  समाजवादी एवं साम्यवादी आन्दोलन के प्रति ब्रिटिश सरकार की दमन-नीति का हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने खुल कर विरोध किया। सन् 1924 के ‘कानपुर षड्यन्त्र केस’ की चर्चा करते हुए ‘वर्तमान’ ने अपनी टिप्पणी में लिखा—‘आरोप निराधार है। पूँजीवादी नौकरशाही यह कदापि नहीं चाहती कि इस देश में समाजवादी विचारों का प्रसार हो। लेकिन क्या यह कोई बता सकता है कि इस प्रकार के मुकद्दमों को प्रारम्भ कर कोई शक्ति ज्ञान-ज्योति को बुझा सकेगी?’53 उग्र राजनीति से सम्बन्धित हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने साम्यवादी विचारों के प्रचार-प्रसार में सहयोग प्रदान किया। साथ ही उदार विचारधारा के कुछ राष्ट्रवादी पत्रों ने इस आन्दोलन के प्रति सरकार की दमन-नीति की निन्दा की।


भगत सिंह 


क्रान्तिकारी एवं उग्र राजनीति में भगत सिंह का अपना अलग महत्त्व है। उन्होंने छिन्न-भिन्न क्रान्तिकारी संगठन को एक सूत्र में बाँधा। ‘साइमन कमीशन’ के आगमन से राजनीतिक वातावरण में उत्तेजना आयी। पंजाब-केसरी लाला लाजपत राय की मृत्यु क्रान्तिकारियों के आक्रोश का कारण बनी। प्रतिबन्धित हिन्दी पत्र ‘स्वदेश’ ने अपने 25 नवम्बर, 1928 के अंक में ‘लाला लाजपत राय की मृत्यु को मुखपृष्ठ पर प्रकाशित किया’ एवं 29 नवम्बर, 1928 को देशभर में ‘लाला लाजपतराय दिवस मनाया जाये’ शीर्षक अपील एवं ‘ओ जाने वाले पथिक’ शीर्षक सम्पादकीय में लाला लाजपत राय के प्रति हृदयस्पर्शी लेख प्रकाशित किया। अपने अगले अंक में ‘घाव पर नमक’ शीर्षक सम्पादकीय में ब्रिटिश सरकार पर व्यंग्य और युवकों का आह्वान किया—‘सुनते हैं मुहम्मद तुगलक के जमाने में सरकारी आदमी मनुष्यों का शिकार करते थे’—यह सच है या झूठ, यह हम नहीं कह सकते, किन्तु इस ब्रिटिश साम्राज्य में हम जो कुछ भुगत रहे हैं उससे यह अवश्य स्पष्ट हो रहा है कि यदि तुगलकशाही की बातें सत्य हैं तो अवश्य ही यह ब्रिटिश उद्दण्डशाही उसका संशोधित और मँजा हुआ रूप है। हम इन घायल सिंह युवकों से यह बताना चाहते हैं कि वे अपना-अपना अपमान, युवक समाज का अपमान, राष्ट्रीय जीवन का अपमान और प्यारी मातृभूमि का अपमान घोल कर पी न जायें।’54 हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं की इस प्रकार की टीका-टिप्पणी ने क्रान्तिकारी आन्दोलन की अग्नि में घी का कार्य किया।


क्रान्तिकारी आन्दोलन एवं ब्रिटिश दमन-चक्र के विरोध में ‘नौकरशाही का दमन’ शीर्षक सम्पादकीय में ‘स्वदेश’ ने लिखा—‘नौकरशाही का यह दमनचक्र फिर कुछ रंग लाने वाला है। पंजाबी वीर इस दमन का सामना करने के लिये हर तरह से तैयार हैं और देश के अन्य प्रान्तों की भी उनके साथ पूरी सहानुभूति है। नौकरशाही का दमन-चक्र पहले भी विफल हुआ है और इस बार भी वह निश्चय ही विफल होगा।55 भगत सिंह और उनके साथियों द्वारा किये जा रहे अनशन के सन्दर्भ में उनकी प्रशंसा एवं स्तुति में ‘स्वदेश’ ने निम्न प्रकार से अपना समर्थन व्यक्त किया—


वाह ऐ दत्तो-भगत।

यह जज़्बये-हुब्बे-वतन।।

कि दिलेरी से हुए राहे-क़जा में गामज़न।

वाह ऐ दत्तो-भगत! यह जज़्बये-हुब्बे-वतन।।

तर्क की खुराक, है मद्देनजर इसलाहे जेल।

पास इज़्ज़त है, तुम्हारा असीराने वतन।।

ऩज़अ आलम है दम खिंचकर लबों पर आ गया।

हुब्बे-कौमी के वही तेवर, वही है बाँकपन।।

झेलते हैं सख्तियाँ कैसी मुफीदे-आम पर।

शोला़ज़न इतनी है कौमी मुल्क की दिल में लगन।।

भूक की हड़ताल से है जो’फ़ चेहरों से अयाँ।

बल न अबरू पर ज़रा आया न माथे पर शिकन।।

जिस्म खाकी गो हुआ तौको-सलासिल में असीर।

रूह को पाबन्द कर सकते नहीं दारो-रसन।

जुल्म कर ले जिस क़दर मुमकिन है तू ऐ आसमाँ!

रंग लायेगा किसी दिन नाला-ए-गर्दे-शिकन।।56


हिन्दी ‘वर्तमान’ में प्रकाशित अपने हस्ताक्षरित लेख में सम्पादक रमा शंकर अवस्थी ने उन्हें महान् बलिदानी बताते हुए लिखा—‘तुम्हारी इस महान् यात्रा पर देवतागण पुष्पवर्षा कर रहे हैं। भारतीय राजनीति के इतिहास के सादे पृष्ठ पर यतीन्द्र! तुमने अपने महाप्रयाण के पूर्व लिखा—‘भारत के युवको! जागो, अपने भ्रम को तोड़ो और स्वतन्त्रता के लिये अपनी गति को ते़ज कर दो। तब तुम्हारे बन्धन टूट जायेंगे। भारत माँ के गौरव, यज्ञ-वेदी के पुष्प, आ़जादी के उद्घोषक, स्वतन्त्रता के सेनानायक! तुम्हारे आदेश का पालन होगा। तुम्हारे युवक भाई तुम्हारे आदेश को अपने रक्त की अन्तिम बूँद तक पूरा करने में जुटे रहेंगे।57 ‘स्वदेश’ ने अपने सम्पादकीय में लिखा—‘कौन कहता है कि यतीन्द्र, मर गया? यतीन्द्र तुम धन्य हो! तुम्हारी बदौलत आज भारत भी धन्य हो गया। जान पड़ता है कि भारतीय युवकों के हृदय में छिपी हुई शक्ति को जागृत करने के लिये ही इस भूलोक में तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ था। परमात्मा करे, तुम्हारा यह पवित्र बलिदान घर-घर में यतीन्द्र पैदा करे और भारत फिर एक बार अपना मस्तक ऊँचा कर सके।58 ‘सैनिक’ की टिप्पणी थी—‘अमर बलिदानी यतीन्द्रनाथ दास का यह त्याग समय का शुभ हस्ताक्षर है।’59 


भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने अपनी सीमाओं में रहते हुए उनके प्रचार-प्रसार एवं जनसमर्थन हेतु व्यापक अभियान चलाया। सैद्धान्तिक रूप से कांग्रेस की नीतियों से सम्बद्ध होते हुए भी उन्होंने क्रान्तिकारियों के प्रति न केवल दमन के दौर में सहानुभूति का परिचय दिया, अपितु स्वतन्त्रता आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में व्यापक दृष्टिकोण अपनाकर क्रान्तिकारियों को प्रतिष्ठापित भी किया। क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रति अन्त तक उनका विचार-भाव इन्हीं आदर्शों के साथ स्थिर रहा। क्रान्तिधारा को उद्वेलित करने वाले अनके प्रकाशन हुए, जिन्हें सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया। अनेक ऐसे भी प्रकाशत हुए जो पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त पुस्तक और पर्चे के रूप में भी थे, उन्हें सरकार द्वारा निषिद्ध घोषित कर दिया गया।60 काकोरी के अभियुक्तों की फाँसी के लगभग एक वर्ष बाद इलाहाबाद से प्रकाशित ‘चाँद’ का ‘फाँसी अंक’ क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास की अमूल्य निधि है। यह अंक क्रान्तिकारियों की गाथाओं से भरा हुआ था। फलस्वरूप यह सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया।61


साइमन कमीशन के विरोध एवं उसके बहिष्कार हेतु जनमत जागृत करने में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। संवाद, सम्पादकीय एवं अपील के माध्यम से इन्होंने साइमन कमीशन के भारत में 3 फरवरी, 1928 के दिन आगमन पर हड़ताल के लिये आम जनता को तैयार किया। ‘स्वदेश’ ने अपने मुखपृष्ठ पर ‘शुक्रवार 3 फरवरी को हर शहर और हर कस्बा में हड़ताल होनी चाहिए और शाम को हर जगह एक-एक सभा होनी चाहिए’ शीर्षक अपील प्रकाशित की। साथ ही सम्पादकीय में लिखा-‘उस दिन एक छोटे-से-छोटे रोजगारी और कुली तक से ले कर बड़े-से-बड़े स्वाभिमानी भारतीय अमीर तक को किसी-न-किसी रूप में उस हड़ताल में योग देना अनिवार्य है। दुकानदार अपनी दुकानों पर ताला लगा दें, एक्का, ताँगा और किराये की सवारीवाले अपनी-अपनी सवारियाँ न जोतें, स्कूल और कॉलेजों के विद्यार्थी अपना एक दिन का पढ़ना विदेशी शासन के नाम पर फूँक तापें, काउन्सिल और असेम्बली के सदस्य उस दिन तय कर डालें कि वे कमीशन को किसी तरह का सहयोग न देंगे, रेल और डाकखाने के सरकारी नौकर तथा कानूनपेशा लोग भी उस दिन हड़ताल मनायें। इस प्रकार उस दिन, एक दिन के लिये तो भारत सरकार को यह मालूम करा देना हमारे लिये आवश्यक है कि भारत धींगा-धींगी में किसी प्रकार साथ देने के लिये तैयार नहीं चाहे उसके बदले कितना ही दण्ड और कष्ट क्यों न भोगना पड़े।’62 ‘सैनिक’ ने इस सन्दर्भ में कविताएँ प्रकाशित कीं एवं लिखा कि—‘कमीशन उस प्रशासन ने नियुक्त किया है, जिसने विभिन्न तिकड़मों से हमे कंगाल बना दिया, हमारे खजानों को खाली करा दिया और हमारे अनगिनत भाइयों को निर्दयतापूर्वक भून दिया और जिसके संकेत-मात्र पर अनेक जानें ले ली गयीं।’63


साइमन कमीशन के विरुद्ध बहिष्कार आन्दोलन के सन्दर्भ में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने प्रशंसनीय योगदान दिया। कमीशन के पुन: आने पर उसका जमकर विरोध किया गया। ‘चाँद’ ने अपने ‘स्वदेशी आन्दोलन’ शीर्षक में विभिन्न आँकड़े प्रस्तुत करते हुए लिखा, ‘भारतवर्ष का शासन इंग्लैण्ड के आर्थिक लाभ की दृष्टि से किया जाता है। अब विदेशी वस्त्र पहनने वाले हमारे भाई और बहनें हृदय पर हाथ रख कर अपने अन्त:करण से पूछकर देखें कि अपने तैंतीस करोड़ भाइयों को नरक की यन्त्रणा देकर, भारत के पड़ोसी देशों की स्वतन्त्रता को खतरे में डाल कर, शासक जाति के आत्मिक पतन का साधन उपस्थित कर और स्वयं अपनी ही सन्तति को मृत्यु के मुख में फेंककर भी विदेशी वस्त्र चाहते हैं या नहीं।’64 सन् 1929 में कांग्रेस के लाहौर-अधिवेशन के प्रस्तावों को सभी पत्र-पत्रिकाओं ने पूर्ण समर्थन दिया। आगरा के ‘सैनिक’ का विचार था कि ‘लाहौर कांग्रेस का निर्णय पूरी तरह से धीर-गम्भीर है और वर्तमान परिस्थितियों में इससे अच्छा निर्णय और कोई नहीं हो सकता।’65 ‘स्वदेश’ ने इस अवसर पर टिप्पणी की—‘आज छब्बीस जनवरी को हम यह निश्चय करते हैं कि अब और अधिक दिनों तक इस अन्यायी सरकार के शासन में रह कर हम ईश्वर और मानवता के प्रति पाप नहीं करेंगे।’66 इस तरह से विभिन्न तरीकों से अपना योगदान देकर महात्मा गाँधी के कार्यक्रमों के प्रति जनमत का उत्साहवर्द्धन किया।


सन् 1930 के प्रेस-अधिनियम की तीव्र निन्दा करते हुए महात्मा गाँधी ने लिखा—‘मुझे विश्वास है कि जनता इस अध्यादेश से भयभीत नहीं होगी और यदि लोकमत के वास्तविक प्रतिनिधि होंगे तो पत्रकार भी इससे नहीं डरेंगे। उन्होंने पत्र-सम्पादकों तथा प्रकाशकों से अनुरोध किया कि वे जमानत देने से इन्कार कर दें और यदि उनसे जमानत माँगी जाये तो वे या तो पत्र का प्रकाशन बन्द कर दें या सरकार को जो कुछ जब्त करना चाहे, कर लेने दें। जब स्वतन्त्रता हमारे द्वार खटखटा रही है और स्वतन्त्रता देवी को प्रसन्न करने के लिये ह़जारों व्यक्तियों ने यातनाएँ सहन की हैं, तब समाचार-पत्र-प्रतिनिधियों के बारे में किसी को यह कहने का अवसर नहीं देना चाहिए कि वे परीक्षा की घड़ी में खरे नहीं उत्तरे।67 अधिनियम के विरोधस्वरूप पत्र-पत्रिकाओं ने सम्पादकीय अग्रलेख और टिप्पणियाँ आदि लिखना बन्द कर दिया और उसके स्थान पर काला हाशिया छोड़ कर या स़फेद स्थान को रिक्त छोड़ कर अपना विरोध प्रकट किया।


इलाहाबाद से प्रकाशित पत्र ‘चाँद’ ने प्रेस-ऑर्डिनेन्स के विरोध में सम्पादकीय विचार-स्तम्भ में ‘कानून या काल?’ शीर्षक टिप्पणी दे कर उक्त स्तम्भ का स्थान रिक्त छोड़ दिया।68 पत्र-पत्रिकाओं के अलावा कांग्रेस कार्यसमिति ने उसकी निन्दा करते हुए प्रस्ताव पारित किया कि—‘जिन भारतीय पत्रों ने अभी तक प्रकाशन बन्द नहीं किया है, या बन्द करके पुन: निकलने लगे हैं, उनको अब बन्द किये जाने का समिति अनुरोध करती है। जो भारतीय या गोरे पत्र अब भी प्रकाशन बन्द न करें, उनका बहिष्कार करने के लिये समिति जनता से अपील करती है।’69 पत्र-पत्रिकाओं और राजनीतिक क्षेत्रों द्वारा व्यापक विरोध के बावजूद उनसे भारी भारतीय ़जमानतें माँगी गयीं। ‘सैनिक’ और ‘स्वदेश’ ने अपना प्रकाशन बन्द कर दिया।70


भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में क्रूर दमन के अवसर पर सन् 1930 के प्रारम्भ में प्रेस-ऑर्डिनेन्स के कारण जब प्राय:सभी राष्ट्रवादी हिन्दी पत्रिकाओं का प्रकाशन स्थगित हो गया था, तब अनेक भूमिगत क्रान्तिकारी पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। इन भूमिगत साइक्लोस्टाइल पत्रों के प्रकाशन से ब्रिटिश सरकार घबड़ायीं। उसने इस प्रकार के प्रकाशनों पर प्रतिबन्ध के लिये प्रेस-सम्बन्धी अध्यादेश की घोषणा की। यह अध्यादेश ‘अनएथराडज्ड न्यूजशीट ऐण्ड न्यूजपेपर्स ऑर्डिनेन्स 1930 नं. 7 ऑफ 1930’ के नाम से 2 जुलाई, 1930 को लागू किया गया।71 इसके अनुसार सरकारी अधिकारियों को तलाशी, उपर्युक्त प्रकार के वर्णित पत्र-पत्रिकाओं को जब्ती, उन्हें नष्ट करने और अघोषित छापाखानों को जब्त करने आदि का भी अधिकार प्रदान किया गया। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के इस दौर में भूमिगत एवं क्रान्तिकारी प्रकाशनों ने महत्त्वपूर्ण योगदान कर राष्ट्रीय आन्दोलन को अभूतपूर्व शक्ति, प्रेरणा एवं प्रोत्साहन दिया। सरकारी दमन और राष्ट्रीय आन्दोलन के उग्र प्रवाह में हिन्दी पत्रों ने सरकारी नीति की कटु आलोचना के साथ राष्ट्रीय आन्दोलन के संचालन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह किया। इसी समय प्रतिबन्धित पत्र ‘शंखनाद’ जैसे क्रान्तिकारी पत्र का जन्म हुआ।


सन् 1930 के प्रेस-ऑर्डिनेन्स की अवधि समाप्त हो जाने पर नवम्बर-दिसम्बर 1930 में पुन: पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। किन्तु प्रेस-सम्बन्धी दूसरे कानूनों के विरोध में सम्पादकीय टिप्पणियों का प्रकाशन स्थगित रखा। ब्रिटिश सरकार ने 23 दिसम्बर, 1930 को सरकार की ओर से प्रेस-सम्बन्धी एक और अध्यादेश ‘इण्डियन प्रेस ऐण्ड अनएथराइज्ड न्यूजशीट्स ऐण्ड न्यूजपेपर्स ऑर्डिनेन्स 10 ऑफ 1930’ की घोषणा की गयी जिसकी अवधि 22 जून, 1931 निश्चित की गयी,72 यद्यपि अधिकांश हिन्दी पत्रों ने नये प्रेस-अध्यादेश के विरुद्ध राजनीतिक प्रचार जारी रखा। 17 जनवरी के सप्ताहान्त में ‘चाँद’ ने भी सम्पादकीय टिप्पणियों का प्रकाशन स्थगित कर दिया। ‘सैनिक’ ने अपने सम्पादकीय के स्थान पर बड़े अक्षरों में लिखा—‘केवल स्वराज में ही जीवन है, दासता तो मृत्यु है। यदि तुम मरना चाहते हो तो दासता के साथ जुड़े रहो और यदि तुम जीना चाहते हो तो स्वराज के लिये कार्य करो।’ इसी पत्र में कुंवर मोहन सिंह चन्देल की एक कविता भी प्रकाशित हुई—‘युद्धभूमि में कूद पड़ो और शत्रु के हृदय में भय उत्पन्न कर दो। बहादुरो! अपने अन्दर जीवन-शक्ति का संचार करो और गुलामी की जंजीरों को तोड़ फेंको। युवकों! मातृभूमि के लिये अपना जीवन समर्पित कर दो, यदि मृत्यु होती है तो क्या हुआ?’73


हिन्दी पत्र ‘सैनिक’ ने अपने 29 दिसम्बर, 1930 के अंक में देशवासियों को विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिये आह्वान करते हुए लिखा—‘केवल विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार ही वह अस्त्र है जिससे हम अपने शत्रु के पेट पर चोट कर सकते हैं।’74 ‘सैनिक’ ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन के अन्य कार्यक्रमों के बारे में भी लिखना जारी रखा। 13 जनवरी और 6 फरवरी, 1931 के ‘सैनिक’ में ऐसे कई लेख और टिप्पणियाँ प्रकाशित हुईं जिनको आधार बना कर पुन: जमानत माँगी गयी।75 इस बार ‘सैनिक’ पत्र और इसके मुद्रक आदर्श प्रेस आगरा से भी 4 फरवरी, 1931 को दो-दो ह़जार रुपये की जमानत माँगी गयी।76 फलस्वरूप पत्र और प्रेस ने जमानत की राशि जमा न कर पुन: ‘सैनिक’ को बन्द कर दिया।


हिन्दी पत्रकारिता ने राजनीतिक उन्नयन की दृष्टि से इस दौर में भी न केवल अपनी गौरवशाली परम्परा को जीवित रखा, अपितु उसे सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा दिया। अनेकानेक प्रेस-सम्बन्धी कठोर कानूनों की मार सहते हुए भी पल-पल स्वतन्त्रता का घोष करना ही पत्र-पत्रिकाओं का इस दौर में गुरुमन्त्र बन गया। जून 1930 में साइमन कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। यही वह समय था जब भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन अपने लक्ष्य की ओर तीव्र गति से अग्रसर था। रिपोर्ट में औपनिवेशिक स्वराज्य की माँग की पूर्णत: उपेक्षा की गयी। प्रथम गोलमे़ज सम्मेलन के बहिष्कार की नीति कांग्रेस ने अपनायी, जिसका अनुसरण हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने भी किया। गोलमे़ज सम्मेलन और भारतीय प्रतिनिधियों के विरुद्ध उग्रवादी पत्रों का प्रचार यथावत् जारी रहा। 5 मार्च, 1931 को गाँधी-इरविन समझौता सामने आया, जिसके अनुसार सविनय अवज्ञा आन्दोलन अस्थायी रूप से स्थगित कर दिया गया। अगले सम्मेलन में कांग्रेसी भाग लेंगे—इसके अनुसार विदेशी वस्त्रों, मादक द्रव्यों के शान्तिपूर्ण एवं कानून की सीमा के अन्तर्गत बहिष्कार के लिये कांग्रेस को अनुमति दे दी गयी।77 समझौते के पश्चात् हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने पुन: अग्रलेख एवं सम्पादकीय लेखों को प्रकाशित करना प्रारम्भ कर दिया। समझौते पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए समाचार-पत्रों ने सामान्यतया इसका स्वागत किया, परन्तु दूसरे संघर्ष के लिये जनता के संगठित एवं तैयार रहने की अपील भी की।78


भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इसी दौर में दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ सामने आयीं, जिससे पूरे देश में उत्सर्ग एवं ब्रिटिश नौकरशाही के कुचक्र के प्रति क्रोध एवं क्षोभ की एक नयी लहर उमड़ पड़ी। 27 फरवरी, 1931 को चन्द्रशेखर आ़जाद को पुलिस-मुठभेड़ में वीरगति प्राप्त हुई।79 क्रान्तिकारी आन्दोलन के इस योद्धा की मृत्यु पर, यद्यपि उन दिनों पत्र-पत्रिकाओं ने नौकरशाही के दमन एवं प्रेस-सम्बन्धी कानूनों के विरोध में अग्रलेख और सम्पादकीय टिप्पणियाँ बन्द कर रखी थीं, फिर भी अधिकांश पत्रों के उक्त काण्ड पर कोई सम्पादकीय अभिमत किये बिना ही उक्त समाचार को प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फाँसी पर देश में व्यापक प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई। हिन्दी पत्रकारिता ने देश के जनमत के साथ ही इस घटना के प्रति गम्भीर दृष्टिकोण अपनाया। फाँसी की घटना को सभी हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने मोटे शीर्षकों में काला या सफेद हाशिया दे कर प्रकाशित किया। सम्पादकीय लेख लिखे गये, प्रशंसा एवं स्तुति में रचनाएँ प्रकाशित हुईं।


आगरा से प्रकाशित होने वाले पत्र ‘सैनिक’ ने अपने सम्पादकीय लेख में लिखा—‘भयानक! वज्र! हत्या! भारत माता के तीन प्रिय सपूतों की उसी की धरती पर हत्या कर दी गयी। देश के इन तीन वीर पुत्रों को बदले की भावना से मार डाला गया। यद्यपि स्वर्ग में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की सादर अगवानी हो रही है, किन्तु यह देश विषाद के भारी बोझ के नीचे दब गया है।’ आगे लिखा कि जब तक इस देश में क्रान्ति के बीज रहेंगे, भगत सिंह का आदर देश के महान् पुजारी के रूप में होता रहेगा। इस देश की आजादी के भवन की नींव इन्हीं शहीदों के त्याग पर रखी जायेगी। स्वराज्य का पौधा उनके पवित्र रक्त से सींचा जायेगा। वीर शहीदों! जब हम स्वतन्त्र हो जायेंगे, तभी तुम्हारी वास्तविक स्मृति स्थापित कर सकेंगे। इस समय हमारा हृदय हमारे नियन्त्रण से बाहर हो गया है। हमारी आवा़ज देश के कोने-कोने से आ रही आवा़ज के साथ है। भगत सिंह चिरंजीवी हों! क्रान्तिकारी चिरंजीवी हों।80 क्रान्तिकारी प्रकाशनों के कारण नौकरशाही ने न केवल पत्र-पत्रिकाओं को ही जब्त किया, वरन् क्रान्तिकारी एवं स्वातन्त्र्य आन्दोलन से सम्बन्धित साइक्लोस्टाइल एवं मुद्रित परचे, चित्र एवं बुलेटिन भी जब्त किये।


भगत सिंह और उनके साथियों की आत्माहुति से पूरा राष्ट्र तिलमिला उठा, जिसकी अभिव्यक्ति पत्र-पत्रिकाओं में परिलक्षित हुई। क्षुब्ध राजनीतिक वातावरण में, जबकि युवा-वर्ग में असन्तोष और क्षोभ की लहरें हिलोंरे उठ रही थीं और वह गाँधी-इरविन समझौते का विरोध कर रहा था, कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मार्च 1931 में कराची में हुआ। द्वितीय गोलमे़ज सम्मेलन के प्रति लोगों का दृष्टिकोण सन्दिग्ध एवं निराशावादी था। क्रांतिकारी पत्रों ने इस पर सन्देह व्यक्त किया कि सम्मेलन में महात्मा गाँधी के भाग लेने से कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त होगी। इन पत्रों ने जनता से सविनय अवज्ञा आन्दोलन के लिये पुन: तैयार रहने की अपील की।81 सविनय अवज्ञा आन्दोलन को यज्ञ की और अधिकारियों को इस यज्ञ में अवरोध पैदा करनेवाले दैत्य की संज्ञा देते हुए एवं किसानों तथा म़जदूरों को युद्ध के लिये ललकारते हुए ‘सैनिक’ ने लिखा—‘यह संघर्ष (युद्ध) तुम्हारे लिये लड़ा जा रहा है। इस युद्ध में अपना सब-कुछ बलिदान कर दो! तुम्हारा रक्त और मांस निचोड़ लिया गया है और अब यदि अपनी अस्थियों को बचाना है तो इस युद्ध में कूद पड़ो! यदि इस देश के 35 करोड़ में से एक भी व्यक्ति जीवित रहा तो स्वतन्त्रता का यह युद्ध चलता रहेगा। या तो हम नहीं रहेंगे या यह रक्त-शोषक सरकार नहीं रहेगी।’ 82


इस दौर में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने किसानों पर सरकारी अधिकारियों एवं ज़मीदारों के अत्याचारों के प्रति रोष व्यक्त किया है—इस सन्दर्भ में लेख और टिप्पणियाँ प्रकाशित कर अधिकारियों के कृत्यों की निन्दा की तथा किसानों को संघर्ष के लिये उत्प्रेरित किया। सितम्बर के अन्तिम दिनों में भारत की केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में पत्रों की स्वतन्त्रता को हरण करने वाला विधेयक प्रस्तुत किया गया जिसका विरोध करते हुए हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने लिखा कि यह स्वतन्त्र पत्रकारिता पर भारी आघात और दिल्ली-समझौते का उल्लंघन है। इस विधेयक के विरोध में पत्रों ने अपने सम्पादकीय स्तम्भ रिक्त छोड़ दिये। पत्र-पत्रिकाओं के व्यापक विरोध के बावजूद उक्त विधेयक कानून के रूप में ‘दि इण्डियन प्रेस (इमरजेंसी पॉवर्स) ऐक्ट 1931’ के नाम में 9 अक्टूबर, 1931 से भारतीय पत्रकारिता के सीने पर लाद दिया गया।83 इससे क्रांतिकारी खेमे के अधिकांश पत्रों ने अपने सम्पादकीय और टिप्पणियों के प्रकाशन को पुन: स्थगित कर दिया। यद्यपि सविनय अवज्ञा आन्दोलन और क्रान्ति का खुलेआम प्रचार शिथिल पड़ गया, फिर भी कुछ पत्र-पत्रिकाओं ने राजनीतिक और क्रान्तिकारी आदर्शों से मुक्त कहानियाँ प्रकाशित करना जारी रखा और कुछ ने साम्यवाद के समर्थन में आपत्तिजनक कविताएँ एवं लेख प्रकाशित किये।84 आन्दोलन के विराम के समय में भी ब्रिटिश सरकार की दमन-नीति की तलवार चलती रही। महात्मा गाँधी की गिरफ्तारी और सविनय अवज्ञा आन्दोलन के द्वितीय चरण में सरकारी दमनचक्र और ते़ज हो गया। 4 जनवरी, 1932 को चार नये अध्यादेश आये, जिनके अन्तर्गत किसी भी आन्दोलन से सम्बद्ध सभी गतिविधियों के दमन के लिये धाराएँ विहित थीं। 


सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समय सरकारी दमन का प्रभाव हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं पर भी पड़ा। पत्रों की स्वतन्त्रता पर प्रहार करने वाले कानून की धार और तेज हो गयी। परिणामस्वरूप अधिकांश हिन्दी पत्रों ने पुन: मौन धारण कर लिया और सम्पादकीय टिप्पणियाँ लिखना स्थगित कर दिया। परन्तु स्वतन्त्रता आन्दोलन के समाचार और लेख प्राय: प्रकाशित होते रहते थे। इस प्रकार के प्रकाशन जोखिम-भरे थे। ‘सैनिक’ के सम्पादक रमेश वर्मा को 12 जनवरी, 1932 के अंक में ‘पूर्णाहुति’ शीर्षक लेख के प्रकाशित करने के अपराध में एक वर्ष की कठोर कैद तथा दो सौ रुपये जुर्माना तथा जुर्माना न देने पर तीन माह के अतिरिक्त कारावास का दण्ड दिया गया।85


वस्तुत: दमन से विद्रोह और मुखर होता है। इसको हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने सार्थक कर दिखाया। स्वतन्त्र उपार्जन की अदम्य लालसा ने पत्र-पत्रिकाओं को कष्ट सहने की अद्भुत शक्ति और साहस प्रदान किया। उग्रवादी हिन्दी पत्र जिन्होंने 1932 में सम्पादकीय टिप्पणियाँ प्रकाशित करना बन्द कर दिया था, सन् 1933 में भी उन्होंने वही मार्ग अपनाया। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रत्यक्ष प्रचार के स्थान पर पत्र-पत्रिकाओं में साम्यवादी आन्दोलन ने स्थान ग्रहण कर लिया जो कुछ सीमा तक जवाहर लाल नेहरू के उस लेख से प्रभावित था, जिसमें उन्होंने विशेषाधिकारों की समाप्ति और निहित स्वार्थी तत्त्वों पर रोक का समर्थन किया था।86 6 फरवरी, 1934 के ‘वर्तमान’ के अंक में जवाहर लाल नेहरू के ‘पूवीं बंगाल में राजनीतिक भूकम्प’ लेख को प्रकाशित करने के अपराध में उक्त अंक सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया।87 साथ ही 1500 रुपये की जमानत माँगी गयी। ब्रिटिश दमनकारी नीति के फलस्वरूप भूमिगत क्रान्तिकारी पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ जिनमें आन्दोलन की गतिविधियाँ समाचारों के साथ ही आन्दोलन के प्रति जनता का उद्बोध करनेवाले अग्रलेख एवं कविताएँ भी प्रकाशित होती थीं। इसी दौरान ‘शंखनाद’ के सन् 1932-33 के प्राय: सभी अंकों को राजद्रोहात्मक बताते हुए जब्त कर लिया गया।88 इस काल में जब्त किये गये प्रकाशनों में एक नियतकालीन पत्र ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ का 18 नवम्बर, 1932 का अंक भी है, जिसे 1933 में जब्त कर लिया गया।89 फिर भी इस दौर में अनेक कष्टों को झेलते हुए हिन्दी पत्रकारिता ने अपने कर्त्तव्य का अद्भुत साहस के साथ पालन किया।


स्वतन्त्रता आन्दोलन के शान्तिकाल में भी ब्रिटिश सरकार का दमनचक्र जारी रहा। 15 अक्टूबर, 1935 के ‘अभ्युदय’ में पण्डित कृष्णकान्त मालवीय की ‘असेम्बली में वक्ता’ लेख प्रकाशित करने के अपराध में 10 जनवरी, 1936 के प्रान्तीय सरकार के आदेश से 2500 रुपये की जमानत माँगी गयी, जिसे ‘अभ्युदय’ ने जमा करने से इन्कार करते हुए 24 जनवरी, 1936 के अंक के बाद प्रकाशन स्थगित करने की घोषणा की।90 लेकिन इसके पूर्व ही ‘अभ्युदय’ पर एक और प्रहार हुआ और उसके 21 जनवरी, 1936 के अंक को सरकार ने जब्त कर लिया, जिसमें प्रकाशित तीन लेखों ‘लेनिन संसार-क्रान्ति का नेता’, ‘कम्युनिस्ट अन्तरराष्ट्रीय संघ का संस्थापक’, ‘भारतीय किसान क्यों भूखे मरने लगे?’ और ‘साम्यवादी का उसके आलोचकों को उत्तर’ को आपत्तिजनक मान कर जब्ती का आधार बनाया गया था।


सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समापन के पश्चात् जनता में कहीं अवसाद एवं निराशा न व्याप्त हो, इसका हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने सतत ध्यान रखा। उनका राजनीतिक स्वर प्राय: कांग्रेस की नीतियों एवं समाजवादी विचारों का प्रचार-प्रसार करना था। उग्रवादी प्रतिबन्धित हुए पत्रों में प्राय: क्रान्तिकारी भावनाओं को प्रदर्शित करने वाली कविताओं का बाहुल्य रहता था।


द्वितीय विश्वयुद्ध के आरम्भिक दौर से ही प्रेस-नियन्त्रण, युद्ध-जनित वित्तीय संकट एवं काग़ज की कमी के बावजूद हिन्दी पत्रकारिता के विकास की गति ते़ज रही। युद्ध-समाचारों एवं स्वातन्त्र्य आन्दोलन में कांग्रेस की नीतियों तथा राष्ट्रीय चेतना के प्रचार-प्रसार हेतु इस काल में सरकारी अवरोधों के बीच अनेक महत्त्वपूर्ण हिन्दी पत्रिकाओं का प्रकाशन आरम्भ हुआ। ‘विप्लवी ट्रेक्ट’ प्रसिद्ध क्रान्तिकारी यशपाल के ‘विप्लव’ पत्र का परिवर्तित रूप था, जो जून 1840 में प्रकाशित हुआ था। ‘विप्लव’ से मई 1940 में सरकार ने बारह ह़जार रुपये की जमानत माँगी थी। फलस्वरूप उक्त पत्र का प्रकाशन स्थगित कर ‘विप्लवी ट्रेक्ट’ प्रकाशित किया गया था।91 इस दौर की हिन्दी पत्रिकाओं ने भारतीय जनमत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद की युद्ध-नीति के विरुद्ध जनता को उद्वेलित कर स्वातन्त्र्य आन्दोलन के पथ पर अग्रसर करना था। यद्यपि ब्रिटिश हितों के विरुद्ध युद्ध-समाचारों के प्रकाशन पर सेन्सरनियम लागू  था, फिर भी कविताओं व लेखों के माध्यम से हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का ब्रिटिश युद्ध-विरोधी अभियान जारी था।


द्वितीय विश्वयुद्ध का काल भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को निर्णायक स्थिति में पहुँचानेवाला काल था। युद्ध के प्रारम्भ और उसके पश्चात् हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं द्वारा कांग्रेस की नीतियों के साथ सम्यक् दृष्टिकोण अपना कर युद्ध में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध भारतीय जनमत का जो निर्माण हुआ, वही 1940-41 और उसके पश्चात् के आन्दोलनों की पूर्व-पीठिका थी। युद्ध सम्बन्धी सामग्रियों के प्रकाशन पर कठोर प्रेस-सेन्सरशिप होने के बावजूद अपरोक्ष रूप में लेखों, कविताओं एवं टिप्पणियों के माध्यम से ब्रिटिश युद्धनीति का खुला विरोध करने की उपर्युक्त प्रक्रिया वस्तुत: पूर्ववर्ती आन्दोलनों में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं द्वारा किये गये योगदान का ही एक विशिष्ट रूप है।


कांग्रेस द्वारा व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन प्रारम्भ होते ही ब्रिटिश सरकार का दमन-चक्र पुन: पूर्ववत् शुरू हो गया। पत्रों की स्वतन्त्रता के विरुद्ध उसने पुन: कठोर नियम लागू किये। व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन के दौरान यद्यपि हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने सम्पादकीय अग्रलेख का प्रकाशन बन्द कर दिया था, तथापि आन्दोलन को उत्तेजना प्रदान करने हेतु समाचारों के प्रकाशन को जारी रखा। इसी प्रसंग में ‘स्वदेश’ (अलीगढ़) का विजयांक (7 अक्टूबर, 1940) भी उल्लेखनीय है जिसमें ‘माँ’ शीर्षक एक कविता में सत्याग्रही स्वयंसेवकों को भारत माता का सपूत सम्बोधित कर माँ से आशीर्वचन का अनुरोध किया गया है। सरकारी दमन-नीति का शिकार 1940-41 में सबसे पहले आगरा का ‘सैनिक’ हुआ जिसका इतिहास ब्रिटिश सरकार की घोर यातनाओं के विवरण के साथ सरकारी दस्तावे़जों में सुरक्षित है। ब्रिटिश सरकार उग्रवादी हिन्दी पत्रों से सदैव सशंकित रहती थी और उनके दमन के लिये विभिन्न उपाय करती रहती थी। परन्तु ‘सैनिक’ इन अवरोधों से विचलित नहीं हुआ। कर्त्तव्य के प्रति अदम्य उत्साह ने उसे पुनर्जीवन प्रदान किया और वह स्वातन्त्र्य युद्ध का एक महत्त्वपूर्ण सैनिक सिद्ध हुआ।


युद्ध की नयी परिस्थितियों में कांग्रेस ने सत्याग्रह आन्दोलन स्थगित कर दिया। 11 मार्च, 1942 की घोषणा पर क्रिप्स-योजना का विरोध करते हुए उन्होंने टिप्पणियाँ प्रकाशित कर अपना अभिमत व्यक्त किया। कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने योजना की अस्वीकृति का प्रस्ताव पेश किया। ब्रिटिश सरकार जो सदैव दमनकारी कानूनों की पोषक थी, प्रस्ताव को भारत की सुरक्षा के लिये हानिकर मानते हुए रक्षा-कानून की धारा 41 (1-B) के अन्तर्गत 28 अप्रैल, 1932 के आदेश द्वारा पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन पर प्रतिबन्ध लगा दिया।92 सरकार की उक्त कार्यवाही पुन: प्रेस की चुनौती देने वाली थी। ‘सैनिक’ ने सरकारी आदेश का उल्लंघन करते हुए कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्ताव को अपने 1 मई, 1942 के अंक में प्रकाशित कर दिया। फलस्वरूप 4 मई, 1942 के उत्तर प्रदेश सरकार के आदेश द्वारा ‘सैनिक’ (साप्ताहिक एवं दैनिक) के सम्पादक, प्रकाशक एवं मुद्रक को चेतावनी देते हुए उक्त प्रस्ताव को ‘सैनिक’ (साप्ताहिक एवं दैनिक) के अन्य संस्करणों में प्रकाशित करने, बिक्री करने अथवा प्रसार करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।93


क्रिप्स-योजना की असफलता और उसके सन्दर्भ में कांग्रेस को आरोपित करने से देश का राजनैतिक वातावरण पुन: नैराश्यपूर्ण हो गया। इससे गाँधी जी के विचारों में व्यापक परिवर्तन हुआ और उन्होंने ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का विचार सामने रखा। ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव स्वीकृत होने के साथ ही ब्रिटिश सरकारी की कांग्रेस और भावी आन्दोलन के दमन के निश्चय के परिप्रेक्ष्य में ही पत्र-पत्रिकाओं की शेष बची आ़जादी के दमन की योजना भी बन चुकी थी ब्रिटिश सरकार पूर्ववर्ती आन्दोलनों में पत्र-पत्रिकाओं की शक्ति को पहचान चुकी थी और उसकी शक्ति से भयभीत थी। इसकी पुष्टि 31 जुलाई, 1942 के भारत सरकार के मुख्य प्रेस-सलाहकार के ‘गोपनीय मेमोरण्डम’ से होती है, जिसमें समाचार-पत्रों और समाचार-एजेंसियों को चेतावनीपूर्ण स्वर में सलाह दी थी कि वे आन्दोलन का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करने वाले लेख-वक्तव्यों के प्रचार-प्रसार से विरत हों।94


8 अगस्त, 1942 को ब्रिटिश सरकार ने आज्ञापूर्वक मुद्रक, प्रकाशक या सम्पादक द्वारा ऐसे समाचारों के प्रकाशन पर रोक लगा दी, जो अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी द्वारा स्वीकार किये गये जनान्दोलन के विरुद्ध सरकार द्वारा की गयी कार्यवाहियों के बारे में हो। यह सरकारी आज्ञा स्पष्ट रूप से कांग्रेस के भावी आन्दोलन के दमन के लिये निकाली गयी थी। इसके साथ ही महात्मा गाँधी के भाषणों को प्रकाशित करने पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया।95 13 अगस्त, 1942 के ब्रिटिश सरकार के आदेशानुसार ‘भारत रक्षा कानून’ की धाराओं के तहत आन्दोलन-सम्बन्धी प्रकाशनों की जब्ती का अधिकार प्रान्तीय सरकारों को प्रदान कर दिया गया। दमनचक्र की इस प्रक्रिया में बाद में समाचार-पत्रों में आन्दोलन-सम्बन्धी फोटो, चित्र, रिपोर्ट्स आदि के प्रकाशन पर भी रोक लगा दी गयी।96 भूमिगत एवं अनधिकृत पत्रों के प्रकाशन पर पूर्णत: प्रतिबन्ध लगा दिया गया।


ब्रिटिश सरकार द्वारा पत्र-पत्रिकाओं की स्वतन्त्रता तथा आन्दोलन के दमन हेतु किये गये विभिन्न उपायों से समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता का गला पूर्ण रूप से घोंट दिया गया। सरकारी दमन-नीति के विरोध में देश के प्रमुख राष्ट्रवादी पत्रों ने अपना प्रकाशन 16 अगस्त से 6 सितम्बर, 1942 तक स्थगित रखा। सन् 1942 के पूर्व ही ऐसी परिस्थितियाँ बन चुकी थीं कि स्वतन्त्र और राष्ट्रीय विचार व्यक्त करना असम्भवप्राय हो गया था। एक बार फिर भूमिगत साइक्लोस्टाइल पत्रों की बाढ़-सी आयी। 1942 के जनान्दोलन की अग्नि अभी ठण्डी नहीं हो पायी थी कि इसी समय दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज के सैनिकों ने जिस वीरता के साथ भारतीय स्वतन्त्रता के उद्योग में ऐतिहासिक भूमिका निभायी, वह भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन की अविस्मरणीय घटना है। सितम्बर 1945 में समाचार-पत्रों से सेन्सर पूर्ण रूप से उठा लिया गया। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने इस अवसर पर नेता जी एवं फौज की शौर्य गाथाओं से परिपूर्ण अनेक विशेषांक निकाले। इस काल में फौज के समर्थन में ‘अभ्युदय’ ने विशेष अभियान चलाया। ‘अभ्युदय’ का इस सन्दर्भ में सबसे अविस्मरणीय अंक 6 मई, 1946 है। स्वतन्त्रता-संघर्ष के अन्तिम दौर में जबकि साम्प्रदायिक एकता प्राय: नष्ट हो गयी थी, हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का चरित्र राष्ट्रीयता एवं साम्प्रदायिक एकता से परिपूर्ण था।


भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के अन्तिम दौर में सदैव की भाँति अधिकांश हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने भारत-विभाजन के विरुद्ध रोषपूर्ण शब्दों में अपने उद्गार व्यक्त किये। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के इस दौर के अंकों के सर्वेक्षण से इस तथ्य को बल मिलता है कि अन्त तक वे साम्प्रदायिकता और भारत-विभाजन के विरुद्ध संघर्षरत थीं। भारत-विभाजन के साथ ही अंग्रेजी दासता से मुक्ति के लिये प्रारम्भ भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन, 1947 में स्वतन्त्रता-प्राप्ति के साथ समाप्त हुआ। 1939-47 का दौर हिन्दी पत्रकारिता के लिये अत्यधिक त्रासदी, अभाव और घोर यातनाओं का काल रहा। साथ ही उत्तरदायित्व का भारी बोझ भी था। हिन्दी पत्रकारिता ने इस दौर में भी अपने राष्ट्रीय चरित्र को बनाये रखा और स्वतन्त्रता आन्दोलन में एक प्रमुख उत्प्रेरक तत्त्व के रूप में भारतीय मानस की प्रेरणा का स्रोत बन कर अपनी आहुतियाँ दीं। साम्प्रदायिकता का विरोध किया। और एक आज़ाद भारत की स्थापना पर जोर दिया। अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्वों के प्रति जागरूकता का परिचय दिया। 

                                                               

 


सन्दर्भ 


1. बर्ड जार्ज एम. (सम्पादित)—दि प्रेस ऐण्ड सोसायइटी, पृ. 46.

2. मार्टिग किंग्सले—दि प्रेस—दि पब्लिक वाइस, पृ. 140.

3. इण्टरनेशनल डिक्शनरी ऑफ थाट्स, पृ. 527.

4. वूल्जले रोलेण्ड ई.-जर्नलिज्म इन माडर्र्न इण्डिया, पृ. 8.

5. हेमेन्द प्रसाद घोष—दि न्यूजपेपर्स इन इण्डिया, पृ. 39.

6. एस. नटराजन—ए हिस्ट्री ऑफ दि प्रेस इन इण्डिया, पृ. 16.

7. बार्न्स मारग्रेटा—दि इण्डियन प्रेस, पृ. 74 राबटर््स बी. ई.—वेलेजली के अधीन भारत, पृ. 163-64.

8. बार्न्स मारग्रेटा—दि इण्डियन प्रेस, पृ. 74-75.

9. हेमेन्द्र प्रसाद घोष—दि न्यूजपेपर्स इन इण्डिया, पृ. 20.

10. बार्न्स मारग्रेटा—दि इण्डियन प्रेस, पृ. 89.

11. ई. आर. देसाई—सोशल बेकग्राउण्ड ऑफ इण्डियन नेशनलिज्म, पृ. 212.

12. हिस्ट्री ऑफ दि प्रेस लेजिसलेशन इन इण्डिया—दि माडर्न रिव्यू, अगस्त 1923, खण्ड 14, पृ. 133.

13. बार्न्स मारग्रेटा—दि इण्डियन प्रेस, पृ. 115.

14. एस. नटराजन—ए हिस्ट्री ऑफ दि प्रेस इन इण्डिया, पृ. 47.

15. डी. एन. पाणिग्रही—चार्ल्स मेटकाफ इन इण्डिया, पृ. 213.

16. बार्न्स मारग्रेटा—दि इण्डियन प्रेस, पृ. 252.

17. वही, पृ. 256.

18. वही, पृ. 262.

19. वही, पृ. 280.

20. एस. नटराजन—ए हिस्ट्री ऑफ दि प्रेस इन इण्डिया, पृ. 341.

21. बार्न्स मारग्रेटा—दि इण्डियन प्रेस, पृ. 276.

22. आर. पी. दुआ—दि इंपैक्ट ऑफ दि रा—जैपनी़ज (1905) वार आन इण्डियन पालिटिक्स.

23. रिपोर्ट ऑफ द सेडीशन कमेटी, 1918, पृ. 1-10.

24. आर. सी. मजूमदार—हिस्ट्री ऑफ दि प्रâीडम मूवमेण्ट, खण्ड 2, पृ. 254.

25. का. से. न्यूजपेपर्स, यू. पी. सप्ताहान्त 7 एवं 19 अप्रैल, 1919, पृ. 129-131.

26. वही.

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28. स्वदेश, 20 अप्रैल, 1919.

29. होम पुलिस (सं.) फाइल 274/1919, पृ. 339, उ. प्र. अभिलेखागार.

30. स्वदेश, 27 अप्रैल, 1919.

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32. एस. नटराजन—ए हिस्ट्री ऑफ दि प्रेस इन इण्डिया, पृ. 174.

33. वी. एन. दत्त—जलियांवाला बाग, पृ. 51.

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36. होम पुलिस (ए.) फाइल 274/1919, पृ. 559, उ. प्र. अभिलेखागार.

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38. एस. नटराजन—ए हिस्ट्री ऑफ दि प्रेस इन इण्डिया, पृ. 190-91.

39. होम पुलिस (ए.) फाइल 740/1921, पृ. 24, उ. प्र. अभिलेखागार, लखनऊ.

40. वही, पृ. 26.

41. स्वदेश, 14 नवम्बर 1920, सम्पादकीय टिप्पणी.

42. वर्तमान, 23 जनवरी 1921, द्रष्टव्य—कांग्रेस सेशन न्यूज पेपर्स, यू. पी. 1921, पृ. 40.

43. वही, 26 जनवरी 1921, पृ. 52.

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46. कान्फिडेन्शियल नोट प्रेस, यू. पी., सप्ताहान्त फरवरी, 1924.

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50. चाँद, फरवरी 1928, पृ. 434-36.

51. स्टेटमेण्ट ऑफ न्यूजपेपर्स, यू. पी. 1924, होम पॉलिटिकल फाइल 204-4/1925, भारतीय

 राष्ट्रीय अभिलेखागार, दिल्ली.

52. रामरतन भटनागर—दि राइज ऐण्ड ग्रोथ ऑफ हिन्दी जर्नलिज्म, पृ. 389.

53. कान्फिडेन्शियल नोट प्रेस, यू. पी., सप्ताहान्त 31 मई, 1924.

54. स्वदेश, 9 दिसम्बर, 1928.

55. वही, 28 जुलाई, 1929.

56. स्वदेश, 28 जूलाई, 1929.

57. कान्फिडेन्शियल नोट प्रेस, यू. पी., सप्ताहान्त 21 सितम्बर, 1929.

58. स्वदेश, 22 सितम्बर, 1929.

59. कान्फिडेन्शियल नोट प्रेस, यू. पी., सप्ताहान्त 5 अक्टूबर, 1929.

60. पुलिस का. 44/1929, उ. प्र. अभिलेखागार, लखनऊ.

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62. स्वदेश, 29 जनवरी, 1928.

63. कान्फिडेन्शियल नोट प्रेस, यू. पी. सप्ताहान्त, 4 फरवरी, 1928.

64. चाँद, जून, 1929, पृ. 251.

65. कान्फिडेन्शियल नोट प्रेस, यू. पी. सप्ताहान्त, 18 जनवरी, 1930.

66. कान्फिडेन्शियल नोट प्रेस, यू. पी. सप्ताहान्त, 18 जनवरी, 1930, 1 फरवरी 1930.

67.  दि कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गाँधी, खण्ड 43, मार्च-जून 1930, पृ. 352.

68. चाँद, जून, 1930, पृ. 127.

69.  पट्टाभि सीतारमैया, कांग्रेस का इतिहास, भाग 1, पृ. 317-18.

70.  कान्फिडेन्शियल नोट प्रेस, यू. पी. सप्ताहान्त, 24 एवं 31 मई, 1930.

71.  होम पॉलिटिकल फाइल 503/3/1930, पृ. 8-10, भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार एवं पुलिस फाइल 1124

/1930, उ. प्र. अभिलेखागार.

72.  पुलिस फाइल 3589/1931, पृ. 319, उ. प्र. अभिलेखागार.

73.  पुलिस फाइल 1578/1934, उ. प्र. अभिलेखागार.

74. वही

75. वही

76. वही

77.  पट्टाभि सीतारमैया, कांग्रेस का इतिहास, भाग 1, पृ. 347-51.

78.  कान्फिडेन्शियल प्रेस नोट, यू. पी. सप्ताहान्त, 14 मार्च, 1931.

79.  वही, 28 मार्च, 1931.

80.  वही, 12 सितम्बर, 1931.

81.  वही, 12 सितम्बर, 1931.

82.  पुलिस फाइल 1589/1931, पृ. 321. (उ. प्र. अभिलेखागार)

83.  पुलिस फाइल 1589/1931, पृ. 63-77. (उ. प्र. अभिलेखागार)

84.  वही, पृ. 323.

85.   होम पॉलिटिकल फाइल 196/1933, भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार.

86. मेमोरण्डम आन न्यूजपेपर्स, यू. पी. 1933, पृ. 3, होम पॉलिटिकल फाइल 53/1/193, भा.

 रा. अभिलेखागार

87. पुलिस फाइल 1529/1934, पृ. ४१. (उ. प्र. अभिलेखागार)

88. होम पॉलिटिकल फाइल— 149/1932, 207/1932, 208/1932, 48/1/1933 भा. रा. अभिलेखागार

89. पुलिस फाइल 1107/1934, उ. प्र. अभिलेखागार

90. पुलिस फाइल 1589/1931, पृ. 329, उ. प्र. अभिलेखागार

91. होम पॉलिटिकल फाइल 36/1/1936, पृ. 28.

92. रामरतन भटनागर—दि राइज ऐण्ड ग्रोथ ऑफ हिन्दी जर्नलिज्म, पृ. 459.

93. होम पॉलिटिकल (आई) फाइल 4121/1942, पृ. 6, भा. रा. अभिलेखागार

94. वही, फाइल 33/15/1942, पृ. 2, भा. रा. अभिलेखागार

95. वही, फाइल 3/13/42, पार्ट-1 पृ. 28, भा. रा. अभिलेखागार

96. दि गजेट ऑफ इण्डिया एक्स्ट्रा आर्डिनरी, 8 अगस्त, 1942 (गृह विभाग)

97. होम पॉलिटिकल (आई) फाइल 3/13/42 (गृह विभाग)

98. वही, पृ. 146.



सम्पर्क                   

प्रोफेसर, 

हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग         

इलाहाबाद विश्वविद्यालय. 

प्रयागराज 


मोबाइल : +91 8004926360 

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