सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'महात्मा गाँधी : मूल्यों की संघर्ष कथा'

 




गांधी जी ऐसे व्यक्तित्व हैं, जो अपनी मृत्यु के पश्चात कुछ और ही प्रासंगिक होते गए हैं। केवल भारत ही नहीं बल्कि वैश्विक संदर्भों में भी गांधी जी जीवन्त हैं। लेकिन दुखद पहलू यह है कि हम उनके दिखाए रास्ते पर नहीं चल पाए। देश में भाई भतीजावाद और भ्रष्टाचार चरम पर है। आज उनके कसीदे काढ़े जा रहे हैं जिन्होंने गांधी की हत्या कर दी थी। पहले गांधी जी की हत्या की गई अब उनके विचारों की हत्या करने की पुरजोर कोशिशें की जा रही हैं। यह भयावह है। लेकिन दुनिया में जब तक असमानता है, ऊंच नीच की भावना है, निरंकुशवाद है, भ्रष्टाचार है, तब तक गांधी की उपादेयता बनी रहेगी। महात्मा गाँधी के जज्बे को उनके इस कथन से बेहतर समझा जा सकता है 'मौत के बीच ज़िंदगी अपना संघर्ष जारी रखती है। असत्य के बीच सत्य भी अटल खड़ा रहता है। चारों ओर अंधेरे के बीच रौशनी चमकती रहती है।' सेवाराम त्रिपाठी उचित ही लिखते हैं "प्रासंगिकता तो बहुत घिसा-पिटा शब्द  हो चुका है। प्रासंगिकता हत्यारे की भी सिद्ध की जा सकती है और सिद्ध भी कर दी गई। इस दौर में हत्यारों, अपराधियों, तड़ीपारों, झुट्ठों और गारंटीवीरों की प्रासंगिकता की निशानदेहियां हो रही हैं। उन्हें पदक सौंप दिए गए। मनुष्यता, नैतिकता, सरोकारों-उम्मीदों, लक्ष्यों और मूल्यों को ठिकाने लगाया जा रहा है। तब भी हम गांधी के नैतिक मूल्यों को पुनः ख़ोज रहे हैं। इस दौर में आचरण की सभ्यता बुरी तरह लहूलुहान है। फिर भी उनकी सृजनात्मक क्षमता और सच्चाई की खोज की जा रही  है।" आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'महात्मा गाँधी :  मूल्यों की संघर्ष कथा'।



'महात्मा गाँधी :  मूल्यों की संघर्ष कथा'


सेवाराम त्रिपाठी


“मैं उस हिंदुस्तान के लिए काम करूंगा, जिसमें गरीब से गरीब भी यह महसूस करेगा कि यह उसका देश है और जिसके निर्माण में उसकी खुद की कारगर आवाज़ है। ऐसा हिंदुस्तान, जिसमें सारी जातियां आपसी मोहब्बत के साथ रहेंगी …ऐसे हिंदुस्तान में छुआछूत या नशे के अभिशाप के लिए कोई भी जगह नहीं हो सकती।… स्त्रियों को भी वही अधिकार प्राप्त होंगे जो पुरुषों को हैं .. जिस हिंदुस्तान का मैं सपना देखता हूँ, वह यह है।” 

-महात्मा गाँधी


यह हैं गाँधी जी के विराट परिप्रेक्ष्य और उनकी चिंतनधारा का फ़लक। यह वर्ष 2025 का समय है जिसमें नेपथ्य के मार्फ़त कुछ भी कहते रहिए लेकिन उसकी हक़ीक़त एकदम भिन्न है और एकदम साफ़ भी है। दोगलापन प्रायः हर आदमी की छाती पर सवार है जो लपकन-झपकन के शिकार हैं। इस आचरण विपर्यय के कारण लिखइया-पढ़इया और छाती ठोक कर दम भरने वाले, अर्थहीन भाषणों की धारा बहाने वाले प्रवीण, मूल्यों, सरोकारों और नैतिकताओं से खलास हो चुके हैं। केवल उनकी इच्छाएं धमाचौकड़ी कर रहीं हैं और शान के साथ बज रही हैं। उनके मन का गर्दों गुबार औंधा - सरका हो रहा है और उनका हर तरह का चाई माई भी अली गोल के मैदान में नपुंसक वेश में घूमने के लिए अभिशप्त है। जन आंदोलन, आज़ादी, जनतंत्र, मनुष्यता और मूल्यों को सत्ताओं और मठाधीशों ने कठघरे में  क़ैद कर दिया है। वे गाँधी, आज़ादी, जनतंत्र और मानवता को खेल तमाशे में बदलने की अनवरत कोशिश कर रहे हैं। गाँधी का रास्ता सत्य, जन आंदोलन और शुचिता का रास्ता रहा है। गाँधी का रास्ता आचरण और हक़ीक़त का रास्ता है। आज के दौर में जिसको निरंतर कुचला जा रहा है, बधिया बनाया जा रहा है।


हमारे देश के परिवेश और पर्यावरण में घृणा, नफ़रत और असहिष्णुता के झूठ का तिलिस्म रचा जा रहा है। अंदर कुछ और है और हक़ीक़त में कुछ और। समूची शुचिताएं, अपवत्रिताओं से पाटी जा रही हैं और जागृत विवेक को बंधक बना लिया गया है। हर महत्वपूर्ण व्यक्तित्व का यही हाल है और यही उसका कथानक भी है। विवेकानंद, भगत सिंह, आंबेडकर, दलित अस्मिताएं, स्त्री अस्मिताओं को दरकिनार कर दिया गया है और ज्योतिबा फुले  की सोच समेत सभी चीज़ें सत्ता की सीढ़ियां हो चुके हैं। महात्मा गाँधी के बरक्स एक रास्ता भगत सिंह की ओर खुलता है। कई तरह के रास्ते समय समाज के अंतर्द्वंद्वों से हो कर जाते हैं। कभी भी रास्ता एक नहीं हो सकता। उद्देश्य एक हो सकता है लेकिन पहुंचने के तरीक़े, माध्यम और रास्ते भिन्न होते हैं। इस दौर में सत्य, अहिंसा और मनुष्यता का एक विशेष उद्देश्य है। दूसरी ओर झूठ, हिंसा, नफ़रत, असहिष्णुता और लंबी-लंबी फेंकने के कई आयाम खुले हुए हैं और सत्ता व्यवस्था क्रूरता में जमे रहने के जाहिरा उद्देश्य के साथ काम कर रही है।  शुचिता की आवाज़ को सत्ताओं ने अपने तई ख़त्म कर दिया है और विरोध - प्रतिपक्ष की भूमिका को राष्ट्रद्रोह में तब्दील कर दिया है।


महात्मा गाँधी के क़द, उनकी वैचारिक दृढ़ता, जीवन जीने के तौर-तरीकों और उनकी संकल्पशीलता को जानना बहुत सहज नहीं हैं। वे साधारण में असाधारण  थे और व्यापक संदर्भों में असाधारण में साधारण। मूल्यों को जानने-पहचानने और उसका प्रयोग करने में एकदम लौह और असाधारण। कोई भी लोभ, लालच उनको टस से मस नहीं कर पाया। इक्कीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में हम उन्हें फिर से नए सिरे से खोज रहे हैं। उनके नाम पर न जाने क्या-क्या किया जा रहा है। गाँधी का ढकोसला करने वाले अभी भी कुछ न कुछ अजीबो-गरीब कर रहे हैं। ये गाँधी के नाम पर ठगी करने वाले उत्सव पुरुष हैं। उनके दोगलेपन की कोई सीमा रेखा नहीं है। यूँ तो 30 जनवरी 1948 को वे इस दुनिया से विदा हुए थे। नफ़रत, घृणा, कट्टरताओं और संकीर्णताओं के पले-पुसे खतरनाक इरादों ने उनके जीवन का अंत कर दिया था। देश इस दौर में कट्टरता, वैमनस्य, घृणा और असहिष्णुता की आंधियों तूफ़ानों के बीच है। इसी तरह इधर दस-बारह वर्षों से गाँधी के नैतिक मूल्यों सरोकारों और यथार्थ के मध्य उन पर फिर से खोज शुरू हुई है। 


उनकी नैतिक आवाज़ को पहचानने के प्रयास नए सिरे से किए जा रहे हैं। उनके यथार्थ को गहराई से खोजा जा रहा है। इंटरनेट के अनेक माध्यमों से उन्हें खूब पढ़ा जा रहा है, गुना जा रहा है। अनुभव किया जा रहा है और उन पर विचार और पुनर्विचार  भी। इसके कारण हमारे समय में घट रही घटनाओं और कार्रवाइयों में स्पष्ट रूप से देखे जा सकते  हैं। कुछ इरादे दिखाने के प्रदर्शन करने के लिए होते हैं उनको इगनोर करते हुए भी शीश झुका रहे हैं और उनकी हत्या में संलग्न लोगों को भी शीश नवाने में लगे हैं। यह अलग तरह का छल-छद्म और मायाजाल है। क्या कीजिएगा संकीर्णताएं, नफ़रतें अपने असली रूप में नए ताने-बानें रच रही हैं। गाँधी जी ने सत्य, अहिंसा और मनुष्यता का एक अन्यतम रास्ता चुना था और अपनाया भी था। आचार्य जे. बी. कृपलानी ने कुछ सवाल उठाए थे। उसके जवाब में गांधी जी ने कहा था- “प्रोफेसर, कुछ लोग इतिहास पढ़ाते हैं और कुछ लोग इतिहास बनाते हैं। जब इतिहास बन जाता है तो, आपके जैसे लोग उसे पढ़ाने लगते हैं। हर नई बात पहले 'नॉन-प्रैक्टिकल' लगती है, लेकिन जब वह फलित होती है, तो वही भविष्य की 'प्रैक्टिकल सच्चाई' बन जाती है।”


प्रासंगिकता तो बहुत घिसा-पिटा शब्द  हो चुका है। प्रासंगिकता हत्यारे की भी सिद्ध की जा सकती है और सिद्ध भी कर दी गई। इस दौर में हत्यारों, अपराधियों, तड़ीपारों, झुट्ठों और गारंटीवीरों की प्रासंगिकता की निशानदेहियां हो रही हैं। उन्हें पदक सौंप दिए गए। मनुष्यता, नैतिकता, सरोकारों-उम्मीदों, लक्ष्यों और मूल्यों को ठिकाने लगाया जा रहा है। तब भी हम गांधी के नैतिक मूल्यों को पुनः ख़ोज रहे हैं। इस दौर में आचरण की सभ्यता बुरी तरह लहूलुहान है। फिर भी उनकी सृजनात्मक क्षमता और सच्चाई की खोज की जा रही  है। अशोक वाजपेयी की एक कविता का अंश पढ़ें- 


“वही थोड़ा सा आदमी 

जिसे खबर है कि वृक्ष अपनी पत्तियों से गाता है अहरह एक हरा गान

आकाश लिखता है 

नक्षत्रों की झिलमिल में एक  दीप्त वाक्य

पक्षी आंगन में बिखेर जाते हैं एक अज्ञात व्याकरण 

वही थोड़ा-सा आदमी

अगर बच सका 

तो वही बचेगा।” 


यह हमारे लिए बहुत बड़ा विश्वास भी है और आश्वासन भी। चाहें तो इसे आप एक सपना भी कह सकते हैं? ऐसे तमाम सपनें हमें निरंतर देखने चाहिए़। चाहें तो  भविष्य की खुली हुई दिशाएं भी कह सकते हैं। लेकिन कुछ न कुछ तो ज़रूर है लेकिन असंभव होते हुए भी एक बहुत बड़ी संभावना है।


युवावस्था में गांधी


महात्मा गाँधी के शब्दों पर ध्यान दें - “जो अपने विरोधियों से भी नफ़रत न करे वही सच्चा देशभक्त होता है।” गाँधी कोई दूर की कौड़ी नहीं खोजते हैं बल्कि इसी भारतीय जीवन, सांस्कृतिक छवि, आज़ादी और लोकतंत्र की हक़ीक़त के साथ रहते हैं, जिसे रिकॉर्ड के तौर पर हम लगातार इस्तेमाल कर रहे हैं और उनके जीवन-मूल्यों, विश्वासों को यथार्थ की जगह सपना बनाने में जुटे हैं। गाँधी-गाँधी कहने वाले दोगले उनके मूल्यों, सरोकारों, नैतिकताओं और आचरणों की रोज़-रोज़ हत्या कर रहे हैं और गाँधी के यथार्थ को, उनकी वैचारिकताओं को गोलियों से भून रहे हैं। ज़ाहिर है कि हमारा दोगला मनोविज्ञान हक़ीक़त को नष्ट करने में लगा है। गाँधी के मूल्य और निष्ठाओं को उनके सत्य, अहिंसा और सविनय अवज्ञा को लगभग नेस्तनाबूद करने पर तुला हुआ है। एक दक्षिणमुखी संकीर्णताओं, तर्कहीनताओं में डूबा मनोविज्ञान। हालांकि गांधी की नैतिक आवाज़ को किसी भी सूरत में न मारा जा सकता और न ख़त्म ही किया जा सकेगा। भ्रष्टाचार, महाझूठ और क्रूरता-कट्टरता की फसलें लहलहा रही हैं। गाँधी के बंदर सब कुछ देख रहे हैं। यथार्थ यह भी है कि जनता को  लगभग तमाशबीन बना दिया गया है। उसके जीवंत यथार्थ को प्रलोभनों से कुचला जा रहा है।


सुधीर चंद्र की पुस्तक है- 'गाँधी एक असम्भव संभावना'। उसका एक अध्याय है गाँधी के दुःख। गाँधी ने लिखा है- 'जब मैं अपनी आवाज़ उठाता हूँ तो कौन सुनता है।’' गाँधी के दुःख का कैनवास बहुत बड़ा है। उनके रहते और उनके जाने के बाद एक महादुःख है। हमारे जीवन में जो खोखलापन है और अपने को महान मानने और बनाने का बाकी सभी की अवहेलना करने का एक विशेष रूप विकसित हुआ है। जो चरम व्यक्तिवाद के रूप में पनपा है। उससे कौन बचा है? राजनीतिज्ञ, सामाजिक-सांस्कृतिक, अंधधार्मिकता के पैरोकार, अनेक साहित्य और कलाओं की दुनिया में काम करने वाले, कुछ कूढ़ मगज सयाने। वे सब इसी घेरे में हैं। सुधीर चंद्र का एक कथन स्मरणीय है- “गाँधी का कहा याद करते हुए- मेरे दुःख की कथा देश की दुःख कथा है- इच्छा होती रही कि इस अध्याय का शीर्षक रखूं - 'देश की दुःख कथा’। पर किसी दूसरे के कहने से तो कोई दुःख देश का दुःख हो नहीं जाता, दुःख तो महसूस होता है। न हो महसूस या सुख लगे, आनंद दे, तो दुःख कैसा? सो लगा कि बात तो गाँधी के दुखों को है, भले ही इन दुखों में किसी भूले-भटके को देश के या समूची मानव जाति के भी दुःख दिख जाए।” (गांधी एक असंभव संभावना - पृष्ठ-37)


महात्मा गाँधी का क़द दिन-प्रतिदिन बड़ा होता जा रहा है। गाँधी को शरीर से तो मारा गया लेकिन उनके विचारों को और मूल्यों का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वे निरंतर प्रासंगिक और अर्थवान होते जा रहे हैं। जो उन्हें नष्ट करने की कोशिश करेगा, वह स्वयं उखड़ जाएगा और अंततोगत्वा नष्ट हो जाएगा। यह भी सच है कि महात्मा गाँधी को नष्ट करने के जितने प्रयत्न किए गए, वे उतने ही मज़बूत हुए हैं। उनका कोई बाल बांका भी नहीं कर सकता? क्योंकि उनके यहाँ सिद्धांत और व्यवहार में कोई फाँक नहीं है। गाँधी जितने सिद्धांतों में हैं उसी अनुपात में व्यवहार में भी हैं। उनके यहाँ कोई द्वैत नहीं है। उनकी प्रासंगिकता लगातार भारत ही नहीं बल्कि  समूची दुनिया में बढ़ी है और बढ़ रही है। क्रूरता के ख़िलाफ़, अहिंसा और झूठ के ख़िलाफ़, सच्चाई, मूल्यहीनता के बरक्स मूल्यवादिता उनकी स्थाई और अमूल्य धरोहर हैं। गाँधी की निडरता ने बड़ों-बड़ों को झुकाया है और झुकाया ही नहीं बल्कि आश्चर्य में भी डाल दिया है। उनकी लंगोटी, लाठी और चश्मा प्रतीक बने। चश्मा स्वच्छता का प्रतीक बना दिया गया है। इसका सच सभी को पता है कि स्वच्छता की वास्तविकता क्या है? उसके भीतर भयानक घपले भी पलते हैं. भ्रष्टाचार की भी कई परतें हैं और कई तरह के झूठ भी बहते हैं। बहारहाल जो है वो है। नागरिक भी उस रहस्य को जान-पहचान गए हैं।


भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में महात्मा गाँधी हमारे देश की नैतिक एवं पवित्र आवाज़ रहे हैं। इसी आंदोलन ने सत्य, अहिंसा, दृढ़ संकल्प और विश्वास दिया। जिसकी स्वर लहरियां समूची दुनिया में पहुंची। और कायदे से सुनी गईं। अहिंसा और सच्चाई को उन्होंने आसमां से ज़मीं पर उतारा।  वे उसे सिद्धांत से जीवन व्यवहार में लाए। हमारे दैनिक जीवन में रस की तरह घोलते रहे। गुलामी के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता की लड़ाई में हिंसा, अन्याय, कुकर्म और विरोधाभास को राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय छितिज पर सोती हुई दुनिया को  अपनी निष्ठा और आचरण से भरपूर जगाया और चौंकाया भी। यानी असंभव को संभव बनाने का भरपूर प्रयास किया। गाँधी जिन मूल्यों को पाने के लिए ज़िंदगी भर लड़ते रहे, कभी हारते रहे, कभी जीतते रहे। लेकिन उनका यह काम बिना थके चलता रहा। हार-जीत तो हमारी ज़िंदगी भर होती  ही है। हारा हूँ सौ बार लेकिन लड़ा हूँ की तर्ज़ पर। वे उन्हें पाने के लिए बार-बार लड़ते रहे। यह कोई आसान काम नहीं था। गाँधी जी हर भेदभाव, असमानता, कुरीतियों के ख़िलाफ़ लड़े। यह बहादुरी, निष्ठा, शक्ति, मूल्यों को हासिल करने की सक्रियता और बिना जान जोखम में डाले किसी भी सूरत में  संभव नहीं हो पाती है। महादेवी वर्मा ने गांधी का मूल्यांकन लेनिन से करते हुए एक महत्वपूर्ण बात रेखंकित की है - “अपनी-अपनी दिशा में सत्य के प्रयोग करने वाले गांधी और लेनिन दोनों आकृति में सामान्य जन के प्रतिनिधि थे। न उन्हें विशालकाय शरीर मिला था, न असाधारण सुंदर रूप .. कुछ कृश लंबी और इस्पाती स्नायुजाल से किसी उज्जवल श्याम वर्ण देह को देख कर लगता था, मानो किसी सांचे ढली लौह प्रतिमा को ज्वाला से धो कर स्वच्छ कर दिया गया हो।”


हमें चिंतित नहीं होना चाहिए। महात्मा गांधी ज़िंदा हैं अपनी विचार यात्रा में, भाव यात्रा में और  कर्मयात्रा में लेकिन हमारे मन, वचन और कर्म में उनकी उपस्थिति लगभग नहीं के बराबर हैं। सरकार के नुमाइंदे उन्हें फूल माला पहनाते हैं लेकिन उन्हें म्यूजियम में सुरक्षित रखने में ज़्यादा विश्वास रखते हैं क्योंकि अभी भी जन जीवन के बीच हैं। वे गांधी को ख़त्म करने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। वर्धा में उनका चरखा चलाते हैं और व्यवहार में उनको धरती के नीचे गाड़ने के उपक्रम में अनवरत लगे रहते हैं। गांधी ज़िंदा हैं केवल हमारे कैप्शन में। देश की सड़कों और गलियों में संस्थानों में मूर्तियों के रूप में। न जाने कितने प्रकार के उपक्रमों में। अपनी लाठी, चश्मे और एक लंगोटीधारी के रूप में। हम गांधी को उनका लबादा ओढ़ने में ज़िंदा किए हुए हैं। बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत कहो की तख्तियां चिपका दी गईं हैं उन पर। बाकी उनका नाम भर लीजिए। कुर्सियां तोड़िए। रिश्वत लीजिए, झूठ बोलिए, हिंसा कीजिए, बलात्कार करवाइए, लूटपाट कीजिए, अत्याचार कीजिए, संविधान के विरुद्ध काम कीजिए। न कोई लज्जा है न कोई शर्म। जो सरकार की गलतियों के खिलाफ़ बोले। उसे जेलों में सड़ा डालिए। कई प्रकार की धाराएं लगाइए। गांधी जी की लाठी का हम जम कर उपयोग कर रहे हैं। उसी के सहारे लोकतंत्र  धड़ल्ले से चल रहा है। और अपनी-अपनी नीचताओं और निर्लज्जताओं में शान के साथ जी रहे हैं।


नमक सत्याग्रह के दौरान गांधी जी के साथ सरोजिनी नायडू


गाँधी जी के बारे में मुझे लगता है कि वे हमारी आंतरिकता के उजास के आदमी हैं। एक डेढ़ पसली के, हाड़-मांस के सीधे-सादे आदमी ने जो ख्याति अर्जित की थी, कोइ बड़ा से बड़ा आदमी उनके सामने या आने पर खड़ा हो जाता था। ब्रिटेन का प्रधानमंत्री इसका एक उदाहरण है। आज हम हिंसा और क्रूरता की सभ्यता के सामने खड़े हैं। इस दौरान हिंसा और लोकतंत्र को साधने का काम बड़े सुभीते और एक साथ हो रहा है। जीवनादर्शों और मूल्यों के बरक्स क्रूरता-निर्लज्जता-निरंकुशता और हत्यारी वास्तविकताएं खड़ी हैं। हमारी सत्ता व्यवस्था दोनों को एक साथ माला पहनाने में बेशर्मी-ढिठाई और निर्लज्जता के साथ अपना कर चल रही है। तुलसी ने भले ही लिखा हो -


'दोई न होय एक संग भुवालू।

हंसब ठठाय फुलाउल गालू।।' 


लेकिन गाल भर नहीं बज रहे। बेशर्मी भी बज रही है। कठहुज्जती भी बज रही है। वे गांधी की सार्थकता के बारे में तो क्या सोचेंगे? अपने बारे में किसी प्रकार नहीं शर्माएंगे। इन शक्तियों को शर्माना किसी तरह आता ही नहीं है। हमनें गांधी के मूल्यों और आचरणों को बहुत दूर फेंक कर मोह, जड़ता और निर्लज्जता के  तमाम बाड़े लगा दिए हैं।


महात्मा गांधी नामक इस आदमी ने भारत का भ्रमण किया था। उनमें भी कुछ कमियां थीं लेकिन हर हाल में वो एक ईमानदार और साहसी आदमी था। साहसी बहुत कुछ कर सकता है। उन्होंने देश की असली ज़िंदगी देखी। उसी सादगी की राह पर चलकर उन्होंने अहिंसक लड़ाई लड़ी। एक गनगनाहट, चमचमाहट के ख़िलाफ़ अवमूल्यन के निधड़क दौर में मूल्यों की तलाश भी वे सतत कर रहे थे। कुछ तो मात्र चमक रहे हैं और चमका रहे हैं। यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि गांधी भयानक अंधेरे के ख़िलाफ़ प्रकाश पुंज की तरह थे। गुलामी के ख़िलाफ़ थे। आज  नफ़रत के किलों में बंद है हमारी ज़िंदगी, जिजीविषा और संस्कृति। तूफानों के बीच, अन्याय-उत्पीड़न के बीच, गांधी के मूल्यों और आचरणों से जोड़ने का पुख़्ता काम हो रहा है। हिंसा-क्रूरता, अन्याय-शोषण-उत्पीड़न  के मामले निरंतर चौड़े हो रहे हैं। गांधी जितने धार्मिक-आध्यात्मिक लगते हैं उतने ही आधुनिक भी दिखाईं देते हैं। आज जैसे वैष्णव जन दुनिया में कभी दिखाईं नहीं देंगे। उसमें किसी भी हालत में कोई दोगलापन नहीं था। गांधी की वैष्णवता अंदर बाहर एक सी थी। मैं उनके कई मतों से सहमत नहीं हूँ। उनकी कई अवधारणाओं से भी मेरी विनम्र असहमति है लेकिन उनकी शुचिता-कर्मठता और समर्पण ने मुझे हमेशा बांधें रखा है। मूल्यबोध और उनकी नैतिकता ने मुझे जोड़े रखा है। ऐसे आदमी असहमतियों के बावजूद हमें जीना-मरना सिखाते हैं और नैतिक होना भी।

   

गांधी की आवाज़ एक दृढ़ इच्छा शक्ति वाले की आवाज़ थी। गांधी जिन चीज़ों का उपयोग अपने दैनिक जीवन में करते थे, उसमें उनका चश्मा, लाठी, घड़ी, चरखा चप्पल हुआ करता था। अब सरकारें इनका उपयोग अपने तरीक़े से कर रही हैं। चश्मा स्वच्छता अभियानों के काम आ रहा है। घड़ी की किसी को ज़रूरत नहीं रही। इतनी व्यस्तता है कि समय देखने के लिए भी समय नहीं है। उनकी लाठी का प्रयोग कई तरह से किया जा रहा है, जो सरकार की ग़लत नीतियों का विरोध करे, उसे जेल में डाल दो। उनके चरखे से ऐसी सुविधा हासिल की जा रही है कि जो प्रतिपक्ष की बात करें उनको देशद्रोही घोषित कर दिया जाए।


द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के समय लंदन में गांधी जी



गांधी की सहजता, सादगी प्रभावित करती है। यही नहीं उनकी आत्मालोचना, गंभीरता और आम-आदमी के प्रति समर्पणशीलता जल्दी मिलती कहां हैं? महात्मा गांधी की हत्या हुए लगभग एक लंबा समय हो गया। यह हमारे सामने प्रश्न है कि वे जबरिया मारे गए हैं, जब मैं पैदा भी नहीं हुआ था। आज हम स्वाधीनता के  78 वर्ष पूरे कर चुके हैं। देखना पड़ेगा कि इस दौर में कितने बदलाव हुए हैं और व्यवस्थाएं आगे क्या करने की योजनाएं-परियोजनाएं बनाती जा रही है? आश्चर्य है जिस महात्मा गांधी ने आज़ादी के लिए संघर्ष किया। लाठियां खाई, पिटाई सही, जेलों की यातनाएं सहीं, जो अपने आप साक्षात एक बहुत बड़ा मूल्य है, जिसमें पवित्रता के लिए, न्याय के लिए, जीवन के लिए बहुत बड़ी जगह थी। भाईचारा-सौहार्द  और सबके साथ मिलकर चलने का जो हमारा सपना था, जो हमारी पहचान थी, उसके लिए गंभीर प्रयत्न थे। देखिए 2025 में हम कहाँ आ गए हैं? नीच से नीच  बनने की प्रवृत्ति, क्रूर से क्रूरतम बनने की चाहत और झूठ से  झूठतम तक पहुंचने  के लिए हमने गिरावट की सभी सीमाएं लांघ ली हैं और इसी तरह की खिड़कियां-दरवाजे खोलते चले जा रहे हैं। मुश्किल तो यह है कि  यह सब कुछ हमारा देश और गणतंत्र देख रहा है।


इस दौर में राष्ट्रवाद का एक बहुत बड़ा छन्ना लगा दिया गया है। यह भी देखा जा रहा है कि तुम क्या खा रहे हो? क्या पी रहे हो? कैसे चल रहे हो? तुम्हारी वेशभूषा क्या है? राष्ट्रभक्ति की शिनाख्त की जा रही है? राजेश जोशी की कविता- 'गांधी की घड़ी' का यह अंश पढ़ें -


"तुम्हारी ऐनक के काँच  धुंधले हो गए हैं

और उनके आर-पार दिखना बंद हो चुका है

लोकतंत्र एक प्रहसन में बदल रहा है

जिसमें एक विदूषक किसी तानाशाह की मिमिक्री कर रहा है

हमारी भाषा के पहले अक्षर को हिंसा के आगे रख कर

तुमने रच दिया था जिसका विलोम

प्रायोजित  भीड़ ने लतिया कर उसे फेंक दिया है 

कूड़े के ढेर पर।"


गाँधी जी पर बहुत लिखा जा चुका है। लिखा जा रहा है और आगे भी लिखा जाएगा। फिर भी सब कुछ कह पाना और समेट पाना शायद मुश्किल है। मैं गाँधी जी के मात्र दो कथन रख रहा हूँ -


(1)"बल तो निर्भयता में है; बदन पर माँस के लोंदे होने में बल नहीं है। आप थोड़ा भी सोचेंगे तो इस बात को समझ जाएंगे।"

-(महात्मा गाँधी- हिन्द स्वराज) 


(2) "कुछ ऐसा जीवन जियो जैसे कि तुम्हें कल ही मरना है और कुछ ऐसा सीखो जैसे कि तुम हमेशा जीवित रहने वाले हो।" इधर गांधी जी के विचारों को मारने के अनंत प्रयत्न किए जा रहे हैं लेकिन उन्हें किसी भी सूरत में मार डालना संभव नहीं हो सकता। 


महात्मा गाँधी की हत्या के पश्चात लॉर्ड माउंटबेटन ने सही कहा था- "ब्रिटिश हुकूमत अपने काल पर्यंत कलंक से बच गई। आपकी हत्या, आपके देश, आपके राज्य, आपके लोगों ने की है। यदि इतिहास आपका निष्पक्ष मूल्यांकन कर सका तो वो आपको ईसा और बुद्ध की कोटि में रखेगा। कोई क़ौम इतनी कृतघ्न और ख़ुदगर्ज कैसे हो सकती है, जो अपने पितातुल्य मार्गदर्शक की छाती छलनी  कर दे। ये तो न नृशंस, बर्बर, नरभक्षी कबीलों में भी नहीं होता है और उस पर निर्लज्जता ये कि इन्हें इस कृत्य का अफसोस तक नहीं है।" 


आगे देखिए अभी और क्या-क्‍या करने के  कितने मंसूबे और परियोजनाएं हैं तिकड़मियों के पास? संदर्भ अलग होते हुए भी क्रांतिकारी कवि वरवर राव के शब्दों में- 


“सच्चाई में ढली है जहाँ आज़ादी

उस आज़ादी को ढूंढने वाली

पानी की बूंद हूँ मैं”




सेवाराम त्रिपाठी 



सम्पर्क


मोबाइल : 7987921206

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