शिवम तोमर की कविताएं

 

शिवम तोमर 



कवि परिचय: 


शिवम तोमर

जन्म : 1995, ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कविताएं लिखते हैं। अनुवाद में रूचि

फ़िलहाल अंग्रेजी साहित्यिक पोर्टल “पोयम्स इंडिया” के लिए संपादन करते हैं।


आज का समय एक अजीबोगरीब अवसाद का समय है। सब कुछ है पर रातों की नींद ही गायब है। सब कुछ है पर  जीवन तनाव के जंजालों से भरा हुआ है और खुशी नदारद है। लेकिन यही पूरा सच नहीं है। देखने पर, महसूस करने पर, खोजने पर खुशी कहीं भी मिल सकती है। छोटी छोटी बातें, छोटे छोटे छोटे अवसर हमें ये महत्त्वपूर्ण पल उपलब्ध कराते हैं। यह अलग बात है कि जीवन की आपाधापी में हम इन्हें महसूस नहीं कर पाते। एक बच्ची की खुशी गुब्बारे को उड़ाने में है। युवा कवि शिवम तोमर इन दृश्यों की तह में जाते हुए लिखते हैं "एक गुब्बारे को हवा में तैरता रखने के लिए/ जिस तरह एक नन्हे शरीर का सामर्थ्य और संकल्प उसके पैरों और हाथों में स्पंदित होता है/ लगता है फिलहाल दुनिया का सबसे ज़रूरी काम यही है"। शिवम इस जरूरी काम को रेखांकित करने वाले कवि हैं। शिवम ने अरसा पहले पहली बार के लिए ये कविताएं भेजी थीं लेकिन अपरिहार्य कारणों से कविताएं प्रकाशित होने में देर होती गई। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शिवम तोमर की कविताएं।



शिवम तोमर की कविताएं



दिसंबर

 

देह को आलस के धागों से

बिस्तरों में टाँकता हुआ

आ पहुँचा है दिसंबर

 

सूरज के कान उमेठ कर

वह अब पुनः स्थापित करवाएगा

देह और धूप का संबंध

 

कम्बल-रजाइयों की पलंग-बंद तपस्या को

पूर्ण घोषित कर, देगा दैवीय दर्शन

 

गुसलखानों में रखी नहाने की बाल्टियाँ में

घोलेगा भर-भर कर झिझक

पानी बचाने की मानवीय मुहिम में

देगा अपना ज़रूरी सहयोग

 

आते-जाते बालों में हाथ फिराएगा

झड़ते हुए डैंड्रफ के ज़रिए देगा

सुदूर क्षेत्र में होती बर्फ़बारी के

कठिन संकेत

 

थकी हुई रेलगाड़ियों के रास्ते में

एक धुंधला ठहराव बिछा कर

देरी और दूरी को

जल्दबाज़ी के रूढ़ संदर्भ से

करेगा मुक्त

 

बोलचाल के शब्दों में

हल्की-सी कंपकपी जोड़ता हुआ

एक नई उपभाषा का निर्माण करता हुआ

आ पहुँचा है दिसम्बर

 


एंटी-डिप्रेसेंट (1)

 

1.

छोटी-छोटी सफ़ेद गोलियाँ

असँख्य विचारों के विचरण को करतीं निस्तेज

बन जाती हैं विशालकाय आलोकित हाथ

और खींच लेती हैं डूबते चित्त को 

अंधेर सागर से

 

छोटी-छोटी सफ़ेद गोलियाँ

छुटा-छुटा कर फेंकती हैं

परजीवी कुंठाओं को

 

शिराओं में उद्वेलित ज्वार

एक समंदर

एक गोली के घुलने मात्र से

हो गया है शांत झील

 

एक अंधेरी दुनिया का पटाक्षेप

 

मृतप्राय नींद जीवित हो उठती है

जैसे मरुस्थल में खिलता एक फूल

 

लेकिन क्या हो सकेगा कल

यह सब पुनरावर्तित?

या इन गोलियों को बोना होगा हर बार

इस नींद से बंजर चित्त में

नींद, क्या यह गोलियाँ तुम्हारा नैवेद्य हैं?

 

नींद तुम्हारी स्वायत्तता कहाँ है?

क्या तुम्हें नही आता तरस

हाशिए पर खड़े जीवन पर?

किसके लिए है तुम्हारी प्रतिबद्धता?

 

जवाब देने की बजाय 

अपने नागपाश में जकड़ रही हो मुझे

 

बेशर्म।

 


एंटी-डिप्रेसेंट (2)


भारी भरकम नींद है

जैसे पलकों पर रख दिया गया पहाड़ 

हज़ार नींदे एक साथ आईं हैं

जिन्हें हज़ार रातों खोजा था खुली आँखों से

 

जम्हाई बनती जा रही है एक नई भाषा

जिस में हैं दो ही शब्द

'नींद' और 'निढ़ाल'

 

मेरे मानस

तुम जो दुनिया भर की गैरज़रूरी चीज़ों पर

तुरुप के पत्ते की तरह फेंकते थे मेरी नींद

आज क्यों पड़े हो, पस्त?

 

उस बच्ची के लिए जो कुत्तों के कानों में फूल खुरसती है 

 

कुत्तों के कानों में कोई बच्ची किस सोच के साथ फूल लगाती होगी

इसका हम सिर्फ़ अनुमान ही लगा सकते हैं


एक गुब्बारे को हवा में तैरता रखने के लिए

जिस तरह एक नन्हे शरीर का सामर्थ्य और संकल्प उसके पैरों और हाथों में स्पंदित होता है

लगता है फिलहाल दुनिया का सबसे ज़रूरी काम यही है


रातों में पीली चिड़िया देखने की तुम्हारी ज़िद के आगे

क्या करे आदमी?


चक्के वाली कुर्सी पर घूमते हुए

खिलखिलाती तुम

बन जाती हो मेरी गतिशील दुनिया की धूरी


जिन रातों को नहीं दिखता चाँद

तुम सो जाती हो जल्दी

क्योंकि तुम किसी के कहने मात्र से मान गई कि

"चंदा मामा उन बच्चों को सूई लगाने निकल पड़ता है

जो देर रात जागते रहते हैं"


इतना भरोसा लोगों में बना रहे बस


 ख़रगोश से तुम्हारे दाँत

 जिनके बीच में है एक खिड़की

 उस से झाँकता है मेरा बचपन


 यही वज़ह है कि

 तुम्हें हर क्षण

 मैं हँसते देखना चाहता हूँ।






अँगूठाछाप 


सालों पहले ख़रीदी होगी कलम

 उसका भी कोई पता-ठिकाना नहीं

 तोहफ़े में मिली एक सुंदर डायरी सामने रखी है

 एकदम कोरी

 अधपढ़ी किताबों और डायरियों के साथ

 डायरियाँ जिनके पाँच-सात पेज भरे होंगे बमुश्किल


 अँगूठे और उँगलियाँ

 स्कूल और कॉलेज में

 कलम घिसते-घिसते ऐसे थके हैं कि

 नमक उठाने के लिए चुटकी बनाने में झिझकते हैं

 बस अब घास नोचने भर का साथ रह गया है


 अँगूठे के पोर से झरती हैं कविताएं

 चमकते फ़ोन की स्क्रीन पर

 फ़ोन की पीठ के नीचे दबी हुईं उँगलियों में से

 छुटकी नीचे से झाँकती है

 देखती है

 एक अँगूठा छाप कवि को

 लिखते हुए कविताएं।

 

 


चमगादड़

 

यूनिवर्सिटी के विशाल घास के मैदान में 

मुझे बेसुध बैठा देख

गर्दन पर काटता है मच्छर

 

अपने काटे से ज़्यादा 

शाम की मरती रोशनी की ओर 

मेरा ध्यान खींचते हुए 

 

तिरपाल की तरह 

किसी ने इस घास के मैदान को 

समेटना शुरू कर दिया है 

 

इस भरे-पूरे दृश्य में से उठ कर 

जाने लगे हैं लोग 

 

मुझ जैसे 

जो अभी भी बैठे हैं

उन्हें वापस अपने अकेलेपन में खदेड़ने

किसी ने छोड़ दिए हैं

आकाश में चमगादड़

 



 

जाड़े की एक रात

 

बाथरूम के ख़राब नल से 

टपकती बूंदों की आवाज़

इतनी साफ़ सुनाई देती है

जैसे कानों में ही गिर रहा हो पानी 

 

कितना सन्नाटा है इन रातों में

 

 

एक स्त्री की कामना 

 

एक कैलेंडर में 

एक तारीख के बाद की

सारी तारीखें मिट गई हैं


घड़ी में साढ़े आठ बज कर रह गए हैं


एक शहर के तमाम लोग

आना-जाना स्थगित कर

एक प्लेटफॉर्म पर 

सालों से 

पत्थर बने खड़े हैं


यह गतिहीनता 

एक स्त्री की कामना थी

एक जाते हुए को रोक लेने के लिए

उसने पूरी दुनिया भर से गति छीन ली


वह रेलगाड़ी जिसमें बैठ कर 

मैं उस दुनिया से दूर चला आया 

मैंने देखा था 

उसकी आंखों में ठहरी रही



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क


मोबाइल : 7447825929 


ई मेल : shivamspoetry@gmail.com 


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