सुशोभित का आलेख 'महात्मा गांधी का अंतिम उपवास'
महात्मा गांधी ने अपने जीवन में जो प्रयोग किए उनमें उपवास का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अहिंसा और सत्याग्रह के अपने दर्शन के एक साधन के रूप में गांधी जी द्वारा उपवास को अपनाया गया। गांधी जी लिखते हैं 'मेरा धर्म मुझे सिखाता है कि जब भी कोई ऐसा संकट आए जिसे दूर न किया जा सके, तो उपवास और प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए।' उपवास के हथियार को इस्तेमाल करना भी एक कला मानने वाले गांधी जी लिखते हैं कि 'मैं जानता हूँ कि उपवास के हथियार का इस्तेमाल आसानी से नहीं किया जा सकता। जब तक इसका इस्तेमाल इस कला में निपुण व्यक्ति द्वारा न किया जाए, तब तक यह आसानी से हिंसा का रूप ले सकता है। मैं इस विषय में ऐसा ही एक कलाकार होने का दावा करता हूँ।' भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गांधी जी ने कुल 18 उपवास किए । उनका सबसे लंबा उपवास 21 दिनों का था, जो उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता स्थापित करने के लिए 18 सितंबर से 8 अक्टूबर 1924 के बीच किया था। आजादी के बाद का उनका दूसरा उपवास 13 से 18 जनवरी 1948 के तक 123 घण्टे चला, जो उपवासों की कड़ी में उनका अन्तिम उपवास साबित हुआ। इस उपवास का उनका लक्ष्य यह था कि मुसलमानों को पुरानी दिल्ली में स्वतंत्र रूप से घूमने की अनुमति दी जानी चाहिए। मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार नहीं होना चाहिए। मुसलमानों को रेलगाड़ियों में बिना किसी खतरे के यात्रा करने की अनुमति दी जानी चाहिए। सुशोभित इन दिनों गांधी के सन्दर्भ में कई भ्रांतियों का खुलासा कर रहे हैं। इसी क्रम में हम उनका यह आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुशोभित का आलेख 'महात्मा गांधी का अंतिम उपवास'।
'महात्मा गांधी का अंतिम उपवास'
सुशोभित
क्या महात्मा गांधी ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलवाने के लिए अनशन किया था? आइए, आज इस झूठ की पोल खोलते हैं।
सबसे पहली बात तो यह कि गांधी ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलवाए नहीं थे, वो पाकिस्तान का ही पैसा था। भारत पर उसकी देनदारी थी। अविभाजित भारत के रिज़र्व बैंक में कुल 400 करोड़ रुपयों की नगदी थी। भारत-विभाजन हुआ तो ज़मीन के साथ ही वित्तीय सम्पत्ति भी विभक्त हुई। 17:3 के अनुपात में यह विभाजन तय किया गया, यानी अगर अविभाजित भारत के पास 20 रुपये हों तो 17 रुपये डोमिनियन ऑफ़ इंडिया और 3 रुपये डोमिनियन ऑफ़ पाकिस्तान को मिलेंगे। इस अनुपात में भारत को 325 करोड़ और पाकिस्तान को 75 करोड़ रुपये मिले।
पाकिस्तान को 20 करोड़ रुपयों की पहली किस्त तो तुरन्त ही जारी कर दी गई थी- अगस्त, 1947 में ही। 55 करोड़ की दूसरी किस्त देय थी। तब कश्मीर समस्या उठ खड़ी हुई, कबायलियों का हमला हुआ और महाराजा हरि सिंह के आग्रह पर भारत ने श्रीनगर में अपनी सेनाएँ भेजीं। प्रधानमंत्री नेहरू और गृहमंत्री पटेल दोनों ने तब यह निर्णय लिया कि हम पाकिस्तान की किस्त रोक लेंगे। गांधी जी इसके पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि यह अमानत में ख़ियानत है और इससे नए-नवेले भारत-राष्ट्र की दुनिया में अच्छी छवि नहीं बनती। इसका एक पहलू यह भी था कि उस समय भारत और पाकिस्तान दोनों में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहे थे। पाकिस्तान की हुकूमत से अपने अल्पसंख्यकों की रक्षा का आग्रह भारत किस मुँह से करता, अगर अपने यहाँ के मुसलमान अल्पसंख्यकों की रक्षा नहीं कर पाता और उसके हक़ के 55 करोड़ रुपयों पर कब्ज़ा कर लेता?
लेकिन महात्मा गांधी ने 13 जनवरी 1948 को दिल्ली में जीवन का जो अन्तिम उपवास आरम्भ किया था, वो केवल 55 करोड़ रुपयों के बारे में नहीं था। उपवास की पहली शर्त यह थी कि दिल्ली में भीषण साम्प्रदायिक हिंसा तुरंत समाप्त हो। गांधी ने हिन्दू, सिख और मुसलमान नेताओं पर नैतिक दबाव बनाया कि वो अपने-अपने लोगों को समझाएँ और उन्हें हिंसा छोड़ने को कहें। दूसरी शर्त यह थी कि भारत और पाकिस्तान अपने-अपने मुल्कों में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करें। यक़ीनन, पाकिस्तान की हुकूमत गांधी जी के निर्देशों को मानने के लिए बाध्य नहीं थी- यों तो भारत की हुकूमत भी नहीं थी- किन्तु गांधी जी का वह नैतिक आग्रह पूरी दुनिया ने देखा और सुना और दोनों देशों की सरकारों पर इसका प्रभाव पड़ा। ध्यान रहे, गांधी जी के अन्तिम उपवास की एक प्रमुख शर्त यह थी कि पाकिस्तान में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचारों पर तुरंत रोक लगे! यह इतिहास आज हमें क्यों नहीं बताया जाता है?
गांधी जी के उपवास से दिल्ली में साम्प्रदायिक दंगे थम गए। अमन और सद्भाव की बयार बही। उनकी तमाम माँगें मानी गईं। प्रधानमंत्री नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद, मौलाना आज़ाद समेत एक प्रतिनिधिमण्डल गांधी जी से मिला। इसमें तमाम धर्मों के नेता शामिल थे। मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नुमाइंदे भी उसमें थे। सबने मिल कर गांधी जी को भरोसा दिलाया कि अब दिल्ली में हिंसा की कोई घटना नहीं होगी, आप उपवास तोड़ें। गांधी जी ने सभी पक्षों से ठोक-बजा कर वस्तुस्थिति की जानकारी ली और पूरी तरह से आश्वस्त होने के बाद ही मौलाना आज़ाद के हाथों संतरे का रस ले कर उपवास तोड़ा।
आज देश में कितने नेता ऐसे हैं, जो देश में साम्प्रदायिक दंगे छिड़ने की स्थिति में आमरण अनशन पर बैठ जावें और सभी पक्षों से शांति की अपील करें? आज वैसा नैतिक सम्बल किसके पास है? हमने तो ऐसे नेता भी देखे हैं, जो दंगे छिड़ने की स्थिति में पुलिस के हाथ बाँध देते हैं ताकि दंगाइयों को अपना ग़ुस्सा निकालने का मौक़ा मिले। चिताओं पर चुनावी रोटियाँ सेंकने वाले नेता! आप बताइये, इनमें से कौन बड़ा आदमी है? गांधी या वैसे नेता?
गांधी जी का वह अन्तिम उपवास आत्मशुद्धि का भी एक महत् उपकरण था। गांधी जी स्वाधीनता आन्दोलन को एक यज्ञ समझते थे और साम्प्रदायिक वैमनस्य उस यज्ञ में चला आया दोष था। उसके लिए गांधी जी अपने जीवन की आहुति देने को तत्पर हो गए थे। उस उपवास के माध्यम से उन्होंने स्वयं को मृत्यु के समक्ष निष्कवच हो कर प्रस्तुत कर दिया था। 18 जनवरी को उपवास तोड़ने के 12 दिन बाद मृत्यु आकर उन्हें ले गई। हिंसा की अपूरित भूख तृप्त हुई और गांधी जी की हत्या के बाद भारत-देश ने अमन का एक सुदीर्घ दौर देखा।
गांधी जी अपने इस अन्तिम उपवास को कैसा समझते थे, यह जनवरी, 1948 के प्रार्थना प्रवचनों में उन्हीं के शब्दों में पढ़ें :
"जब 9 सितम्बर 1947 को मैं कलकत्ते से दिल्ली आया था, तब दिल्ली मुर्दों के शहर के समान दीखती थी। जैसे ही मैं ट्रेन से उतरा, मैंने देखा कि हरेक के चेहरे पर उदासी थी। सरदार- जो हमेशा हँसी-मज़ाक़ करके ख़ुश रहते हैं- भी उस उदासी से बचे नहीं थे। उन्होंने सबसे पहली ख़बर मुझे यह दी कि यूनियन की राजधानी में झगड़ा फूट निकला है। मैं फ़ौरन समझ गया कि मुझे दिल्ली में ही करना या मरना होगा।
"मैं पिछले तीन दिन से इस बारे में विचार कर रहा हूँ। आख़िरी निर्णय बिजली की तरह मेरे सामने चमक गया है और मैं ख़ुश हूँ। कोई भी इंसान, जो पवित्र है, अपनी जान से ज़्यादा क़ीमती चीज़ क़ुरबान नहीं कर सकता। मैं आशा रखता हूँ कि मुझमें उपवास करने के लायक़ पवित्रता हो।
"उपवास कल सुबह शुरू होगा। उपवास का अरसा अनिश्चित है और जब मुझे यक़ीन हो जाएगा कि सब क़ौमों के दिल मिल गए हैं, और वह बाहर के दबाव के कारण नहीं, मगर अपना-अपना धर्म समझने के कारण, तब मेरा उपवास छूटेगा।
"आज हिन्दुस्तान का मान सब जगह कम हो रहा है। अगर इस उपवास के निमित्त हमारी आँखें खुल जाएँ तो यह सब वापिस आ जाएगा। अगर हिन्दुस्तान की आत्मा खो गई तो आशा की किरण का लोप हो जाएगा।
"मेरी सबसे प्रार्थना है कि वे शांत चित्त से इस उपवास का तटस्थ वृत्ति से विचार करें और यदि मुझे मरना ही है तो मुझे शांति से मरने दें। अगर पाकिस्तान में दुनिया के सब धर्मों के लोगों को समान हक़ न मिलें, उनकी जान और माल सुरक्षित न रहें और यूनियन भी पाकिस्तान की नक़ल करे तो दोनों का नाश निश्चित है।
"यह आत्मशुद्धि का उपवास है तो सबको शुद्ध होना चाहिए। नहीं तो मामला बिगड़ जाता है। मैंने मुसलमानों के नाम से उपवास शुरू किया है, इसलिए उनके सिर पर ज़बर्दस्त ज़िम्मेदारी आती है। उनको यह समझना है कि हम हिन्दू-सिख के साथ भाई-भाई बन कर रहना चाहते हैं, इसी यूनियन के हैं पाकिस्तान के नहीं। मैं यह नहीं पूछता हूँ कि आप वफ़ादार हैं या नहीं। पूछकर क्या करना है। मैं तो कामों से देखता हूँ।
"वे ऐसा समझें कि हमारे लिए लीग नहीं है, कांग्रेस नहीं है, गांधी नहीं है, जवाहर नहीं है- ख़ुदा है। उसके नाम पर हम यहाँ पड़े हैं। हिन्दू, सिख कुछ भी करते हैं, आप बुरा न मानें। मैं आपके साथ हूँ। मैं आपके साथ मरना या ज़िंदा रहना चाहता हूँ। मैं करूंगा या मरूंगा। अगर आप लोगों को साथ नहीं रख सकता हूं तो मेरा जीना निकम्मा बन जाता है।
"फ़ाक़ा छूटने की शर्त यह है कि दिल्ली बुलंद हो जाए। अगर दिल्ली ठीक हो जाती है तो मेरा फ़ाक़ा छूट जाता है। दिल्ली पायातख़्त है।
"मेरा उपवास लोगों की आत्मा को जाग्रत करने के लिए है, उसे मार डालने के लिए नहीं। ज़रा सोचिए तो सही, आज हमारे प्यारे हिन्दुस्तान में कितनी गंदगी पैदा हो गई है। तब आप ख़ुश होंगे कि हिन्दुस्तान का एक नम्र पूत, जिसमें इतनी ताक़त है और शायद इतनी पवित्रता भी है, इस गंदगी को मिटाने के लिए ऐसा क़दम उठा रहा है।
"और अगर उसमें ताक़त और पवित्रता नहीं है, तब वह पृथ्वी पर बोझ रूप है। जितनी जल्दी वह उठ जाए और हिन्दुस्तान को इस बोझ से मुक्त करे, उतना ही उसके लिए और सबके लिए अच्छा है!"
खरी सच्चाई से दमकते गांधी जी के इन शब्दों के पीछे एक पवित्र आत्मा का जो आर्तनाद है, क्या उसे आप तमाम दुष्प्रचारों के कुहासे के बावजूद साफ़-साफ़ सुन-समझ नहीं पा रहे हैं?

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