आशुतोष कुमार का आलेख 'एक विसर्जित 'स्त्री' की कहानी'

 

कुणाल सिंह 



नित्य नवीनता की चाह मनुष्य की प्रवृत्ति है। रोजमर्रा की जिन्दगी से अलग हट कर वह कुछ नया परिवेश चाहता है। यह नयापन उसमें भविष्य के लिए वह ऊर्जा प्रदान करता है, जो जीवन के लिए आवश्यक है। तीज-त्यौहार हमारी एकरस जिन्दगी को एक नया आयाम प्रदान करते हैं। यह महज धार्मिक रस्म नहीं होता है, बल्कि इसके पीछे एक सांस्कृतिक परम्परा भी होती है। आस्था निजी होती है, चाहें वह जिस तरह की हो। आजकल जो वाहियात और भोंडे प्रदर्शन धार्मिक आयोजनों के दौरान किए जा रहे हैं, आजकल जिस तरह धर्म को उन्माद का विषय बना दिया जा रहा है, उसका आस्था से कुछ भी नहीं लेना देना। आस्था आन्तरिक रूप से मजबूत करती है और यही उसे समीचीन बनाए रखती है। 

जिस तरह कविता को दो पंक्तियों के बीच पढ़ा जाता है ठीक उसी तरह कहानी भी अपने ब्यौरों के बीच गम्भीरता से पढ़े जाने की मांग करती है। अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो सकता है या फिर अनर्थ का भी अर्थ निकाला जा सजाता है। हाल ही में चन्दन पाण्डेय और महेश वर्मा ने एक नेट पत्रिका 'सम्मुख' की शुरुआत की है, जिसमें चर्चित कथाकार कुणाल सिंह की कहानी 'विसर्जन' छपी है। इस कहानी को प्रकाशित करते हुए सम्मुख की संपादकीय टिप्पणी इस प्रकार है : "अपनी रचनाओं में वे (कुणाल सिंह) संवेदना के सूक्ष्मतम पहलुओं को आधार बनाते हैं। यह किसी कल्पना सरीखी सुन्दर बात है कि एक कहानीकार के पास ‘लतीफा’, ‘शोकगीत’, ‘सनातन बाबू का दाम्पत्य’, ‘सायकिल कहानी’, ‘डूब’, ‘इतवार नहीं’, ‘रोमियो जूलियट और अँधेरा’ जैसी शानदार कहानियाँ हों और ‘आदिग्राम उपाख्यान’ जैसा उपन्यास हो. अमूमन उन्हें भाषाई जादू तक सीमित कर देखने को उद्धत आलोचना इस बात को नजरअंदाज करती है कि भाव के स्तर पर कुणाल की रचनाएं बारहा नई किसी जमीन को तैयार कर रही होती हैं। मनोजगत की तमाम उथल पुथल को जिस गहराई से वे अभिव्यक्त करते हैं, वह वास्तविक जादू है। सामाजिकता की तमाम रस्मों-राह मनुष्य को जिन दोराहों पर खड़ा करती है, उसकी पड़ताल कुणाल अपनी रचनाओं में सर्वोत्कृष्ट तरीकों से करते हैं।" 


कहानी पर पाठकों की प्रतिक्रियाएं मिश्रित रहीं। किसी ने इसे बेजोड़ कहानी बताया तो किसी ने इसे भाषाई चमत्कार बताते हुए एक सामान्य कहानी ठहराया। चर्चित आलोचक आशुतोष कुमार ने इस कहानी अपने अंदाज में तहकीकात की है। अपने आलोचकीय टिप्पणी में वे लिखते हैं "मार्क्स ने कहा था कि धर्म एक हृदयहीन समाज का हृदय होता है। एक आत्महीन समाज की अंतरात्मा होता है। इसीलिए वह जनसाधारण के लिए दर्दनाशक अफ़ीम का काम करता है। क्या धर्म का बाज़ार भी ऐसा कर सकता है? नहीं, वह केवल क्षणिक नशा, एक उथला उन्माद, पैदा कर सकता है। लेकिन प्रेम और सामूहिकता की चाहत ही लोगों को उस ओर धकेलती है, यह चाहत ही उनकी भक्ति है।

बेटी का एक सवाल आसावरी के भीतर एक नई सोच शुरू कर देती है कि क्या किसी तरह इस खालीपन को भरा जा सकता है। अगर अपने लिए नहीं तो क्या बेटी के लिए इस तरह की कोई कोशिश की जा सकती है। आसावरी के मन में यह इच्छा जन्म लेती है। कहीं ना कहीं वह जानती है कि यह एक असंभव इच्छा है। खाली कोने में पड़ी मेज के साथ उसकी कशमकश चलती रहती है। वह उस पर लाल कपड़ा बिछाती है और फिर हटा देती है। इसी कशमकश में वह फिर से अपनी भक्ति को जगा रही है। यह भक्ति इस खालीपन को भरने की कोशिश है। यह भक्ति उसी खोए हुए बचपन के प्यार की, दबे हुए आत्म की खोज है। यह खोज तब पूरी होती लगती है जब उसे बाजार में एक ऐसी मूर्ति मिल जाती है जो बचपन की उन्हीं पुरनिया आंखों से उसे निहारती लगती है। लेकिन यह मूर्ति उसे मिल नहीं सकती। जिसकी उसे तलाश है, वह "कुछ अलग" इस बाजार में बहुत महंगा बिकता है!

यही वह आघात है जो उसकी रचनाशीलता को जगा देता है। अपनी इस रचनाशीलता में वह उस खोए हुए पुरनिया को, गणपति को, बचपन के निश्छल प्यार को और अपने आप को भी फिर से पा लेती है। उसकी भक्ति का विसर्जन उसकी रचनाशीलता में हो जाता है। उसने गणपति का वह चित्र पूजा के लिए ही बनाया था, लेकिन अब पूजा की जरूरत ही नहीं रह जाती है। भक्ति में जिसे तलाशना था वह उसे अपनी रचना में मिल जाता है।"

आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कुणाल सिंह की कहानी विसर्जन पर आशुतोष कुमार का आलेख 'एक विसर्जित 'स्त्री' की कहानी'।



'एक विसर्जित 'स्त्री' की कहानी'


आशुतोष कुमार


'विसर्जन' कहानी (कुणाल सिंह) में जो पुरानापन महसूस होता है वह गांव और शहर के पुराने कंट्रास्ट या तज़ाद में है। क्या वास्तविक दुनिया में आज भी यह तज़ाद मौजूद है? 


पुराने गांव अब शायद यादों में ही बसे रह गए हैं। कहानी खुद भी इस सच्चाई को दर्ज करती है। इसमें गांव जब भी आता है, स्मृति के रूप में ही आता है।


कहानी में एक द्वंद्व मुख्य पात्र आसावरी की यादों में बसे हुए उस गांव की जिंदगी और शहर में कट रही उसकी वास्तविक जिंदगी के बीच है। लेकिन इस कहानी का बुनियादी द्वंद्व भक्ति और सृजनशीलता या रचनाशीलता के बीच है। आसावरी की दमित सृजनशीलता के नवीन उन्मेष का क्षण उसकी भक्ति के विसर्जन का क्षण है। 


उसकी बुनियादी बेचैनी मानवीय प्रेम की उसकी तलाश है, जैसी कि हर किसी की होती है। प्रेम की यह तलाश असल में अपने उस आप की तलाश होती है, जिसे हम किसी दूसरे की आंखों में पा लेना चाहते हैं। अगर वहां नहीं तो फिर हम अपने आप को अपनी रचनाशीलता में, अपनी किसी नवीन, मौलिक और अद्वितीय रचना में पा सकते हैं। रचना में अपने को फिर से रच कर।


इस तरह अपने को रच लेने और पा लेने के बाद, यानी अपनी रचनाशीलता को जगा लेने के बाद, वह रची गई चीज कम से कम रचयिता के लिए बासी हो जाती है। अब उसे कागज में सावधानी से लपेट कर ताक पर रखा जा सकता है। उसकी नुमाइश लगाने की जरूरत और इच्छा नहीं रह जाती। लेकिन उसे नष्ट होने भी नहीं दिया जाता।


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यादों में बसे हुए उस गांव में खुली हुई जगहें हैं, घर-आंगन है, सरलता है, स्नेह-प्यार-आत्मीयता है और तुलसी में रोज पानी डालने जैसी सहज धार्मिकता है। 


यादों में बसे हुए उस गांव की जिंदगी में कला, रचनाशीलता और धार्मिकता जिंदगी जीने के बाहरी साधन नहीं हैं। उसकी सजावट भी नहीं हैं। उनके लिए अलग से कोई प्रयत्न नहीं करना। वे स्वयं जिंदगी हैं। जिंदगी के ही घुले-मिले रंग हैं। 


शहर की जिंदगी दबाव की जिंदगी है। खोलियों में बिखरी हुई। संकरी गलियों और छोटी जगहों में सिमटी हुई। केबल और छतों की पानी टंकियां में अटकी हुई। 


यहां रोज-रोज जीने का संघर्ष कर रहे लोगों के ऊपर रोटी और रोजगार का इतना दबाव है कि उनकी सामूहिकता और सामाजिकता दबी-घुटी-सी रहती है।


त्यौहार इस सामूहिकता को फिर से महसूस करने का एक बहाना है। त्यौहार इस एकरस उबाऊ जिंदगी की जरूरत है। त्यौहार ना हो तो चौतरफा दबाव झेल रही जिंदगी का अकेलापन असहनीय हो जाए।


त्यौहार में धर्म है, लेकिन गांव जैसी सहज धार्मिकता नहीं। यह एक आपातकालीन व्यवस्था है। एक संकट का उपाय है। वह रोजमर्रे की जिंदगी का हिस्सा नहीं है।


जब कोई चीज इंसान की जरूरत बन जाती है तो उसका बाजार खड़ा हो जाता है। पैसे चुकाइए और अपने दुख की दवा खरीद लीजिए। जैसी कीमत वैसी दवा। 


यह तुलसी में जल डालने वाली, मिट्टी के गणेश और रंगोली बनाने वाली सहज धार्मिकता नहीं है, जो यादों में बसे हुए उस गांव में मिलती है। 


इस तरह यह कहानी यादों में बसे गांव और जिए जा रहे शहर का एक कंट्रास्ट खड़ा करती है। यह कंट्रास्ट नितांत काल्पनिक नहीं है। लेकिन इसमें एक तरह का पुरानापन जरूर है।


आसावरी शहर में आ कर न केवल अपने बचपन के गांव को बल्कि अपने आप को भी खो चुकी है। 


मूलतः वह एक कलाकार है, रचयिता है, जैसे कि हर कोई होता है। लेकिन शहर में रहने वाली एक घरेलू महिला के रूप में उसकी जिंदगी जूठे बर्तनों और झाड़ू-पोंछे में सिमट कर रह गई है। 


उसकी इस निहायत गैर-रचनात्मक रिपीटीटिव ज़िंदगी में उसकी बेटी की गतिविधियां राहत की कुछ छींटें डाल देतीं हैं, लेकिन उसे बदल नहीं सकतीं। इस औसतता, यातना और उदासी से बच निकलने का कोई रास्ता ही नहीं है।


बेटी और पति की अपनी अपनी जिंदगी है, अपने-अपने काम हैं। पति-पत्नी दोनों जिम्मेदारियां पूरी करने की मशीनों में बदल चुके हैं। वे एक दूसरे की जिंदगी और जरूरत को भली-भांति समझते हैं क्योंकि उनमें कोई खास अंतर नहीं है। उन्हें एक दूसरे से बात करने की जरूरत महसूस नहीं होती है। 


यह बिना कहे एक दूसरे के मन की बात को समझ लेना, किसी गहरे प्रेम का लक्षण नहीं है। यह अंतहीन दोहराव से भरी उनकी इकहरी मशीनी जिंदगी का उदाहरण है। 


इस जिंदगी में समझदारी है, सयानापन है, एक दूसरे का आदर है, एक दूसरे के दुख की जानकारी है, लेकिन प्रेम की उमंग नहीं है, उल्लास नहीं है।


हर एक के जीवन में एक खालीपन है। घर का खाली कोना उसी खालीपन को मूर्त करता है। यह प्रेम का खालीपन है। वे प्रेम कर सकते हैं, वे प्रेम चाहते हैं, लेकिन जिंदगी का चक्र ऐसा है कि प्रेम के लिए न फुर्सत है, न हिम्मत है।


आसावरी की बेचैनी इस खालीपन को किसी न किसी तरह भरने की है। घर का खाली कोना उसकी खुद की जिंदगी के खालीपन का रूपक है। 


इस खालीपन को सक्रिय प्रेम से भरा जा सकता है, लेकिन वह उपलब्ध नहीं है। अलगावग्रस्त जिंदगी में इस खालीपन को भरा नहीं जा सकता। शायद यही कारण है कि वह घर में गणपति बिठाने से बचती है। 


क्या गणपति इस खालीपन को भर सकते हैं?


वह जानती है कि वह अपने बचपन को और बचपन के गणपति को खो चुकी है। वह गणपति तो गांव के पुरनिया बाबा की उन प्यार भरी आंखों में था जो उसे रंगोली बनाते हुए चुपचाप देखा करती थीं। आसावरी जानती है कि अब वह सिर्फ़ यादों में है।


लोग घर-घर गणपति बिठाते हैं। लोग शहर के गणपति उत्सव में शामिल होते हैं। ये सभी लोग उसी खालीपन को भरने की कोशिश कर रहे हैं जो उनके घर की और बाहर की जिंदगी में पसरा हुआ है। 


वे नहीं जानते कि गणपति और गणपति का बाजार इस खालीपन को भर नहीं सकता।  


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मार्क्स ने कहा था कि धर्म एक हृदयहीन समाज का हृदय होता है। एक आत्महीन समाज की अंतरात्मा होता है। इसीलिए वह जनसाधारण के लिए दर्दनाशक अफ़ीम का काम करता है।


क्या धर्म का बाज़ार भी ऐसा कर सकता है? नहीं, वह केवल क्षणिक नशा, एक उथला उन्माद, पैदा कर सकता है। 


लेकिन प्रेम और सामूहिकता की चाहत ही लोगों को उस ओर धकेलती है, यह चाहत ही उनकी भक्ति है।


बेटी का एक सवाल आसावरी के भीतर एक नई सोच शुरू कर देती है कि क्या किसी तरह इस खालीपन को भरा जा सकता है। अगर अपने लिए नहीं तो क्या बेटी के लिए इस तरह की कोई कोशिश की जा सकती है।


आसावरी के मन में यह इच्छा जन्म लेती है। कहीं ना कहीं वह जानती है कि यह एक असंभव इच्छा है। खाली कोने में पड़ी मेज के साथ उसकी कशमकश चलती रहती है। वह उस पर लाल कपड़ा बिछाती है और फिर हटा देती है। 


इसी कशमकश में वह फिर से अपनी भक्ति को जगा रही है। यह भक्ति इस खालीपन को भरने की कोशिश है। यह भक्ति उसी खोए हुए बचपन के प्यार की, दबे हुए आत्म की खोज है।


यह खोज तब पूरी होती लगती है जब उसे बाजार में एक ऐसी मूर्ति मिल जाती है जो बचपन की उन्हीं पुरनिया आंखों से उसे निहारती लगती है। लेकिन यह मूर्ति उसे मिल नहीं सकती। जिसकी उसे तलाश है, वह "कुछ अलग" इस बाजार में बहुत महंगा बिकता है!


यही वह आघात है जो उसकी रचनाशीलता को जगा देता है। अपनी इस रचनाशीलता में वह उस खोए हुए पुरनिया को, गणपति को, बचपन के निश्छल प्यार को और अपने आप को भी फिर से पा लेती है। उसकी भक्ति का विसर्जन उसकी रचनाशीलता में हो जाता है। उसने गणपति का वह चित्र पूजा के लिए ही बनाया था, लेकिन अब पूजा की जरूरत ही नहीं रह जाती है। भक्ति में जिसे तलाशना था वह उसे अपनी रचना में मिल जाता है। 


जाहिर है कि यह कहानी भक्ति का रोमान नहीं रचती। उसका महिमामंडन नहीं करती। आसावरी नई स्त्री है या पुरानी, इस पर खूब बहस की जा सकती है। लेकिन आसावरी को भुलाया नहीं जा सकता। आसावरी अपने ऊपर थोप दिए गए पारंपरिक स्त्रीत्व, स्त्री-नियति को, विसर्जित कर अपनी मनुष्यता फिर से हासिल कर लेती है। अपना स्वतंत्र सृजनशील संपूर्ण व्यक्तित्व हासिल कर लेती है। भले ही वह कोई विद्रोही स्त्री न हो, वह एक विसर्जित 'स्त्री' तो है!


आशुतोष कुमार 


सम्पर्क 


मोबाइल : 09953056075


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