सूरज पालीवाल की कहानी 'रावण टोला'

 



रामलीला भारतीय संस्कृति से नाभिनालबद्ध है। और साथ ही इसके सभी पात्र जन जन में सुपरिचित हैं। दशहरा आते ही चारो तरफ रामलीला की आज भी धूम मच जाती है। रामलीला के साथ उसके पात्र सामायिक तौर पर स्थानीय रूप से उसमें बहुत कुछ जोड़ते घटाते रहते हैं जो प्रतीकात्मक रूप से हमारे समाज से जुड़ा होता है। आलोचक सूरज पालीवाल की एक कहानी है 'रावण टोला'। 1980 के आसपास लिखी गई इस कहानी में सूरज जी जिन बातों को रेखांकित करते हैं वह आगे चल कर सामाजिक यथार्थ में बदलते हुए दिखाई पड़ते हैं। आज सूरज जी का आज जन्मदिन है। पहली बार की तरफ से उन्हें जन्मदिन की बधाई एवम शुभकामनाएं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सूरज पालीवाल की कहानी 'रावण टोला'।


'रावण टोला'


सूरज पालीवाल


रामलीला समाप्त होने में अभी पाँच दिन बाकी थे। शहर में पढ़ने वाले लड़के भी रामलीला का बहाना लगा कर गाँव में ऐश कर रहे थे। लाल छींट की साड़ी जैसे तहमद की फैशन चल पड़ी थी - इस बार गाँव में। बाल भी बाजने के मोहन कट नहीं,.कहते थे, 'बस एक ही नाई है अलीगढ़ में, जो ऐसे बाल काटता है। और मालूम है - तीन रुपया लेता है मशीन छुआने भर के।


तीन से कम में तो बात भी नहीं करता।' टेढ़ा बहुत खुश है। अब तक तो गाँव का हर आदमी डोरा बाँध कर छँटवाता था -बहुत देर लगती थी। और अब नीचे-नीचे चार-छह कैंची मारी और बन गए बाल। ऐसे तो वह दिन में हजारों के बाल बना सकता है। उसने बहुत जल्दी सीख ली यह अंग्रेजी-कट।


सीखते वक्त उसके मन में सबसे अधिक हौंस इस बात की थी कि तीन नहीं एक रुपया तो नकद मिलेगा ही। मगर सब कातिक-बैसाख के हिसाब में ही गए। टेढ़ा दुखी है कि शहर के नाई को तीन रुपए नकद देंगे और मेहमान की तरह बातें करेंगे और गाँव के टहलुआ को देने के नाम प्राण निकलते हैं। खादर में भैंस-गाय चराने वाले लड़कों के बालों के डींगर भी खत्म हो गए - रोज धोते हैं, डबल-शेर साबुन से ऊपर से हप्पू तेली का असली सरसों का तेल । साल में एक ही महीना तो बालों के अच्छे दिन होते हैं, वरना पूरी साल साबुन-तेल तो दूर, मींडना भी मुश्किल हो जाता है। इस बार माँग बगल से नहीं, बीच से निकालने की फैशन चली थी।


घूरे की पानों की बिक्री - बस पौवारे पच्चीस थे। होश नहीं पड़ता था, घूरे को। एकाध बीड़ी पीवा दोस्त और बैठ जाते दुकान पर बैठे-ठाले करें क्या तो उँगली से कत्था चूना चुपड़ कर सुपारी और लौंग ऊपर से रख कर पान लगाते रहते। कितना कत्था, कितना चूना यह तो घूरे को भी आज तक मालूम नहीं और तो तब जानें। जिन्होंने सिवाय चौपाल की चिलम के बीड़ी भी नहीं पी साल भर तक, वह अब पनामा सिगरेट से नीचे तो बात ही नहीं करते। पीते क्या हैं टूट पड़ते हैं। दोनों उँगलियों में दबा ऐसे घूँट मारते, मानों सिगरेट न हो कर अजमेरी की चरस की सुलप्याई हो। दो-तीन कशों में सिगरेट का मलीदा निकाल देते।


हरस्वरूप की बूरे की मिठाई खूब बिक रही थी। चंपा पुजारिन रोज सुबह उठ कर कम-से-कम हजार गालियाँ देती और सारे गाँव का चबूतरा बाँधने का भगवान से हाहाकार स्वर में निवेदन करती। उसके घेर में पथे कंडे रोज फूट जाते - सुबह दिखाई देते बस फूटे कंडे और पेड़ों के खाली थैले। जिन लड़कियों को कभी गुड़ भी नसीब नहीं हुआ, वे भी अब पावभर पेड़ों से नीचे तो बात ही नहीं करतीं। और पान - अरे, बगैर पान के भी मुहब्बत होती है कहीं। पुजारिन का फूटा घेर भी पवित्र हो जाता है - साल में एक बार तो। कंडे तो कंडे, बिटोरी के अंदर भी बैलों के ढेर पाते। चंपा अब इस गाँव को गाँव न मान कर रंडियों का मुहल्ला मानती है। और हर जवान लड़की को घोर नरक में जाने का हुक्म देती, ताकि यह गाँव बच सके।


रामलीला में रोज लट्ठ तनते। समझौता भी आनन-फानन में ही हो जाता। चूँकि समझौता न होने से इन्हें ही नुकसान था - एक दिन बेकार जाता। बड़ी परेशानियों के बाद तो रामलीला होती - साल में एक बार, और उसमें भी एक दिन खाली। यही सोच कर निकली हुई लाठियाँ धरी रह जातीं। सूर्पनखा की नाक कटने वाले दिन लोग उसकी कटी नाक और ऐक्टिंग को देख कर हँस रहे थे और सूर्पनखा चारों ओर गेरू की बौछार कर रही थी हाय रे! मेरी नाक कट गई रे रावण भैया! और पारुआ ने मौके का लाभ उठा कार सामने पेड़ा फेंका दिया। लड़की तो मुस्करा दी, लेकिन पास ही खड़े हरिया पंडित ने इसका जबर्दस्त विरोध किया और नौबत यहाँ तक आ गई कि पारुआ का सिर अब कुछ ही क्षणों में तरबूजा होने जा रहा था। इसी बीच उसने झटपट निर्णय लिया और हरिया को एकांत में ले जा कर पनामा पिलाई, पान खिलाया और थोड़ी देर बाद बिटौरे में घुस गए दोनों। बन्नी जाट की लड़की पेड़े का स्वाद लेती हुई पेशाब करने आ गई। पेड़ों की ऐसी बौछार शायद ही कहीं होती हो, जितनी रामलीला में। रामलीला कहाँ चल रही है, इस फिजूल विषय पर सोचना बुजुर्गों का काम है, लड़कों का मन तो सामने ही रहता - चाहे सीता हरण हो, चाहे लक्ष्मण को शाक्ति लगे।


आँखों की भी आफत-सी आ जाती है उन दिनों। सरसों के तेल की बत्ती से पारे पर उतरी कालौंच से आँखें रोजाना रँगी जातीं। यदि कोई भूल भी जाता जल्दी-जल्दी में तो दुबारा भाग कर जाता और आँखें रँग कर आता चाहे जल्दी में आँखों - के साथ-साथ मुँह ही निशाचरों जैसा क्यों न हो जाय। सबकी आँखें दीये वाली दीवाल की तरह हो गई हैं - काली-काली।


ले-दे कर सारे गाँव में दो ही कुआँ हैं इसलिए भीड़ लगी रहती है नहाने-धोने वालों की। कुएँ पर साबुन लगाना मना है। अतः पास के ही तालाब में सारे गाँव के मैल का साबुन भर रहा है। डबल-शेर साबुन की इतनी खपत इसी महीने में होती, वरना पूरे साल मक्खियों के हगने से ऊपर के शेर भी अदृश्य हो जाते।


हरिजनों के दो मुहल्ले हैं और दोनों ही गाँव से बाहर। एक उत्तर की ओर, दूसरा दक्षिण की ओर। दोनों के पास पोखरे हैं, जिनमें वहाँ के लड़के कपड़ों पर डबल-शेर साबुन घिसते रहते हैं। दक्षिण वाला मुहल्ला वाल्मीकियों का है और उत्तर वाला जाटों का दक्षिण वालों को गाँव के सवर्ण रावण-टोला कहते हैं। इसका कारण इतना-सा है कि इसी मुहल्ले का सरपतिया रावण बनाने में सिद्धहस्त है। आस-पास के बारह गाँवों में कहीं भी रामलीला हो, रावण सरपतिया ही बनाता। सरपतिया का रावण देखने बारह गाँव तो क्या बाहर के लोग भी आते। उसके रावण में कोई-न-कोई विशेषता अवश्य होती। विशेषता न होती तो सुरीर का रावण व्यापार क्यों ठप्प पड़ता!


इस बार सरपतिया को पता नहीं क्या सनक सवार हुई कि उसने रावण बनाने के लिए साफ मना कर दिया। दो मन बाजरे में अब रावण नहीं बना सकता वह। पता है कितनी तेजी हो गई है हर चीज पर दो मन बाजरे में तो आतिशबाजी भी नहीं आ सकती, कागज और मेहनत तो दूर। और ऊपर से यह धौंस कि धूरगोला चालीस से कम न हों; सरपतिया! सरपतिया क्या अपनी झोंपडी बेच दे रावण के लिए। इतने बडे-बडे पेट वाले हैं गाँव में, लेकिन देने के नाम पर प्राण निकलते हैं। सबके। वैसे रामलीला में ऐसे बन-ठन कर आगे बैठते हैं- मानो रामलीला न हो कर इनके बेटे की शादी का जनवासा हो। और तब सरपतिया चबूतरे पर रुपया भी देने आ जाए तो पचास गालियाँ। बैठे रहो चन्ना के चढ़ाए पर इतनी दूर। स्वरूपों के चेहरे भी साफ दिखाई नहीं पड़ते। इस बार रावण बनवाना है, तो पाँच मन बाजरा लूँगा। अपनी मेहनत को क्यों छोड़ू, जब रम्मी बनिया ही नहीं छोड़ता तो। रम्मी बनिया वैसे हर साल हजारों डकार जाए और मंच पर ऐसे गद्गद हो कर नारे लगाता है, जय-जयकार करता है, पोपले मुँह में बिना सुपारी का पान रख कर, जैसे शंकराचार्य हो। जिंदगी-भर गले काटता रहा और अब चला है - शंकराचार्य की ऐसी-तैसी करने। सब साले खाऊ-पीर हैं। जो जितना बड़ा भगत है, वह उतना ही बड़ा बेईमान। रामलीला मंडली क्या है, बूढ़े बेईमानों की लुच्चई है - सरपतिया हरेक को जानता है, तह से और हमसे कहते हैं कि रामलीला...। हमारे लिए रामलीला और रावणलीला दोनों ही बराबर है। राम तुम्हारे होंगे, हमारे लिए तो जो रोटी देता है वही देवता है।


रामलीला मंडली इस विषय को ले कर बेहद चिंतित है। सरपतिया के लाख निहोरे किए हैं, सबने, लेकिन वह कहाँ मानने वाला। रात बाबूजी ने भी बातें की थीं कि - 'गाँव का मामला है, इसमें नुकसान फायदा नहीं देखा जाता। और भगवान के नाम पर तो जितना दे सको, उतना ही कम है, यह तो पुण्य का काम है।


सरपतिया पर इसका कतई असर नहीं हुआ। रावण तैयार होते न देख खज्जी की जोकरी का काम कुछ ज्यादा बढ़ गया है, हँसने-हँसाने में एक घंटा गुजार देता है वह और रामलीला एक-एक दिन करके रोज खिंच रही है। लड़के अत्यधिक प्रसन्न हैं। सरपतिया को आशीर्वाद दे रहे हैं मन-ही-मन।


एक दिन सुबह से ही नारायण बाबूजी के चबूतरे पर शाम तक पंचायत ठुकी। सारा गाँव इकट्ठा था हरिजन, जाटव और खटीक मुहल्ले के लोगों को छोड़कर। नाई वैसे ही अलग रहते हैं, जवान बंबई में कमा रहे हैं और बूढ़े खाटों में पड़े हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं। गाँव की राजनीति उन्हें इंद्रासन है। पंचायत कहीं भी हो जाट ही अधिक आते हैं। जाटों के लिए पंचायत का महत्व फ्री का हुक्का है। यहाँ भी वैसा ही है। आगे गाँव के संभ्रांत नागरिक हैं, और पीछे ठहलुवा लोग। पीछे वाले रामलीला के विषय को छोड़ कर हुक्के से दुश्मनी निकाल रहे हैं चिलम भर कर आई नहीं, कि लपक लिया बीच में ही। आगे वालों को अभी तक एक चिलम भी पूरी नहीं मिली। गीले कंडों का धुआँ पीछे छा गया है। नाक रगड़ते-रगड़ते लाल हो गई है, धोती का एक छोर पोंछते पोंछते भीग गया है। पंचायत में क्या हो रहा है, हुक्के की गुड़गुड़ाहट और चबूतरे के नीचे बच्चों की चिल्ला-पों कारण कुछ सुनाई ही नहीं पड़ रहा।


शाम को आरती के वक्त तक प्रस्ताव पास हो गया और सरपतिया से साफ-साफ कह दिया गया कि यदि उसने रावण न बनाया तो, उसे और उसके मुहल्ले के किसी सदस्य को खेत की मेड़ पर पाँव न रखने दिया जावेगा अंदर से हरा लेना तो दूर। सरपतिया के मुहल्ले को साँप-सा सूँघ गया है। करें तो क्या करें - कोई उपाय नजर नहीं आ रहा। दो मन बाजरे में तो वाकई अन्याय है, इस बेचारे का भी तो पेट है। और उन पर भी इतना पैसा नहीं कि सरपतिया की मदद ही कर सकें। इस साल कुछ पैसा कमाया भी, सड़क बनाते समय, तो वह भी अब ठिकाने लग गया। किसी ने धीरे-धीरे बूढ़ी होती लड़की की शादी कर दी तो किसी ने बहन की और किसी ने टूटी झोंपड़ी पर छान डाल ली। और फिर रह गए वैसे-के-वैसे ही नंग फकीर । 


हार कर रम्मी बनिया के साथ दो-चार आदमी सुरीर गए। सुना है वहाँ का सोना कढ़ेरा भी रावण बना लेता है। सरपतिया जैसा तो नहीं, पर काम तो निकाल ही देता है। बड़ी आशा दे कर सोना ने समस्त आशाओं पर पानी फेर दिया - सात मन बाजरे की कह कर सात मन में भी ऊँचाई छह फीट और पच्चीस धूरगोले जबकि सरपतिया दस फीट ऊँचा बना कर चालीस धूरगोले लगाता था। वापिस लौट आए, उतरा- सा मुँह ले कर।


रात को फिर पंचायत हुई, लेकिन कोई भी चंदा देने को तैयार नहीं हुआ। बाबू जी के मुँह की बनावट पिटे बराती-सी हो गई। बार-बार कहने पर वही घिसा-पिटा-सा जवाब मिलता - धरे हैं रुपए जो मिल जाएँगे, यहाँ पेटों के तो लाले पड़ रहे हैं, वहाँ रावण फूँकने को चंदा चाहिए। भाड़ में जाए रावण और ऊपर से पंच। गाँव में रुपए किसी पर भी नहीं। बाबू जी समझ गए, वास्तव में रुपए कहाँ हैं? रुपए होते तो गाँव की यह स्थिति होती। चारों ओर गरीबी का तांडव नृत्य। इसलिए बाबू जी ने सरल-सा उपाय निकाला। साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। बाबू जी हाईस्कूल-फेल हैं, पुराने जमाने के। अंग्रेजी का कागज आज भी बाबू जी ही पढ़ते हैं। गाँव के सारे पढ़े-लिखे नौजवान शहर में भाग गए, इसलिए बाबू जी की आज भी इज्जत वैसी ही है, जैसे पहले थी। बाबू जी ने निर्णय लिया कि भारत जैसे गरीब देश में रावण पर इतना पैसा खर्च कर के उसे जलाना वाकई गद्दारी है, अन्याय है। अतः इस वर्ष यह मेला सादगी से मनाया जावेगा। आगे बैठे लोगों ने बाबूजी की बुद्धि की दाद दी और पीछे वाले आगे वालों के सिर हिलते देख कर खुश हो गए। चलते-चलते हुक्के में कस कर कई घूँट मारी। मारे खाँसी के परेशान हो गए। खाँसी के वैशिष्ट्य को देख कर बाबू जी का पालतू कुत्ता भौंकते - भौंकते पगला गया।


रामलीला समाप्त हो गई। मंदिर पर टँगे पर्दे धीरे-धीरे हट गए। बाँस-बल्ली रात में किसी ने पार कर दीं। बहुत-सों की जलेबी खाने खिलाने की आशाओं पर सरपतिया ने पानी फेर दिया। हरस्वरूप की खाँड़ और मैदा की बोरी धरी रह गई - धीरे-धीरे नीचे से चूहों ने छेद कर दिए हैं। परेशान है हरस्वरूप हलवाई। चंपा ने ढेर सारे कंडे थाप कर घेर भर दिया है अब - कंडे भी निरापद हैं और चंपा भी।


रावण-टोले के सूअर परेशान हैं। पाँव भी फरैरे नहीं कर सकते । पोखरे के आस-पास पड़ी गंदगी ही भोज्य पदार्थ रह गई है। औरतें अँधेरे ही टट्टी फिर आती हैं, पोखरे के किनारे। खेतों वाले चिकनी तार ठुकी लाठियाँ लेकर रात-दिन पहरा-सा दे रहे हैं। मिल जाए कहीं कोई खेत और खेत के आस-पास, दिला दें छठी तक की याद। रावण टोला जेल-सा बन गया है। गाँव बदले की आग में जल रहा है।


अभी-अभी अफवाह उड़ी है कि रावण टोला में खैर की पैंठ से लाठियाँ आई हैं और साथ में...। नारायण बाबू जी रात-दिन अफवाहों का खंडन कर रहे हैं।


रम्मी बनिया के यहाँ पुलिस चौकी खुल रही है। हो सकता है - यह अफवाह ही हो, लेकिन सुना है - नारायण बाबूजी कह रहे थे। पता नहीं, बाबूजी क्यों कह रहे थे।


रावण टोला बदला लेने को तैयार है। कब तक ऐसे दब कर रहेंगे? जो होगा वह एक बार हो लेने दो देखा जाएगा!

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं