नितेश व्यास की लम्बी कविता 'कविता पूरे विश्व की मातृभाषा है'

 

नितेश व्यास


विश्व में सर्वाधिक लिखी जाने वाली विधा में निःसंदेह कविता अग्रणी है। वैसे भी आमतौर पर यह बात कही जाती है कि दुनिया का हर व्यक्ति प्रथम दृष्टया कवि ही होता है। वह लिखे चाहे न लिखे संवेदना के तौर पर कविता मनुष्य के दिल में हमेशा प्रवहित होती रहती है। नितेश व्यास ने अपनी लम्बी कविता 'कविता पूरे विश्व की मातृभाषा है' में उचित ही लिखा है कि 'कविता ही हो पूरे विश्व की मातृभाषा और एक मात्र भाषा भी/ जो आकाश से चुनती है अपनी वर्णमालाएं/ मात्राओं की चुनरी ओढ़े लहराती हवाओं सी/ विश्व में कहीं भी जन्मता है कोई भी जीव/ हिलती है पंखुडी/ उड़ती है तितली/ कविता जीवन के खुले पन्नों सी फड़फड़ाती है/ सवेरे की घास जब लगाती है माथे पर ओस की बिन्दी/ तब वही कविता दर्पण हो जाती है'। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं नितेश व्यास की लम्बी कविता 'कविता पूरे विश्व की मातृभाषा है'।

 


'कविता पूरे विश्व की मातृभाषा है'


नितेश व्यास


मैं जिस भाषा में सोचता हूं कविता

लिखता उससे अलग भाषा में

क्यूं न मैं कविता में ही सोचूं कविता और

कविता ही हो पूरे विश्व की मातृभाषा और एक मात्र भाषा भी 

जो आकाश से चुनती है अपनी वर्णमालाएं 

मात्राओं की चुनरी ओढ़े लहराती हवाओं सी

विश्व में कहीं भी जन्मता है कोई भी जीव

हिलती है पंखुडी

उड़ती है तितली

कविता जीवन के खुले पन्नों सी फड़फड़ाती है 

सवेरे की घास जब लगाती है माथे पर ओस की बिन्दी

तब वही कविता दर्पण हो जाती है

सूरज कितना ही तपे धरती पर

कविता-कौमुदी दबे पांव पीयूष-वर्षण को जरूर आती है

कविता परनालियों से गालियों तक 

और साहूकारों से दिवालियों तक पर रखती नज़र

सूरज कब टूट कर गिरेगा

कब कोई बच्चा उछालेगा 

अपनी जेब में से निकाल कर दूसरा चांद

तुम्हें पता भी नहीं चलेगा

पर कविता की कनपटी में दौड पड़ेगी सरसराहट

वो झट से बच्चे को थोड़ा और ऊंचा कर देगी

विश्व की एक मात्र भाषा है कविता 

लेकिन अज्ञातलिपि लिखी नहीं जा सकती प्रयत्नपूर्वक,

बहुत कुछ अगड़म-बगड़म 

तुकतराशी करता रहता हूं मैं भी दिन-रात

पकड़ने उस विश्व-भाषा का हाथ

वो पकड़ाती हैं उंगली कभी, कभी छोड़ देती कि

तुम मनुष्यों को उंगली पकड़ाओ 

तुम हाथ पकड़ चढ़ते हो सीधे कंधे पर

और फिर मूतते हो कान में धीरे-धीरे, थोड़ा दूर रहो



विश्व की एकमात्र भाषा कविता जिसमें सद्यप्रसूत शिशु रोता है

रोती है अमेरिका की अश्वेत आबादी

रोता है मार्क्स, लेनिन के आंसू पौछते हुए

रिल्के फाड़ता है फ्रेंज काप्पुस को लिखे सारे पत्र

कि नहीं मैं नहीं बताऊंगा तुम्हें कभी कविता के बारे में

कुछ भी अपेक्षा मत रखो मुझसे

उतरो उस एकान्त में जो समुद्र से भी गहरा नीला है

नहीं वह काला है,

वहीं ठीक वहीं जाओ

सो जाओ अपने को खो जाओ, रोए जाओ

कभी रोए थे कृष्ण भी

पैगम्बरों ने भरी थी डुसक-डुसक कर सिसकियां

सूली पर चढ़ते हुए ईसा मसीह इसी भाषा में मुस्कुराए थे

और मेरे गुनाहों की माफी मांगी थी

फिर फिर कहता हूं

याद करते हुए उन सभी मृतात्माओं को जो अकारण लड़े गये 

युद्धों की बलिवेदियों पर हताहत हुए

जिन्हें पता भी नहीं था कि वे एक दूसरे को क्यूं काट रहे हैं

सब कुछ काट-कूट देने के बाद उनके शव 

उनकी आत्माओं की अर्थियां सजाते हुए रोए 

इसी भाषा में

जिस भाषा में रात रात भर रोता हुआ 

मैं कुत्तों की भूंक में मिलाता हूं अपनी हूक





पूरे विश्व की माता होने के कारण 

कविता ने ही उठाये हैं अपने कंधों पर अनगिनत शव

वो गयी है हर कब्रगाह

हर श्मशान

शवदाह के सारे प्रकारों के साथ घूमी है वह जंगल-जंगल

पर्वत-पर्वत

नदी-नदी

जहां जहां बसी है सभ्यताएं 

वहां वहां रचे गये मरघट

मृत्यु के सफल आयोजन के लिए

जलाई जाने वाली लकड़ियों

और डाली जाने वाली ख़ाक

की मुठ्ठियों में कभी नहीं कसी गयी

विश्व की मातृभाषा

मात्र भाषा ही थी जिनके पास

उनके पास कभी नहीं गयी यह

भटकी है आदिवासियों के बीच जंगलों में 

काममोहित क्रौंच की प्रणय-पूकार-मात्र में ही नहीं बैठी,

कुछ क्षण वह बहेलिये के तीर पर भी चढ़ी

फिर जा बैठी ऋषि के श्राप में

कहां कहां नहीं बैठी

विश्ववारा जो है

विश्वकविता है विश्वभाषा है

कितनें ही युद्धों-गृहयुद्धों की तर्जनी पकड़ कर 

छोड़ आयी है उन्हें उनके अदृष्ट पिताओं की 

अपूरित आकांक्षाओं के गृहद्वार



वे सारी मूर्तियां जो

विश्व के तमाम शहरों के गलियों-चौराहों पर खड़ी है

अपनी सूखी मालाओं के साथ

उन सब की परछाइयां दीखती है इसके व्याकरण में

अक्षरों का अनश्वर रूप

पदों के लालित्य से परिपूर्ण हो 

वाक्यों की रसात्मकता से भिगोता आया है युग-युग को,

कभी ऋग्वैदिक छन्दों की डोली में बैठ पग-पग बढ़ी 

तो कभी छन्दों को पछाड़ यजुषों के मनोरम गद्यों पर 

पग धरती हुई सड़क पर पैदल ही निकल पड़ी

कभी साम की एक हजार शाखाओं पर सहस्रपदा हो कर थिरकी

कौथुमी, राणायनीय, जैमिनी ओर भी न जाने कहां कहां

अपने मकरन्द से कन्द-कन्द को स्वच्छन्द करती हुई 

तुम विचरी हो

ओ विश्वकविते!






तुम्हारी यात्रा के आरंभ में भी मैं नही था 

और तुम्हारी यात्रा के अवसान बिन्दु पर भी मैं नहीं रहूंगा

मैं झूलता हूं तुम्हारी दो धाराओं के बीच में

उसे कोई पौर्वर्त्य कहे कोई पाश्चात्य 

कोई छान्दस् कहे कोई मुक्त

कोई वर्णिक कहे कोई मात्रिक

कोई मांत्रिक कहे कोई तांत्रिक

कोई यांत्रिक कहे कोई आन्तरिक



तू स्वयं को क्या कहे?

तू ही बता

कि देखते हुए को तू नहीं देखती

सुनते हुए को तू नहीं सुनती

लेकिन तू जिसे चाहती है

उसे ही देखती है उसे ही सुनती है उसे ही चुनती है

मुझे मत देख मुझे मत सुन,

सुन, मेरे भीतर सिसकते शून्य को

जो अपने पेट के बल मेरी छाती में घिसट रहा है

देह की दीवारों पर मौन के मुक्के मार रहा है

जिसकी जीभ चिपकी पड़ी है उसके तालुए से

जिसके दांत अपने उच्चारणों को भूल गये हैं

कंठ जिसका हैं रुंधा 

उस घिसटते शून्य को एक बार भर ले अंक में 

ओ विश्वकविते

ओ विश्वकविते दे मुझे

स्तन्यदान

कि नासिका से श्वास के आवागमन की सार्थकता को समझ कर

छोड़ दूं उसको कहीं फिर अनन्त में कि फिर फिर

पाता जाये कोई विश्वकविता का स्पन्दिन-प्राण।।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स अनुष्का द्विवेदी की हैं।)



सम्पर्क

मोबाइल : 09829831299

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर और गहन कविता. कविता की वैश्विक व्यापकता को परिचित करवाती यह कविता। कविता वाकई विश्व की मातृभाषा है।

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