हिदेआकी इशिदा से पंखुरी सिन्हा की बातचीत

                       

हिदेआकी इशिदा के साथ पंखुरी सिन्हा 



हिदेआकी इशिदा का जन्म 20 सितंबर 1949,  क्योतो शहर, जापान में हुआ। टोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज़ से हिंदी में एम. ए. करने के बाद, उन्होंने टोक्यो के डायटो बंका विश्वविद्यालय में 28 वर्षों तक अध्यापन किया। उनके अध्ययन के विषय आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य से जुड़े रहे हैं। उपन्यास, कहानी, कमज़ोर वर्ग पर लिखित रचनाओं में रुचि रही है. उनकी प्रकाशित कुछ पुस्तकें हैं, आलेख; उदय प्रकाश की कुछ रचनाओं का जापानी में अनुवाद, राही मासूम राजा के उपन्यासों में चित्रित मुसलमानों की समस्या। अभी पढ़ाई के दिनों से ही, वे दिल्ली विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग से जुड़े रहे हैं, और आज भी भारत आते जाते रहते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं जापानी हिन्दीविद हिदेआकी इशिदा से पंखुरी सिन्हा की बातचीत।


हिदेआकी इशिदा से पंखुरी सिन्हा की बातचीत


1 आप सबसे पहले हिन्दी की ओर कब और कैसे आकर्षित हुए? 


जब मैं यूनिवर्सिटी में दाखिला ले रहा था तब विषय के रूप में भारत को चुना था। भारत में हिन्दी अपने आप आ गई थी। भारत चुनने का कारण यूँ था कि एशिया को चुनने से दाखिला ज़रा आसानी से मिल रहा था। तो एशिया में कौन सा देश चुना जाए? जापान के आसपास जो देश हैं, चीन, कोरिया वगैरह, इन देशों में और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में भी द्वितीय महायुद्ध में जापानी सेना गई थी वहाँ आज भी कुछ देशों में जापान के प्रति बुरी भावना है, इसलिए इन देशों को मैंने अपनी फ़ेहरिस्त से निकाल दिया। ईरान, अरब तो अधिक दूर हैं इस लिए इनको भी निकाल दिया। इस तरह निकालता गया तो अंत में भारत ही रह गया था। फिर भारत से जापान का सांस्कृतिक संबंध भी काफ़ी है इस लिए लगा भारत बहुत अच्छा विषय है। हाँ, ईमानदारी से कहें तो दाखिला लेना सबसे बड़ा उद्देश्य था, भारत इस अर्थ में गौण था, यह अब भी मेरे मन में कचोट पैदा करता है।     

             

2. हिन्दी पढ़ना और पढ़ाना आप के लिए कैसा अनुभव रहा? 

जैसा कि ऊपर कहा है भारत या हिन्दी पढ़ने के लिए, शुरू में, मैं बहुत उत्सुक नहीं था। बी. ए. में पढ़ते हुए भारत कैसा देश है, भारतीय संस्कृति कैसी है, हिन्दी कैसी है आदि प्रश्नों को मैंने गंभीरता के साथ शायद कभी भी सोचा नहीं था। बी. ए. के बाद असल में नौकरी करनी थी, लेकिन मेरा मन अभी नौकरी करने को तैयार नहीं था। लेकिन बेकार भी नहीं रह सकता, कुछ न कुछ करना चाहिए। इसलिए पिता जी से कहा कि मैं आगे पढ़ूँगा। आप देख सकती हैं यह आदमी कितना नालायक है। किसी अध्ययन के लिए पढ़ना नहीं, नौकरी से बचने के लिए बहाना ढूँढ़ रहा है, बस। यह सब कहते हुए अब भी बहुत लज्जित हूँ। 

खैर मैं एम. ए. में आ गया। एम. ए. में जापान में शोध-प्रबंध लिखना अनिवार्य है। मैंने जैनेन्द्र कुमार को अपने प्रबंध के विषय के लिए चुना था (वैसे तो बी. ए. में इला चंद्र जोशी प्रबंध का विषय था।) फिर एम. ए. में पढ़ते समय दिल्ली आ गया था इस तरह धीरे-धीरे हिन्दी से जुड़ता गया और संबंध मज़बूत होता गया। 

हिन्दी पढ़ाना मेरे लिए शिक्षक की नौकरी का एक हिस्सा था जिसमें छात्रों की याद ज़्यादा आती है। 

                                

3. आप भारतीय संस्कृति से जुड़े हैं। क्या यह जुड़ाव आप को खूबियाँ और खामियां दोनों देखने देता है? 

मैं भारत को हमेशा साहित्य में देखता आया हूँ। समाज भी, राजनीति भी, इतिहास भी, संस्कृति भी और शायद प्रकृति तक साहित्य के मारफ़त देखता रहा। हिन्दी साहित्य में अपना अध्ययन जारी रखने के लिए मैंने अपना विषय “हिन्दी साहित्य और सामाजिक समस्याएँ” चुना था। भारत की सामाजिक समस्याओं में जाति व्यवस्था की समस्या विदेशियों का ध्यान आसानी से आकर्षित करती है। असल में यह समस्या कितनी मुश्किल है यह नौसिखिया विदेशी क्या जाने। यह हाल मेरे साथ आज तक चलता आ रहा है। खैर महाराष्ट्र में बहुत पहले दलित साहित्य शुरू हुआ था तो मैंने मराठी में दलित साहित्य पढ़ने की कोशिश की थी, फिर बाद में हिन्दी में भी शुरू हुआ था। लेकिन जाति व्यवस्था की समस्या सिर्फ़ दलितों की नहीं है, बल्कि तमाम भारतीय समाज की है। ब्राह्मणों में भी, ठाकुरों में भी, बनियों में भी और सभी भारतीयों की समस्या है। (बात अधिक लंबी हो जाएगी इसलिए यहाँ तक करता हूँ।) सामाजिक समस्याओं में मुसलमानों और स्त्रियों की समस्याएं भी मैं अपने विषय में लेता रहा। इधर जापान में महिला अध्येता बहुत हैं इसलिए स्त्रियों को उनके ऊपर छोड़ दिया है और मैं मुसलमानों की समस्याओं पर आ गया हूँ। 

आपने खूबियों के बारे में भी पूछा है। सामाजिक समस्याओं में खामियों की बातें स्वाभाविक रूप से आ जाती हैं। भारतीय समाज की बुराइयाँ करना मेरा उद्देश्य थोड़े ही है। समाज में लोग जीते हैं तो सुख-दुःख सब तरह के अनुभव सब के ऊपर आ जाते हैं। किस बात में सुख या दुःख का अनुभव करेगा यह अनुभव करने वाले पर निर्भर करता है। दुखों में रहने वाले को मामूली सुख भी महासुख लगता होगा। इस तरह की सापेक्षता को ध्यान में रखते हुए भारतीय लोगों को किस तरह के अवसर, स्थिति, माहौल में सुख या दुःख का अनुभव होता है इसको साहित्य में देखना भारतीय लोगों को और समाज को समझने में सहायक हो सकता है ऐसा लगता है। 

मानसिक सुख-दुःख से हट कर ठोस चीजों की बात हो तो सबसे पहले खाने की चीजें आती हैं। अच्छा खाना बनाना यह भी एक कला माना जाता है। फिर कला की बात हो तो संगीत, नृत्य आदि दुनिया में अद्वितीय है। इन सब के आधार पर प्रकृति की बहुलता और संपन्नता है। फूल, पौधे, वृक्ष, फल, छोटे कीड़ों से ले कर बड़े जानवरों तक, फिर नदी, पहाड़, रेगिस्तान, घने जंगल ये सब भारतीय सौन्दर्य के अटल तत्त्व हैं। इन सब के आधार पर किसी को अगर दैवी अनुभव होता हो तो इस अनुभव के आगे मैं भी नतमस्तक रहूँगा।     


4. अपने कुछ प्रिय लेखकों के बारे में बताईये? 

कहने की जरूरत भी नहीं होगी कि मैंने बहुत ही कम पढ़ा है। किसी लेखक पर मेरा मूल्यांकन कहाँ तक सही है इस पर खुद मेरा अपना भरोसा नहीं है। फिर भी मुझे ऐसा लेखक पसंद है जो मुझे लगता है कि अपनी रचनाओं में यह देखने की और लिखने की कोशिश करता है कि भारत क्या है भारतीय लोग कैसे हैं। कुछ नाम हैं हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, अमृत लाल नागर, रेणु, भीष्म साहनी। इनकी सारी रचनाएं मैंने पढ़ी हैं ऐसा थोड़े ही है, कोसों दूर हूँ। 

            

5. आपने हिन्दी की कुछ कृतियों का जापानी भाषा में अनुवाद किया है। कुछ के बारे में और चुनाव प्रक्रिया के बारे में बताएं।


पहली शर्त है वह कृति मुझे अच्छी लगती है। दूसरी शर्त है भाषा ऐसी हो जिसका अनुवाद मेरे बस में हो। बहुत सी रचनाएं हैं जो मुझे पसंद हैं लेकिन जिनकी भाषा इलाकाई बोली युक्त होने से अनुवाद की बात सोची नहीं जा सकती। 

   

6. आप ने भारत में कुछ यात्राएं भी की हैं। जैसे नालंदा, गया, सारनाथ। इस अनुभव को साझा करें। 


गया से आपका अर्थ बोधगया से होगा। तीनों बौद्धों से संबंधित स्थल हैं। नालंदा मैं एक या दो बार ही गया होऊँगा। स्पष्ट स्मृति नहीं है। बोधगया कई बार गया होऊँगा। गौतम बुद्ध से संबंधित किंवदंतियाँ हैं इसलिए रोचक लगा था। सारनाथ में भी कुछ बातें हैं लेकिन बोधगया से कम रोचक लगा था। कुशीनगर, लुम्बिनी (नेपाल में) आदि अभी तक नहीं गया हूँ। जाना चाहिए। 

           

7. आप को क्या लगता है हिन्दी के विदेशी विद्वानों की हिन्दी साहित्य में क्या भूमिका होनी चाहिए? 


विदेशी विद्वानों में बहुत ही अच्छे काम करने वाले भी जरूर होंगे। उनके काम आदर के साथ देखे जाने लायक हैं। 

  

8. क्या आप को नहीं लगता कि हिन्दी के आम लेखक पाठक, हिन्दी के विदेशी विद्वानों के बारे में ठीक से जानते तक नहीं। उदहारण के तौर पर, पोलैंड, हंगरी, स्वीडन समेत यूरोप के कई देशों में हिन्दी साहित्य के अध्यापन के लिए विभाग हैं, जहाँ कार्यरत कितनी ही प्राध्यापिकाओं को हिन्दी के कई लेखक जानते तक नहीं! इस हिन्दी भाषी समाज की दूरियों को कैसे पाटा जाए?


विदेशी अच्छे अध्येताओं के रोचक लेखों निबंधों का संकलन करके आप छपवाइए। (अगर लोग पुस्तक नहीं पढ़ते हों तो अध्येताओं को बुलवा कर किसी टीवी शो में बोलवाइए। कपिल शर्मा शो भी ठीक है।) 


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मोबाइल  - 09968186375


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