रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण 'नयी साड़ी'




स्त्री जीवन की त्रासदी किस प्रकार की होती है, इसका अनुमान तक लगा पाना सम्भव नहीं है। कभी-कभी ये त्रासदी कहानी या असम्भव जैसी लगती है लेकिन होती यह सच ही है। रुचि बहुगुणा उनियाल ने अपने संस्मरण में बारीकी से इस सच को उकेरने का काम किया है।  वह सच जो उन्होंने अपनी आंखों देखा है, जिसे महसूस किया है। अपरिहार्य कारणों से हम पिछले महीने श्रृंखला की इस कड़ी को हम प्रस्तुत नहीं कर पाए थे। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण 'नयी साड़ी'।


नयी साड़ी 


रुचि बहुगुणा उनियाल


बच्चों के लिए कपड़े लेने आए हैं लेकिन कुछ भी पसन्द ही नहीं आ रहा….. कपड़े देखते-देखते अचानक ही नवनीत जी कहने लगे, 'रुचा तुम्हें कुछ लेना है अपनी पसन्द का? कोई साड़ी-सूट लेने की इच्छा है तो कहो?' मैं तुरंत मना करती हूँ कि, 'ना ना मुझे कुछ नहीं चाहिए' हम गृहणियां भी कितनी अजीब होती हैं न अपने शौक-मौज और पहनने-ओढ़ने की आवश्यकताओं को  घर-परिवार से पहले कभी ख़याल में भी नहीं लातीं। 

                                

अक़्सर ही हम लोग जब ख़रीददारी करने आते हैं तो अकेले ही आते हैं, चूंकि आज हम लोग देहरादून आ रहे थे और यहाँ रुकेंगे सो माँ को भी साथ आने कहा….. इसलिए माँ भी आयी हैं साथ में हमारे। यहाँ देहरादून मेरा मायका है तो माँ के बड़े भाई साहब (माँ उन्हें भैजी कहती हैं) भी यहीं रहते हैं। मैं नवनीत जी को अभी आयी कह के तुरंत बाहर गाड़ी की ओर लपकी…… माँ गाड़ी में बैठी एक भजन गा रही हैं। मैंने माँ से पूछा……. 

'माँ कुछ लेना है आपको? आपको साड़ी तो नहीं चाहिए?' ये सुन के माँ ने कहा कि, 'सूती धोती अच्छी होती हैं न….. सरकती नहीं और बांधने में सरल होती हैं'।


मैं माँ का मन समझ चुकी हूँ इसलिए कार का दरवाज़ा खोल कर उन्हें बाहर आने के लिए कहा और कार लॉक की। अब माँ हमारे साथ अंदर हैं और हम दोनों सास-बहू साड़ी वाले सेक्शन में सूत की धोतियां देख रहे हैं। 


बाहर फोन पर बात करते हुए नवनीत जी की एक नज़र फोन पर तो दूसरी नज़र हम दोनों सास-बहू पर ही है। हमारे बीच जो तालमेल है उसे देखते हुए वो चुपचाप मुस्कुरा भी रहे हैं, फिर अचानक ही आ कर बोले

 'अरे भई कितनी देर से साड़ियां देख रहे हो तुम दोनों, कुछ लिया भी या ऐसे ही टाइम पास कर रहे हो?' 

मैं माँ को पसंद आयी धोतियां उनके सामने रख देती हूँ….. बिना कुछ कहे उन्होंने चुपचाप पेमेंट किया और हम लोग गाड़ी में आ कर बैठ गए। 


नवनीत जी माँ को चिढ़ाते हुए कहते हैं,' माँ तू कितने कपड़े ख़रीदती है न….. कहीं ऐसा न हो कि हमें दवाई की दुकान के अलावा कपड़ों का काम भी शुरू करना पड़े'।


ऐसा कह के उन्होंने अपनी ही बात पर एक ज़ोर का ठहाका लगाया और मेरी ओर देखा। लेकिन माँ पीछे चुपचाप बैठी हुई हैं और मैं इस चुप्पी के भीतर की पीड़ा को भलीभाँति समझ रही हूँ। जब हम दोनों को चुप देखा तो शायद नवनीत जी को भी अपना हंसना ठीक नहीं लगा और वे चुप हो गए। माँ के जीवन में हमेशा ही बहुत संघर्ष रहा है लेकिन इस संघर्ष के साथ-साथ पीड़ा समानान्तर रूप से उनकी सहोदर बनी रही। मुझे माँ के जीवन में घटी सब घटनाओं के बारे में ख़ुद माँ ने ही बताया, ऐसा नहीं था कि उन्होंने मुझसे ज़्यादा प्रेम किया और अपने बच्चों से नहीं, बल्कि यह मात्र पीड़ा को संभालने के लिए सुपात्र व कुपात्र की बात रही सदा। 





बात लगभग साठ के दशक की है तब तक भले टिहरी रियासत का भारत गणराज्य में विलय हो चुका था परन्तु टिहरी के आम लोगों की गुलाम मानसिकता राजशाही की तानाशाही अनुसार ही थी इसीलिए घरों में ब्वारियों के लिए तो यह तानाशाही ख़त्म होने का प्रश्न ही नहीं था। 


डोभ गाँव की ये ब्वारी भले ही दूसरी बेटी की माँ बन चुकी थी लेकिन फिर भी उसे अपने लिए कोई भी निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं थी, यहाँ तक कि उसके पति को भी माता-पिता की आज्ञा बिना अपनी पत्नी या बच्चों के लिए कोई निर्णय लेने की स्वतंत्रता क़तई नहीं थी। गाँव में उनके दो घर थे जिनमें से नये वाले, अपेक्षाकृत दूर बने घर में ही ब्वारी का रहना होता जब भी उसका पति घर आता। पति-पत्नी को जो भी बात करनी /कहनी होती वो दोनों केवल रात में ही कर सकते थे…… जब दोनों साथ हों! सबके सामने तो एक-दूसरे की ओर देखना भी उन्हें उद्दण्ड और बिगड़ा हुआ प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त होता। 

      

तब तक गाँवों में ताला-चाबी लगाने जैसे प्रयोग ग्रामीण नहीं करते थे और यदि करते भी थे तो वो घर के बड़े-बुजुर्ग ही कर सकते थे।  ब्वारियों को तो इस बात की आज़ादी बिलकुल नहीं थी कि वे अपने लिए कोई कमरा या फिर संदूक को ताला लगा कर रख सकें।

   

'पौष या माघ' महीने की छुंई है…… गंगा जी का पानी छूने में भी सिहरन हो रही है इतनी ठंड पड़ती है इन महीनों में, ब्वारी का पति घर आया है….. इस बार वो घर आते समय ब्वारी के लिए दो बड़ी ही सुन्दर साड़ियां साथ लाया है। बाहर झमाझम बरखा लगी थी लेकिन जब वो घर पहुँचा तो बरखा थम गई लिहाज़ा उसने अपना छाता बंद कर लिया। घर आ कर सबसे मिलने और खाना खाने में रात के आठ-साढ़े आठ बज गए हैं। गाँवों में रात के साढ़े आठ वो भी सर्दियों के मौसम में मतलब आधी रात हो गई माना जाता था, कारण कि गाँव में सुबह तीन-चार बजे जागने का नियम था। जो ब्वारी देर से जागती समझो कि वो बेहया है और उसकी माँ ने उसे कुछ सिखाया-समझाया नहीं। 

         

ब्वारी सब काम निपटा कर अपने नये बने मकान में अपने कमरे में आयी जहाँ वो तब रहती थी जब उसका पति घर आता था। अघोषित नियम की तरह उसके लिए भी कोई कमरा नहीं था और न ही कोई ताला-चाबी लगाने की सुविधा थी। कमरे में आयी तो उसने जैसे ही किवाड़ खोले सामने जल रहे लैम्प की पीली रौशनी में पति को बिस्तर में रज़ाई ओढ़े छोटी वाली बेटी को सुलाने का प्रयास करते देखा। ठंड से उसके हाथों की ऊँगलियां सुन्न पड़ गई हैं लेकिन ब्वारी तो इंसान की श्रेणी में गिनी ही नहीं जाती थी तब कि उसके लिए गर्म पानी जैसी व्यवस्था हो। वह चुपचाप आ कर बिस्तर पर बैठने को हुई ही थी कि उसके पति ने बड़े धीमे से कहा, 'त्वैथैं साड़ी ल्हयांयी मेरी तै छतरा का भीतर देख ले' (तेरे लिए साड़ियाँ लाया हूँ मैं उस छाते के अंदर देख ले) वो आश्चर्य से भर उठी यह पहली बार था जब वो उसके लिए कुछ लाया था। अक़्सर सास को कहना पड़ता था वो भी बहाने से कि मुझे फलानी चीज की ज़रूरत है। शौक-मौज और श्रृंगार जैसी बातें तो दूर की कौड़ी थी उसे ज़रूरत की चीजें भी समय पर मिल गई हों ये भी गनीमत था। उसने छाता खोला तो उसके अंदर दो साड़ियाँ एक पॉलिथिन बैग में पैक नज़र आईं। ख़ुशी से एकबारगी उसकी आँखें सजल हो गई।

           

अभी ठीक तरह से ख़ुश भी नहीं हो पायी थी कि अचानक उसके ज़हन में सास की गालियाँ, ससुर की तीखी प्रतिक्रिया और ननद का चेहरा घूम गया। तुरंत साड़ियाँ वापस छाते में डाल कर वो पलटी और पति को कहा, 

'अर जी थैं कख छ साड़ी? अर गोदाम्बरी थैं?' (जी मतलब सास जी, सास जी के लिए कहाँ है साड़ी? और गोदाम्बरी के लिए?) 


उसके पति ने जवाब दिया कि अगली बार जब आएगा तो माँ और बहन के लिए भी लेकर आएगा अभी तो केवल उसी के लिए ये साड़ियाँ हैं। इतना सुनते ही घबराहट में बेचारी ब्वारी के माथे पर इतनी कड़ाके की ठंड में भी पसीना छलछला आया। उसे अच्छी तरह पता था कि इन साड़ियों के लिए अब घर में बवंडर होगा इसलिए उसने साड़ियाँ वापस ले जाने के लिए कहा। अपने पति को समझाने की कोशिश करते हुए उसने कहा कि जब वो उन दोनों के लिए साड़ियाँ लाएगा तब ये साड़ियाँ उसे दे दे तो कोई कुछ नहीं कहेगा। लेकिन पति ने इस बात से इंकार कर दिया। उसने कहा कि वो तब तक इन साड़ियों को पहन नहीं सकती इसलिए वापस ले जाना ही ठीक होगा लेकिन पति ने कहा कि तू इन्हें यहीं रख वहाँ मत ले जाना। 

  

अब बहस करने का कोई फायदा नहीं था इसलिए वो चुपचाप उन साड़ियों को बिस्तरों के नीचे छुपा कर सोने चली आयी। पति के प्रेमिल उपहार से जहाँ मन खुश था वहीं कल उसके जाने के बाद होने वाले बतंगड़ से भयभीत भी था। ख़ैर जैसे-तैसे चिंता में ही ब्वारी की रात कटी और सुबह चार बजने से पहले ही वो कमरे से बाहर निकल गई। 

  




इधर सास-ससुर के साथ साथ ननद की जिज्ञासा भी रात से उफान पर थी कि आख़िर छाते में क्या था? क्योंकि घर में नियम था कि जब भी बेटा आता तो दूसरे मकान में जाने के पहले सब कुछ अपनी माँ के हवाले कर देता था। इस तरह ब्वारी के लिए कुछ लाया गया या नहीं ये सबकी नज़र में रहता और बेटा-बहू के बिगड़ने का कोई ख़तरा नहीं रहता था। बेटे का छाते को न छोड़ना और साथ में दूसरे मकान ले जाना उनके मन में पक्का कर गया था कि ब्वारी के लिए कुछ लाया गया है। 


ब्वारी के बाहर निकलने के बाद उसके सास-ससुर ने उसके कमरे में जाने का निर्णय लिया। सुबह जब ब्वारी कमरे से बाहर निकल गई और लगभग सात साढ़े सात बजे उसका पति भी कल्यौ की रोटी (नाश्ता) खा कर वापस लौट गया तो सास-ससुर दोनों कमरे में आए। उन्होंने सबसे पहले कमरे में अपने बेटे का छाता ढूँढना शुरू किया। लेकिन छाता तो बेटा अपने साथ वापस ले गया था। फिर उन्होंने कमरे में हर कोने में ढूँढ शुरू की, कि कोई नयी चीज़ मौजूद हो तो उन्हें सबूत मिले। 

       

जब बहुत देर ढूँढने के बाद भी कुछ नहीं मिला तो दोनों लौटने को हुए कि तभी सास के दिमाग़ में आया कि गद्दे रज़ाई के बीच भी ढूँढना चाहिए। जैसे ही उन्होंने पुरानी रज़ाई उठायी उसके बीच से साड़ियाँ गिर कर सामने आ गई। सास-ससुर का माथा ठनका कि उन्हें बताए बिना बेटा बहू के लिए उपहार लाया और तो और उन्हें लाने के बाद भी नहीं बताया कि कुछ लाया है। 

                   

दोनों जन कमरे से सीधा घर आए और ब्वारी को कोसने लगे कि उसने उनके बेटे को बदल दिया… सिखा-पढ़ा दिया। जब ब्वारी दोपहर को घर लौटी तो देखा कि उसके ससुर जी जो पूरे परिवार में एकमात्र उसका पक्ष लेते थे, गुस्से में तिबारी में एक पतली छड़ी लिए इधर से उधर चक्कर लगा रहे हैं। सास पीछे की देहरी में बैठी बड़बड़ा रही है और उसके साथ-साथ उसके पूरे मायके वालों को कोस रही है। 


बहुत देर उन्हें देखने के बाद उसने कहा, 

'मैंन नी मंगायिन ये धोती वु त आफ्फु ल्हयांयिन, मैंन ऊंथैं कुछ नी बोलिथौ' 'हे जी! कुरोध न करा अर युं साड़्यों थैं तुमि रख ल्या, एक तुमुक ह्वै जाली अर हैंकी गोदाम्बरीक ह्वै जाली' (मैंने नहीं मंगायी ये साड़ियाँ वो तो अपने-आप ही लाये, मैंने उन्हें कुछ भी नहीं कहा था। हे जी, क्रोध न कीजिए और इन साड़ियों को आप ही रख लीजिए, एक आपके लिए हो जाएगी और दूसरी गोदाम्बरी के लिए हो जाएगी) 


उस के ऐसा कहने पर सास का बड़बड़ाना थोड़ा कम हुआ लेकिन ससुर जी अब भी गुस्से में उस छड़ी को लहराते हुए अपनी गढ़वाली में नहीं बल्कि हिन्दी में बोलते हुए चक्कर लगा रहे थे कि, 'हमारा पाला-पोसा बच्चा आज हमसे ही बातें छुपाने लगा है, इतने बड़े हो गए हैं बच्चे कि हमें कुछ नहीं समझते'।

    

काफी देर तक ऐसे ही बोलने के बाद ससुर जी चुप हुए लेकिन ब्वारी ने अब ग़लती से भी उन साड़ियों को छुआ तक नहीं। 


मन में बसे वो साड़ी के रंग उसके लिए बड़े सुन्दर थे एक हल्का गुलाबी रंग और दूसरी साड़ी लाल रंग पर हल्की पीली बुंदकियों वाली थी। 


कुछ समय बाद गुलाबी साड़ी तो गोदाम्बरी के ससुराल उसे भेज दी गई जिसे देते समय एक बार भी ब्वारी को पूछा तक नहीं गया। उसके बाद भी लाल साड़ी सास के पास ही रखी थी। यह लाल साड़ी इतनी सुन्दर थी कि उसका मन करता चुपके से कभी उसे पहन ले, लेकिन उसने डर के मारे और तानों का सोच कर वो साड़ी नहीं पहनी। कुछ समय बाद ही उसके ससुर जी का देहांत हो गया और गाँव के चलन और रूढ़िवादी परंपराओं के हिसाब से अब उसकी सास ये लाल रंग की साड़ी नहीं पहन सकती थी लेकिन फिर भी सास ने साड़ी उसे नहीं दी। 

              

कुछ महीनों बाद उनके गांव का हलिया (खेतों में हल जोतने वाला) अपनी बेटी की शादी में डोली के लिए एक चटख रंग का कपड़ा उसकी सास से मांगने आया। उसकी सास ने उसके सामने ही वो लाल रंग की साड़ी, जिसका कपड़ा इतना मुलायम था कि वह अपने मन में कई बार उसके सुकोमल स्पर्श को अनुभव किया करती थी, उठा कर उस हलिया को दे दी। ब्वारी ठगी सी देखती रही और आँखों में आँसू आ गए यह सोच कर कि जो सुकोमल प्रेमिल भेंट पति ने प्यार से उसके लिए ली थी वह उसकी आँखों के सामने ही उस हलिया को दे दी गई। 


बेटी की शादी के बाद वो हलिया सकुचाते हुए साड़ी हाथ में लिए आया और माफी मांगते हुए उसकी सास से बोला कि जहाँ बेटी विदा हो कर गई वहां का रास्ता घने काँटेदार जंगल से हो कर गुजरता है इसलिए काँटों में बुरी तरह उलझ कर ये साड़ी रेशा-रेशा उधड़ गई है। 


बेचारी ब्वारी अपनी आँखों से उस साड़ी का हाल देख कर मन ही मन ख़ूब रोयी। 

   

जब भी माँ के लिए कोई साड़ी ख़रीदी माँ उसे छू कर अक़्सर ही अपने पति की पहली प्रेमिल भेंट को महसूसने की कोशिश करती हैं जो उन्हें पहनने को भी नहीं मिली।


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स अनुष्का द्विवेदी की हैं।)



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं