आशीष कुमार का आलेख 'गुमनाम किरदारों ने दिए हैं सितारों को उनके नाम'

 



दुनिया में आम तौर पर दो तरह के लोग होते हैं। एक वे जिनके बारे में सब जानते समझते हैं, और जिनकी सामाजिक पहचान या वर्चस्व है। दूसरे वे जो होते हुए भी उपेक्षित हैं। जिनकी सत्ता को समाज द्वारा हास्यास्पद बना दिया गया और जो अपने अस्तित्व के लिए आज भी संघर्षरत हैं। थर्ड जेंडर ऐसा ही वर्ग है जो समाज द्वारा उपेक्षित किए जाने के बावजूद अपने अस्तित्व को आज भी बचाए हुए हैं। हमारा समाज इन्हें परिष्कृत रूप से किन्नर कहता है तो भदेस रूप से इन्हें हिजड़ा या छक्का कहा जाता है। हिन्दू परम्परा में परंपरागत रूप से सप्त ऋषियों, पंच कन्याओं को स्मरण करने की परंपरा रही है लेकिन इनका जिक्र जहां भी हुआ, बेचारगी के तौर पर ही हुआ। यह सुखद है कि वैचारिक तौर पर अब इनके बारे में भी खुल कर बातें होने लगी हैं। साहित्य से ले कर फिल्मों तक का विषय यह थर्ड जेंडर बनने लगा है। 


आशीष कुमार युवा आलोचक हैं। कम लिखते हैं, लेकिन जब भी लिखते हैं, जम कर या कह लें रम कर लिखते हैं। लिखते समय वे विषय में उतर कर लिखते हैं इसीलिए इनका लेखन गंभीर होता है। वे झूठी तारीफ नहीं करते। कोई बेबाक ही यह बात लिख सकता है कि 'थर्ड जेंडर पर बनी फिल्मों की एक लंबी फेहरिस्त मेरी डायरी में दर्ज है। हैरत की बात है कि ये सारी फिल्में चलताऊ, संवेदनहीन और फूहड़ हैं। ये फिल्में इस जमात की संवेदना को पकड़ भी नहीं पाई हैं। इन फिल्मों में ये पात्र मनोरंजक, विदूषक और अश्लील हैं।' लेकिन 'दायरा' और 'नगरकीर्तन' जैसी फिल्मों पर बात करते हुए ये पाते हैं कि ये फिल्में संवाद करती हैं। संवाद करना ही तो महत्त्वपूर्ण होता है। सामान्य तौर पर इन फिल्मों पर भी वैचारिक जगत में चुप्पी छाई रही। वैसे किसी भी लेखक की यही खूबी होती है कि वह बेहतर को खोज कर सामने लाए और उसकी विशिष्टताओं को उजागर करे। आशीष अपने लेखन में इस रूप में सजग ही नहीं ईमानदार भी हैं। हमारे आग्रह पर इन्होंने पहली बार के लिए यह आलेख भेजा है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं आशीष कुमार का आलेख 'गुमनाम किरदारों ने दिए हैं सितारों को उनके नाम'।




'गुमनाम किरदारों ने दिए हैं सितारों को उनके नाम'



(देह, यौनिकता और जेंडर के बरास्ते थर्ड जेंडर सिनेमा की शिनाख्त)


                                                          

आशीष कुमार


क्योंकि वह अदभुत रचना है। वह न तो पंचसती है और न ही पंचकन्या। इतिहास ने उन्हें वृहन्नला और शिखंडी के रूप में देखा था। साहित्य में वह बिन्दा महाराज है। संझा है। सिनेमा में शबनम मौसी है। लक्ष्मी है। रजिया बाई है। वह कथा का विषय तो है लेकिन कला और सिनेमा की दुनिया में उसकी उपस्थिति सतह पर है। लगभग सतह से उठता आदमी की तरह। (मणि कौल के एक फिल्म का नाम) सच है, मुकम्मल ढंग से पेश हर कला अपना निशान छोड़ जाती है। सेल्यूलाइड के परदे जिंदगी के तहों को खोलना इतना आसान भी नहीं। कॉमर्शियल और गंभीर में यह फासला साफ़ दिखाई देता है। तकलीफ़देह मगर सच है कि समाज का एक बड़ा तबका आज भी सिनेमा को मनोरंजन का माध्यम भर समझता है। 'द डर्टी पिक्चर' में सिल्क स्मिता बनी विद्या बालन ने तो कह ही दिया था कि फिल्में सिर्फ़ तीन वजहों से चलती है, इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट और इंटरटेनमेंट! खैर! मसला यह है कि सिनेमा और जिंदगी के बीच इतना लंबा खालीपन क्यों है? क्या आज का सिनेमा अपने समय के मौजूं परेशानियों से मुखातिब है? जबकि जीवन के बड़े हिस्सों में जमीनी उलटफेर हो रहे है। सीधे अपनी बात पर आएं तो ट्रांसजेंडर का मुद्दा भी इनमे से एक है। ट्रांसजेंडर यानी थर्ड जेंडर। शिष्ट शब्दावली में कहूं तो किन्नर। थोड़ा भदेस में कहूं तो हिजड़ा। मैं खुद को ट्रांसजेंडर या थर्ड जेंडर शब्द के ज्यादा नजदीक पाता हूं। लेकिन फिर वही सवाल कि ट्रांसजेंडर/ थर्डजेंडर के संदर्भ में सिनेमा का रुख कैसा है? परंपरागत और आधुनिक विचारों के साथ हम एक ट्रांस समय में जी रहे हैं।यह संस्कृतियों के संक्रमण का समय है। एक परंपरा के समानांतर कई परंपराओं को एक साथ चलाने का समय भी है। जैसे, हाईवे पर गाड़ी चलाते हुए हम एक दूसरे को ओवरटेक करते है। ठीक वैसे ही। मैं सिनेमा को अपने समय और समाज का हमशक्ल मानता हूं। हमशक्ल क्या खुशशक्ल भी और कभी बदशक्ल भी।जावेद अख़्तर कहते हैं।


   "खुशशक्ल भी हैं वो ये अलग बात है मगर 

     हमको जहीन लोग हमेशा अजीज़ थे।" 


जहीन फिल्मकार और फनकार से मैं भी बहुत इत्तेफ़ाक रखता हूं। शायद! इसलिए थर्ड जेंडर पर बनी फिल्मों की एक लंबी फेहरिस्त मेरी डायरी में दर्ज है। हैरत की बात है कि ये सारी फिल्में चलताऊ, संवेदनहीन और फूहड़ हैं। ये फिल्में इस जमात की संवेदना को पकड़ भी नहीं पाई हैं। इन फिल्मों में ये पात्र मनोरंजक, विदूषक और अश्लील हैं। कॉमिक स्टीरियोटाइप किरदार रचने में ये सिनेमा ज्यादा समर्थ है। अक्सर, हिंदी सिनेमा ने थर्ड जेंडर को महज़ कैरीकेचर के रूप में देखा है। थोड़ा सा नज़र घुमाएं तो 'क्या कूल हैं हम' और 'मस्ती' जैसी तमाम फिल्में मिल जाएंगी। दरअसल, हमारे समाज की बनावट ही फॉर्मूलाबद्ध है। खांचाबद्ध है। लिंगपरक है। जहां स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग पैमाने हैं। वहां थर्ड जेंडर के लिए तो कोई गुंजाइश ही नहीं बचती। लेकिन ये भी सच है कि इनकी सत्ता तो हमारी संस्कृति में हमेशा से रही है। याद कीजिए, मुगल काल में ख्वाजासराय। हरम में भी इनकी मौजूदगी थी। रनिवासों में रानियों के सबसे करीब यहीं लोग थे। शायद, उभयलिंगी होना इनके लिए एक कारगर हथियार था। अब इनकी स्थिति काफ़ी बेहतर है। लगभग आमने-सामने की है। ये पितृसत्ता के मानकों को ध्वस्त कर रहे हैं। अपनी देह और यौनिकता/ सेक्सुअलिटी पर खुद फैसले दे रहे हैं। क्या देह और यौनिकता ही इन्हें दोयम दर्जे का इंसान बनाती है? दोयम क्या तीसरे दर्जे का कहना भी मुनासिब होगा? आखिर ये ख्याल जेहन में क्यों नहीं आता कि औरत जैसा होने या दिखने में क्या परेशानी है? आपकी पेशानी पर पसीने क्यों आ जाते हैं? मर्दाना और जनाना खांचे से अलग कोई तीसरी सत्ता क्यों नहीं हो सकती? 


भारतीय सिनेमा के बनिस्बत विश्व सिनेमा के मार्फत इन प्रश्नों की शिनाख्त ज्यादा समीचीन है। अफ़सोस कि कुछ गंभीर फिल्मों को छोड़ कर कोई मुकम्मल तस्वीर नज़र नही आती है। बिना किसी मुकम्मल जमीन के बात करना हवा में तीर चलाने जैसा है। इसलिए इस मजमून के लिए मैंने दो फिल्मों को चुना है। पहली जिस हिंदी फिल्म को मैंने चुना है, वह अमोल पालेकर निर्देशित 'दायरा' है।इसके साथ ही इसके एक दशक के बाद की कौशिक गांगुली निर्देशित बांग्ला फिल्म 'नगरकीर्तन' है। रोचक है कि इन फिल्मों के किरदार कहीं 'सर्द' हैं तो कहीं 'गर्म'। ये किरदार अपने गिरहों में बंद है। बकौल, गुलज़ार, 'कितनी गिरहें खोली हैं मैंने, कितनी गिरहें अब बाक़ी हैं !'


ये दोनों फिल्में तीन स्तरों पर संवाद करती है। पहली अपनी निजता/ प्रेम पर, दूसरी यौनिकता पर और तीसरे अपने समय और समाज पर। लिंग और योनि से परे की ये दुनिया और व्यवस्था का यह अंतर्द्वंद्व मेरे लिए बहुत ही आकर्षक विषय है और इसीलिए ये दोनों फिल्में ख़ास। ये फिल्म हिम्मत और हिकमत से सभ्य समाज का पर्दाफाश करती है। क्या संसार की हर स्त्री दुष्ट और हर पुरुष लंपट होता है? जैसे प्रश्नों से टकराती ये फिल्में डार्क रूम में बंद जिंदगियों को हमारे सामने रखती है।यहां हम देखेंगे कि 'थर्ड जेंडर' को केंद्रित कर बनी फिल्मों में जेंडर की भूमिका और उसका कर्तापन हिंदी सिनेमा में उसकी पारंपरिक भूमिका से कितना आगे जा सकी है? आइए! सफर का आगाज़ करते हैं।

                       

फिल्म - दायरा


              


                        (पहला परदा)


'हर सफे पे रहती है तुम्हारी अपनी बातें'(1) उर्फ़ 'वजह-ए-बेगानगी नहीं मालूम!'(2)


यह मार्च का बदरंग महीना है। शजर अपने शबाब पर है। तेज सुर्खरू हवा है। सीने में नमी है। मेरे मन का मौसम उदास है। मेरी उदासी किसी से रिश्ता कायम नहीं कर पाती। पूरी दुनिया तेज भाग रही है। पिछले कुछ सालों के बेगानेपन और खालीपन को एकबारगी में ही भर देना चाहती है। खुद की तसल्ली के लिए मैं अमोल पालेकर निर्देशित 'दायरा' देख रहा हूं। दायरा यानी द स्क्वायर सर्किल। पितृसत्ता का पेटेंट शब्द। मेरे जेहन में कुछ दृश्य और संवाद तैर रहे हैं। मैं उस नायक को देख रहा हूं, जिसने स्त्री लिबासों से खुद को कैद कर रखा है। सस्ते पाउडर, क्रीम और लिपस्टिक से सज संवर रहा है। क्या वह पुरुष की देह में स्त्री का मस्तिष्क है या स्त्री की देह में पुरुष का मस्तिष्क? खुद को ही ठग लिया मैंने। अपनी मूल वृत्तियों को त्याग कर वह स्त्री भी हो सकती है और पुरुष भी। दरअसल, यह एक ट्रांसवर्सेटाइल है। पुरुष की देह में स्त्री। वह अनाम है।वैसे भी, नाम में क्या रखा है! आपकी पहचान तो आपका काम है। इनकी पहचान सिर्फ़ ताली है। तीसरी ताली। दायरा का यह नायक अलहदा है। उसके पास एक संवेदनशील मन है। वह दुःख दर्द को पहचानता है। उसमें चिंतन की एक धार है। उसे स्त्री और पुरुष का विभाजन पसंद नहीं है। वह खुद को कुदरत का करिश्मा कहता है। मैं उसके सम्मोहन की गिरफ्त में हूं। वह रोती हुई बलात्कृता नायिका सोनाली कुलकर्णी को इज़्जत लूट जाने के संदर्भ में समझाता है, "जरा सी चमड़ी का टुकड़ा इज्ज़त कैसे हो सकता है? इज़्जत हमारी मस्तिष्क में है।" ये संवाद उसके मानसिक स्तर को समझने के लिए काफ़ी है। जीवन से हार चुकी नायिका के भीतर प्राण-वायु फूंकता है। उसे जिंदगी के हुनर सिखाता है।निराशा से आशा की ओर ले कर जाता है। यह फिल्म एक यात्रा है। जीवन को समझने की यात्रा। स्त्री-पुरुष संबंधों के व्याकरण की यात्रा। नायक (निर्मल पांडेय)और नायिका इस यात्रा के साथ जीते हैं। यह फिल्म एक और यात्रा की तरफ़ प्रस्थान करती है। वह है कायांतरण की यात्रा। नायक के कहने पर नायिका का पुरुष वेश में तब्दील होना और अंत में नायिका के अनुसार खुद को स्त्री वेश से पुरुष में बदलना। यह अपने भीतर की यात्रा है। कंटेंट के कई अर्थ को समेटे यह एक अर्थगर्भी सिनेमा है। कथा के बरास्ते वह कई यक्ष प्रश्नों से सामना करती है। मसलन, अपनी आंतरिकता को तवज्जो दे कर भीतर की इच्छा-शक्ति को जागृत करना और खुद को समझने की भावना विकसित करना। यह एक गझिन और गंभीर फिल्म है। स्मृतियों में आवाजाही करती यह फिल्म नायक के अनकहे सच को भी उजागर करती है।स्मृतियां अपना अलग संसार रचती है। हम स्मृतियों के साथ यात्रा करते हैं। हम स्मृतियों को जीते भी हैं। कुछ स्मृतियां वक्त के साथ धुंधली पड़ जाती हैं और कुछ और भी मजबूत होती जाती हैं।वक्त इरेजर और मार्कर दोनों होता है। इसी वक्त के साथ नायक दर्द को दिल में दफन कर नायिका के साथ उसे घर तक पहुंचाने का सफ़र तय करता है। इस सफ़र में वे एक दूसरे को समझते हैं।समझाते हैं। इस नजरिए से यह एक प्रेमकथा भी है। एक अनोखी प्रेमकथा। ट्रांसवर्सेटाइल डांसर और बलात्कृता नायिका के बीच की प्रेम-कहानी। दो हाशिए के किरदारों की मुकम्मल तस्वीर। विरुद्धों के सामंजस्य के बावजूद अंत में नायिका का यह स्वीकार करना कि वह प्रेम करने लगी है। नायक का अपनी जान दे कर बलात्कारियों द्वारा नायिका को बचा ले जाना फिल्म का मार्मिक अंत है। यह फिल्म एक साथ कई सवालों को उठाती है।जैसे, प्रेम क्या सिर्फ़ स्त्री-पुरुष के बीच की चीज है? कुछ चीजें जेंडर से इतर भी होती हैं। एक ऐसे बिंदु पर जहां प्रकृति और स्त्री, पुरुष और पुंसत्व में फर्क मिट जाता है। इसे बेहतर समझने के लिए आप अमोल पालेकर की दो और फिल्में इसके समानंतर देख सकते है। अनाहत और क्वेस्ट। ये तीनों फिल्में त्रिवेणी हैं।


फिल्म - दायरा


कई फॉर्मूलाबद्ध ढांचे को तोड़ती है ये फिल्म। इस फिल्म के दोनों किरदारों में प्रेम अलग-अलग शेड्स में उभरता है। कुछ नादानियां, कुछ पश्चाताप, पीड़ा और फिर ताउम्र उसकी तपिश में खुद ही जलना। क्या यही प्रेम का हासिल है?


कोई जरूरी नहीं कि हर किसी के लिए फिल्म का आस्वाद एक ही हो। बकौल अज्ञेय, किसी को बटुली की सोंधी खदबद।*सबको अपने ढंग से व्याख्यायित करने का हक भी है। जिन्हें स्त्री-पुरुष संबंध, लैंगिकता, मर्दानगी जैसे विषयों में दिलचस्पी हो। उनके लिए यह जेंडर डिस्कोर्स की आधार भूमि तैयार करती है। अगर आप तर्कवादी हैं तो ज्ञान की लक्ष्मण रेखा को समझेंगे।अगर आप इश्क को समझते हैं तो आप इसके अंजाम को भी बखूबी समझ पाएंगे और शायद इसके पार जाने के लिए ही मीर ने लिखा है।


       "वजह-ए-बेगानगी नहीं मालूम,

        तुम जहां के हो, वां के हम भी है।"(3)


फिल्म - नगर कीर्तन


  

                       (दूसरा परदा)


'इस दुनिया के मकतलगाह में फूलों की बात(4) बनाम कितनी ही पीड़ाएं हैं जिनके लिए कोई ध्वनि नहीं।'(5)


यह एक अभिशप्त कथा है। जिसे देख कर किसी भी संवेदनशील इंसान की नींद उड़ सकती है। यह निर्वीर्य बाशिदों की दुनिया है।विद्रूप हार्मोंसो की दुनिया। यहां की अलग प्रकृति है। संस्कृति है।नैतिकतावादियों की नज़र में विकृति है। मेरे लिए थर्ड जेंडर को समझने का खिड़की है। यह पुटी उर्फ़ परिमल (ऋद्धि सेन) की दुनिया है। आत्मदर्प और आत्मदया से मुक्त यह एक निर्दोष किरदार है। मासूमियत को अपने भीतर जज्ब किए हुए। रुपहला परदा उसकी मासूमियत को सोख लेता है। जोग जनम की साड़ी ओढ़ कर बाकायदा दीक्षित परिमल उस अंग समेत हिजड़ा समुदाय में शामिल हो जाता है जिसे ले कर पुरुष समाज आत्म-गौरव से दीप्त और अपनी शब्दावली में तमाम तरह की गालियों को ईजाद करता रहता है। मैं सदमे में हूं। क्यों यह लड़का नर्क में गया? अब पुटी इसी दुनिया का एक हिस्सा है। यहां गुरु शासक है। तानाशाह है। पुटी के सारे सपने अब नेस्तनाबूत हैं। उसे सपने देखने का हक नही है। प्रेम करने की भी आजादी नहीं। यह जीवन का ग्रे शेड है। लेकिन प्रेम जेंडर देख कर तो नहीं होता न! यही गुस्ताखी पुटी और मधु (ऋत्विक चक्रवर्ती) कर बैठते हैं। इस दुनिया के लिए यह खतरा है। यह आम रास्ता नहीं है। दर्दनाक रास्ता है। बकौल ग़ालिब, 'इक आग का दरिया है।' इसे पार करने की कूवत सबके भीतर कहां होती है? और वो भी किसी हिजड़े से प्रेम करना किसी चुनौती से कम नहीं है। मधु हिम्मती है। हुनरमंद है। फुरसत में बांसुरी बजाता है। परिमल के सपने के साथ खुद को जोड़ता है। खलील जिब्रान के शब्दों में कहूं तो, 


    'ऐसे भी लोग हैं जिनके पास थोड़ा ही है,

      लेकिन वे अपना सब दे डालते हैं।'


फिल्म - नगर कीर्तन



दरअसल, परिमल अपनी देह का ट्रांसफार्मेशन/ कायांतरण करवाना चाहता है। उसके इस मिशन में हमदर्द और हमराह मधु है। मधु वैष्णव परिवार से ताल्लुक रखता है। कृष्ण भक्त है।कोलकाता में डिलीवरी ब्वॉय का काम करता है। उसे पुटी का सड़क पर पैसे मांगना बिल्कुल पसंद नहीं है। आत्मविश्वासी है। पुटी को ले कर भाग जाता है। मानोबी बंद्योपाध्याय से मिलता है।चूंकि ट्रांसफार्मेशन की प्रक्रिया खर्चीली है। इसलिए वह पैसे का इंतजाम करना चाहता है। पुटी को अपने घर नवद्वीप ले कर जाता है। यहां से दुनिया जितनी पुटी के सामने खुलती उतनी ही पुटी दुनिया के सामने खुलती है। यह फिल्म का टर्निंग प्वाइंट है।फिल्म फ्लैश बैक में आवाजाही करती है। पुटी का अतीत खौफनाक है। प्रेम पुटी के लिए आतंककारी सिद्ध हुआ था। अपने पूर्व प्रेमी द्वारा छली गई है पुटी। यूं ही बेगम अख्तर ने नहीं गाया होगा, 'मेरे हमनवां, मेरे हमसफर मुझे दोस्त बना कर दगा न दे !' दुख की महीन चादर पसर गई है चारों तरफ़। सत्संग कीर्तन में सबके सामने पुटी के नकली बालों का गिरना और फिर दुनिया के सामने खुद अपने समुदाय द्वारा नंगा करके पीटे जाना। इन दोनो घटनाओं ने पुटी की आत्मा को खत्म कर दिया है। वह सिर्फ़ एक बेजान देह है। पीड़ा, संत्रास और यातना उसके जीवन के अंग बन चुके हैं। मैंने खुद को दर्द में डुबो लिया। विकल्पों भरी इस दुनिया में वह विकल्पहीन है। उसने आत्महत्या को चुन लिया। उसकी लटकी हुई नीली देह को पकड़ कर मधु का विलाप और स्त्री वेश धारण कर हिजड़ा समुदाय के दरवाजे पर दस्तक देना। ये दोनों दृश्य देख कर कई दिनों तक मैं ठीक से सो नहीं पाया था। यानी वहां भी सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। यह फिल्म कई सवाल छोड़ कर चौतरफ़ा सन्नाटे में समाप्त होती है। परिमल का कसूर क्या था? अपनी देह को नहीं समझ पाना या मधु से प्रेम करने की सजा? खुद के बनाए हुए ताजमहलों में टूट-फूट?क्या सिर्फ़ स्त्री और पुरुष से अलग होने का खामियाजा परिमल को भुगतना पड़ा? अपने बनाए हुए नियमों में कितने संकीर्ण हैं हम? मनुष्य हो कर भी संवेदना को समझना क्या इतना मुश्किल है? रघुवीर सहाय याद आ रहे हैं -


"एक भयानक चुप्पी छाई है समाज पर,

शोर बहुत है पर सच्चाई से कतरा कर गुजर रहा है।"



शब ए इंतजार आख़िर कभी होगी मुख्तसर भी...!(6)


मुख्तसर! यह कि ये दोनों फिल्में दुखांत प्रेमकथाएं है। ऐसा दुख जिसकी कोई दवा नहीं है। ये प्रेमकथाएं रोमांटिक प्रेम के पारंपरिक धारणाओं को ध्वस्त करती हैं। दरअसल, ये दोनों किरदार रूमानी दुनिया से मुक्ति, आत्म संघर्ष और जिंदगी के अनकहे फलसफे पर गुफ्तगू करते हैं। इन दोनों फिल्मों में कुछ समानताएं भी हैं। जैसे, नायकों का खौफनाक अतीत और ट्रांसफार्मेशन की चाहत। ये दोनो नायक कला की दुनिया से भी बावस्ता रखते है। 'नगरकीर्तन' का मधु बांसुरीवादक है और दायरा का नायक क्लासिकल डांसर। भाषाई स्तर पर भले ही समानता न रखती हो लेकिन समकालीनता और तुलनात्मकता के मद्दे नज़र विमर्श का नया पाठ तैयार करती हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम रचना को नहीं बनाते, रचना हमें बनाती है। 'नगरकीर्तन' और 'दायरा' हमें उस धरातल पर खड़ा करती हैं, जहां से थर्ड जेंडर के जीवन को हम शिद्दत से महसूस करने लगते हैं। मन के भीतर के स्त्री संवेगो को जगा सकने में ये फिल्में समर्थ हैं। क्या कुछ क्षण जीवन में ऐसे नहीं होते कि उस वक्त न तो हम मर्द होते हैं और न ही औरत? यानी समभाव में स्थित होते हैं। स्त्री और पुरुष के चौखटे से बाहर एक लिंगेतर मनुष्य? डी क्लास होना थोड़ा मुश्किल जरूर है लेकिन असंभव नहीं। आख़िर! विज्ञान में एंड्रोजेनी तो होते ही हैं न! जब प्रकृति समाधिस्थ हो सकती है, तो हम क्यूं नहीं ? लगता है, अर्धनारीश्वर के रूप में शिव ने ऐसी गाढ़ी नींद ली, जो अब टूटने वाली नहीं। क्या हम एक ऐसे समाज का निर्माण नहीं कर सकते, जहां लिंग और योनि को दरकिनार करके इनके साथ समन्वय और सहधर्मिता के साथ खड़े हो जाएं, सिर्फ़ खड़े ही क्यों हो! इनके दुःख-दर्द में एक समानांतर साझी दुनिया का निर्माण करें। इतना कुछ सोचते हुए एक खुमारी  का नशा छा गया मुझ पर। एक सपने में डूब जाता हूं।


देखता हूं कि 'नगरकीर्तन' का परिमल, दायरा का अनाम नायक अपने सपनों, हौसलों और उड़ानों के साथ नृत्य कर रहे है। लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी और मानोबी बंद्योपाध्याय भी साथ-साथ नाच रहे हैं। दूर से आती हुई ढोलक की थाप अब साफ़ सुनाई देने लगी है।अब तो हर जगह लाल ही लाल। जित देखूं तित लाल।गाने के बोल अब समझने लगा हूं मैं। मैं चौक जाता हूं।

अरे !ये तो मेरा पसंदीदा सोहर है -


                     "ललना लाल होइहै...!

                      चंदवा सुरुजुवा सगरो अजोर

                      भइने हो...!"(7)



नींद से जाग कर मैं दूना विस्मय जीता हूं। ढोलक की थाप और घुंघरू की तानअपने उठान पर है। उन्होंने अक्षत मेरे ऊपर फेंक दिया। आंगन में किलकारियां गूंज उठी।                      


________________________________________


सन्दर्भ 


1. स्त्री काल पत्रिका में छपे एक लेख का शीर्षक।

2. मीर तकी मीर के शेर का इक मिसरा।

3. असाध्य वीणा कविता की एक पंक्ति।

4. नासिरा शर्मा पर केंद्रित सिद्धेश्वर सिंह के लेख का उनवान।

5. गीत चतुर्वेदी के कविता की एक पंक्ति।

6. कैफ़ी आज़मी लिखित पाकीज़ा फिल्म के गाने का एक अंतरा।

7. पूर्वी उत्तर प्रदेश में पुत्र जन्म पर गाया जाने वाला मशहूर लोकगीत/ सोहर।



* ( लेखक युवा आलोचक हैं।)







सम्पर्क


मोबाइल - 08787228949

टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छा लिखा है

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  2. दरम्या भी देख डालिए।

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  3. समस्या सिर्फ़ इसी विषय तक सीमित नहीं है, समस्या है फ़िल्मों का किसी भी समस्या से बचना और बार बार फ़िल्मों को वो फ़ास्ट फ़ूड बनाने की प्रक्रिया जिसमें आपको याद दिलाया जाए कि आप सहन के बारे में मत सोचिए या दिमाग़ घर रख कर आइए। मुंबई ऐसी समस्याओं की समझ के लिए समय नहीं देता और विभिन्न प्रांतों की कहानियों को तिलांजलि दी जा चुकी है। इस विषय या ऐसे किसी भी संवेदनशील विषय के लिए बहुत सी फ़िल्में बननी होंगी जिस से सही दिशा मिले इस विषय को पर रिस्क है कि दर्शक कार उड़ना देखना चाहते हैं या इस विषय पर चर्चा को। सुखद यही है कि आप ऐसे विषयों पर लिखकर कम से कम नींद तो तोड़ रहे हैं

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  4. गम्भीर लेखन।

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  5. अभी अभी आप का लेख पढ़ा, शानदार लिखें हैं और विषय के तह तक जाकर लिखें हैं। लेख को पढ़ते हुए महसूस होता है कि इस विषय पर आप की समझ सिर्फ इन दो फिल्मों का नहीं, इनसे इतर भी थर्ड जेंडर पर आप ने बहुत पढ़ा, देखा और महसूसा है।

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