प्रचण्ड प्रवीर का आलेख 'हिन्दी साहित्य की अपसंस्कृति'
प्रचंड प्रवीर |
'हिन्दी साहित्य की अपसंस्कृति'
प्रचण्ड प्रवीर
हमारे हिन्दी साहित्य के अधोपतन का एक उदाहरण तब देखने को मिला, जब एक पान मसाला कम्पनी किसी साहित्यिक आयोजन का मुख्य प्रायोजक बनी। उसके विरोध में हिन्दी साहित्य से कोई भी गम्भीर स्वर नहीं उठा, बल्कि तमाम पुरस्कृत और प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने उनमें बड़ी ही निर्लज्जता से भाग लिया।
हम ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ हर हेय व निषेध वस्तु के उपयोग-उपभोग के समर्थन में तर्क जुटाएँ जाते हैं। आमतौर पर उन तर्कों की संरचना इस तरह की होती है कि वह किसी अपवाद जैसी प्रतीत होती स्थिति के व्याप्ति के संदर्भ में न आने के कारण पूरे वक्तव्य को निराधार बताते हैं। साथ ही निषेध द्रव्यों का उपभोग उनके मूल अधिकारों का हनन हो जाता है। इसका एक उदाहरण है मद्यपान या सुरापान। इसको और आगे बढ़ाया जाय तो धूम्रपान, मादक द्रव्यों का प्रयोग, ड्रग्स आदि, आदि। इसके समर्थन में कई स्तर आएँगे कि फलाना साहब दारू-शराब को बुरा नहीं मानते, अलाना साहब धूम्रपान व गुटखे को खाने-पीने की चीज मानते हैं। कुछ लोग विधि से निषेध होने के कारण ‘ड्रग्स’ का समर्थन खुले तौर पर नहीं करेंगे किन्तु साथ ही यह जोड़ना नहीं भूलेंगे कि मादक द्रव्यों के सेवन से कुछ ऐसी अनुभूतियाँ होती हैं जो साधारणतया लौकिक अनुभूतियों में नहीं होती। यह सम्भव है कि इस वक्तव्य के लिए कई महानुभावों के अपने अनुभव रहे होंगे।
फिलहाल इस बात को दरकिनार कर भी दिया जाय तो शराब के नशे में सूक्तियाँ लिखने वाले भी खुद को शराबी नहीं कहेंगे। इसके पीछे तर्क यह है कि यदा-कदा सेवन (भले ही वह हर तीसरे-चौथे दिन का हो या किसी फाउण्डेशन में मुफ्त लुढ़का दी गयी दारू) से कोई शराबी नहीं हो जाता। फिर शराबी कहलाने की कई डिग्रियाँ होती हैं जैसे कि शराब के नशे में मदहोश हो कर आदमी होश खो बैठे, अक्सर रातों में किसी गंदे नाले में गिरा पाया जाय तब जा कर आप असली शराबी बनते हैं। उसी तरह एक-दो मोहतरमाओं से मोहब्बत करने वाले को आशिक़ नहीं कहते। जब तक गली-गली में प्रेमिकाएँ न हों, काहे का आशिक़? उसी पद्धति पर यह भी कहा जा सकता है कि गुटखा का सेवन करने वाले या उसके समर्थन में खड़े होने वालों को ‘थूकिया साहित्यकार’ कहना भी उचित नहीं है।
हमारी आपत्ति हिन्दी के साहित्यकारों और कवियों को ले कर है। आखिर कौन-सा ऐसा पैमाना है जिससे कोई साहित्यकार या कवि माना जाय? आइए, इन पैमानों पर गौर करते हैं।
रचनाओं का प्रकाशन
रचनाओं का पुरस्कृत होना
साहित्य समाज द्वारा स्वीकारा जाना
रचनाओं की लोक में व्याप्ति
रचनाकार की लोकप्रियता
अगर हम प्रतिपक्षियों की विधि अपनाएँ तो उपरोक्त हर पैमाना या सभी पैमाने मिल कर भी किसी को साहित्यकार नहीं बना सकते हैं। इसको विस्तार से देखते हैं।
रचनाओं का प्रकाशन
बहुत से लोग कई माध्यमों से छपते रहते हैं। निरंतर भी छपते हैं। ‘माध्यम की स्तरीयता’ तथा ‘प्रकाशन की निरन्तरता’ भी साहित्यकार कहलाने हेतु योग्य कारण नहीं हैं। कई स्तरहीन, अशुद्ध, निहायत ही घटिया रचनाएँ निरन्तर छपती ही रहती हैं। यहाँ ध्यातव्य है कि हम किसी रचना का तो स्पष्ट मूल्याकंन कर सकते हैं किन्तु रचनाकार का मूल्यांकन समग्रता में ही सम्भव है।
रचनाओं का पुरस्कृत होना
हिन्दी साहित्य में वर्तमान में अनेकों पुरस्कार हैं। इसकी समूची सूची शायद ही किसी के पास हो। यहाँ किसी पुरस्कार का स्तर विश्वसनीय हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। अत: यह कारण भी नहीं टिकता है।
साहित्य समाज द्वारा स्वीकारा जाना
साहित्य समाज अधिकांश गुटबाजियों का मामला है। इसमें वामपंथियों की गुटबाजी जो पिछले तीस-चालीस साल से चली आ रही है किसी से छुपी नहीं है। हिन्दी समाज के अधिकांश प्रतिष्ठित कवि और लेखक दोयम दर्जें के हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण वे मृत कवि हैं जिन्हें जीवन काल में प्रसिद्धि मिली किन्तु उन्हें मरने के बाद उनके कवि कर्म को कोई नहीं पूछता। यही परिणति हमारे प्रतिष्ठित कवियों में से पंचानवे प्रतिशत की होने वाली है। इसके विरोध में यह तर्क दिया जा सकता है कि ऐसा हमेशा से होता आया है। हम आज रीति काल के सभी कवियों को कहाँ याद करते हैं? किन्तु सच्चाई यह है कि काल की बीतने के बाद की स्मृति, कथ्य पद्धति तथा भाषागत बदलाव अलग-अलग बाते हैं। जायसी और तुलसी दास के सामने केशव दास की कीर्ति वैसी नहीं है। कालिदास और बाणभट्ट ने काल को जीत लिया। इस तर्क पर यह कहा जा सकता है कि हम तीसरे दर्जे के साहित्यकारों के निर्णय में जुटे हैं और उसी से संतुष्ट हैं।
रचनाओं की लोक में व्याप्ति
बहुत से लोकगीत और कहानियाँ लोक में व्याप्त हैं पर उनके रचनाकार का नाम हमें नहीं पता। आमतौर पर जिस व्याप्ति की बात होती है वह बहुत ही छोटे समूह को ले कर है। इसका बहुत बड़ा कारण साहित्य संसार का सिकुड़ जाना है।
रचनाकार की लोकप्रियता
टीवी और ओटीटी के युग में हिन्दी के सबसे लोकप्रिय कवि जो अक्सर चैनलों पर नुमाया होते हैं, उनको हिन्दी साहित्य संसार राजनेता, गायक और अदाकार मानता है, कवि नहीं। कहने का आशय है लोकप्रियता साहित्यकार कहलाने के लिए अनिवार्य कारण नहीं है और हो भी नहीं सकती।
इस तरह हम देखते हैं कि उपरोक्त में से कोई भी साहित्यकार होने का अनिवार्य घटक नहीं है। किन्तु यही वैचित्र्य हम पुराने कवियों में देखें तो वे स्तरीय रूप से निरन्तर प्रकाशित हुए। उनमें से कई बहुत लोकप्रिय हुए। साहित्य समाज में उनका बड़ा आदर भी हुआ। रचनाओं की लोक में व्याप्ति भी हुई और वे लोकप्रिय भी हुए।
पर इस तुलना में एक बहुत बड़ा अन्तर है काल का। काल इस मायने में कि साहित्य जिस तरह ‘प्रेयस’ से ‘श्रेयस’ की ओर इंगित करता है, वह साधन और मूल्य बदल गए हैं। हमारे समय में दृश्य-श्रव्य माध्यमों में ‘प्रेयस’ और ‘प्रेयस की प्रति अधीरता’ ही अभीष्ट हैं। तकनीक ने संचार को सुगम बनाया और सरल बनाया, किन्तु हम भूल जाते हैं कि अधीर हम स्वयं बनें। तकनीक ने हमें अधीर नहीं बनाया। कहने का अर्थ है कि इस समय में रसिक अब रसिक न रहा। वह अधीर उपभोक्ता है जो करुण दृश्यों में रस की अनुभूति न कर वेदना से क्षुब्ध होता जाता है, जो भयानक रस और वीभत्स रस के विघ्नों को दूर करने में सक्षम न होने के कारण उससे डरता है और इस तरह से अधीर होने के साथ-साथ वह कायर भी है।
हमारे समय के इस घोर वैचारिक पतन ने कला और साहित्य में रस को पदच्युत कर के ‘ध्वनि’ की श्रेष्ठता स्वीकारी है। हालाँकि ‘ध्वनि’ सौन्दर्यात्मक अनुभूतियों का विमर्श तो करता है किन्तु उसे सौन्दर्य विमर्श में सर्वोच्च पद नहीं प्राप्त है।
ये गहरे विकार हमारी संस्कृति की अवधारणा को कुत्सित करते हैं। आमतौर पर संस्कृति का मतलब ‘गाना-बजाना’, नाचना, कविता-कहानी आदि लिया जाता है, जो कि हमें परम्परा से प्राप्त हो। यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि परम्परा केवल अतीत का अवगाहन न हो कर, पुनर्सृजन के अर्थ में हैं। यह मूलभूत अवधारणा है कि हम जो कुछ भी सीखते हैं, या जो कुछ भी हमें सिखाया जाता है उसका मुख्य उद्देश्य किसी बाहरी सहायता के बिना सृजन करने की क्षमता होना ही है। जो कुछ भी सीखा है उसका प्रमाण उसका प्रयोग कर के दिखाना ही है। इस तरह शान्त हो कर किताब पढ़ना और किताब का वाचन करना अलग-अलग कर्म हैं। वहीं किताब का अपनी समझ से समूह में पाठ करना सांस्कृतिक कर्म है, जैसे नृत्य और संगीत है। जब हम दर्शक या रसिक की भूमिका में रहते हैं तब वह कर्म ‘मूल्य-बोध’ से जुड़ा है। इसका अर्थ है कि जो कहा जा रहा है, उसमें छुपे मूल्य को समझें।
थोड़ा और गहरे उतरते हैं कि मूल्य क्या होता है? मूल्य कुछ ऐसी बात है कि जो होनी चाहिए, और उस होने में विवेक जुड़ा होता है। यदि आपको यह लगता है कि रात के खाने के बाद आइसक्रीम खाना चाहिए, तो यह आपकी इच्छा है। किन्तु आप किसी डायटिशियन की सलाह से प्रेरित हो कर यह कहते हैं कि रात के खाने के बाद कुछ मीठा खाना चाहिए या घूमना चाहिए तो यह एक तरह का मूल्य है, जो कि आहार के स्वाद या स्वास्थ्य से जुड़ा है।
बहरहाल, हम यदि यह मानते हैं कि हिन्दी साहित्य का पतन नहीं हुआ है तो यह लेख पढ़ने लायक नहीं है। यदि मानते हैं कि पतन हुआ है तो उस पर विचार कर सकते हैं। पतन के प्रकार और उसके कारण पर चर्चा करने से पहले हमें यह निश्चित करना चाहिए कि पतन हुआ है या नहीं। निश्चित तौर पर आज समकालीन भारतीय साहित्य भारतीय समाज में प्रतिष्ठित नहीं हैं। न उनकी कोई सुनता है, न कोई सुनना चाहता है। एक समय में शासक साहित्यकारों का सम्मान करते थे और उन्हें संस्कृति का रक्षक और वाहक समझते थे। आज किसी तथाकथिक साहित्यकार के पास ऐसी शक्ति या वाणी नहीं है जो उसके बरअक्स ‘खेल’, ‘सिनेमा’ और ‘राजनीति’ के नायकों में है। जब हम यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि हिन्दी साहित्य का घोर पतन हुआ है तो उसके पतन के स्वरूप को समझने का प्रयास करते हैं।
अगर पतन केवल बदलते समय के कारण होता, जैसे कि टी वी का आगमन, पत्रिकाओं की संख्या कम होना, वेब और ओटीटी का प्रसार तब यह सभी भाषाओं और सभी संस्कृतियों पर एक जैसी दिखनी चाहिए थी। यह सत्य है कि साहित्य का सिकुड़ना विश्वव्यापी घटना जैसा है किन्तु इसके बदले किस तरह के उपाय हैं यह विचार करना चाहिए। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के प्रारम्भ में पेंटिंग में ‘फोटोग्राफी’ को ले कर गहरा डर था। जो पारम्परिक रूप से चित्र बनाते थे, उनकी जगह फोटोग्राफर ने ले ली। लगभग इसका विद्रोह करते हुए पेंटिंग में एब्सट्रैक्ट पेंन्टिग का नया दौर आया। आज हमें यह डर लगता है कि ‘चैट जीपीटी’ साहित्य को निगल जाएगा। वह समस्त कलाओं को खत्म कर देगा। मैं समझता हूँ वह कलाओं और साहित्य को नहीं, पर उसके दम्भपूर्ण आधिपत्य या इस विचार को खत्म कर देगा कि शिल्पसिद्ध होना कठिन होने के कारण लगभग असाध्य तथा दुर्लभ है।
साहित्य और कला का मूल स्वरूप उसके सृजन और मूल्य-बोध में है। औद्योगिक क्रान्ति के बाद हम हर चीज का प्रभुत्व ‘वैश्विक आधिपत्य’ की तरह देखना चाहते हैं। चार्ल्स डिकेंस के श्रेष्ठ होने का पैमाना उनकी कृतियों का अमरीका में बेहद उत्सुकता से पढ़ा जाना, सुपरमैन की कॉमिक्स, हैरी पॉटर की किताबों के लिए ग्राहकों का देर रात से ही दुकानों के आगे पंक्तिबद्ध होना ही सफलता के पैमाने हो गए।
मतलब उपभोक्ता में उन्माद ही अभीष्ट है। हमारे युग में इसे ही चमत्कार समझा जाता है। यही मूल्य हमारे खेल, सिनेमा और राजनीति में समाहित है। मैं समझता हूँ यह अपसंस्कृति का मूल है।
इस उन्माद को बनाए रखने के लिए बड़े-बड़े उद्योग हैं। सिगमंड फ्रायड के भाँजे ‘एडवर्ड बर्नेस’ ने अपनी किताब ‘प्रोपगैण्डा’ (1928) में जगत में प्रचार को ‘आप्त वाक्य की स्थापना के अर्थ में ले कर ‘प्रोपगैंडा’ को सर्वमान्य और अभीष्ट बनाया। लगभग यही बात बीसवीं सदी और इक्कीसवीं को बाकी सदियों से अलग करती है कि हमारे समय में निरन्तर इस बात का प्रयास किया जाता है कि सदी का महान अभिनेता, महान खिलाड़ी, महान राजनेता और महान गायक आदि आदि कौन हैं। जब वे ऐसी सूचियाँ निर्धारित करते हैं तब वे अपनी सांस्कृतिक अक्षमता और बौद्धिक लघुता को सामने नहीं रखते। इस तरह यह सूचियाँ आधिपत्य को लेकर सजग और उन्माद को लेकर प्रतिबद्ध होती हैं।
साहित्य में कवि और रसिक का सम्बन्ध सैद्धान्तिक रूप से स्रष्टा और उपभोक्ता का ही है। फिर अन्तर कहाँ हैं? जो महान अन्तर है वह है पुरुषार्थ दृष्टि में। साहित्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चतुष्टय से चाह कर भी बाहर नहीं निकल सकता, क्योंकि यही उसकी परिधि है। साहित्य जब भी मूल्यों से इतर होता है, वह साहित्य नहीं रह जाता। किन्तु राजनीति में मूल्यों की प्रति प्रतिबद्धता अभीष्ट भले हो पर न होने पर भी वह अक्षम्य नहीं है। कुछ ऐसी ही बातें खेल और सिनेमा के साथ भी है। हालाँकि ये कभी सत्य के प्रति जवाबदेह नहीं होते।
सभी सांस्कृतिक कर्मों में प्रमुखत: साहित्य में सत्य, स्वातंत्र्य और मूल्य बोध के प्रति जवाबदेही निश्चित होती है और जहाँ पर यह नहीं होती वह साहित्य नहीं रह जाता।
प्रश्न तो मूलभूत यह उठता है कि साहित्यकार कौन है? हम कई बड़े लेखकों और साहित्यकारों के व्यभिचारी और आपराधिक जीवन का हवाला दे कर साहित्यकारों के चरित्र चित्रण की बात से छुट्टी करना चाहते हैं। मैं भी इसे सही समझता हूँ। ‘इन सर्च ऑफ लॉस्ट टाइम’ जैसे आत्मकथा पर आधारित महान उपन्यास के रचियता मार्सेल प्रूस्त ने चार्ल्स अगस्तिन सेंटे-बेवू (Charles Augustin Sainte-Beuve) की इस अवधारणा का खण्डन किया कि किसी भी रचना को रचनाकार के जीवनी के आलोक में पढ़ना चाहिए। न तो रचनाकार का जीवन ही उसकी रचना को सही रूप से समझने में अनिवार्य है, न ही रचनाकार से साधु जैसे आचरण का अभीप्सा होनी चाहिए। साहित्यकारों से भी उतनी ही नैतिकता की आशा होनी चाहिए जितनी किसी सामान्य मनुष्य से। साहित्यकार किसी अर्थों में आचरण में विशिष्ट नहीं समझे जाने चाहिए, यद्यपि हर आचरण को सहानुभूतिपूर्वक समझने की चेष्टा करनी चाहिए। इन बातों को स्वीकार करना बहुतों के लिए बहुत कठिन है। अत: उसके उपरान्त जो कहा जा रहा है वह किसी भी तरह से स्वीकार्य न होगा। उपरोक्त सूरतों से बचने के लिए भारत के अतीत में साहित्य परम्परा को समझना होगा। संस्कृत कवियों में श्रीहर्ष (नैषधीयचरित के रचयिता) और बाणभट्ट (कादम्बरी और हर्षचरित के रचयिता) से पहले किसी कवि ने अपने नाम-कुल के बारे में कोई जानकारी नहीं छोड़ी। इसी तरह वाल्मिकी रामायण और महाभारत के प्रक्षिप्त श्लोकों के रचनाकार और तमाम पुराणों के रचयिता कभी आपने नाम-कुल को बतलाने के बारे में प्रयासरत नहीं दिखे।
क्या हम बिना नाम के किसी साहित्यकर्म को नहीं पढ़ सकते?
क्या यह आवश्यक है कि साहित्यकार अपना नाम लिखें और खुद को साहित्यकार कहें और समझें?
क्या पुस्तकों का प्रकाशन व पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन रचनाकारों के छद्म नाम से या गुमनाम तौर पर नहीं हो सकता? अगर कोई उपक्रम विधि-व्यवस्था के लिए दण्डनीय हो, उस हालत में सम्पादक व प्रकाशक को विधि सम्मुख पेश किया जाय।
तद-अर्थ के लिए हम यह कह सकते हैं कि लेख के प्रारम्भ में गिनाये गये सारे कारणों की सूची में कुछ प्रमुख कारण साहित्यकार कहे जाने को बाध्य करते हैं पर उनके अच्छे या बुरे होने का विमर्श थोड़ा कठिन है। जब हमारे पास कोई सम्यक कारण या कारणों की समग्र सूची न हो, फिर क्यों किसी जीवित व्यक्ति को साहित्यकार कहा या समझा जाय? इस पर साहिर लुधियानवी जैसे शायर हमें ‘मुर्दापरस्त’ होने का आरोप लगा सकते हैं। किन्तु इसके एवज में एक प्यासा शायर आखिर चाहता क्या है? वह चाहता है वामपंथी भौतिक मूल्य, कि कविता-कहानी को बेच कर पैसे बनाए और सेठ बन जाए, ठीक वैसे ही जैसे ‘जे के रॉलिंग’ बन गयी है। अगर ये नहीं तो उस कविता-कहानी के एवज में ताउम्र सरकारी खैरात मिलती रहे। इस लिहाज से दोनों ही सूरतों में रिसालें, किताबें, शेर-ओ-शायरी कुछ और नहीं बल्कि तिजारत ही हैं जिसका मोल लगाना और उस दौलत को भोगना ही सही है।
कमोबेश यही मूल्य हमारी अकादमियों के हैं कि किसी तरह कहीं से पेंशन मिल जाए या किसी फाउन्डेशन के पैसे से ‘रसरंजन’ होता रहे। हाँ साथ में विदेश यात्रा भी हो जाय तो क्या कहने!
आश्चर्य नहीं कि अधिकतर साहित्यकर्मी अकादमिक रूप से हिन्दी साहित्य के व्याख्याता हैं। जहाँ तक मेरी समझ है कि साहित्य की विधिवत शिक्षा आलोचक पैदा कर सकती है, भावयित्री प्रतिभा का पोषण कर सकती है किन्तु कारयित्री प्रतिभा का उन्मेष इस प्रणाली से हो, यह अनिवार्य नहीं है, उल्टे विरल है। हमारे तथाकथित साहित्यकार रैदास की तरह जूते सी कर, कबीर की तरह कपड़े बुन कर, तुलसी की तरह पूजारी बन कर जीना गवारा नहीं कर सकते। वे प्रेमचंद के फटे जूते पर आह-कराह तो कर सकते हैं कि पर प्रेमचंद की तरह साहसपूर्ण जीवन जीने का माद्दा नहीं रखते।
यह ओछापन, टुच्चापन ही हिन्दी साहित्य के अधोपतन का मुख्य कारण है। जो भी तथाकथित साहित्यकारों को नजदीक से जानते हैं, अगर वे थोड़े भी नैतिक रूप से सजग हों तो हँसने व तरस खाने के सिवा और कर ही क्या सकते हैं? कुछ हिन्दी साहित्यकार इस बात का रोना रोते हैं कि पाठक रामायण, महाभारत तो पढ़ते हैं, उन्हें नहीं पढ़ते। अब इस तरह की कसक पर लानत देने के सिवा क्या किया जा सकता है? आपके साहित्य कर्म को कोई क्यों पढ़ें? और आपके जीवित रहते ही उसे क्यों पढ़ लिया जाय? यह सत्य है कि इस तरह ‘क्यों’ वाले प्रश्नों की श्रृंखला का कोई उत्तर नहीं है, पर इसकी प्रतिक्रिया ही अधीरता और बौद्धिक अक्षमता का परिचय देने में समर्थ है।
साहित्य को व्यवसाय की तरह लेना प्रकाशकों का काम है। यह लेखकों का काम नहीं होना चाहिए। पारम्परिक रूप से मसिजीवी लेखाकार को कहा जाता था न कि लेखक को। लेखक या कवि के मसिजीवी हो जाने की चाह एक-दो सदी पुरानी है और यह उसी उन्माद से जुड़ी है जो हमारे युग का दोष है। और यह तब हुआ जब हमनें श्रेयस की तुलना में प्रेयस का दामन थाम लिया।
अपसंस्कृति के लक्षण हमारे तथाकथित साहित्यकारों की फोटो और फोन नम्बर के नुमाया होने में है। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में से सुन्दर रेखाचित्र गायब हो गए हैं। अधिकतर किताबों के कवर पर चित्रात्मक सृजन नदारद दिखता है और बदले में आ गयी है साहित्यकारों की तिरछी तस्वीर और फोन नम्बर। तर्क है कि लेखक और पाठक के बीच में संवाद होना चाहिए। लेकिन क्यों होना चाहिए? क्या पाठक लेखक को मौखिक ज्ञान देगा या लेखक गुरु की दशा में आ कर फोन पर पाठक के कानों में गुरुमंत्र फूँक देगा कि जो पाठक को पहले समझ नहीं आ रहा था अब समझ आ जाय? दोनों ही सूरतों में जो काम विधिवत और संयत हो सकता था वह अधीरता, दम्भ और उन्माद में स्वाहा हो जाता है। समझ नहीं आता कि लेखकों और कवियों में ऐसे कौन सी खूबसूरती है जो उनको उनके चेहरे से पहचाना जाय? और लेखकों-लेखिकाओं-कवियों-कवयित्रियों की ऐसी कौन सी मजबूरी है कि मुँह टेढ़ा कर के नजरें चुराते हुए फोटो खिँचाई जाय कि कुछ गम्भीर होने का मुलम्मा उनके बेनूर चेहरे पर छा जाय?
इसे विशिष्टता बोध का दम्भ समझना चाहिए, जबकि तथ्य यह है कि हर तरह के आडम्बर की बावजूद साहित्यकारों की शक्ति नगण्य और उनकी पूछ किसी फाउण्डेशन या अकादमी या साहित्य समारोह का मोहताज है।
साहित्य समारोह साहित्यिक अपसंस्कृति के सबसे बड़े प्रमाण हैं। इनमें से अधिकांश अंग्रेजी में अपना निमंत्रण-पत्र लिखते हैं। इनके अधिकांश वक्ता सिने-सितारे और राजनेता होते हैं। इन समारोह में चर्चा का विषय बहुधा छिछला होता है और उसको लेकर समवेत तैयारी शून्य होती है। साहित्य के बरअक्स अगर ऐसे सम्मेलनों को अन्य अकादमिक विषयों के विमर्श पर देखें जैसे दर्शन, इतिहास आदि, तब हमें समझ आता है कि साहित्य के नाम पर ये सैद्धान्तिक प्रहसन हैं। इनके अधिकांश अतिथि वक्ता को पढ़ने-लिखने से वास्ता कम ही होता है, हाँ पर मूल्यात्मक रूप से उन्माद से उनका नाता अवश्य होता है।उच्छृंखलता और मनोविनोद जैसे छिछली स्थितियों से बचने हेतु महादेवी वर्मा कभी साहित्य सम्मेलनों में नहीं जाती थीं।
चैट जीपीटी और सोशल मीडिया के खतरे से बचने के लिए हमें साहित्य के मूल स्वरूप पर पहुँचना होगा। वह यह कि कुछ चुनिंदा लोग के बीच साहित्य कर्म की चर्चा करना। उसके प्रचार-प्रसार को रसिकों के हवाले नैसर्गिक छोड़ देना। साहित्यकारों को विशिष्टता का दम्भ को छोड़ना होगा और सोशल मीडिया की ताक-झाँक की प्रवृत्ति से निकलना होगा। यह हमें समझना चाहिए कि ‘फेसबुक’ और ‘आरकुट’ में मूलभूत अन्तर लोग में ताक-झाँक की प्रवृत्ति का दोहन है। ट्विट्वर का तो मूल सिद्धान्त ही यही है कि कोई किसी का अनुसरण करे। बेचारा एक आदमी कितनी दिशाओं में अनुसरण करेगा। अंतत: वह विपरीत शक्तियों के तनाव को झेल नहीं पाता। हमें यह फिर से याद करना चाहिए कि तकनीक ने हमें उन्मादी नहीं बनाया, बल्कि हम तकनीक के दास बन कर उन्मादी बन गए।
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥
वैराग्यशतक - ।।७॥
अर्थ - भोगों को हमने नहीं भोगा, बल्कि भोगों ने ही हमें ही भोग लिया। तपस्या हमने नहीं की, बल्कि हम खुद तप गए। काल कहीं नहीं गया बल्कि हम स्वयं चले गए। इस सभी के बाद भी मेरी कुछ पाने की तृष्णा नहीं गयी (पुरानी नहीं हुई) बल्कि हम स्वयं जीर्ण हो गए।
भर्तृहरि का यह श्लोक उसी मरीचिका के बारे में बता रहा है जो हमारे साहित्य के पतन का कारण है।
(इस आलेख में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
ई मेल - prachand@gmail.com
Handi sahittya ki apsanskriti bada hi bedhak lekh lekin yah apsanskriti hi aaj ka asal hai aur is asliyat ko praveer ne badi bebaki se rekhankit kia hai
जवाब देंहटाएंSomeshshekhar chandr
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