हरपाल सिंह अरुष की कहानी 'अधूरी कहानी'

 




हरपाल सिंह अरुष (76) का लंबी बीमारी के बाद कल 30 मार्च 2023 को निधन हो गया। वे लंबे समय से कैंसर से पीड़ित थे।उनके 14 कविता संग्रह और चार कहानी संकलन प्रकाशित हुए। साथ ही उनके चार उपन्यास और दो आलोचना पुस्तकें भी प्रकाशित हैं। अरूष जी ने गुजराती, मलयालम कविताओं का अंग्रेजी और मराठी में अनुवाद किया। 1857 की क्रांति पर लिखे गए उनके उपन्यास ‘1857 कोई और भी था’ को काफी ख्याति प्राप्त हुई थी। मैथिलीशरण सम्मान, यूनीसेफ की ओर से सहस्राब्दि सम्मान, पंडित रामचंद्र शुक्ल सम्मान जैसे सम्मानों से उन्हें सम्मानित किया गया था। कस्बाई परिवेश उनके कहानियों की मुख्य विशेषता है। और इन कहानियों में भी रोजमर्रा का जीवन बिना कुछ अतिरिक्त जोड़े साकार हो उठता है। ऐसे में एक साफगोई इनकी कहानियों में स्पष्ट दिखाई पड़ती है।अरुष जी की स्मृति को नमन करते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कहानी जिसका नाम ही है 'अधूरी कहानी'।




'अधूरी कहानी'


हरपाल सिंह अरुष 



शाकेश्वर केश्वर को रिटायर हुए पाँच वर्ष हो गए थे। वह अपने आपको एकदम बूढ़ा समझने लगा था। डरता रहता था कि कहीं अर्थोराइटिस न हो जाए। शुगर तो दिवास्वप्न की तरह आँखों के आगे तैरती रहती थी। दाँतों को बचाने के लिए दातुन कूँच कर संतुष्ट होता। उसका मानना था कि ब्रुश रगड़ कर मसूढ़ों का अपरदन बहुत कर चुका। और थोड़ा अपरदन होते ही दाँत अपने उलुखलों से बाहर आ जाएंगे। शरीर के प्रति सबसे कम संबंध दाँत ही निभाते हैं। पचास की उम्र आते ही हिलने लगेंगे। बेवफा कहीं के। बेवफा ही सही पर एक साथी तो चाहिए। हाँ, आँखों के बिना तो बुढ़ापा अंधेरे में पड़ी चाँदी जैसा हो कर रह जाता है। इन सारे विचारों को संभालने के लिए शाकेश्वर सूरज निकलने से आधा घंटा पहले बिस्तर छोड़ देता। स्टेशन की ओर निकल जाता। दातुन खरीदता। आगे बढ़ जाता। पार्क में जा कर सूरज की ओर मुँह करके खड़ा हो जाता। क्योंकि तब तक सूरज या तो उगने को होता या उग रहा होता। दो-ढाई मिनट तक उगते सूरज की किरणों को आँखों से पीता। अंतर इतना होता कि वह तेजस्व बिखेरती किरणों की 'पलकों की चिक डारि कै' छान कर पीता। लंबी-लंबी साँसें खींचता। धीरे-धीरे फेफड़े खाली करता। इन सब क्रियाओं को वृद्धावस्था में होने वाली शक्ति क्षीणता के उपचारस्वरूप करता। हाँ, एक आशंका उसके भीतर मथानी की तरह चलती रहती थी। वह यह कि कानों की श्रवणशक्ति के क्षीण होते जाने को थामने का उसके पास कोई उपाय नहीं था। ऐसा कोई व्यायाम उसके सुनने में नहीं आया था जिसको अभ्यास में ला कर काम चलाया जा सके।


जिसका बेटा उसकी फैमिली को ले कर बैंगलौर में जा बिराजा हो, जिसने अपनी लड़की जयपुर में ब्याह दी हो वह अपनी षष्ठीपूर्ति सजा चुकी पत्नी के साथ गुड़गाँव में पड़ा रह कर पेंशन पर गुजारा न करे तो क्या पान चीरने का काम पकड़ ले। जीवन भर कण-कण जोड़ कर जो मकान अब से बीस वर्ष पहले चार लाख में बनवाया था उसको छोड़ कर (बेच कर भी) बेटे के ढाई कमरों वाले फ्लैट में रहने की सोचना आत्मग्लानि में डूब जाना नहीं है क्या। जबकि आज के दामों यह मकान पाँच करोड़ से कम पर मानने को तैयार नहीं होगा। भला किसे दान में दे कर चला जाए।


पत्नी की मौज है। महीना बीस दिन बेटे के पास रहने को चली जाती है। पंद्रह-दस दिन के लिए बेटी के पास। शाकेश्वर कहाँ चला जाए। मकान से निकल कर स्टेशन। स्टेशन से पार्क वहाँ से फिर 'जैसे उड़ी जहाज को पंछी पुनः जहाज पै आवै' हो कर रह गया।


पत्नी टूर पर गई होती तो सफाई वाली का औहदा बढ़ कर काम वाली कर दिया जाता। अब उसके दायित्व विस्तार की परिधि में खाना बनाने से ले कर चौका बर्तन तक का क्षेत्र आ जाता है। हाँ, सुबह का चाय-नाश्ता और तीसरे पहर की चाय शाकेश्वर स्वयं अरेंज कर लेता। आखिर टीवी और किताबों के सहारे समय को कितना धकेला जा सकता है। ताश-शतरंज को वह बिला-डिग्नटी मानता रहा था अतः सीखने का प्रयास ही नहीं किया। इस तरह के खेल आपसदारी पर, प्रेम-सख्यता पर, भाषा-व्यवहार की सौजन्यता पर आरी चला देते हैं। रामायण पाठ और पूजा कीर्तन कभी किया ही नहीं। 'अब आखिरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे' की सोच जो अवचेतन में सोती रही थी अब जाग कर सचेतन पर अधिकार कर गई थी। अकेला आदमी खूब खाए तो भी कितना खाए। जी भर सोए भी तो कितना सोए। ऐसी कोई कैंची हाथ नहीं पाई समय को कुतर सकें। मेरठ में, आखून वालों ने हाथ खड़े कर दिए कि ऐसी कैंची हम नहीं बना सकते जो समय को तो दूर, उसके हाथ-पैर तक भी नहीं, बल्कि उसका एक पर भी कुतर सके। रामपुर में, सुनते हैं अब चाकू बनने बंद हो गए। शायद उनसे समय को काटा जा सकता था। वहाँ पर कट्टे, पिस्तौल, रिवाल्वर, रायफल और न जाने क्या-क्या बनने लगे हैं। मुजफ्फरनगर दंगे के दौरान लोगों ने रामपुर की अहमियत और महत्व को परख कर देख लिया था।


ऐसे समय में जब जीवनसंगिनी टूर पर प्रस्थान कर गई हो शाकेश्वर के सामने बोर होते रहने के अलावा कोई चारा शेष नहीं रहता था। जायसीकृत पदमावत का 'बारहमासा' व सूरकृत 'भ्रमरगीत' पढ़ कर ही क्या हो जाना था। स्त्री विरह से पुरुष विरह का उद्यापन कैसे हो सकता है, शाकेश्वर ने निष्कर्ष निकालने में ज्यादा दिमाग नहीं खपाया। कोई महिला ऐसी हो जो पुरुष विरह पर महाकाव्य लिख सके तो शाकेश्वर को पढ़ कर आत्मसंतोष होता, नहीं तो उसको आत्मवेदना की धार पर चलना था तो चलता जाता था।


दुर्घटना किसी की सगी नहीं होती। यही कारण है कि हर व्यक्ति दुर्घटना से बचने के फेर में राम का नाम रटता रहता है। पर इस कमबख्त का नाम ऐसा कुत्तानस्ली है कि यह असावधानी को हजार कोस से सूँघ लेती है। जरूरी नहीं कि दुर्घटनाग्रसित व्यक्ति ने ही असावधानी की हो। प्रायः दुर्घटित करने वाले की असावधानी अधिक कामयाब होती देखी गई है। उस दिन वही तो हुआ शाकेश्वर के साथ। वह जीवन भर घोषणा करता रहा था कि सड़क पर उसको कोई दुर्घटना चपेटित नहीं कर सकता। कभी ऐसा कुछ हुआ भी तो सड़क से हट कर ही हो सकता है। जब वह साइकिल चलाता था तब तो आगा-पीछा देख कर डामर से उतर कर कच्चे में ही जाता था। रही बात पैदल चलने की उसके जूतों ने शायद ही कभी डामर स्पर्श किया हो। जूतों के तल्ले सदा सुरक्षित रहे। प्रेमचंद के जूतों की तरह फटते रहे। उँगलियाँ बाहर झाँकती रहीं। भला ऐसे धीर-गंभीर और सावधान आदमी को कौन ऐक्सीडेंटित कर सकता था।


समय व्यतीत करने के लिए शाकेश्वर कई बार लंबा निकल जाता था। एक राह पर चलने वाला व्यक्ति धोखा खा सकता है। यह सोच कर वह अलग-अलग सड़कों पर तीन-चार किलोमीटर तक की लौट-फेर साध लेता था। बेचारे को नहीं पता था कि 'हिट एंड रन' की नई संस्कृति का उद्भव नई पीढ़ी में हो चुका है। पता नहीं किस मनोरोग से ग्रसित हैं कि कुछ युवाओं को, जो अपने आपको कुछ से कुछ समझते हैं, सम्यकता से चिढ़न सी हो गई है। ऐसे ही चिढ़त संतृप्त ड्राइवर ने शाकेश्वर को चपेटा लगा दिया। एक जनविहीन सड़क के किनारे पर वह आत्मलीन हो कर चलता जा रहा था। पीछे से आने वाली कार ने चेतावनीपरक हॉर्ननाद किए बिना ही उसे एक ओर फेंक दिया। बुजुर्ग आदमी अपने को सँभाले या कार के पिछौंड़े पर चिपके नंबर को पढ़े। उठने का प्रयत्न करे कि कराहे। या आँखों के आगे आए तिरमिरों की झलकार देखे। सारी परिस्थितियाँ लाचारी के पक्ष में जा रही हों तो अक्ल को ठिकाने नहीं रहने देतीं। आस तो तब पास फटकेगी जब होश कैंड़े में हों। कबड्डी, कुश्ती खेलते समय जिसने हाथ-पैर तो दूर एक उँगली तक नहीं मुसने दी वह एक पैर तुड़वाए सड़क के किनारे पड़ा था। वाहनों का यह हाल था कि एक-एक सेकेंड में दस-दस पास हो रहे थे। भारतीय दर्शन की महान निर्लिप्त भावना के वशीभूत हो कर हर कोई निकला चला जा रहा था।


कहते हैं कि प्रलयकाल तक दया करुणा करने वाले लोग बचे ही रहेंगे। आनुपातिक रूप से भले घटती की मार झेलते रहें पर बीजनाश के सीमांत तक नहीं जाएँगे। ऐसा ही कोई ड्राइवर अपोजिट साइड से आ रहा था उसको आकाशवाणी हुई या वह दया-ज्वार की चपेट में आ गया अथवा मानवीयता की ज्योति उसके अंतर्मन में प्रस्फुटित हो गई थी सो उसने अपनी कार को मोड़ कर भू लोटित शाकेश्वर के निकट लगा लिया। 


असल में गाड़ी में बैठी एक बुजुर्ग महिला ने अपने ड्राइवर को ऐसा करने के लिए कहा था। ड्राइवर उतरा, दो महिलाएँ उतरीं। बुजुर्ग महिला ने कहा-उठा कर गाड़ी में बैठाओ। शायद ज्यादा चोट है। जवान महिला और ड्राइवर ने पिछली सीट पर अधलेटी अवस्था में शाकेश्वर को डाल लिया। युवा महिला ड्राइवर के पास आगे बैठ गई। बुजुर्ग ने शाकेश्वर को थामे रखा।



देखते-देखते टकरा कर चला गया। मैं तो दूर से ही देख रही थी। आजकल के ड्राइवर अंधे हो कर चलाने लगे। कमबख्त के बाप-दादा की उम्र का बुजुर्ग है। सरकारी अस्पताल में ले चल। बुजुर्ग महिला ने टिप्पणी करके ड्राइवर को आज्ञा दी।



ड्राइवर गाड़ी चला रहा था। शाकेश्वर आँखे बंद किए अपने दर्द को भीतर ही भीतर पीने का प्रयत्न करता हुआ अधलेटा, सीट पर लुढ़का हुआ था। बुजुर्ग महिला करुणा-आप्लावित कर्तव्यपालन-भावना में विभोर हो कर घायल के चेहरे की ओर देख रही थी। तीन-चार मिनट भी नहीं बीते होंगे कि बुजुर्ग महिला के मुख से स्वस्फूर्त फुसफुसाहट निकली, 'इसको कहीं देखा है।' शाकेश्वर ने आँखें खोल कर बुजुर्ग महिला की ओर देखा। उसके मुख पर आश्चर्य, स्मृति, दुख और करुणा के भाव परस्पर गुँथे हुए थे।





शाकेश्वर सोच रहा था जब इसने मुझे कहीं देखा है तो मैंने भी इसे देखा जरूर होगा। वह भी अपनी स्मृति को कुरेदने लगा। परंतु बुजुर्ग महिला के बुढ़ाते नाक-नक्श में अपने अनुसार एक भी पहचान चिह्न नहीं खोज सका।



थोड़ी देर में अस्पताल पहुँच गए। दो लोगों ने सहारा दे कर शाकेश्वर को स्ट्रेचर पर लिटाया और खींच कर अंदर ले गए।


तीसरे दिन शाकेश्वर को आराम लगा। पहले दिन तो जाँचें चलती रहीं। शूगर, ब्लडग्रुप, ब्लडप्रेशर, एक्सरे। इधर ले जाया जा रहा है, उधर पहुँचाया जा रहा है, दर्द और दुर्घटना का शोक। सारे औपचारिक प्रावधान पूरे करने जो थे। सरकारी कार्यों की स्पीड और उपकरणों की क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगाने वाले अकारण नहीं झींकते। शायद सरकारी मशीन में एक्सीलेटर लगाने का प्रावधान नहीं है। दूसरे दिन, एनेस्थीसिया, आपरेशन और प्लस्तर। पूरा दिन इस प्रकार बीता कि आधा तो घबराहट और न जाने क्या हो और कैसे होगा के फेर में आत्मचिंतन की व्यर्थता में गया। आधा अचेतनावस्था की भेंट चढ़ गया। हाँ तीसरे दिन का भरोसा रह गया। बाएँ पैर पर प्लस्तर है तो कंपनसेट करने के लिए दाएँ हाथ पर भी प्लस्तर। चोट किस तरह डायगुनली कवर कर गई। क्या 'गणित साध कर टकराई थी कार! बिमाता के लेख हैं, हरेक को बाँचने पड़ते हैं। शाकेश्वर भी बैड पर लंबलेट हुआ बाँच रहा था।


नर्स आई। सुई ठोक कर मुस्कराई। बाएँ हाथ को भी किस काम का छोड़ा है। गुलकोज चढ़ने का अंटा चिपका है। हिलाने-डुलाने को मन करे तो मन के करने से क्या होता है। कंधे में तीन बार सुई लग चुकी। कठिन और कठोर तरीकों की चिकित्सापद्धति को झेलने की लाचारी। लाचारी में भी एक संतोषप्रद किरण। नर्स ने दो गोलियाँ खाने को दीं। आधा गिलास पानी। बेड का सिरहाना ऊँचा किया और लेने को कहा। क्या करता। पट्ठे को लेनी पड़ी। मुस्कुराती हुई नर्स को देख-देख कर खुश होता रहा। ड्यूटीफुलपने पर मन ही मन रीझ रहा है शायद! नर्स ने सोचा होगा। पर शाकेश्वर तो अपनी याद में कुछ खोज रहा था। कहीं-न-कहीं इस लड़की को देखा है- इसी धुन में आंतरिक लोक में परिभ्रमण करता जा रहा था। वार्ड में सोलह मरीज थे। सभी टूट-फूट के शिकार। कई को पलस्तरों से सजाया गया था, कई ऐसे भी थे जिनको पट्टियों के सहारे ही अपनी शारीरिक क्षतियों को रिकवर करना था। वह नर्स जब तक वार्ड में रही तब तक शाकेश्वर उसको निहारता और स्मृति में उसका चित्र तलाश करता रहा।



नर्स अपना दायित्व मरीजों पर चिपका कर चली गई। शाकेश्वर कहाँ जाए। पड़ा पड़ा याद को कुरेदता रहा देखा होगा। अस्पताल तो वह कभी आया नहीं। पार्क में सुबह-सुबह महिलाएँ नहीं आतीं। ऐसी कौन-सी जगह हो सकती है कि इसे देखा हो। थोड़ी देर याद करने का प्रयास करके बुदबुदाया- चल छोड़, कौन सिर खपाए नहीं याद आ रहा तो क्या।



हाँ, याद पर बस नहीं तो याद ने ही सहारा दिया - वह बुजुर्ग महिला भी तो कह रही थी कि कहीं देखा है। शाकेश्वर के मस्तिष्क के तार झनझना गए। अरे, नर्स तो ऐसी लगती है मानो उस बुजुर्ग महिला की जेरॉक्स कॉपी हो। भई, कैसा भी काम हो आड़-गाड़ तो चाहिए ही। अस्पताल में चाहे चपरासी से जान-पहचान हो पर हो, नहीं तो मरीज को एडमिट करने में एड़ियाँ घिस जाती हैं।



छोड़ यार, किस फेर में पड़ गया। आदमी की दवा आदमी ही होता है। जो संयोग से प्राप्त होता है। विषस्य विषमौषधम् तो किसी ने फंडा रचने के लिए कह दिया। आदमी ही आदमी के काम न आए तो संसार नरक में न बदल जाए। शाकेश्वर ने चिंतन से पीछा छुड़ाने की सोच कर मन ही मन कहा। और आँखें बंद कर के लेट गया।


आँखें बंद करने से मस्तिष्क में चैन पड़ जाता तो हर कोई इसी प्रकार चैन न पा लेता।


कौन मरीज कराह रहा है। कौन बेसुध पड़ा है। किसको नींद की गोली दे कर सुला दिया गया है। इसकी चिंता वह क्यों करे। उसका मन तो खुद कराहने को करता था। बस, यूँ सोच कर अटक जाता था कि कोई क्या सोचेगा। एक बुजुर्ग आदमी जिसको इतना पता हो कि चोट में दर्द तो होता ही है, कराहने लगा। आदमी की बुजुर्गियत और समझ पर बट्टा न लग जाए, इतना ध्यान करके वह दर्द को सहता चला जा रहा था।



दोपहर बाद लगभग तीन बजे वह बुजुर्ग महिला नर्स के साथ आई। पास रखे स्टूल पर बैठ गई। शाकेश्वर ने उसको पहले ही देख लिया था। परंतु वह आँखें बंद करके लेट गया था। बुजुर्ग महिला ने जान लिया था कि मरीज नींद में नहीं है। वैसे ही, लेटा है, शायद खयालों में खोया हुआ हो। वह सोच रही थी कि बात कैसे आरंभ करे।



'सो तो नहीं रहे!' बुजुर्ग महिला ने इस प्रकार कहा मानो वह इतना तो जानती ही है कि आँखें बंद कर के लेटे हुए आदमी को पहचान सके कि वह सोया हुआ है या यूँ ही लेटा हुआ है।


शाकेश्वर ने आँखे खोल कर देखा।


'ठीक तो हो ना!' बुजुर्ग महिला ने मधुर मुस्कान ओढ़ कर शब्द उच्चारे ।


शाकेश्वर ने आँखें झपका कर हामी भरी। 'घर-परिवार वालों को खबर कर दी होगी?' इस प्रकार पूछा मानो आश्वस्त होना चाह रही हो।


'कहाँ। हाथ सत नहीं पकड़ रहे । मोबाइल......' कह कर शाकेश्वर ने इस प्रकार सिर घुमाया कि मोबाइल दिखाई दे जाए। जो तकिया के पास रखा था।


'लाओ, मैं मिलाती हूँ।' कह कर बुजुर्ग महिला ने मोबाइल फोन उठा लिया। 


'राजबाला को मिलाओ।' शाकेश्वर ने पत्नी का नाम बताया।


'लो, घंटी जा रही है।' बुजुर्ग महिला ने फोन लाउड पर करके शाकेश्वर के आगे कर दिया। और दाएँ हाथ में थामे रही। शाकेश्वर ने 'हैलो' सुनकर कहा,


'राजबाला!'


'हाँ, मैं अभी आने वाली नहीं। चार दिन ही तो हुए हैं। कम से कम पंद्रह दिन और रहना है।' 'एक सप्ताह हो गया। '


'तो क्या जिंदगी भर तो खुंटबँध रही हूँ।


'बात तो सुनो'।


'हाँ सुनाने की आदत छोड़ दो। बड़ी उमर में जुबान को तहा कर रख देना चाहिए।'


'भई, सुनो तो भाग्यवान! '


"क्या मरियल तरीके से बोल रहे हो। नहीं आऊँगी।


कह दिया सो कह दिया। '


'न आना, पर सुन तो लो'।


"सुनाओ। कौन-सी रामायण की चौपाई सुनाओगे।


सब समझती हूँ।


'कुछ भी नहीं समझती। समझने से पहले सुनना पड़ता है।'


'हाँ, हाँ, सुन तो रही हूँ।'


'परसों मेरा एक्सीडेंट हो गया।' 'बहाना नहीं चलेगा। चोट-घिसर लग गई हो तो डॉक्टर से पट्टी करा ली होती।'


"एक पैर और एक हाथ में फ्रेक्चर हो गया।"


'कहती थी न! सुबह-शाम सड़कों पर घूमना बंद करो। कोई मनचला भिड़ कर भाग गया होगा। बढ़ती उम्र में बाहर घूमने का शौक चपेट मार गया। कितना कहा कि पुराने हाड़ टूट-बिखर गए तो जोड़ना समेटना मुश्किल होगा'। राजबाला ने रेडीमेड डायलोग की तरह उपदेश दे मारा।





'सरकारी अस्पताल में हूँ।'


'सड़ने के लिए। पैसे का लोभ! नर्सिंग होम में नहीं जा सकते थे।' 


अपने आप नहीं आया। कोई उठा कर यहाँ एडमिट करा गया।' 'सरकारी वाले तो ड्यूटी की खानापूर्ति भी रो-रो कर करते हैं। 


 'सारी चीजें, एक्सरे और आपरेशन हो चुका। प्लास्टर भी।'


'ठीक है। आराम से पड़े रहना। हाय- कराह को पी कर रखना। वहाँ कोई राजबाला थोड़े ही होगी। जो सुन कर सेवा में जुट पड़ेगी।'


'तुम्हें आना तो चाहिए।' शाकेश्वर के चेहरे की आकृति देखते ही बन रही थी। रंगत ऐसी कि काटो तो एक बूँद रक्त न निसरे।' 'हाँ! आ रही हूँ। परसों सुबह तक पहुँच गई समझो।'


शाकेश्वर ने 'ओके' कहकर सांत्वना प्रदर्शित की


तो बुजुर्ग महिला ने फोन काट दिया। थोड़ी देर चुप्पी रही।


'बड़ी ककर्श आवाज है, आपकी मिसेज की! '


बुजुर्ग महिला ने आश्चर्य में भर कर कहा ।


'बालक अपने घर-बार के हो जाते हैं तो औरत की टोन बदल जाती है। अवर्णनीय तरीके से उबाऊ व्यवहार करने लगती है। सरस जीवन को भी अप्रिय और नीरस कहानी की तरह विरक्त होकर जीने की सोचती है।' 



'इतने तक तो आधी जिंदगी ही पार हो पाती है, बाकी आधी तू-तड़ाक करके पूरी काटने की क्या तुक है।' कह कर बुजुर्ग महिला मुस्कुराई ।


शाकेश्वर ने मुस्कान से धुले उसके चेहरे को ध्यान से देखा। वह महिला सकपका गई। इतनी देर में नर्स भी आ गई जो अनी बनी अपनी मम्मी की कॉपी लग रही थी।


'आपका नाम जानने की इच्छा है।' शाकेश्वर ने महिला से कहा।


'मैंने आपको पहले कहीं देखा है। याद नहीं पड़ रहा, कहाँ।' महिला ने आज फिर से कहा। 'नाम बताओ, मुझे याद आ जाए तो।' शाकेश्वर ने जिज्ञासा रखी।


'देखा हो, न भी देखा हो। कहीं मिले भी हों। अब इस पर सोचने का क्या फायदा है।' नर्स ने जैसे इस खोजबीन में अपनी अरुचि प्रदर्शित कर दी हो।


'यह मेरी बेटी है। पर आज्ञा इस तरह देती है जैसे माँ हो।' महिला ने परिहास किया। नर्स आँखों ही आँखों में मुस्कुरा दी।


शाकेश्वर ने संयमशील दिखने का प्रयास किया। अतः महिला की ओर आलस्य और उपेक्षा की दृष्टि से देखा। जिससे कठोर, रूखा और निर्लिप्त लग सके। परंतु वह मन ही मन उदासी से मुक्त होना चाहता था। जैसे मस्तिष्क में दबी यादों को खोजने में संलग्न हो।



'इस तरह क्या देख रहे हो। बेड पर बिछे आदमी को निराश नहीं होना चाहिए। बता देती हूँ- मेरा नाम सोहनबीरी है।' उसने 'बेड पर पड़े' शब्द के स्थान पर, यह सोच कर कि पड़ा रहना शुभ शब्द नहीं है, 'बिछा' शब्द प्रयोग किया था। बिछने में आयास और रस का मिश्रण होता है।



क्षण भर में ही शाकेश्वर की स्मृति स्वफूर्त तरीके से जाग गई उसके चेहरे पर लालिमा, होठों पर मुस्कान और आँखों में प्रसन्नता तैर गई। जैसे शाकेश्वर के चेतन में अभिज्ञा कौंध गई हो।



‘याद आ गया?' नर्स ने उपहास की टोन में पूछा। मानो वह शाकेश्वर की दशा को ताड़ गई थी।


'हाँ, पर नहीं बताऊँगा।'


'क्यों? देर से ही सही, मुझे भी याद ही आ जाना है। तब आपका..... क्या रह जाएगा।' महिला 'एहसान' शब्द का प्रयोग करती करती हिचक गई। 


'सोना।' शाकेश्वर ने धीरे से उचारा ।


यह तो घर पर बोले जाने वाला नाम है।' महिला ने बताया। पर वह सोचने लगी थी कि मायके के गाँव का रहने वाला हो सकता है। नहीं तो 'सोना' कह कर नहीं पुकारता ।


'अता-पता बताऊँ?' शाकेश्वर अब भी अपनी याद को खोजना चाहता था।


माँ और बेटी ने उत्सुक दृष्टि से शाकेश्वर को देखा।


 'ले बता ही देता हूँ। आपका घर था। उसके पश्चिम में शिवाला था।' शाकेश्वर बताने लगा।


'अभी भी घर वहीं है और शिवाला भी'। महिला ने हस्तक्षेप किया।


'मेरे लिए तो सब था। उसके पश्चिम में सुखबीर का दो मंजिला मकान था। सुखबीर के उत्तर में अजब सिंह की बैठक थी। हाँ, याद आया मंदिर के सामने गली सी छोड़ कर रहट का कुआँ था.....। सुखबीर के चौबारे में तीन लड़के रहते थे जो हाईस्कूल की परीक्षा देने के लिए आए थे।'


शाकेश्वर इतना ही बता पाया था कि महिला बोल पड़ी, 'सबसे छोटा लड़का मंदिर के पीपल के नीचे सारा दिन पढ़ता रहता था। उसने दसवीं में फर्स्ट डिवीजन लाने में सफलता पाई थी। ग्यारहवीं में दाखिला भी ले लिया था। सोना ने नौवीं में। दोनों रोज-रोज कॉलेज में एक-दूसरे को देखते थे। वह लड़का बहुत बढ़िया हॉकी खेलता था। लड़कियाँ कालेज की छत से खेल देखती थीं। वह लड़का सोना के 'गोल-गोल' चिल्लाने पर गोल करने के लिए पागलों की तरह जान लगा देता था। कई बार गोल कर के ही दम लेता था। उस लड़के को स्टेट की जूनियर्स की टीम में चुन लिया गया था। या और भी बताऊँ?' महिला बोली।





शाकेश्वर ने अपने चेहरे पर संजीदगी बना कर रखी। जबकि औरत के चेहरे पर तरावट और आँखों में शरारत तैर रही थी। 'इतना बुद्धू और डरपोक था कि महीनों तक न कोई इशारा कर सका न दो शब्द मुँह से उचार सका। 'वह देखता तो झिझकता हुआ सा। पास से निकलता तो हिचकता हुआ। ऐसा कि लड़का न हो कर लड़की हो। फिर भी सोना को अच्छा लगता। एकदम सम्मोहक। इसका अर्थ यह नहीं था कि सोना उससे प्रेम करती थी। अच्छा लगने और प्रेम हो जाने में धरती-आसमान का फासला होता है। सोना के साथ की लड़कियाँ उपहास करती कि 'तेरे फेवरेट हीरो को देख कर जलन होती है। '


छुट्टी के बाद अकेला चलता। जैसे उसका कोई साथी न हो। मुझसे दूर रहता हुआ पीछे, डरता हुआ सा। सूँघ-जाँच कर कदम रखता सा।


अब वह महिला उत्तम पुरुष पर उतर आई थी। एक बार कार्तिक नहान में मैं, माँ, चाची और दो सहेलियों के साथ यमुना के मेले में गईं। वह निपट अकेला। भला उसका दिमाग तो देखो, बीस-पच्चीस कदम पीछे रह कर चलता हुआ। वैसे तो वह मुझे बहुत अच्छा लगता था परंतु उसकी मूर्खताएँ अच्छी नहीं लगती थीं। मेले में भी वह अकेला ही घूमता रहा। कभी हमारे सामने से हो कर निकल जाता, कभी पीछे से आ कर ओवरटेक कर जाता। ऐसी स्थिति में जब वह पास से निकलता तो मेरे दिल की धड़कन तेज हो जाती थी। लौटते में भी वह हमारे पीछे दूरी बना कर चलता रहा। अपनी समझ में वह कुछ ज्यादा ही सावधान रहने के प्रयत्न करता रहता था।


मैं उसको देख कर मन ही मन प्रसन्न हो जाती थी। परंतु प्रेम बिलकुल नहीं करती थी। वह लंबे कद का। इकहरे बदन का, रेस के घोड़े की तरह सुँथवाँ। पूरे कॉलेज का आइकन क्या अध्यापक, क्या छात्र-छात्राएँ उसकी प्रशंसा करते न अघाते। पर वह अपने आप में घुन मत्कुण। कोई-कोई उसके तरीके को ही स्टाइल कहता, कोई अहंकार। मुझे तो ऐसा लगता था मानों दुनिया के मामले में कोरा बुद्धूचंद हो। पढ़ाई में आइंस्टीन की औलाद। खेल में ध्यानचंद का चेला।


एक बार मैं बरसीम लेने खेत में जा रही थी। गन्ने के खेतों के बीच बटिया निकलती थी। जिस पर उसका प्रादुर्भाव ऐसे अचानक गया कि मैं घबरा गई। मर्द जात है, पता नहीं क्या कर बैठे। आधेक मिनट हम दोनों एक-दूसरे के सामने इस प्रकार खड़े रहे मानो पत्थर में से घड़ कर बनाए हों। उसने हाथ जोड़ कर कुछ कहना चाहा पर कह नहीं सका । जिसका चेहरा फक्क पड़ गया हो उसमें साहस बचता ही कहाँ है। मुझे दया आ गई। वैसे दया! वह भी ऐसे समय पर औरत की कमजोरी क्यों न कही जाए।


उसने मेरा हाथ पकड़ा। मैंने छुड़ाने की कोशिश नहीं की। कोशिश करनी चाहिए यह बात तब दिमाग में ही नहीं आई। वह मुझे गन्ने के खेत में अंदर ले गया। अपने जिस हाथ में उसने मेरा हाथ पकड़ा था वह बर्फ जैसा ठंडा था। निबड़ शांति में गन्ने के खेतों के ऊपर हवा का एक झोंका सरसराया। मेरे तिरपन काँप गए। वह भी सहम कर रह गया। कोई आदमी आ न गया हो, सोच कर मेरी जान सिकुड़ गई। उसने कहा 'कुछ नहीं है। भला पागल! ' कुछ से क्या डरना। कोई से डरना होता है। जी में जान आई तो मैंने सोचा निरा बुद्धू है भोला। डरपोक भी। इसी कारण अच्छा है। एक बार जी भर कर देखने की इच्छा हो गई होगी।


याद है क्या हुआ था? खोदा पहाड़ निकली चुहिया। उसने कहा- एक रिक्वेस्ट है। मैं चुप! मैं उसकी सफेदी पुती सूरत देखने लगी। उसने अपने चेहरे पर लिपटी घबराहट को विनीत भाव से ढकते हुए कहा- एक बार 'किस' कर लेने दे।


मैंने उसकी ओर मुँह उठा कर देखा। उसने मेरे गालों पर कई-कई चुंबन जड़ दिए। मैं मुस्कुराने के अलावा कुछ न कर सकी। जैसे मेरी शक्ति निचुड़ गई हो


तब मैंने उसकी आँखों में झाँक कर देखा। काली पुतलियों के चारों और नीला घेरा देख कर मुझे आश्चर्य हुआ। पतले नुकीले चेहरे को तीखा बनाती हुई उसकी नाक बड़ी आकर्षक लगी। लंबी गर्दन। कंठ के ऊपर तिल। सब अभी भी। लहरदार बालों से ढका हुआ वह सिर अब 'खल्वाट- गंजा। '


वह झुर्रियों से पटे चेहरे और टूटे-फूटे दाँतों का सहारा ले कर मुस्कुराई।


हम कब तक अपना समय बरबाद करते। वह करता भी तो, मैं बिलकुल नहीं करती। मैंने पूछा, 'बस'!


उसने कहा, 'हाँ'।


मैंने हिदायत दी, 'कभी पीछा नहीं करना। प्रत्येक लड़की को बदनामी का डर और इज्जत की परवाह होती है। मैं और क्या करती। वह 'बस' का अर्थ ही नहीं जानता था। मैंने महसूस किया कि इसको जिंदगी के बारे में बहुत जानने की जरूरत है।


वे मेरे अनुभव क्षेत्र के पहले चुंबन थे। गर्म, उत्तम और ऊष्ण। जिस लड़के का हाथ मुझे बर्फ से ठंडा महसूस हो रहा था। उसके होंठों पर इतनी गर्मी! मैंने पता नहीं कैसे महसूस की। शायद इसीलिए कि वह निश्छल था। जिंदगी में मिले पहले उपहार सा उसका स्पर्श। ऐसा उपहार जो एक सिहरन दे कर बिखर गया हो। मैं कई दिनों, महीनों और वर्षों तक उस उपहार को याद कर के सिहरती रही। जीवन का सर्वोत्कृष्ट, पवित्र और गंभीर सर्वोत्कृष्ट। जैसे सुगंधित सुहानी चाँदनी मेरे ऊपर से सरसरा कर गुजर गई हो। मैं आज तक नहीं समझ सकी कि वह अनुभव क्या था। मेरे भीतर जैसे एक नदी बह रही हो। तटबंध तोड़ कर बह जाने को उफनाती हुई। आतुर।'


उसकी बर्फ सी जमी हुई आँखों में से निकलने वाली बेदाग निगाहों से शाकेश्वर आँखें नहीं मिला सका। मानो वह अधैर्य के अधूरे ज्वार को नियंत्रण में करने के लिए अपनी शक्ति लगा रहा हो । यादों के घुप में दबी पड़ी स्मृतियाँ साँसों को सोख लेना चाहती हों और वह उनको थामने के लिए जोर-जोर से खींचना और छोड़ना कर के अपने आप पर काबू करने का प्रयास कर रहा हो । उसको ऐसा महसूस हो रहा था कि इड़ा-पिंगला की तो बात ही क्या सुषुम्ना तक सुन्न हो गई हो।


सोहनबीरी की अनुभवी आँखें शाकेश्वर की मनोदशा को ताड़ क्यों न जातीं। इस पर भी उसने अपनी बातों का क्रम अटूट रखा जिससे वह मायूस और हताश हो कर बोला- मैं तुझे प्यार करता हूँ बहुत दिनों से। जानती हूँ। अभी तो चेहरे पर रोऔँ भी नहीं आया।


बचपन में बिगड़ जाने वाले को सुधारने में ईश्वर को भी पसीने छूट जाते हैं- मैंने इतना कह कर अपनी राह ली। शाकेश्वर कभी मुस्कुरा देता कभी सोहनबीरी उर्फ सोना की ओर देख कर गंभीर हो जाता। गंभीर अवस्था में वह एक ही बात पर बार-बार सोचता। बात मात्र इतनी सी थी कि न सोना ने उस समय प्रशंसा में दो-चार अच्छे शब्द कहे और न अब ही कह रही थी। जब शाकेश्वर के लिए महिला के मुँह से निकले प्रशंसा के शब्द ही इतना महत्व रखते थे जितना पुरुष द्वारा पूरी वक्तृता के साथ प्रशंसापरक व्याख्यान दिया जाना भी नहीं रखता।



पास बैठी नर्स अपनी मम्मी की किशोरावस्था की प्रेम कहानी को सुनती हुई एकाग्रचित बैठी रही।



'मैं जितना जीवन में सोच सकी हूँ, सुनो। प्रेम एक भयंकर बीमारी होती है। जो अक्ल को खा जाती है। यह मन में उगती है। कोमल, सुगंध भरी कोंपलें ले कर। बाद में सारे शरीर में फैल जाती है। इसकी जड़ें मानो शारीरिक रोग का रूप धर लेती हैं। इतने लोग किसी बीमारी से नहीं मरते जितने प्रेम के कारण मरते या मार दिए जाते हैं। वास्तव में प्रेम तो चोर की इच्छा जैसा कुछ होता है। सुंदर लगने वाली चीज को पाने की हठ समझो। प्रेम तो स्वार्थ की अनी होती है। सोपता और पैसा जिसके पास होता है उसका शगल बन जाता है प्रेम। अलबुध आदमी अपनी जिम्मेदारी को नहीं समझ पाता। अतः भावनाओं के झूठे समंदर में तैरने लगता है। ' सोहनबीरी ने अपने अनुभव का दर्शन कह सुनाया।


शाकेश्वर ने इस गंभीर बात में कोई रुचि नहीं ली। उसने मन-ही-मन कहा- भला कोई तुक है। उदासी भरी एकरसता में ही इतना कुछ कह गई। अभी भी अपने आपको समझती है। मानो करुणा और उपकार कर के भी कठोर की कठोर।


फर्श पर पुते हुए फिनायल की गंध दवाइयों की संयुक्त गंध में मिल कर उसके फेफड़ों में घुसने लगी थी। कई मरीजों की कराहटें, आँहें उसकी शांति भंग करने लगी थीं। अपने दर्द को वह बेचैन हो कर याद करने लगा था कि सामने बैठी कैशोर्य काल की वह प्रेमिका अनगढ़ प्रेम की जो कहानी सुना चुकी थी, उसे भूल सके। एक डर और सता रहा था। वह परसों आने वाली पत्नी का था। जिससे वह विगत पाँच-छह वर्षों से कुछ हिचकने लगा था।


उसने आँखें बंद कर लीं। वह सोचने लगा-अभी भी असंपृक्तता से भरी शब्दावली का प्रयोग कर रही है। मन को छू जाने वाली उपेक्षा को भी संभालना चाहती है। प्रकट की अपेक्षा अंतर्मन में बैठी कोमल भावनाओं को दबा कर रखने को ही निपुणता समझती है। इसने सदा से चीजों के विषय में अपने ही ढंग से सोचा है।


अपने आपको सुनिश्चित निष्कर्ष पर पहुँच जाने वाली समझती रही है तो पचास वर्षों के अंतराल पर छूटी रह गई घटनाएँ और उस लड़के की सूरत अंतर्मन में सुरक्षित क्यों रह सकी। जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचारों के विषय में बार-बार विश्लेषण करने की जरूरत होती है उसी प्रकार इसे भी करना चाहिए। पर स्वाभाविक रूप से प्रभावशाली दिखने का कलात्मक तरीका है इसके पास। कोमल भावनाओं को दबा कर व्यावहारिक दायित्वों को ऊपर ले आती है।


शाकेश्वर सोचता रहा- इसके स्वीकार-अस्वीकार को मैं परीक्षा पर क्यों चढ़ाऊँ। ढलान उतारते जीवन को अधूरी कहानी में उलझाने से कोई लाभ मिलने वाला नहीं। न अपने आप पर तरस खाने का लाभ है, न पुराने छूट गए दिनों को हरा करने का समय ही हाथ में रह गया है। जो कुछ घटित या दुर्घटित हो गया वह अकस्मात ही था। भावनाएँ आँखों को नम करने के अलावा कुछ भी देने वाली नहीं। तर्कबुद्धि धोखा देगी तो इस प्रकार कि भविष्य की सटीक व्याख्या कर रही हो।


सोचते-सोचते उसे नींद की झपकी आ गई। अधनिंदासी दशा में चौंक कर जाग गया। सोना, बेटी नर्स के साथ जा चुकी थी। वह बुदबुदाया- काश! जब तक मैं अस्पताल में हूँ, सोना यहाँ पर न आए।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

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