रजनीश कुमार मिश्र की ग़ज़लें

  




ग़ज़ल पद्य की सशक्त विधाओं में से एक है। इसके कुछ ऐसे आधारभूत मानक हैं जिसके चलते इसकी लय आज भी सुरक्षित है। इसके साथ कोई भी छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। हालांकि इसके मायने है 'औरतों से या औरतों के बारे में बातें करना' लेकिन अब हिन्दी ग़ज़ल इस दायरे से बाहर निकल कर आम समाज और जीवन के बारे में खरी खरी बातें करने लगी है। दुष्यन्त कुमार ने इस परम्परा की शुरुआत की थी जिसे आज हिन्दी के कई ग़ज़लकार आगे बढ़ा रहे हैं। रजनीश कुमार मिश्र ऐसे ही युवा स्वर हैं जिन्होंने कुछ उम्दा गज़लें लिखी हैं। 

समय हमेशा गतिशील होता है। जीवन के शुरुआती दिनों में जो नज़ारे मनभावन दिखाई पड़ते हैं वे समय साथ रूढ़ होते चले जाते हैं और मापने वाले पैमाने बदले बदले से नजर आने लगते हैं। बचपन का मासूम रिश्ता बड़े होने पर उन रिश्तों में बदलने लगता है जिनमें अपनापन की जगह लोभ, लालच और स्वार्थ दिखाई पड़ने लगता है। रजनीश कुमार मिश्र ने जिन्दगी के इन वाकयातों को खुबसूरती से ग़ज़ल में ढालने की सफल कोशिश की है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं रजनीश कुमार मिश्र की ग़ज़लें।



रजनीश कुमार मिश्र की ग़ज़लें 


1

कागज, कलम, दवात और स्याही के बिना,
लिखी है एक गजल मैंने रूबाई के बिना।
जाने कब से बीमार पडा हॅू बिस्तर पर मैं,
तुम आ जाओ, ठीक हो जाऊॅ दवाई के बिना।
आलोचकों का जब से सम्मान करने लगा हूॅ मैं,
गलतियॉ अब धुलने लगी है सफाई के बिना।
जा रहा हॅू फरियाद ले कर उसकी अदालत में,
निर्दोष हूॅ माफ कर देगा मुझे, गवाही के बिना।।
यूॅ तो बड़े काबिल है तेरे लश्कर में सभी,
कैसे जीतेगें ये जंग, इस सिपाही के बिना।।


2

थोडा सा वक्त बदला, सब अफसाने बदल गये,
मुझे मापने वाले सभी पैमाने बदल गये।
कल तक जो ठहरते थे मेरे साये की छांव में,
उन सभी लोगों के आज आशियाने बदल गये।
चलती थी कागज़ की नाव छोटे से पोखर में,
न जाने क्यॅू अब वो जमाने बदल गये।
एक मासूम सा रिश्ता था बचपन में सभी से,
बडे़ होते ही सभी रिश्तों के मायने बदल गये ।।






 
3

किसी को गिरा कर उठने की फितरत नहीं रही,
इतना दिया उसने, अब कोई हसरत नहीं रही।
तूफानों से भिड़े है, शोलों को भी मात दी है,
पर जिगरे में मेरे अब वो हिम्मत नहीं रही।
छपते थे अखबार के हर पन्ने में कभी
मेरे किरदार की अब वो शोहरत नहीं रही।
उठाते थे कभी सभी के उम्मीदों का बोझ
कंधे की मेरी अब वो ताकत नहीं रही।
पैसो की चकाचौंध में भूल गया था सब
उम्र भर जिसे कमाया, वो दौलत नहीं रही।



4

ऑखों को सुकून दे जो अब तक वो सामान न पाया।
जवाब दिल के सवालों का, अब तक जान न पाया ।।
राह में मिलता रहा मुझे वह भेष बदल-बदल कर।
मेरी नजरों ने उसको अब तक पहचान न पाया।।
हर गली हर मुहल्ले में सुनते है उनका घर है।
बहुत ढूॅढा पर उनका अब तक मकान न पाया।।
खुशबू जो उनके आने से फिजाओं में बिखर जाती है।
जमीं पर कहीं उन फूलों का अब तक बागान न पाया।।
खुली हवाओं में उड़ने की मेरी चाहत थी कब से।
उड़ने को मैं अब तक खुला आसमान न पाया।।
कोई आकर मेरी जिन्दगी के बिखरे पन्नों को समेटे।
मेरे दिल ने अब तक वो मेहमान न पाया।।


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग  विजेन्द्र जी की हैं।)


टिप्पणियाँ

  1. शानदार सर अदभुत 💐💐💐

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  2. आप पहले शायर न थे । किसकी याद ने शायर बना दिया ।

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  3. अति सुंदर कविता भैया

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  4. बहुत ही सुंदर गजल
    मामा जी प्रणाम

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  5. Sab gajal to nai padhi lekin jitni b padh paya sab gajab thi sir

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  6. बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल SDM साहब

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  7. बहुत खूब बड़े भैया जी

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  8. बहुत ही सुंदर पंक्तियों द्वारा गजल लिखी है चाचा जी 👌👌👌🙏

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