अज्ञेय से विनोद दास की बातचीत

 




अज्ञेय हिन्दी के ऐसे रचनाकार रहे हैं जो अपने जीवित रहते ही किंवदंति बन चुके थे। हालांकि कि तब भी वे आलोचनाओं से परे नहीं थे। विनोद दास तब युवा थे और अज्ञेय जी से उन्होंने यह साहसिक इंटरव्यू लिया था। वस्तुतः यह इंटरव्यू लगभग 42 साल पहले लिया गया था जो आज भी इस रूप में सामयिक है कि इस इंटरव्यू के कुछ सवाल और बातें आज भी प्रासंगिक हैं।यह  इंटरव्यू विनोद जी की पुस्तक 'बतरस' में शामिल किया गया है। यह पुस्तक शिल्पायन प्रकाशन से वर्ष 2008 में प्रकाशित हुई थी। कल अज्ञेय के जन्मदिन पर विनोद जी ने इस इंटरव्यू के कुछ अंश फेसबुक पर साझा किए थे। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं अज्ञेय से विनोद दास की पूरी बातचीत।


अज्ञेय से विनोद दास की बातचीत


अज्ञेय जी से यह बातचीत उनके केवेन्टर ईस्ट स्थित आवास पर हुई। घने पेड़ों से घिरे एक बड़े इलाके में उनका घर था। जब मैं पहुंचा, बाहर बरामदे में रखी आराम कुर्सी पर बैठे हुए वह अखबार पढ़ रहे थे। पहले अत्यंत सौम्यता से जलपान के लिए वह मुझे भीतर डायनिंग  टेबल पर ले गये। वहां इला डालमिया भी मौजूद थीं। अज्ञेय जी ने स्वयं मेरे लिए चाय बनाई। खूब सिंके हुए टोस्ट पर मक्खन भी खुद लगाया। मेरे सरीखे देहाती को उनके आतिथ्य का यह अंदाज़ रोचक लगा। इस आत्मीय आवभगत के बाद उनके बरामदे में यह बातचीत हुई। बातचीत के दौरान पेड़ों से आती चिड़ियों की चहचहाहट से मन पुलकित हो जाता। अज्ञेय जी को यह ध्यान बंटना अच्छा लग रहा था। 


आपके द्वारा सम्पादित तीन सप्तकों को हिन्दी कविता में स्वीकृति मिल चुकी है। लेकिन चौथे सप्तक की प्रासंगिकता के बारे में काफी विवाद है। यहाँ तक कि तीसरे सप्तक के कवि केदार नाथ सिंह ने अपने हाल के इंटरव्यू में कहा है कि ऐसा कतई नहीं है कि अज्ञेय समकालीन काव्य परिदृश्य से अनभिज्ञ हैं। लेकिन उन्होंने हमारा सबका मजाक उड़ाने और चिढ़ाने के लिए चौथे सप्तक का संपादन किया है। आप कोई टिप्पणी करना चाहेंगे? 


प्रत्येक सप्तक के निकलने पर विरोध हुआ है। तीन के काफी अन्तराल के बाद चौथा निकला। तीन सप्तकों को सह लिया गया या अन्ततः स्वीकार कर लिया गया तो विरोध चौथे पर केन्द्रित हुआ। लेकिन कविता और काव्य-वस्तु की दृष्टि से चौथे सप्तक में भी अच्छी रचनाएँ थीं और चौथे सप्तक के लगभग सभी कवियों के स्वतन्त्र कविता संग्रह भी छप गए हैं। कुछ के पहले छप गए थे और कुछ के बाद में छपे हैं। उनका साहित्य में अपना स्थान बना है। यदि चौथे सप्तक का भी इसमें योगदान हुआ तो मैं समझता हूँ, अच्छा ही हुआ। बाकी रही मजाक उड़ाने या चिढ़ाने की बात,  यह तो फुरसत ही नहीं थी कि लोगों को चिढ़ाने या मजाक उड़ाने के लिए पुस्तक का संपादन करूं।



अभी आपने कहा कि सप्तक के कवियों के स्वतन्त्र का संग्रह आ गए हैं। क्या आप समझते हैं कि काव्य संग्रह का छपना ही अच्छे कवि की कसौटी है? 


मेरा आशय यह नहीं है। लेकिन यदि उनका महत्व इतना कम होता तो शायद उन्हें थोड़ी कठिनाई अधिक हुई होती अपना कविता संग्रह सामने लाने में और उनके लिए स्वीकृति पाने में।


आप समझ रहे हैं कि उन्हें स्वीकृति मिल रही है? 


यदि किसी संकलन के सात में से चार भी अच्छे कवि सिद्ध होते हैं तो उसे संपादक की असफलता नहीं मानना चाहिए।


कविता की वापसी के बारे में इन दिनों काफी गर्म चर्चा है। क्या आपको लगता है कि इधर की कविता में कोई सिग्नीफिकेट चीज सामने आई है?


ये दोनों अलग-अलग सवाल हैं। जो लोग कविता की वापसी के बारे में चर्चा कर रहे हैं, वे वास्तव में काव्य पुस्तकों की प्रकाशन संख्या में वृद्धि के रूप में वापसी की ही बात कर रहे हैं। प्रकारांतर में वह उस प्रकाशन को बढ़ाने में अपने ही योगदान की प्रशंसा कर रहे हैं। यह कविता की वापसी नहीं है, आप चाहे तो कह लें कि पेट्रोनेज की वापसी है। बाकी कविता गई कहाँ थी जिसकी वापसी की चर्चा की जाए। ऐसा तो होता ही है कि किसी युग में ज्यादा अच्छी कविता लिखी जाती है। अच्छे कवि रोज पैदा होते नहीं। इसलिए कभी कुछ ज्यादा संख्या में अच्छे कवि होते हैं तो कभी कुछ कम। समाज में कभी कविता का सम्मान ज्यादा होता है और कभी कम। इस दृष्टि से मैं समझता हूँ कि कविता के क्षेत्र में कोई नई घटना नहीं घटी है।



इधर कविता पढ़ने और सुनने में काफी गुणात्मक अंतर आया है। ऐसा भी नहीं है। यह प्रवृत्ति कुछ ज्यादा ही बढ़ी है कि कवि ही कवि की बात सुनते हैं और कवि ही कवि की बात करते हैं, जो अच्छी बात नहीं है।


कहते हैं कि भोपाल में श्रोतागण बैठ कर धीरज से कविताएं सुनते हैं। इससे यह तो सिद्ध नहीं होता कि हिंदी काव्य जगत में काव्य के पाठक और पारखी बढ़ गए हैं। मुझे इधर कोई बहुत महत्वपूर्ण कवि सामने आते नहीं दीखते। हो जाएं, मैं भी चाहता हूँ।


काफी नए कवि आए हैं। रमेशचंद्र शाह, विनोद कुमार शुक्ल, राजेश जोशी, उदय प्रकाश। 


शाह काफी पुराने हैं और काव्य उनकी प्रतिभा का मुख्य रूप नहीं है। ये काव्य रसिक हैं, आलोचक है, अब तो उनके उपन्यास भी आ गए हैं। उनकी रचनात्मक प्रतिभा मुख्य रूप से काव्य में नहीं प्रकट होती है, ऐसा मुझे लगता है।


हिन्दी में आलोचना साहित्य रचनात्मक साहित्य से हमेशा ही पीछे रहा है। शायद यही कारण है कि शुरू में आपको रचनात्मक कर्म के साथ आलोचना कर्म के भी दायित्व को अपने हाथ में लेना पड़ा। आलोचना को आप अपने रचनात्मक कार्य का हिस्सा किस तरह मानते हैं?


यह कहना कुछ ज्यादा सरलीकरण है। हमारे समाज में आलोचना के दो काम होते हैं। एक तो साहित्य रचना के पीछे रहे, उसकी व्याख्या करे। उससे जो नए मूल्य प्रकट होते हैं उसको समाज तक पहुँचाए और समाज को उस साहित्य की समझ को बताए। दूसरी तरफ आलोचना का यह भी काम होता है कि समाज में जो परिवर्तन होते हैं, उसे रचनाकर्मी तक पहुँचाए कि समाज इस तरह बदल रहा है और इसलिए साहित्य में इस तरह के परिवर्तन होने चाहिए। इसका संकेत भी आलोचक को देना चाहिए। यह काम रचना से पहले ही है और एक काम उसका रचना से पहले का है।





हिंदी में दोनों ही स्थितियाँ अच्छी नहीं रही हैं। 


हां , हमारे यहाँ दोनों की स्थिति अच्छी नहीं रही है। रचना के पीछे चलने का काम याने व्याख्या करने तथा मूल्यांकन करने का काम आलोचक ने बिल्कुल छोड़ दिया। इससे साहित्य का ही नहीं, पूरे समाज का अहित हुआ है क्योंकि यह काम अब सहृदय आलोचक का न रह कर अध्यापक को सौंप दिया गया है जो और कुछ भी हो, सहृदय बिल्कुल नहीं है। इनके पड़ोस से लोग साहित्य से विमुख ज्यादा होते हैं, साहित्य की ओर प्रवृत्त कम होते हैं। इस दृष्टि से आलोचक ने अपना कर्म न कर के उसे गलत हाथों में सौंप दिया है। यह नहीं कि अध्यापकों में अपवाद नहीं हैं कई तो स्वयं कवि हैं फिर भी यह कहना अन्याय नहीं है कि साहित्य में रुचि जगाने और उसकी समझ बढ़ाने का काम विरले ही करते हैं। फतवे देने वाले बहुत हैं। दूसरे, जो आगे चलने का काम था और समाज से रचनाकार का परिचय बढ़ाने का काम था उसे भी आलोचकों ने अधूरा और विकृत ढंग से किया। समाज को पहचानने की बजाय उन्होंने अधिकतरए विचारधारा या मतवाद के आधार पर समाज का चित्र प्रस्तुत  किया। अधिकतर आलोचक रचनाकार से भी कम समाज को समझते हैं या कि समझने का प्रयत्न करते हैं। वे मतवाद को ही सामने रखते हैं।



आप आलोचना कर्म को किस रूप में देखते हैं? 


मैंने यह लिखा है और कहा भी है कि वर्तमान परिस्थति में हर साहित्यकार को थोड़ा बहुत साहित्य की व्याख्या करने और उसकी समझ बढ़ाने का काम करना पड़ता है और यह मैं साथ-साथ करता आया हूँ। इससे मैंने अपने लिए भी पाठक बनाए हैं और जिनको मैं साहित्य की नई या अनुमोदनीय प्रवृत्तियां मानता रहा हूँ। उसके प्रति सहानुभूति रखने वाले पाठक भी बने हैं। रचना में मैंने हमेशा सम्प्रेषणीयता को महत्व दिया है-दूसरे तक पहुँचने का, सिर्फ अपनी अभिव्यक्ति को नहीं। इसलिए आलोचना के जरिये मेरा दूसरा पक्ष भी निरंतर विकसित होता रहे, इस पर मैं जोर देता रहा हूँ।


समकालीन आलोचना क्षेत्र में आप किन्हें महत्वपूर्ण आलोचक मानते हैं?


सामान्य आलोचना की दृष्टि से मुझे हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की आलोचना अच्छी लगती रही और मैं समझता हूँ कि उससे लाभ भी हुआ है। रमेश चंद्र शाह की आलोचना पाठक मात्र के लिए उपयोगी रही है। सामान्य स्थापनाओं और मूल्यों की दृष्टि से भी और विशेष लेखकों की आलोचना की दृष्टि से भी। कुँवर नारायण ने भी आलोचना की है लेकिन बहुत कम। उनकी आलोचना अच्छी है लेकिन इसकी मात्रा इतनी कम है कि उसका कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता। नामवर सिंह जी की आलोचना से कई बार ऐसा लगता है कि साहित्य की समझ तो उनको है लेकिन वह पूरी तरह प्रकट नहीं होती क्योंकि मतवाद के बंधन के बाहर वह नहीं जाना चाहते। इसलिए जो वह मानते हैं या अनुभव करते हैं और जो लिखते हैं उसमें लगातार अंतर रहता है। उनके अनुभव और लिखने में फॉक है।


'आधुनिकता बोध की पीड़ा' निबन्ध में निर्मल वर्मा ने एक जगह लिखा है कि अज्ञेय का 'मैं' हमेशा सुसंस्कृत और शालीन है तथा 'अन्य' हमेशा उच्छाड़, गलत और हास्यास्पद। इस पर कोई टिप्पणी करना चाहेंगे? 


इस पर टिप्पणी तो उन्हीं को करनी चाहिए। इस बात का पूर्वार्ध अगर सच है तो मुझे इसमें कोई दोष नहीं दिखाई देता और उत्तरार्ध अगर सही है तो पूर्वार्द्ध कैसे सच हो सकता है?


काफी अरसे से आपने कथा साहित्य में कुछ नहीं लिखा। क्या आपको ऐसे माहोल में कला साहित्य की उपादेयता कम लगती है या आप अपने को उस मनःस्थिति में नहीं पाते हैं या कोई अन्य कारण हैं? 


नहीं लिखा, सो नहीं लिखा। उसके और कारण क्या हो सकते हैं? जो लिखा है उसी के बारे में पूछना चाहिए कि क्या लिखा। जो नहीं लिखा उसका तो कोई कारण होता नहीं।


कभी ऐसा भी होता है कि उस विधा का समय नहीं रह जाता या उस विधा का स्वर प्रमुख नहीं रह जाता।


ऐसा हो सकता है, पर यहाँ कुछ ऐसा रहा, यह तो मैं नहीं सोचता। उपन्यास का समय तो निश्चित रूप से आज है। अलबत्ता कहानी का युग अब नहीं है। इसका साहित्यिक महत्व कुछ कम हो गया है।





इसके क्या कारण हो सकते हैं?


पहले यह तर्क दिया जाता था कि उपन्यास से कहानी ज्यादा उपयोगी है या लोकप्रिय होती जा रही है। क्योंकि समय का अभाव है और पाठक थोड़े ही समय में रचना में कुछ पा लेना चाहता है, मनोरंजन हो या कुछ और हो। अब यह युक्ति काम नहीं करती क्योंकि इस तरह के जो तर्क पहले कहानी के पक्ष से दिए जाते थे अब वे सब तर्क कहानी से हट कर टी.वी. के पक्ष में चले गए हैं और उपन्यास जहाँ पहले था, वहीं कायम है। उपन्यास की लोकप्रियता, उपयोगिता और महत्व अभी कम नहीं हुआ है लेकिन कहानी का स्थान ( यह मैं सारे संसार की बात कर रहा हूँ) बहुत कुछ टी.वी. के कार्यक्रमों ने ले लिया है।



आपका आशय यह है कि टी.वी. कहानी का 'सबस्टीटयूट' बन गया है?


सबस्टीटयूट नहीं। कहानी भी टी. वी. पर प्रस्तुत कर दी जाती है। टी. वी. कहानी के कथ्य और श्रव्य के साथ दृश्य को भी जोड़ देता है। टी. वी. कहानी से ज्यादा एक काम और करता है कि सोचने से मुक्ति दिला देता है जो कि आधुनिक युग की जरूरतों में से एक जरूरत बन गई, जान पड़ती है। 


क्या आप समझते हैं कि कहानी विधा की मृत्यु हो गई है? 


नहीं, उसका महत्व कुछ कम हो गया है। बहुत से लोग अभी भी कहानी लिख रहे हैं और कभी हमारे देश में टी वी को वह स्थान नहीं बना है जो दूसरे देशों में है। हमारे यहाँ अभी अधिकांश लोग टी वी नहीं देखते। यहां अभी यह काम टी. वी. नहीं कर रहा है। लेकिन सी पत्रिकाएं यह काम कर रही हैं। पत्रिकाओं के लिए पहले भी कहानी की माँग होती थी लेकिन जिसे हम पहले बीस साल पहले साहित्यिक कहानी समझते थे, उसकी आज कोई खास मांग नहीं है। 


उपन्यास विधा के बारे में पिछले दिनों में निर्मल वर्मा ने यह बहस शुरू की कि हिंदी उपन्यास ने योरोपीय ढाँचे को ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लिया और उसने अपनी जातीय जरूरतों के अनुरूप उपन्यास के स्वरूप की खोज नहीं की। इस बारे में आप क्या सोचते हैं? 


उन्होंने कहा है तो उनसे ही व्याख्या लेनी चाहिए, लेकिन बहुत हद तक यह बात नहीं है। हालांकि उपन्यासकार के बारे में यह बात जितनी सही है उतनी ही उसके आलोचक के बारे में भी उपन्यासों में कुछ नया जरूर हुआ है भारतीय ही है, लेकिन उपन्यास आलोचक अभी तक अपनी कसौटियों में भी कोई संशोधन नहीं कर पाया है। वह उपन्यास को अभी भी योरोपीय आलोचक की आँख से देखता है। दोष वहाँ है, उपन्यासकारों में उतना नहीं है।


सन् 50 के बाद के किन उपन्यासकारों को आप पसंद करते हैं? 

उपन्यासकारों में रेणु मुझे महत्वपूर्ण उपन्यासकार लगते हैं। कुछ और भी उपन्यास पढ़े हैं। कुछ अच्छे भी लगते हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का पहला उपन्यास बहुत अच्छा लगा था। फिर 'पुनर्नवा' भी अच्छा लगा। नागर जी के भी उपन्यास अच्छे लगे। मैंने जो ऊपर तीन नाम लिए हैं, तीनों ही उपन्यासकार पश्चिमी ढंग के उपन्यासकारों से अलग हैं।





आपने ज्ञानपीठ पुरस्कार की राशि में बराबर राशि मिला कर वत्सल निधि की स्थापना की जिसने पिछले दिनों सेमिनार, भाषणमालाएँ और लेखक शिविर आयोजित किए हैं। वत्सल निधि की योजना क्या आपके दिमाग में पहले से ही थी।


योजना पहले से ही थी का मतलब तो यह हुआ कि मुझे पहले से ही मालूम  था कि मुझे पुरस्कार मिलेगा।


मेरा यहाँ आशय था कि यदि कभी आप सम्पन्न स्थिति में हुए तो ऐसा करेंगे। 


हाँ, मैं यह अक्सर सोचता था, हिंदी क्षेत्र में ऐसा क्यों नहीं होता कि जो साहित्यकार सम्पन्न हैं या आर्थिक रूप से सक्षम हैं, वे इस और ध्यान दें कि साहित्यकार लगातार समाज के सामने या समाज से अधिक सरकार के सामने दीन बना रहे। यह भी सोचता था कि दूसरे देशों में ऐसा होता है कि साहित्यकार इस तरह के काम करते हैं कि साहित्यकार का सम्मान समाज में बढ़े। यह तभी हो सकता है कि जब साहित्यकार को दूसरों के सामने दीन-हीन हो कर प्रस्तुत होने से बचाया जा सके। मुझे जब यह पुरस्कार मिला तो मुझे लगा कि मुझे भी इस दिशा कुछ करना चाहिए। यह बात पूरे समाज में बढ़ रही है कि हर काम के लिए लोग सरकार को कोसते हैं। सरकार ये नहीं कर रही, वो नहीं कर रही। लेकिन यदि कोई उनसे मुड़ कर पूछे कि आप भी तो यह काम कर रहे हैं तो आप पहल क्यों नहीं करते? तो जैसे यह बात उन्होंने सोची ही नहीं। मसलन जब कोई साहित्यकार बीमार होता है तो सभी शोर मचाते हैं कि सरकार को कुछ करना चाहिए। सरकार को क्यों करना चाहिए, ऐसा कुछ लेखक के लिए, जो वह दूसरे नागरिकों के लिए नहीं करती? हमें अपनी माँग क्यों करनी चाहिए? हम एक तरफ से यह मान कर चलते हैं कि लेखक साधारण आदमी से जुड़ा हुआ है और साधारण आदमी है। और दूसरी ओर हम उसकी हर जरूरत को असाधारण मानते हैं और उसके लिए सरकार से चाहते हैं कि कोई असाधारण व्यवस्था करें। ऐसा क्यों? जिस तरह हम अपने परिवार के किसी सदस्य के सुख-दुख में हिस्सा लेते हैं और साहित्यकार को अपना परिवार मानते हैं तो हम उसके सुख-दुःख में सबसे पहले योग देने क्यों नहीं जाते। इस तरह की कई बातें मेरे मन में थी और मैं चाहता था कि साहित्यकार भी इन सब बातों पर विचार करें। जरूरी नहीं कि वह मेरी दृष्टि से देखें। यह जरूरत है कि उनमें आत्म-सम्मान का भाव बढ़े और परनिर्भरता सरकार या उससे अधिक प्रकाशक पर निर्भरता कम हो।






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