विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं

 




विनोद कुमार शुक्ल हिन्दी कविता के ऐसे विरल स्वर हैं जिन्होंने अपनी भाषा खुद इजाद की है। सरल सी लगने वाली पंक्तियां, या बार बार की पुनरावृत्ति करने वाले शब्द कविता को अर्थों की गहराई में ले जाते हैं। विनोद जी के जीवन की सादगी उनकी कविताओं में भी प्रतिध्वनित होती हुई दिखाई पड़ती है। यह सादगी केवल कवि के जीवन की ही सादगी नहीं है बल्कि उस आम आदमी की सादगी है जो हर तीन तिकड़म से खुद को दूर रखता है। कवि जानता है कि भले ही लोग अपने हिस्से के आकाश को सबके हिस्से का आकाश मान लें लेकिन एक कड़वी हकीकत तो यही है कि 'बाजार में जो दिख रही है/ तंदूर में बनती हुई रोटी/ सबके हिस्से की बनती हुई रोटी नहीं है।/ जो सबकी घड़ी में बज रहा है।/ वह सबके हिस्से का समय नहीं है।' इन अर्थों में देखें तो विनोद जी की कविताएं एक प्रतिबद्ध कवि की कविताएं हैं। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं। ये कविताएं उनके संग्रह 'अतिरिक्त नहीं' से साभार ली गई हैं जिन्हें कवि नरेश अग्रवाल ने देशधारा व्हाट्सएप ग्रुप में साझा किया था।



विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं



एक विशाल चट्टान के ऊपर


एक विशाल चट्टान के ऊपर

एक चट्टान इस तरह रखी हुई है 

कि अभी अभी गिरने को है।

यह अभी अभी गिरने को है पुरातन है 

अभी अभी गिरने को है जैसे शाश्वत है 

अभी अभी गिरने को है एक भविष्य है। 

पर जो अभी अभी गिरने को है। 

कब से कभी नहीं गिर रहा है। 

और इसके नीचे से एक रास्ता जा रहा है 

यह कितना नवीन है

कि इस अभी अभी गिरने को है चट्टान की छाया में

अभी एक चरवाहा आ कर खड़ा हो गया है।



अपने हिस्से में लोग आकाश देखते हैं


अपने हिस्से में लोग आकाश देखते हैं।

और पूरा आकाश देख लेते हैं

सबके हिस्से का आकाश

पूरा आकाश है।

अपने हिस्से का चंद्रमा देखते हैं 

और पूरा चंद्रमा देख लेते हैं 

सबके हिस्से का चंद्रमा वही पूरा चंद्रमा है।

अपने हिस्से की जैसी-तैसी साँस सब पाते हैं 

वह जो घर के बगीचे में बैठा हुआ 

अखबार पढ़ रहा है

और वह भी जो बदबू और गंदगी के घेरे में जिंदा है। 

सबके हिस्से की हवा वही हवा नहीं है।

अपने हिस्से की भूख के साथ 

सब नहीं पाते अपने हिस्से का पूरा भात

बाजार में जो दिख रही है 

तंदूर में बनती हुई रोटी

सबके हिस्से की बनती हुई रोटी नहीं है। 

जो सबकी घड़ी में बज रहा है।

वह सबके हिस्से का समय नहीं है।

इस समय ।


ईश्वर अब अधिक है


ईश्वर अब अधिक है

सर्वत्र अधिक है

निराकार साकार अधिक

हरेक आदमी के पास बहुत अधिक है

बहुत बँटने के बाद

बचा हुआ बहुत है

अलग अलग लोगों के पास

अलग अलग अधिक बाकी है

इस अधिकता में

मैं अपने खाली झोले को और 

खाली करने के लिए

भय से झटकारता हूँ

जैसे कुछ निराकार झर जाता है।



कितना बहुत है


कितना बहुत है

परंतु अतिरिक्त एक भी नहीं

एक पेड़ में कितनी सारी पत्तियाँ

अतिरिक्त एक पत्ती नहीं

एक कोंपल नहीं अतिरिक्त

एक नक्षत्र अनगिन होने के बाद ।

अतिरिक्त नहीं है गंगा अकेली एक होने के बाद-

न उसका एक कलश गंगाजल, 

बाढ़ से भरी एक ब्रह्मपुत्रा

न उसका एक अंजुलि जल

और इतना सारा एक आकाश

न उसकी एक छोटी अंतहीन झलक।

कितनी कमी है।

तुम ही नहीं हो केवल बंधु

सब ही

परंतु अतिरिक्त एक बंधु नहीं।



हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था


हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था 

व्यक्ति को मैं नहीं जानता था 

हताशा को जानता था

इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया

मैंने हाथ बढ़ाया

मेरा हाथ पकड़ कर वह खड़ा हुआ 

मुझे वह नहीं जानता था

मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था 

हम दोनों साथ चले 

दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे 

साथ चलने को जानते थे।


सुबह है


सुबह है।

जीवन पर्यंत की सुबह है

इस आजीवन सुबह के सुबह-सुबह में

उस बूढ़ी कोचनिन से भाजी ही खरीदना 

जिससे मोल भाव नहीं करता मैं 

जो पालक या के दस जूड़ी कहती है 

और गिनते समय बारह देती है।


मैं दो जूड़ी लेने से इनकार करता हूँ

कि दाई ज्यादा है।

तो गुस्सा हो कर

नहीं बेचना है कह कर

सब पालक वापस करने को कहती है।


हार कर ठगा हुआ 

दस के बदले बारह जूड़ी लेता हूँ

दो दिन के दो सुबह उपराहा पाता हूँ

इसी उम्र में दो उम्र जीवन पाता हूँ।


बिन डूबी धरती


बिन डूबी धरती जहाँ समाप्त होती है

वहाँ एक डूबी हुई धरती शुरू होती है 

धरती को डुबोया हुआ है समुद्र

समुद्र का किनारा वही है 

जहाँ किनारे की धरती

डूबती निकलती है

जैसे डूबकी लगाती है स्नान करते हुए लोगों के साथ

मैं किनारे

अपने घुटने तक डूबी धरती पर खड़ा हूँ

एक तेज लहर अचानक आ कर 

मेरी छाती तक धरती को डुबो देती है

एक पूरे समुद्र जल में किनारे की डुबकी लगाती धरती के साथ 

मैं स्नान करता हूँ।

समुद्र के साम्राज्य से

एक शंख पाता हूँ

और बिन डूबी धरती पर खड़ा हो कर 

समुद्र का शंखनाद करता हूँ।






इतिहास बीता हुआ है


इतिहास बीता हुआ है 

खँडहर बीते हुए का कुछ 

नहीं बीता है

ऐसे ही मजबूत खँडहर की तरह है 

एक ऐतिहासिक किला जिसमें

नई गृहस्थी का

घर हुआ होता तो भी लगता

कुछ सुरक्षित रह सकता है रहना अब भी 

उजाड़ने वाले लोगों से।


किसी तरह धरती पर अच्छे से रहने के लिए 

करोड़ों वर्ष पुरानी कितनी खँडहर हुई धरती पर 

करोड़ों वर्ष पुराने कितने खँडहर हुए आकाश के नीचे 

झोंपड़ी की दीवाल को 

हर बरसात के बाद 

मिट्टी से छाबने का काम शुरू होता है। 

तो बरसात के पहले छानी छप्पर का, 

यह धरती के खंडहर को छाबने का काम है 

और आकाश के खंडहर को छाने का।


जब बात यहीं समाप्त नहीं होती


जब बात यहीं समाप्त नहीं होती

तब कुछ कहना यहीं बचा होता है। 

तब वह कह रहा होता है 

और बाकी चुप नहीं होते

तब वह चुप और शांत होता है

तब केवल उसके सिवाय

सब कह रहे होते हैं

तब उसके सिवाय सब अशांत होते हैं-

सब कह रहे हों !

अकेला एक सुन रहा हो !!


 तथा आश्चर्य


तथा आश्चर्य है,

तथागत आश्चर्य

कि केवल एक

एक सच कह रहा था।


वह सच सच बता रहा था 

और उसका सच सब सुन रहे थे । 

ऐसा कोई नहीं था 

जो उसका सच न सुन रहा हो। 

पता नहीं वह कौन था ?

जो सुन रहे थे

उनकी भीड़ लगी थी और 

वे सबके सब बुद्ध थे, 

बड़े-बूढ़े, स्त्री-पुरुष 

और बच्चे भी- बच्चे भी 

सिद्धार्थ नहीं थे

बुद्ध थे।



स्थिरता यदि पहाड़ न हो


स्थिरता यदि पहाड़ न हो 

तो पहाड़ वहाँ नहीं दिखते 

और हमारे दिखने में 

ऊँची उड़ान भरते किसी पक्षी का नाम 

पहाड़ हो चुका होता 

फॉसिल हो चुकी उड़ान है यह पहाड़ 

आकाश की ओर 

जो पंख ने भरे थे 

जिनके पंख नहीं

वही मैं हूँ पैदल-पैदल हूँ 

उड़ान की स्थिर ऊँचाइयों

और ऊबड़-खाबड़ में 

चढ़ रहा होता हूँ,

उड़ान पर डग भरता हूँ।


पहाड़ पर शिखर तक एक डगर है 

डग भरते हुए मुझे लगता है- 

मैं उड़ते हुए एक पक्षी के 

पीछे-पीछे जा रहा हूँ। 

पक्षी ! मैं तुम्हारे पीछे हूँ !!



पिजडे में


पिंजड़े में

लिपिक ! लिपिक !!

बोलने वाला तोता

साहब के घर में था ।


बहुत प्राचीन पक्षी लिपि है 

सांध्य आकाश में पक्षियों की पंक्ति 

संदर्भ लौटने का, वाक्य है 

यह विषय भी लौटने का इतना है 

कि वाक्य भी लौटता है।

अपने कार्यालय की खिड़की से 

उन उड़ते हुए पक्षियों से

मैंने कहा आभार ।


आभार पक्षियों की ओर उड़ गया 

पहले एक मेरा आभार था 

और बाकी सब सारस थे

फिर उसका भी आभार था

और सब सारस थे ।



एक प्रवासी आया है


एक प्रवासी आया है।


यह प्रदेश यहाँ बसा हुआ

एक नदी बसी हुई

बसी हुई नदी में प्रवासी ने स्नान किया।


बसे हुए पर्वत से मित्रता की 

जो दूर से दिखने लगा था 

और पहुँचने के पहले साथ हुआ।


इस पर्वत में किसी की राह देखने की ऊँचाई है 

कि आने वाला दूर से दिखाई देता है। 

इस बसे हुए पर्वत में

दूर तक जाता हुआ देखने की ऊँचाई भी ।


एक प्रवासी

जगह-जगह के आकाश को लौटाता

यहाँ के बसे आकाश को 

यहाँ लौटाने आया है।


एक जन लौटने का प्रवासी

लौट आया

और बिना रुके जा रहा है।


तथा मैं परोक्ष हूँ


तथा मैं परोक्ष हूँ- 

मैं तुमसे कहूँगा ।


मेरे कहे को नहीं 

कहे की प्रतिध्वनि 

तुम्हें सुनाई देगी।


तुम मुझसे कहोगे ! 

और तुम्हारे कहे को नहीं 

उसकी प्रतिध्वनि सुनाई देगी।


कविता- मैंने अपने से कहा। 

जो सुनाई देती है वह प्रतिध्वनि है 

जिसे मैंने अपने से कहा।


-भी प्रतिध्वनि


-भी प्रतिध्वनि 

यह भी।


प्रतिध्वनि बोलता हुआ 

वह मनुष्य गया 

प्रतिध्वनि बोलते हुए कुछ लोग 

प्रतिध्वनियों का कोलाहल है 

प्रतिध्वनि में बातचीत करते 

दोनों बैठे रहे 

फिर चुपचाप की प्रतिध्वनि 

चुपचाप ही ।


कोई दरवाजा खटखटाने की प्रतिध्वनि 

मेरा दरवाजा खटखटाती है 

कोई आया है सोच कर 

दरवाजा खोलता हूँ, 

तो एक परोक्ष उपस्थित है 

एक परोक्ष अतिथि।



-कि कुछ दिनों तक


-कि कुछ दिनों तक 

मैं उसे अच्छा आदमी समझता रहा 

बल्कि काफी दिनों तक 

और काफी दिनों के बाद भी 

अच्छा आदमी समझता रहा 

हर बार समझा

बार-बार शुरू से आखिर तक।


अधिकतर लोगों ने उसे बुरा कहा 

न्यायपालिका ने बल्कि हत्यारा भी 

जितना मुझे उस आदमी के अच्छे होने पर विश्वास था 

उतना सत्ता और सर्वोच्च न्यायपालिका पर कभी नहीं था।


वह एक गरीब आदमी था ।



घंटे को मैंने बजाया


घंटे को मैंने बजाया 

घंटे की ध्वनि मैंने सुनी 

फिर अनुरणन ।-


कितना निर्जन है यह क्षेत्र 

मेरी उपस्थिति और पेड़ों की आड़ में 

छुपा हुआ यह खँडहर मंदिर! 

अपनी उपस्थिति के साथ 

मैं ऐसी ही निर्जनता लिये फिरता हूँ 

और प्रतीक्षा ऐसी ही ।


असमाप्त लौटने की राह पर लौटता हूँ, 

घंटे का अंतर्नाद, 

मुझे सुनाई देता है- 

घंटे का आर्तनाद आर्तनाद का अनुरणन 

असमाप्त मेरे साथ होता है।

टिप्पणियाँ

  1. विनोदजी के पास अपनी एक मौलिक काव्यभाषा है जो शीतलता का आभास कराती है।
    ज़रूरत इस बात की है कि वे इस काव्यभाषा को अब तोड़ें। मैं जानता हूँ कि उनसे यह बचकानी अपेक्षा है, पर कवि को आखिरी सांस तक जीना और रचना चाहिए। पढ़वाने के लिए पहलीबार का बहुत आभार।

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