नीरज शुक्ल



नीरज शुक्ल उभरते हुए युवा कहानीकार हैं। इनकी कहानी छुट्टियां में वह रोमान दीखता है जो युवा दिलों को एकमेक कर देता है। अनजाने-अनचाहे ही उभरने वाला प्यार जो एक बीज की तरह अँधेरे में न जाने कब प्रस्फुटित होता है और अंकुरित होकर पौधे की शक्ल में तब्दील हो जाता है। लेकिन इस कोमल से प्यार को तमाम झंझावातों का भी सामना करता है। आईये पढ़ते हैं नीरज की यह कहानी।

छुट्टियाँ  
                                                                                                   

कल से छुट्टियाँ शुरू हो रही हैं .सात दिन की .इसी में घर आना जाना है . कुछ घूमना फिरना होगा .शायद कहीं जाना भी पड़े .कहाँ जाना होगा, माँ बयायेंगी .
बस चल निकली है. आराम से बैठ गयी हूँ. दो बैग के साथ .माँ को बताऊँ क्या ?.....बता दूंगी अभी. आधे रास्ते  बाद कि  पहुँच रही हूँ.

बाहर बड़ा शोर है. सब लोग बहुत बोलते हैं. चिल्लाते हैं. और ये भी कि  दिन भर हड़बड़ी  में जैसे भागते रहते है. बस की छोटी खिड़की से झांको तो लोग पागलपन से भरे नजर आते हैं. सोचती हूँ क्या जीने के लिए ऐसा जुनून जरूरी है.

आज का मौसम अच्छा है .अक्टूबर का गुनगुनापन मौसम के मिज़ाज में शामिल हो गया है .धूप  प्यारी लगने लगी है .ऐसी धूप  में लेट कर सोने को जी चाहता है .घर पे होती तो आँगन में सो रही होती. माँ पास बैठी होती. या चल रही होती .

इस बार माँ को समझाउंगी ,बहुत परेशान  न रहें . कम मेहनत करके जीने का ढंग सीखें .थोडा आराम जरूरी है .अपनी उम्र देखें .चंचल से कहूँगी ठीक से रहे .माँ की मदद करे .और साइकिल पर बैठ कर घूमे कम .जल्दी से सुधर जाये .

अब थोड़ी सर्द हवा आने लगी है .खिड़की बंद कर लूँ क्या .....

खिड़की पर बैठ कर दुनिया देखना मेरा पुराना शगल है . जाड़े  की काली  रातों में मै खिड़की खोल कर बैठी रहती .अँधेरे में उड़ता कोहरा मुझे अच्छा लगता . चेहरे पर हवा की मुलायम थपकी अच्छी लगती .साँस में भर कर सर्दी पीना  भला लगता .माँ को बुरा लगता। वे नाराज होतीं .मना  करतीं . कहतीं ऐसा न किया कर, इससे तबियत बिगडती है .कोहरा भीतर समा जाता है .कहीं मन में बस गया तो ..... लेकिन मै  ऐसा करती रहती .जब उठने को होती तो ऑंखें  बंद करती .पलकों से ठंडी पुतली को छूती .इस मिलन में आँखों से आंसू आ जाते .फिर उठकर खिड़की बंद करती और तब सोने जाती .

एक बार माँ ने मेरी आँखों से बहता पानी  देख लिया .उन्होंने सोंचा कि मुझमे कोई दुःख है .वे मुझसे लिपट कर सिसकने लगीं .मैंने हाथ से छू कर माँ को समझाने की कोशिश की .और फिर कभी उड़ते कोहरे को देखने के लिए खिड़की पर नहीं बैठी .

उन दिनों मैंने इंग्लॅण्ड की सर्दियों के बारे में कहीं पढ़ा या सुना था .वहाँ  सर्दियों में चिड़ियाँ मर  जाती  हैं . ओस से भीगी सड़कों पर उनकी लाश  पड़ी रहती है ....फिर  मै रात को एक प्रार्थना करने  लगी थी ...कि दुनिया के किसी कोने में इतनी सर्दी कभी न हो,जिससे चिड़ियाँ मर जाएँ .वैसे भी माँ कहती कि सर्दी गरीबों का मौसम नहीं है .सर्दियों में गरीब मर जाते हैं .........तो क्या सर्दियों में एक -एक करके सारे  गरीब मर जायेंगे .फिर कैसी होगी यह दुनिया .क्या बताऊँ मै कुछ समझ नहीं पाती  हूँ .मै इस दुनिया का कोई भी कायदा समझ नहीं पाती  हूँ . ऐसे में कभी कभी मै बहुत रोती  हूँ .

माँ भी रोती है .मेरा अनुमान है कि दुनिया की सारी माएं खूब रोती होंगी .फिल्मों में भी माँ लोग रोती ही दिखती  है .मेरा दिल कहता है की माँ लोग अपने गरीब बच्चों के लिए रोती होंगी .सर्दियों में पहले चिड़िया के बच्चे मरते होंगे .चिड़िया रो नहीं पाती इसलिए वो भी मर जाती होगी .फिर उनके घोंसलों के पेड़ मरते होंगे .पत्तियां मरती होंगी, फल मरते होंगे .फूल मरते होंगे .

मुझे फूल बहुत पसंद हैं .वे बोलते नहीं है, नहीं तो मै उनसे खूब बातें करती .मै इस बेकायदा दुनिया के बारे में उन्हें बताती .मै बताती कि जीना एक बड़ा मुश्किल काम है ,जो हम दिन भर करते रहते हैं .मै सर्दियों के बारे में फूलों को बताती .चिड़िया और उसके बच्चो की मौत   के बारे में भी .मै फूलों को गर्मी   और बरसात के किस्से सुनाती .फूल चुप  रहते हैं, इसलिए मै भी चुप रहती हूँ .मै चुप रहकर फूलों से बाते करती हूँ .

माँ कहती हैं कि उनके आँगन में दो फूल हैं -मै और चंचल .हमारे घर में कोई और फूल नहीं है .ऐसा अक्सर मैंने पाया है जो चीज मुझे पसंद होती ,वो घर में नहीं होती थी .मैंने शेफाली आंटी के फूलों से दोस्ती कर रखी थी .उनकी लान में ढेरों फूल उगे थे .तरह -तरह के फूल . हर रंग रूप और खुशबू के .मै उन्हें देख कर मुस्कराती तो वे भी मुझे देख कर मुस्काते .मै मुँह फेरती तो वे भी फेरते .मै  उन्हें छूने  को हाथ बढाती तो वे  भी मेरी ओर लपकते .मै स्कूल आते जाते उन्हें 'हेलो 'कहती .


शेफाली आंटी के घर जाने पर फूलों के साथ अच्छा समय बीतता .मै बार -बार कोशिश करके उनके घर जाती .इस बात से माँ खफा होती .कहती उनके घर मत जाओ वो सही औरत नहीं हैं .जब मै बचपन में थी तो शेफाली आंटी के कई किस्से मशहूर थे .कहा जाता था शेफाली आंटी ने तीन शादियाँ की थीं . हर शादी के तीन चार महीने बाद उनका पति मर जाया करता था .तंग आ कर उन्होंने शादियाँ करनी बंद कर दी और नौकरी करके अकेले रहने लगीं .यह भी कहा जाता था कि उनके एक बेटा  भी है जो कहीं दूर रह कर पढता है .वे उससे मिलने जाती हैं और परेशान रहती है ....शेफाली आंटी के घर जाने पर सब कुछ बड़ा व्यवस्थित मिलता .साफ़, सुथरा और सुन्दर .कहीं से भी ये नहीं लगता की वे एक खराब औरत हैं .

कुछ लोग यह भी कहते कि उनके कोई संतान नहीं थी, इसीलिए अपने बगीचे में उन्होंने फूल पाल रखे थे  .वे अपने बच्चों की तरह उन फूलों की परवाह करती थीं .मुझे जब भी फूलों की याद आती है तो शेफाली आंटी की याद जरूर आती है .

मुझे याद है .वो गर्मियों की शुरुआत  थी .शेफाली आंटी के घर के बाहर बड़ी भीड़ थी .उनके कुछ रिश्तेदार और पड़ोसी थे .हम लोग भी थे .उन्हें रस्से में बांध कर पागलखाने ले जाया गया था .शेफाली आंटी जो बहुत सुन्दर और अच्छी थी ,न जाने क्यों  पागल हो गयी थीं . वे हमारे पड़ोस से हमेशा के लिए चली गयीं .मैंने उन्हें फिर कभी नहीं देखा . उसी साल गर्मी बढ़ने के साथ उनके बगीचे के सारे फूल मुरझा गए थे .

गर्मी की रातों में छत पर लेट कर मै आकाश देखती हूँ . लगता है जैसे वहाँ रोशनी के फूल खिले हों .टिम -टिम ,दिप -दिप करते फूल .ये फूल कभी नहीं मुरझाते .हर रोज ताजे मिलते हैं .इन्हें सींचने को आकाशगंगा बहती है .आकाशगंगा की तरह एक पातालगंगा भी होती है .पातालगंगा किन फूलों को सींचती है, मुझे नहीं पता .

बस एक छोटे से कस्बे  से गुजर रही है .इन जगहों पर कई तरह की गंध मिलती है .मसालों, सब्जियों, गुड़ मूंगफली, गोबर और  हरेपन की मिलीजुली गंध. इनमे सबसे तीखी गंध भुने हुए भुट्टे की होती है .ऐसी गंध जो दिल पर दस्तक देती है . मेरी एक दोस्त भुट्टे को ले कर बिलकुल पागल है .एक बार बाजार से गुजरते हुए उसे भुट्टे की महक मिली .वो बावरी हो कर उसे इधर उधर खोजने लगी .मुझसे हंस कर बोली अगर थोड़ी देर में मुझे भुट्टा खाने को नहीं मिला तो मै तुम्हारा खून कर दूंगी .

मै जान नहीं पाई की भुट्टे का खून कर देने से क्या ताल्लुक है .क्या जो लोग खूनी हैं, कातिल है वो सब भुट्टा खाना चाहते हैं .भुट्टा न मिलने पर ,वो बगल में खड़े किसी  का खून कर देते हैं .पर इस बात में थोड़ी सच्चाई तो है ही ,कि खून करने के लिए कुछ चाहना जरूरी होता है .चाहे भुट्टा हो या कुछ और . पर मुझे ऐसे लोगों और ऐसे लोगों की इस दुनिया पर बहुत गुस्सा आता  है .

कंडक्टर की आवाज से ध्यान टूटता है .पैसे मांग रहा है . ६५ रु का टिकट मिला .याद आया की पिछली बार ६ २ का मिला था .दो महीने के बीच तीन रु बढ़ गए .

जितनी बार इन रास्तों से गुजरतीं हूँ, कुछ न कुछ बदला हुआ मिलता है .चाहे मौसम या खेतों का हरापन .पेड़ों की रूमानियत या हवा का रुख . अगर कुछ नहीं बदलता तो मैली कुचैली औरतों और नंग धडंग बचों से भरे धूसर  दृश्य .मिट्टी और छप्पर से बने घर और उनमे बरसती गरीबी ,कभी नहीं बदलती . 

बस हिचकोले खा कर रुक जाती है .यहाँ सब लोग चाय पानी पियेंगे .मुझे भी बड़ी प्यास लग गयी है .पानी की बोतल भूल गयी हूँ तो उसकी कुछ तो सजा मुझे मिलनी ही थी .निकलते वक्त माँ को फोन कर लेती तो वे जरूर याद दिला  देती .

बस का सफ़र बहुत बोर करता है .ऐसे में कुछ तीखा चटपटा खाने को जी करता है ...पर कुछ खाने लायक दिख नहीं रहा है ...कच्ची नारियल देखती हूँ तो खुद को रोक नहीं पाती ....बहरहाल नारियल के कुछ टुकड़े और पानी की एक बोतल खरीदती हूँ .

कहते हैं गर्भावस्था में कच्ची नारियल खाने से गोरे बच्चे पैदा होते हैं .मेरी रिश्ते की एक भाभी ने ऐसा किया था .उनको खूब प्यारा बेटा  हुआ था ....बड़ी -बड़ी  आँखों वाला खूब गोरा चिट्टा ....बिलकुल रजनीश की तरह ......


आज लगता है सारी  पिछली यादें सर उठा कर सामने आ खड़ी  हैं ...किस किस को समेटूं सहेजूं .....सबको करीने से, सिलसिलेवार लगा पाना  मुश्किल होता जा रहा है ....सब ताश के पत्तों की तरह बेतरतीब और एक दुसरे में गुत्थमगुत्था ...

मुझे पता है की दुनिया सिर्फ  देखने  के लिए है और जिंदगी  जीने के लिए .पर इस चीखती चिल्लाती भीड़ से गुजरती हूँ तो रजनीश की बड़ी याद आती है .....अकेले रहते रहते अकेलेपन से जैसे घिर गयी हूँ ...हर ओर अपरिचित अनजान चेहरों की नुमाइश ...

रजनीश का साथ कितना कम नसीब हुआ ..पर वे पल ,वे दिन कितने अनमोल थे ....जैसे धूप  बरसती है, चांदनी बरसती है, जल बरसता है, और तो और जिस तरह रंग बरसते हैं, वैसे ही रजनीश का प्यार उन दिनों मुझ पर बरस रहा था ...बेतहाशा और बेपनाह .मै  तो हर वक्त डूबी रहती, भीगी रहती .बाहर  का सब कुछ नरम और कोमल लगता ...हर सांस मीठी और ठंडी लगती .इतना हलकेपन का अहसास होता कि मन करता पतंग की तरह उडती फिरूं ..आड़ी तिरछी ..कभी ऊपर कभी नीचे .हर वक्त कुछ गुनगुनाने का जी करता ...या फिर शोर मचाने और नाचने का ...मेरे  लिए फूलों के रंग कभी इतने चटक नहीं हुए ,न ही कोहरे के टुकड़े की छुअन इतनी रोमिल .हवा कभी शहद जैसी गाढ़ी नहीं लगी .मन में इतना उजाला कभी नहीं हुआ .

रजनीश के गोरे  चेहरे पर तब दाढ़ी मूंछ  उगनी शुरू हो गयी थी .छोटे छोटे टुकड़े में घनेपन की ओर बढती हुयी .मानो जून महीने के आसमान पर बदल के छोटे छोटे टुकड़े हो .दो बड़ी बड़ी नीली आंखे ,नीले फूलों से क्या कम थीं .लम्बे बाल  चेहरे पे झूल झूल जाते .मैंने उससे कभी कहा था कि तुम्हारे दाढ़ी मूंछ न होती तो बिलकुल लड़की लगते .

रजनीश शुरू में जितना कम बोलता था ,पढने में उतना ही जहीन था .हमारा बैच उसी ने तो टाप किया था ....मेरी दोस्ती होने के बाद पता चला कि वह कितना बातूनी है .दुनिया जहान  की कितनी बातें रहती थी उसके पास मुझे बताने के लिए .कभी -कभी तो मै घबरा जाती ......बस करो रजनीश  ....चुप हो जाओ . मै या तो  बंद कर लेती या उसके मुँह पर अपनी हथेली रख देती .


वह अक्सर शाम को घर आता था .बेहद चुपचाप ....उसके क़दमों की आहट तक न पाती मै .वह पीछे से आ कर मेरी आँखें ढांप लेता और पूंछता - बताओ कौन .मै गलत -सलत दो चार नाम बता  कर कहती कि -रजनीश .वह तब भी हाथ न  हटाता .फिर तो मुझे जबरदस्ती करनी पड़ती या चिल्ला कर माँ को बुलाना पड़ता .....एक बार तो  इतनी सख्ती दिखायी की मेरी आँखों में आंसू आ गए ....मेरे आंसुओ से रजनीश बहुत डरता था .उसने फिर कभी ये शरारत नहीं की .

रजनीश कब मेरे रोम रोम में बस गया कुछ पता नहीं चला .उससे दूर होने की कल्पना भी मन को कंपा देती ...पर मन में ये अंदेशा रहने लगा था की रजनीश कहीं मुझसे दूर न चला जाये या उसे कुछ हो न जाये .एक नए प्रकार के अनजाने सुख से मै वंचित नहीं होना चाहती थी .न ही एक नए अनजाने दुःख को झेलने के लिए मै खुद को तैयार पाती  थी . उस वक्त तक मै न तो इतनी समझदार हुयी थी न दुनियादार .

रजनीश कहता था कि हर सुख का एक दुःख होता है  .जीवन में सुख की शुरुवात होते ही वो धीरे -धीरे क्षरित होने लगता है और दुःख थोड़ा -थोड़ा करके बड़ा होता जाता है .....सच कहती हूँ तब उसकी ऐसी बातों से मै बहुत घबरा जाती थी .जी करता था कि पागल हो जाऊं जिससे इस ताम झाम से फुर्सत मिले .

.....उसी बीच एक ऐसी घटना घटी कि जिंदगी विकल्पहीन हो गयी ....फिर तो रजनीश के आगे मै कुछ भी नहीं सोच सकती थी . वह मेरी जिंदगी की सीमा बन गया ....आखिरी मंजिल .

१० दिसंबर की शाम थी .मेरा जन्मदिन .मैंने सिर्फ रजनीश को बुलाया था .शाम घिर आयी थी और उसका कुछ पता नहीं था . मै अपने पुराने शगल के मुताबिक खिड़की पर बैठी कोहरे के टुकड़ों की आवाजाही देख रही थी .मुझे रजनीश के इन्तजार करवाने पर गुस्सा आ रहा था .इसी बीच वह दबे पांव आकर मेरे पीछे खड़ा हो गया ....उसने शेर का मुखौटा पहन रखा था ...उसने चिल्ला कर मुझे चौंका दिया .मै डर गयी .मारे डर के थर थर कांपने लगी .मेरे कांपते शरीर को उसने थाम लिया था .अपने होंठ मेरे होंठों पे रख दिए ...पलके मुंद  गयी थी मेरी ....मेरे कान में वो फुसफुसाया था- यू आर अ गुड एनीमल . पल भर को अशरीरी हो गयी थी मै .मैंने खुद को झटके से अलग किया ...रजनीश आँखे नीची किये सोफे पर बैठ गया था .मै एक दूसरे कोने में .मुझे खुद पे गुस्सा आ रहा था .मै कुछ बोल नहीं पा  रही थी .होंठ जैसे चिपक गए थे और कलेजा सिकुड़ के छोटा हो गया था .
माँ ने ही रजनीश को खाना खिलाया ..बीच बीच में उसने कई जोक भी सुनाये .पर मै गुमसुम ही रही .जान नहीं पा रही थी कि मुझे खुश होना चाहिए या दुखी .रजनीश थोड़ी देर में सामान्य हो गया था .माँ मुझे देख कर थोड़ी अपसेट थीं ...जन्मदिन की शाम बीत गयी .कोई ९ बजे रजनीश लौट गया था .

खुशियाँ जितनी तेजी से आती हैं ,उतनी ही तेजी से जातीं भी हैं .अगले ही महीने में रजनीश के पापा का ट्रांसफर हो गया था .मेरे लिए ये सदमे की तरह था .जिस बात से डरती थी ,वही हुआ .मैंने खुद को घर में बंद कर लिया था .बाहर  निकलना बंद .खाने को भी जी न करता ...रजनीश आखिरी दिन मिलने आया था .मै कमरे से बाहर नहीं निकली थी .जान  गयी थी कि सब ख़त्म हो चुका है .इतनी जल्दी .रजनीश माँ के पैर छू कर चला गया था ...शायद हमेशा के लिए .

अपना शहर आ गया .कुछ ही देर में घर पहुँच जाऊँगी .माँ को फ़ोन करती हूँ .

दरवाजा माँ ही खोलती हैं .लिपट जाती हैं .मुझे छू छू  कर देखती है .जानती हूँ अभी कहेंगी कि पहले से और दुबली हो गयी. इससे पहले मै ही बोल पड़ती हूँ कि माँ एक कप अच्छी सी चाय पिला दो .पूंछती हूँ कि चंचल कहाँ है .वो कहती हैं कि आता होगा .

सोफे पर बेजान सी लेट जाती हूँ .सफ़र छोटा हो या बड़ा, थकान तो आ ही जाती है .माँ चाय बनाने में मशगूल हो जाती है .पलकें बंद कर लेती हूँ ....किचन से माँ की आवाज आती है - सुन रजनीश आया था पिछले हफ्ते .तुम्हे पूंछ रहा था ,अपना नंबर दे गया है .बात कर लेना ....मै पलके ढांपे निश्चेष्ट पड़ी रहती हूँ .

थोड़ी देर में  माँ चाय रख जाती है .कहीं से खोज कर कागज का एक टुकड़ा भी दे जातीं है .मै देखतीं हूँ उस पर रजनीश के मोबाईल के दस अंक लिखे थे .. स्केच पेन से .बड़े बड़े और काले। मै ऊँगली के पोरों से उन्हें छूती हूँ ...लगता है जैसे रजनीश की चौड़ी काली मूंछ को छू रही हूँ .
.


व्यवसाय - अध्यापन 
प्रकाशन - कुछ पत्रिकाओं और ब्लॉग पर रचनाएँ प्रकाशित .
मो ० -  8853993217

ई-मेल - nkshukla222@gmail.com
(इस कहानी में प्रयुक्त पेंटिंग्स गूगल से साभार ली गयी हैं।) 

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'