भूमिका द्विवेदी अश्क की कहानी ‘मायूस परिन्दे’
भूमिका द्विवेदी अश्क |
किसी भी राज्य का पहला दायित्व यह होता है कि वह अपने राज्य की सीमा के अंतर्गत आने वाले सभी लोगों के
जान-माल की हिफाजत करे और उन्हें सुकून से रहने का वातावरण प्रदान करे। लेकिन जब
राज्य और उसकी सँस्थाएँ अपना कर्तव्य भूल कर कट्टरपन्थी जमात को संतुष्ट करने के
लिए भेदभावकारी रवैया अपनाने लगती हैं तब दिक्कतें उठ खड़ी होती हैं। जिस पुलिस, प्रशासन
से व्यक्ति न्याय की उम्मीद करता है अगर वही रक्षक की जगह भक्षक की भूमिका निभाने
लगे तो...? यह ‘तो’ आज भी एक यक्ष प्रश्न की तरह है। युवा कथाकार भूमिका द्विवेदी
अश्क इस कहानी में इन्हीं सवालों से टकराती हैं। इस कहानी में पुलिस की उस उदंडता
और क्रूरता का बेबाक वर्णन है जो अल्पसंख्यकों में सुरक्षा की बजाए असुरक्षा की
भावना को ही बढ़ावा देता है। ऐसे तत्वों से उनके सामान्य कर्तव्य क्या सामान्य
इंसानियत की अपेक्षा तक नहीं की जा सकती। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं भूमिका
द्विवेदी की कहानी ‘मायूस परिन्दे’।
मायूस परिंदे
भूमिका
द्विवेदी अश्क
दंगा अपने पूरे शबाब पर
था। सरकारी दफ़्तर, इमारतें, गाड़ियां धूं धूं कर जल रहीं थीं। दुकानों पर ताले पड़
गये थे। बाज़ारों में सन्नाटा पसरा था। सड़कों पर जली हुई सरकारी बसों के टायर टहल
रहे थे और कार-मोटरों के परखच्चे मंडरा रहे थे। भले ही कर्फ़्यू का ऐलान हो चुका
था, फ़िर भी पुलिसिया गश्त, लाशों के सड़ते गोश्त और चील-कौव्वों की वजहों के चलते,
सड़कें वीरान नहीं कही जा सकतीं थीं। इस इलाक़े में बसी हुई आवाम की जानें हलक़ में
अटकी हुईं थीं, ख़ासकर बीच बाज़ार और चौक इलाक़े में रहने वालों की हालत बदतरीन थी। लोगों
ने अपने घर की खिड़की-दरवाज़े इस क़दर बन्द कर रखे थे, गोया मकानों में कोई रहनवारी
बची ही ना हों।
ज़हरूल ख़ुदाबक्श अन्सारी बहोत
लाचार-सा कभी आसमान ताकता, कभी अपने छोटे-से आंगन में इस पार से उस पार तेज़ क़दमों
से चहलक़दमी करता, कभी रुक कर चिलम के दो-तीन कश खींचता। उसकी बेकली का बयान
मुश्किल था। उसका तकरीबन सवा साल का नवासा लगातार रोये जा रहा था। वो नन्हीं-सी
जान दोनों बूढ़ा-बूढ़ी के जी को हलक़ान किये था। आंगन के किनारे कच्ची ज़मीन पर बैठी
ज़ोहरा उसे गोद में लिए, हाथ का बना पंखा झले जा रही थी और किसी भी तरह उस रोते
बच्चे को चुप कराने की कोशिश भी कर रही थी।
“मेरी बात मानो तो पीछे
की सड़क वाले पुजारी के पास रख आओ इसे। वो लोग अभी-अभी निकले हैं इस गली से, फ़िर
लौट के आने में कुछ वक़्त तो लग ही जायेगा। तब तक तुम पुजारी के यहाँ से हो आओगे। कम
से कम कुछ दिन तो इसे वहीं छुपा रहने देते हैं... देखो उन कमबख्तों का कोई भरोसा
नहीं, वो इस नादान को भी नहीं छोड़ेंगे... सुन रहो हो ना...।” ज़ोहरा की आवाज़
बेइन्तिहाँ घबड़ाई हुई थी।
“ह्म्म्म्म्... सुन रहा हूँ।”
ज़हरूल एक जगह थम गया। उसकी बेचैन टहल ज़रा रुक गई, “कहती तो तुम ठीक हो, पुजारी के
अपने भी दो-तीन बच्चे हैं। वहीं मन्दिर के चौबारे में खेलते रहते हैं। उसके कुनबे
में ये महफ़ूज़ तो रहेगा। लेकिन... लेकिन पुजारी मानेगा, इस बात पर ऐतबार नहीं मुझे।”
“मानेगा क्यूं नहीं। ज़रूर
मान जायेगा। उसने पिछली बार भी हमारी पूरी मदद की थी... और फ़िर देखो, कुछ ही दिन
की तो बात है। दंगा ख़त्म हो या ना हो, इन कमीने पुलिस वालों का दौरा ज़रूर कम हो
जायेगा। फ़िर हम अपने लाल को वापस ले आयेंगे... जो माल-असबाब था घर पे, सब तो छान कर
ले गये वे मरदूद...। अब तो यही एक घर का चिराग़ बचा है हमारे पास। इसकी हिफ़ाज़त ना
कर सके तो हम लोगों के जीने का कोई मतलब ही नहीं। मेरी बात मानो, फ़ौरन निकल जाओ
तुम। महमूद यहाँ होता तो ज़्यादा फ़िक़्र करने की ज़रूरत नहीं थी। लेकिन महमूद को भी
इसी दम जाना था। मेरी समझ से इस नाज़ुक वक़्त कम-अज़-कम इसे मासूम को यहाँ से हटा
देना ही बेहतर है। तुम वक़्त ख़राब मत करो। जल्दी जाओ, वरना वे कमीने किसी भी घड़ी आ
धमकेंगे। ख़ुदा ना करे कि वे पलट के आयें, लेकिन अगर वे आ ही गये तो मैं उन्हें तब
तक उलझाये रखूंगी, जब तक कि तुम नहीं लौट नहीं आते...।”
“ठीक है, तुम्हारी बात
मान कर चला तो जाता हूँ, पुजारी ना माना तो उलटे पांव लौट के आ ही जाऊंगा। ख़ैर,
लाओ दे दो इसे मुझे। वो उस बड़े वाले तौलिए में लपेट कर के दे दो।”
दोनों मियां-बीवी की थोड़ी
देर बाद की रज़ामन्दी के चलते ज़हरूल अपने नन्हें नवासे को गोद में उठाये, पीछे वाले
दरवाज़े से संकरी गली की ओर निकल गया।
उसके निकले अभी मिनट भी
पूरा नहीं बीता था, कि ज़ोहरा ने मुख्य-दरवाज़े पर कुण्डा खटखटाने के साथ-साथ, आती
हुई तेज़ मर्दाना आवाज़ें सुनीं। ‘धड़ धड़ धड़... धड़ धड़ धड़... अरे मनहूसों कहाँ मर गये
हो, दरवाज़ा खोलो। धड़ धड़ धड़...।”
ज़ोहरा सर का दुपट्टा ठीक करती,
ख़ुदा से सलामती की दुआ मांगती हुई, जल्दी-जल्दी दरवाज़े तक पहुँची। उसके सांकल गिराते
ही पुलिस की वर्दी पहने तीन हवलदार, एक ड्राईवर और एक दारोगा, कुल पांच मर्दाने घर
के भीतर धड़धड़ाते हुए दाख़िल हो गये। उनमें से एक गुर्राते हुए बोला,
“दरवाज़ा खोलने में इतनी
देर क्यों की?”
“सेवइयां छान रही होगी बैठ
कर... हमें खिलाने के लिए... हा हा हा हा...।” दूसरे ने खिल्ली उड़ाई। उसकी बात सुन
कर सभी हँसने लगे।
ज़ोहरा ख़ामोश खड़ी, अपना
दुपट्टा कस के पकड़े, इन जाहिल ठहाकों को सुनती रही। ज़ोहरा इन मनहूसों के नापाक़
इरादे ख़ूब जानती थी। ये उनका कोई पहला फेरा तो था नहीं। सिर्फ़ इसी घर क्यूं,
आस-पास के तक़रीबन सभी घरों में ये इन्सान का भेस धरे ये भेड़िये बारी बारी से चक्कर
लगाते थे। अव्वल तो दंगों की माराकाटी के चलते और ऊपर से इन सभी सरकारी वर्दी वाले
डाकुओं के ज़ुल्मों की वजह से पूरे के पूरे दंगे से प्रभावित इलाकों के लोग अपने
घरों को बन्द कर के, क़ीमती चीज़ें समेट कर कहीं ना कहीं महफ़ूज़ ठिकानों को जा चुके
थे। आस-पास के मकानों में केवल ज़हरूल और ज़ोहरा ही थे, जो बेटे की ग़ैरमौजूदगी और
बहू की बीमारी के चलते रुक गये थे, और इन गिद्धों के शिकार बन रहे थे, वरना तो,
झगड़ा बढ़ने का अन्देशा ज़हरूल को पहले ही हो चुका था, और वो कोई ना कोई ख़ानदान वालों
के पास अब तक चला भी गया होता।
अब की बार कमीनों का
सरताज दारोगा, अकेली औरत ज़ोहरा से बोला, “बोलती क्यों नहीं? ज़बान पर ताले जड़ें हैं
क्या...। जवाब दे, कहाँ है बेटा तुम्हारा? शहर में फ़साद कराता है, और घुस जाता है
अम्मा के पल्लू में। निकाल कर ला उसे। कहाँ छुपा के रखा है? और वो बुढ्ढा, शौहर कहाँ है
तुम्हारा? दिख नहीं रहा। पिछली बार तो यहीं बैठा था साड़ जैसा। अब कहाँ मर गया...।”
“जी... साब, वो... न न
नमाज़ पढ़ने... गये हैं...।” ज़ोहरा ने हकलाते हुए ज़हरूल को बचाने की कोशिश की।
इस पर दारोगा फ़िर चीख
पड़ा,
“नमाज़ पढ़ने गया है। लेकिन
पूरे इलाक़े में कर्फ़्यू लगा है, वो हरामज़ादा क्या ये नहीं जानता। ये तो सरासर
सरकारी हुक़्म की नाफ़रमानी है। आने दो साले को, अभी अन्दर करता हूँ। लड़का है कि शहर
भर का गुण्डा बना फ़िरता है और माई-बाप अल्लाह का नाम ले रहे हैं। बहोत खूब। आख़िरी
बार तुम्हारे लड़के को दंगाईयों के साथ देखा गया है, तुम लोग लाख अल्लाह का नाम लो,
उससे कुछ नहीं होने वाला। समझी...। बस एक बार तुम्हारा लाडला हत्थे चढ़ जाये हमारे,
फ़िर देखना क्या गत बनाते हैं उसकी। एक-एक जुर्म कबूलवा के रहेंगे।”
“साहब उसने कुछ नहीं
किया, यक़ीन कीजिये मेरी बात पर। वो तो लड़ाई-झगड़ा होने से पहले ही शहर से बाहर हाजी
बाबा की मज़ार पर चादर चढ़ाने चला गया था। उसकी औरत भी बहोत बीमार थी, उसे तो इन
फ़सादों का कोई इल्म भी नहीं...।”
इस पर हवलदार ज़ोर से
चीखा,
“ चुप्प्प... बहोत ज़बान
चलती है तेरी। साहब के मूं लगती है।”
ज़ोहरा सहम गई, चुप होकर
दारोगा को देखने लगी,
दारोगा भी उसे घूरने लगा,
फ़िर इधर-उधर झांक कर बोला,
“बहू नहीं दिखाई दे रही
तुम्हारी, तुम कह रही हो, बीमार है। तो फ़िर मर गई क्या?”
“अल्लाह ना करे साहब, वो
मायके चली गई।” ज़ोहरा की जान हलक़ में अटकी थी।
थोड़ा रुक कर दारोगा फ़िर बोला,
“हाँ...तो तुमने बताया
नहीं...। दरवाज़ा खोलने में इतनी देर क्यूं हुई तुम्हें? ज़रूर अपने लड़के को छुपा
रही होगी, पीछे के दरवाज़े से भगा रही होगी...। क्यों? बोल। जवाब दे मेरी बात का।”
“जी वो... जी मैं ज़रा
ऊंचा सुनती हूँ। देर से आवाज़ें आयी मुझे।” ज़ोहरा ने बहोत धीमी आवाज़ में जवाब दिया।
कमीनों की इस टोली का सरदार,
ज़ाहिराना तौर पर दारोगा ही था, उसने ज़ोहरा को गलीच नज़रों से देखा और उसका दुपट्टा
उसकी पकड़ से, एक झटके से छीनते हुए बोला, “अच्छा, तो ऊंचा सुनती हो तुम। लेकिन
इतनी उमर तो नहीं लगती तुम्हारी। भरी जवानी में ऊंचा सुनने लगी हो, ये तो अच्छी
बात नहीं। क्यों?”
“क्या गज़ब कर रहे हैं साहब।
मैं नाती-पोते वाली हूँ। कुछ तो लिहाज कीजे। आपके घर में भी ज़नाना होंगी, अम्मा
होंगी। बहन-बेटियां होंगी। साहब कुछ तो ख़याल कीजे। साहब। रहम कीजे।” ज़ोहरा के
आंखों से झरझर आंसू गिरने लगे।
“ख़याल रखने ही तो आये
हैं तुम्हारा। और ये नौटंकी बन्द कर अपनी। मुझे चराती है स्साली। ये जो तुम लोग
अपने बच्चों की ज़रा-ज़रा सी उमर में ब्याह कर देते हो, इसी से नाती-पोते वाली बन के
बैठ गई हो, समझी की नहीं। बड़ी आई नाती-पोते वाली। मुझे बहन-बेटी बता रही है। अपनी
बहू को मायके भगा के बैठी है। हरामज़ादी, स्साली।” और उसने बेशुमार मां-बहन की
गालियों की झड़ी लगा दी।
ज़ोहरा ख़ामोशी से अपने
हाथों से अपनी छाती ढके, सुबकती हुई बोली, “साहब मैं कोई जवान छोकरी नहीं हूँ।
मुझे बक्श दीजे। ये थोड़ी देर में आ जायेंगे। आप उनसे बात कर लीजियेगा।”
“अरी ओ दंगाइयों की
महतारी, ज़्यादा ज़बान मत चला। समझी की नहीं। ये लाठी देख रही है, दो बदन पर पड़ेगी
तो सारा बुढ़ापा निकल जायेगा तेरा, समझी। अब चुप हो जा हरामज़ादी।” ये कहते-कहते
दारोगा का एक चेला, अपनी स्वामिभक्ति दिखाने बीच में कूद पड़ा।
दारोगा फ़िर गुर्राया, “इधर
आ। आ इधर।” उसने ज़ोहरा की कलाई दबोची ही थी, कि घर के बाहर सड़क पर सायरन बजने की
तेज़ आवाज़ें आने लगीं।
“कोई मन्त्री आया है दौरे
पर। ये हूटर की ही आवाज़ें लगती हैं।” हवलदार हड़बड़ाहट में, अपनी टोपी ठीक करते हुए,
ज़ोर से बोला।
“ह्म्म्म्म...। तुम ठीक
कहते हो...।” कहते-कहते दारोगा के हाथ से ज़ोहरा की कलाई छूट गई। उसने चुपचाप हाथ
में लिए हुए ज़ोहरा के दुपट्टे को भी वहीं आंगन में फेंक दिया। जिसे ज़ोहरा ने बिना
एक पल भी गंवाये, उठाया और अपने बदन से लपेट लिया।
जिस तेवर और रौ से वो
दारोगा घर में दाख़िल हुआ था, ठीक उसी गति से धड़धड़ाते हुए, अपने भारी-भारी जूतों की
चीत्कार लिए, आंगन से निकल कर बाहर दरवाज़े तक पहुँच गया। अपनी हैट और छड़ी संभालते हुए
सड़क से होते हुए बाहर चौराहे पर आ गया। उसके सभी साथी भी उसका उसकी गति से अनुसरण
करते गये।
०
ज़हरूल नन्हें-से बच्चे को
जतन से समेटे, मन्दिर की सीढ़ियों से कुछ दूर, नाले के पार, एक बेहद संकरी गली की
आड़ में छुपा था। दम साधे हुए, आते-जाते पुलिस-दल के सामने से गुज़र जाने का इन्तज़ार
कर रहा था। बारह-बीस सीढ़ी फलांग कर, मन्दिर था, और मन्दिर के ठीक पीछे पुजारी मय
अपने परिवार के रहा करता था। ज़हरूल को वहाँ पहुँचने में मुश्किल से दो मिनट लगते,
लेकिन पुलिस वाले मन्दिर के नीचे सीढ़ियों पर जमे हुए थे। कुछ वक़्त बीता, तो कई
सारे सिपाही टहलते हुए काफ़ी दूर सड़क तक निकल गये। केवल दो सिपाही बचे हुए थे, जो
आपस में ठिठोली करने में मशगूल थे। कुछ देर बाद एक सिपाही उठ कर नज़दीक बने सरकारी
शौचालय पहुँचा, और उसके जाते ही दूसरा भी अपनी बटालियन की ओर मुड़ गया। ज़हरूल को
यही सही मौक़ा मिला, उसने बच्चे वाली तौलिए से ख़ुद को और गोद लिए बच्चे को ढक लिया,
और करीब-करीब दौड़ लगाते हुए सीढ़ियां फांदता हुआ, पुजारी के कमरे तक पहुँच गया।
पुजारी उसे देख कर परेशान हो गया, फ़ौरन अन्दर कमरे में ले जा कर बोला, “ये क्या गज़ब करते हो
ज़हरूल भइय्या। ऐसे दंगा-फ़साद वाले माहौल में काहे हाँफ़ते-पादते चले आ रहे हो। हुआ
क्या? काहे आना पड़ गया इधर तुमको?”
“क्या बताऊं शास्त्री
भाई, मुसीबत का मारा हूँ। इस नन्हीं-सी जान को हैवानों से बचाये फ़िर रहा हूँ। ना
जाने कहाँ से पुलिस महक़मे को ये वहम बैठ
गया है कि इस मासूम के अब्बू, यानी महमूद इस मज़हबी दंगे में शरीक़ है, वो कुत्तों
की तरह हम लोगों की जान को सूंघती फ़िर रही है। बीस दिन बीत गये, महमूद का भी कुछ
अता-पता नहीं चल सका। दंगा शुरू होने से पहले हाजी बाबा की मज़ार का कह कर निकला था।
दोस्त-यार भी थे साथ उसके, उधर इशरत की हालत भी बहुत नाज़ुक है, इसी वजह से उसे
मायके भेजना पड़ा। अब ये पुलिस वाले हैं कि कहर ढाये पड़े हैं। दिन-दोपहरी,
रात-बेरात कभी भी दरियाफ़्त का बहाना ले कर घर की चौखट पर आ धमकते हैं। इतनी गलीच
निगाहों से ज़नाने को देखते हैं कि अब मैं तुम्हें क्या बताऊं। शहर में दंगा क्या
छिड़ा, उनकी तो जैसे चांदी हो गई। कोई देहरी नहीं बाक़ी, जहाँ लूट-खसोट ना किया हो। ऊपर
से दिखाते हैं मरदूद कि दंगाईयों को खोज रहे हैं। असलियत क्या है उन नमक-हरामों
की, ये तो केवल हम जैसे लोग ही बता सकते हैं। औरत अपनी आबरू के लिए लड़ रही है,
मज़दूर अपने काम को और बच्चे अपनी जान को रो रहे हैं। पूरे क़स्बे में यही बदहाली
छाई है। अल्लाह रहम करे। रमाकांत भाई, ऐसी सख़्त घड़ी में मैं तुमसे मदद मांगने आया हूँ।
मुझे इस नादान की बेहद फ़िक्र है। तुम इसे अपने दर पर छुपा लो। खुदा बनाये रखे,
तुम्हारे छोटे-छोटे बच्चों के बीच मेरा जिगर का टुकड़ा भी पनाह पा जायेगा। भाई मेरे,
अल्लाह तुम्हें आबाद रखे, इस मासूम फ़रिश्ते की जान बचा लो। बड़ा हौसला करके
तुम्हारे दर पर आया हूँ। रहम करो इस नादान पर भाई।”
“ज़हरूल भइय्या जैसे
तुम्हारा बच्चा वैसे मेरा। कोई भेद नहीं रखता मैं, ईश्वर के दरवाज़े बैठा हूँ, झूठ
नहीं कहूँगा। मुझे कोई बैर नहीं किसी से, लेकिन भइय्या कसम खा कर कहता हूँ , मुझे
लग रहा था, ये फसाद अभी और लम्बा खिंचेगा। ना सरकार झुक रही है, ना फ़सादी बाज़ आ रहे
हैं, यहाँ गोली, वहाँ धमाके, इधर लाशें, उधर मातम। क्या कहूँ, मेरा तो जी फटा जा
रहा है ये सब देख कर। ज़हरूल भइय्या, अब आगे का तो प्रभु ही मालिक है। इसी नाते
तुम्हारी भाभी को बच्चों समेत महीना भर पहले ही पीहर छोड़ आया हूँ। वरना मेरे
बच्चों के संग ये नन्हीं जान भी लुक-छुप के रह जाती, मुझे तो ईश्वर के घर से पुण्य
ही मिलता। लेकिन मैं क्या करूं अब। अकेले यहाँ बैठे-बैठे, एक-एक घड़ी राम का नाम ले
कर बिता रहा हूँ। इस बच्चे को अकेले कैसे संभाल सकूंगा।”
“रमा भाई, बड़ी उम्मीद ले कर
तुम्हारे दर पर आया था। मेरी तो जान हलक़ में फंसी है, कहाँ ले जाऊं, किधर छुपाऊं इस बच्चे को मैं। महमूद को
क्या मुंह दिखाऊंगा, ख़ुदा ना करे इसे कुछ हो गया तो। मैं तो जीते-जी मर जाऊंगा। कोई
नामलेवा भी ना रह जायेगा शास्त्री भाई। यही एक अमानत बची है हमारे घर-खानदान की। ख़ुदा
रहम करे इस मासूम पर।”
“ज़हरूल भइय्या भगवान सबका
भला करे। मैं विवश हूँ, और इस समय तो ख़ुद ही भगवान-भरोसे जी रहा हूँ। मैं क्या कहूँ,
ना कहना पड़ रहा इस अभागे वक़्त पर। प्रभु वापस शान्ति बहाल कर दे। मुझे माफ़ कर दो
ज़हरूल भइय्या।”
ज़हरूल आगे कुछ ना बोला, मायूस
हो कर बाहर आ गया। उसने अपना चेहरा, बच्चे वाली तौलिया से दोबारा ढक लिया। वो अपने
घर लुकता-छिपता लौट रहा था, तभी उसे सिद्दीक़ी साहब के माली वसीम का ख़्याल हो आया। जब
कोई बड़ी आफ़त इन्सान के सिर पर गिद्ध की तरह मंडराने लगती है, तो उसे हर नज़दीक और
दूर-दराज़ के ‘अपने’ या ‘अपने’ जैसे दिखने वाले फ़ौरन याद आने लगते हैं, ये दीगर
मसला है कि उन याद आने वालों में दरअसल, ‘अपने’ होते कितने हैं। ज़हरूल को भी ऐसे
आड़े वक़्त पर वसीम याद आ गया।
ज़हरूल ने याद किया, ज़ोहरा
ने वसीम की घर वाली के कुछ कपड़े भी सिले थे। और बात-व्यवहार से भी वो आदमी भला जान
पड़ता था। उसकी रेहाइश भी सिद्दीक़ी साहब की हवेली के अन्दर थी, इसलिए वो इन
दंगे-फ़सादों से भी महफ़ूज़ था। शायद इस कठिन घड़ी में उससे कुछ मदद मिल जाती। इसी
ख़्याल के साथ, वो अपने घर वाली गली से थोड़ा आगे निकल गया, जहाँ से सिद्दीक़ी साहब
की हवेली शुरू होती थी। वो हवेली के पिछले फाटक से ही अन्दर जाना चाहता था,
क्योंकि ज़हरूल इस ख़बर से भी अन्जान नहीं था, कि पुलिस-वालों का ऐसे टेढ़े वक़्त पर
सिद्दीक़ी साहब के आना-जाना खूब होता है। भले वे वहाँ सिद्दीक़ी साहब को मौजूदा शहर
के हालात से वाकिफ़ कराने ही जाते हों। वैसे भी सिद्दीक़ी साहब जैसे रसूख वालों की
हिफ़ाज़त करना ही तो उन सरकारी मुलाज़िमों पहला फ़र्ज़ बनता है। भले ही वे तनख्वाह और
सुविधायें सरकार से लेते हों, लेकिन चाकरी तो इन जैसे सिद्दीक़ी साहबों की ही बजाते
हैं।
इन्हीं खयालों को लिए,
उसने अपनी नन्हीं जान को कलेजे से लगा कर, फ़ड़फ़ड़ाते हुए परिंदे की तरह सिद्दीक़ी
साहब की हवेली की ओर रुख़ किया। लेकिन ज़हरूल को हवेली पहुँच कर फ़िर से मायूसी ही
मिली, पता चला कि वसीम अपनी घर वाली के साथ हज पर गया है। वीज़ा देर से मिला, इसलिए
वो अपने जानने वालों को ख़बर ना दे सका था। वैसे भी उसकी रुख़सती से पहले ही फ़साद का
आगाज़ हो चुका था। इस नाते भी वसीम ने ख़ामोशी से कुछ वक़्त के लिए शहर से दूर रहना
बेहतर समझा और मक्क़ा की ओर रवाना हो गया। ज़हरूल की एक और आख़िरी उम्मीद भी गर्त में
चली गयी।
०
ज़हरूल अपने नन्हें-से नवासे
को संभाले, बहोत थके हुए मायूस क़दमों और मरी हुई हसरतों के साथ घर लौट आया। अगर इस
मुश्किल घड़ी में ज़हरूल के दिल में कुछ भी जीता था, तो वो केवल इस बच्चे की सांसों
के साथ ही जी रहा था। उसने घर के भीतर क़दम रखा, तो ज़ोहरा बेसब्र हुई उसका इन्तज़ार
करती मिली,
“आ गये तुम, भला हुआ। ये बदज़ात पुलिसवाले
तुम्हारे जाते ही धमक पड़े थे। सच मानो ये बेहद गलीच लोग हैं...।”
वो बच्चा जो अब तक जहरूल
की कांख में दुबका था, ज़ोहरा को देख कर फ़िर मचलने लगा, और ज़हरूल की जकड़ से निकलने
के लिए हाथ-पांव मारने लगा। ज़ोहरा उसे प्यार से गोद में लेते हुए बोली, “ आजा मेरा
लाल, मेरा लाडला...। सुनो क्या पुजारी ने नहीं रखा इसे। लेकिन क्यूं?”
“पुजारी ने अपने पूरे परिवार
को मारे डर के, अपनी ससुराल भेज दिया है। अकेला पड़ा है मन्दिर में। कैसे रख सकता
था इसे, मुझे तो लगता है, उसकी तो ख़ुद ही जान पर बनी हुई है। इसीलिए मैं वापस आ
गया। मुझे बड़ी फ़िक़्र हो रही है।”
इतने में ही बाहर कहीं
गोलियों की आवाज़ें फ़िर आने लगीं। चीखना-चिल्लाना भी हल्का-फ़ुल्का हो रहा था। लगता
था जैसे कोई ऐसा संदिग्ध पुलिसवालों की नज़र में फ़िर से आ गया है, जिसे देखते ही
पुलिस वालों की फ़ायरिंग फ़िर रवां हो चली।
“या ख़ुदा, ये क्या हो रहा
है। इस शहर के सुक़ून को किसकी नज़र लग गई। या अल्लाह अब तेरा ही सहारा है। कुछ तो
रहमतें बरसा, या मेरे मौला।”
ज़ोहरा ये सब सुन कर बस
अपने ख़ुदा को ही ज़ोर-ज़ोर पुकारने लगी। दोनों मियां-बीवी पहले से ही इतने खौफ़ज़दा
थे, गोलियों की तड़ातड़ आती आवाज़ों ने उन्हें और भी परेशान कर दिया। वे इतने बदहवास
थे, कि ना ज़हरूल, सिद्दीक़ी साहब की हवेली और वसीम के हज का बता सका, और ना उसकी बीवी
ज़ोहरा पुलिस वालों की बदसलूक़ियां और बेहूदगियां ही ज़हरूल के सामने गिना सकी।
अपने-अपने दु:खों-तक़लीफ़ों से अलहदा, दोनों को बस एक यही चिन्ता खाये जा रही थी, कि
किसी तरह घर के इस इकलौते चिराग को बचा लें, जिसे क्या पता कभी भी पुलिस वाले आ कर
उनसे छीन ही लें और ना जाने उस नादान के साथ क्या बदसलूक़ी करें। उन्हें महमूद की
भी बेइन्तिहाँ फ़िक्र थी, लेकिन अपने नवासे के बाद ही थी। स्वाभाविक ही है, जो
तक़लीफ़ अपने सामने होती है इन्सान सबसे पहले उसी का इलाज करता है। पका हुआ फोड़ा
हकीम को दिखाने जाया जाता है, उसकी मरहम-पट्टी भी हक़ीम फ़ौरन करता है, लेकिन पुराने
सिर-दर्द के बारे में हमेशा बाद में विचार किया जाता है। उसका कालान्तर में ही
उपचार भी होता है।
ज़हरूल की बीवी घबड़ाई हुई
बोली, “मेरी बात मानो, तो चलो,
हम लोग भी चलते हैं। इशरत के घर ही चले चलते हैं। देखो, मुंगेराबाद यहाँ से दूर भी
नहीं है, मुझे याद है, महमूद की मंगनी कराने मैं ही तो गयी थी। दरिया पार करते ही
गांव है इशरत का। शहर की इस नामुराद बर्बादी से महफ़ूज़ भी ज़रूर है। वहाँ कम से कम
हमारे नवासे की जान तो बच ही जायेगी। हम इसे वहाँ छोड़ के लौट आयेंगे, और अगर तुम
कहो तो हम भी वहीं रह जायेंगे। बुढ्ढा-बुढ्ढी कहीं कोने में पड़े रहेंगे। हमसे किसी
को कोई दिक्कत पेश नहीं आने वाली। चलो, ज़हरूल मियां, निकल चलते हैं।”
“अरे ऐसे कैसे निकल चलते
हैं। बाहेर तबाही मची है। मैं किस तरह इसको बचा कर ख़ुद लुकता-छिपता घर की दहलीज़ तक
आ सका हूँ , ये मेरा ख़ुदा ही जानता है। मन्दिर की चार सीढ़ी चढ़ने में मुझे आज ही
क़यामत नज़र आ गई थी। वो तो करम हुआ अल्लाह का, कि रमाकांत से मिल कर भी सही-सलामत
लौट सका हूँ। अभी बाहेर जाना मुनासिब नहीं ज़ोहरा, हालात बहोत नाज़ुक हैं। हर तरफ़
पुलिस अपनी बड़ी-बड़ी टोली लिए हर तरफ़ नाच रही है। मेरी बात को समझो, ये वक़्त बाहेर
निकलने का नहीं।”
“ठीक है अभी नहीं जाते।
जब दंगा ख़त्म हो जायेगा, पुरसुक़ून माहौल बन जायेगा, महमूद लौट के आ जायेगा, क्या तब
जायेंगे वहाँ। क्या पत्थर पड़ गये हैं तुम्हारी अक़्ल पर।” ज़ोहरा के तेवर तेज़ हो गये।
ज़हरूल ने उसे लाख समझाने
की कोशिशें कीं, लेकिन कोई बात उसे समझ ना आयी। उसने तो जैसे ज़िद बांध ली थी इस दर
को छोड़ देने की। उसने ज़हरूल को पुलिस वालों की नीच कारस्तानियां भी बताईं। ज़हरूल
सब सुनता रहा। ज़हरूल इसी लम्हे अपनी बीवी का दामन छूने वालों को मौत की नींद सुला
देना चाहता था, लेकिन मौक़े की नज़ाक़त जान-समझ कर, अपने नन्हें मासूम नवासे को देख कर
और महमूद की ग़ैरमौजूदगी के चलते अपने खून के उबाल को थामे रहा।
आख़िरकार दोनों मियां-बीवी
में ये तय हुआ कि रात के अंधेरे में वो दोनों अपने नवासे को उसकी मां के पास ले
जायेंगे। अगर तो इशरत के घर वालों को कोई भी तक़लीफ़-शुबहा-अड़चन महसूस नहीं हुई और
उसके घर-गांव में रहने की सूरत बन गयी तब तो वहीं ठहर जायेंगे, वरना तो अपने इस
वीरान घर में वापस आ जायेंगे। दोनों चुपचाप दम साधे, रात ढलने का इन्तज़ार करने लगे।
अल्लाह की मेहरबानी रही, कि इस रात के इन्तज़ार के कठिन दौर में कोई यमदूत जैसा
पुलिस-वाला बीच में नहीं आ टपका।
शाम हो ही गयी थी, इतनी
देर में ज़ोहरा ने, घर में बचे हुए अनाज-मसाले को मिला जुला कर खाने की कुछ चीज़ें
बना लीं, जिससे समधी के घर खाली हाथ ना पंहुचे। ज़हरूल भी अपने कामकाज की चीज़ें, और
बच्चे के कपड़े-लत्ते, समेटता-बहोरता रहा, और एक थैले में भरता रहा।
रात की कालिमा गहरी होने
लगी तो ज़हरूल, बच्चे और सामान के एक थैले सहित ज़ोहरा को गली के पीछे खड़ा कर के,
अन्दर आ गया। उसने काला कम्बल लपेट कर घर के सामने वाला दरवाज़ा बन्द किया और उस पर
ताला लटका दिया। सिमटता-सिकुड़ता वो भी, सारे पुलिस-सिपाही-अफ़सर-चौकीदार से बचता
हुआ, पीछे ज़ोहरा के पास आ गया। दोनों ने काले कम्बल के साये में ख़ुद को लपेट कर, धीरे-धीरे
नदी के तट की ओर बढ़ना शुरू किया। दोनों ने चलने से पहले रत्ती-सी अफ़ीम दूध में घोल
कर बच्चे को पिला दी थी, ताकि वो गहरी नींद में सो जाये, और उसके हँसने-रोने का
सिलसिला ना रह जाये और उसकी आवाज़ किसी को किसी भी हाल में सुनाई ही ना दे।
दोनों मियां-बीवी
चोरी-छुपे, डरते-सहमते नदी के किनारे तक पहुँच गये, जहाँ से आमतौर पर लोग नदी पार
जाया करते थे। उन्हें वहाँ नाव वाले को उस पार जाने के लिए तैयार भी करना था। ख़ैर,
दोनों ने अभी चैन की सांस पूरी ली भी नहीं थी कि उन्होंने देखा तीन पुलिस के
सिपाही अंधेरे में बैठ कर बीड़ी-सिगरेट में लगे हुए हैं। वो यहाँ अंधेरे में बैठ कर
दारू भी चढ़ाये थे। भला पूरे-पूरे दिन इस मुर्दा कस्बे की गश्त भी कोई कम ज़हमत का
काम था। मिलना-मिलाना दमड़ी नहीं लेकिन चौकसी दिन-रात की। जब तक सत्तर-पचास कुनबे
बाक़ी थे शहर में, तब तक, कुछ नहीं तो इधर-उधर से बदन-सेंक की व्यवस्था तो हो ही
जाती थी, लेकिन सारे के सारे भग गये एक-एक कर के। अब जो राई-रत्ती बचे हैं, सारे
के सारे अच्छी तरह निचोड़े जा चुके हैं, अब उनसे कोई अला-भला नहीं होने वाला। इन
हालात में, भई ‘फ़्रस्ट्रेशन’ तो हो ही जायेगा। चलो ड्यूटी से दो घड़ी जान छुड़ा कर
कुछ हँस-बोल लेना भी तो ज़रूरी है, ना। इन्सानियत नाम की भी एक चिड़िया होती तो है
और इन्सानी ज़रूरत भी किसी शय का नाम होता है।
ज़हरूल और ज़ोहरा वहाँ उन
लोगों को देख कर ठिठक गये, और एक पेड़ के मोटे तने के परे छुप गये। तीनों पुलिस
वाले बैठे चुहल कर रहे थे। इधर-उधर की वाहियात बातें कर रहे थे, और गन्दे-गन्दे
चुटकले सुना कर एक दूसरे का खूब मनोरंजन भी कर रहे थे। ज़हरूल ने उन्हें अपनी मस्ती
में मशगूल देखा तो ख़ामोशी से, वहीं बंधी नाव से ख़ुद ही नदी पार करने का तय कर लिया
और वो नाव का रस्सा धीरे-धीरे खोलने की कोशिशों में लग गया। उसने काफ़ी मशक्कत के
बाद थोड़ा-सा रस्सा खोला ही था, कि वहाँ पड़े सूखे पत्ते उसकी हरक़तों की वजह से खड़खड़ाने
लगे। वो रुक गया। दोबारा उसने और आहिस्ता से खोलना चालू किया, लेकिन पत्ते फ़िर भी आवाज़
करने लगे। ऐसा कई बार होने पर, उन्हें बाधा जैसी महसूस हुई और उन में से एक सिपाही
इन आवाज़ों की हक़ीक़त जानने चुपचाप उठ कर आया और उसने दोनों को साफ़-साफ़ देख लिया,
वो फ़ौरन ही दहाड़ उठा।
“क्या हो रहा है यहाँ...।
कमीनों चैन से दो घड़ी सुस्ताने मत देना हमें...।”
इतना कहते-कहते उसने
ज़हरूल को ज़ोरदार धक्का दिया, और ज़हरूल छटक के दूर जा गिरा। उसका बूढ़ा जिस्म अच्छी-ख़ासी
चोट खा गया। ज़हरूल की चीख सुन कर बाक़ी के दो सिपाही भी वहीं आ धमके और ज़ोहरा से
जबर्दस्ती करने लगे। उन्होंने ज़ोहरा के हाथ से उसका थैला लेकर नदी की धार में फेंक
दिया। वहाँ होने वाली घटनाओं से शोर बढ़ने लगा। ज़हरूल कोहनी, टांगों और पीठ में लगी
चोटों के दर्द के चलते चीख-पुकार मचाये था, और ज़ोहरा के हाथ से वो लोग उसकी सीने
से लगाई हुई गठरी छीन रहे थे, वो अलग ज़ोरों से चिल्ला रही थी।
“साहब क्या कर रहे हैं,
हमारा सामान है, छोड़िये इसे। हम कोई बदमाश लोग नहीं हैं, जाने दीजे हमें। वो बूढ़ा
शौहर है मेरा। हम लोगों को आपके कामकाज से कोई लेना-देना नहीं। जाने दीजे हमें,
रहम कीजिये हम पर।” ज़ोहरा बड़बड़ाये जा रही थी और पूरा ज़ोर लगा कर बच्चे को ढीली
होती अपनी पकड़ से बचाने में लगी हुई थी।
पुलिस के सिपाही थे कि कुछ
सुनने को तैयार ही नहीं थे, उनके आराम के पलों में खलिश पड़ने की वजह से वे बहोत भड़के
हुए थे। उन्हें पूरा होश था ही नहीं कि वे कर क्या रहे हैं। दारू में धुत्त, अभद्र
गालियों की बरसात के साथ बुढ़िया के हाथ से वो गठरी छीने ले रहे थे, जिसमें उसने
अपना लाडला बच्चा छुपा रखा था।
“क्या छुपा के लिए जा रही
है हरामज़ादी। इधर ला। शहर में आग लगी हुई है, और ये दोनों मालमत्ता लिए फ़रार होने
की तैयारी में निकले हैं। मनहूस कहीं के। दिखा क्या छुपाये है इस गठरी में। क्या
ले कर जा रहे थे कमीनों, नदी के पार। ला इधर दे।”
कहते-सुनते आख़िरकार
बुढ़िया की हिम्मत जवाब दे गयी और उन्होंने उसकी गठरी उसके हाथ से छीन कर सीधा नदी
में फेंक दी। ज़हरूल ने सारी चोट और दर्द भूल कर, जल्दी से अपनी सारी ताकत बटोर ली
और वो बदहवास हुआ, तत्काल नदी में कूद पड़ा।
उसने इधर-उधर बुरी तरह से
बेचैन हो कर हाथ-पांव मारने शुरू कर दिये। उसकी बूढ़ी आंखें, उसका बेचैन दिल-जिगर
और उसका बेबस हुआ जिस्म हर सम्भव कोशिश के बाद भी उसके नवासे को नहीं खोज पा रहे
थे। बच्चा वैसे ही अफ़ीम की मन्द बेहोशी में था, उसकी ओर से भी कोई रोना-चिल्लाना
कुछ हुआ नहीं, वो नदी के तेज़ बहाव में ना जाने कहाँ गुम हो गया।
ज़हरूल बहोत देर तक नदी की
ठंडी लहरों से उलझता रहा, नदी के प्रवाह से जूझता रहा, अपनी बदकिस्मती से पूरे वेग
और ताकत से लड़ता रहा, आख़िरकार बेदम हो कर किनारे आ कर गिर पड़ा। ज़ोहरा अलग रो रो के
तूफ़ान मचाये थी, कभी अल्लाह को, कभी पुलिस वालों की बेरहमियों को, कभी महमूद की ग़ैरमौजूदगी
को, तो कभी इशरत की बीमारी को, कभी ख़ुद अपने आप को, दिल भर के कोसती रही, गरियाती
रही, चीखती-पुकारती रही। उसका रोना भी पूरे रौ में बहोत देर तक नदी किनारे गूंजता
रहा। आख़िरकार सुबकते-तड़पते वो भी बेदम हो गयी।
पुलिस वालों का तो कुछ
नहीं बिगड़ना था, उनका रत्ती भर कुछ ना गया, उनका कुछ भी नुकसान नहीं हुआ, वे अपने
काम में दोबारा जा रमे।
ये दोनों लुटे-पिटे,
नाक़ाम, मायूस ज़हरूल और ज़ोहरा, वहीं नदी की लहरों का बदनसीब शोर सुनते रहे।
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