सईद अय्यूब की कहानी 'मौलाना मुफ्ती'
सईद अय्यूब |
मनुष्य के विकास क्रम में जब भी धर्म अस्तित्व में आया होगा तो उसकी परिकल्पना में एक बेहतर समाज का निर्माण ही रहा होगा। लेकिन समय बीतने के साथ हुआ ठीक इसका उल्टा। धर्म अपने ही पंथ के पुरोहितों और कट्टरपंथियों के हाथों का महज औजार बन कर रह गया। आज भी कई बार ऐसा होता है कि धार्मिक परम्पराएँ हमें ऐसी दिक्कतों में डाल देती हैं जिससे न केवल परिवार या समाज बिखर जाता है बल्कि जीवन भी समाप्त हो जाता है जबकि मनुष्य के जीवन से बढ़ कर कुछ भी नहीं है। किसी भी देश काल का साहित्य अपने समय की उन विसंगतियों को उजागर करने का काम करता है जो मानव विरोधी हैं। युवा कहानीकार सईद अय्यूब ने अपनी कहानी ‘मौलाना मुफ्ती’ के माध्यम से इस विसंगति को उगाजर करने का प्रयास किया है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं सईद अय्यूब की कहानी ‘मौलाना मुफ्ती’।
मौलाना मुफ़्ती
सईद अय्यूब
मौलवियों से भरी
एक बस जा रही थी।
एक ने कहा जब भी
रास्ते में लड़की नज़र आये तो ‘अस्तगफिरुल्ला’ पढ़ना।
काफ़ी देर बाद एक
ने कहा -
‘अस्तगफिरुल्ला’
बाक़ी बोले
“कहाँ है?”
“कहाँ है?
मौलाना मुफ़्ती ने जब यह लतीफ़ा सुनाया तो सुनने वालों ने ज़ोर का ठहाका लगाया।
मौलाना मुफ़्ती अपनी अधपकी लंबी सी दाढ़ी को सहलाते हुए होंठो ही होंठो थोड़ा सा
मुस्काए... अपनी ट्रेड मार्क मुस्कान... कुर्सी पर अपना पहलू बदला और माइक के और
पास आते हुए बोले-
“आजकल के ज़्यादातर मौलानाओं की जमात इसी तरह की है। लड़की को देखने और
अस्तग़फिरुल्लाह पढ़ने की तो मैंने एक मिसाल दी है वर्ना कोई ऐसा काम नहीं है जिसे
इस्लाम ने, हमारे खुदा और रसूल ने मना किया हो और हमारे आज के उलेमा उसे न करते
हों। मैं सभी उलेमाओं की बात नहीं कर रहा पर ज़्यादातर उलेमा उन सभी कामों में
मशगूल हैं जिसकी इजाज़त हमारी शरीयत जो पूरी दुनिया में इस्लामी शरीयत के नाम से
जानी जाती है, नहीं देती।”
मौलाना मुफ़्ती एक जलसे में ख़िताब कर रहे थे। यह जलसा
उनके गाँव में ही आयोजित था। मौलाना मुफ़्ती अब तक अपनी बेबाकी के लिए मशहूर हो
चुके थे यह अलग बात है कि उनकी बेबाकी कभी-कभी आस-पास के पक्के-कच्चे मुल्लाओं को
नाराज़ कर देती थी। पर आज की बात तो कुछ और ही थी। एक तो वे अपने ही गाँव में लोगों
को सम्बोधित कर रहे थे और गाँव वालों का बस चलता तो खुदा की जगह मौलाना मुफ़्ती की
ही इबादत शुरू कर देते और दूसरी बात यह थी कि वह पठानों का गाँव था। लड़ने-भिड़ने
में माहिर, मरने-मारने में खुदा से भी ज्यादा ईमान रखने वाले। चार कोस के गाँव
वाले भी उनसे डरते थे। तो आज भला उलेमाओं पर चुटकी लेने का यह सुनहरा अवसर मौलाना
मुफ़्ती कैसे छोड़ देते?
मौलाना मुफ़्ती का इस गाँव में आगमन, गाँव
के लोगों के लिए भी किसी चमत्कार से कम नहीं था। कई तो मुसलमान होने के बावजूद यह
मानते थे कि यह उनके पूर्व जन्म में किए गए किसी नेक काम का ही फल था कि मौलाना
मुफ़्ती के नेक क़दम इस गाँव में पड़े और ऐसा यक़ीन करने वालों में गाँव के कुजात
मियाँ सबसे आगे थे। असल में कुजात मियाँ का असली नाम कुजात मियाँ नहीं था बल्कि
अल्लाह रखा खान था और नाम के हिसाब से ही अल्लाह ने उनके खाते में कुछ ज़्यादा ही
रख दिया था। हुआ यह कि गाँव ही नहीं पूरे जवार के सबसे अमीर आदमी बुद्धन खान की
बीवी तीसरी बार उम्मीद से थीं। दो-दो बार उनका गर्भ ठहर कर गिर चुका था। बुद्धन
खान को बीवी या औलाद से भी ज़्यादा फ़िक्र ज़ायदाद के वारिस की थी। उन्होंने गाँव के
एक मात्र हाफ़िज़ जी को बुलाया और सलाह मशविरे के बाद तय हुआ कि एक मिलाद शरीफ़ करवा
दी जाए। और संयोग देखिये कि एक तरफ़ मिलाद शरीफ़ शुरू हुई, दूसरी और बुद्धन खान की
बीवी को जचगी का दर्द शुरू हुआ और मीलाद खत्म होते ही जैसे ही हाफ़िज़ जी ने दुआ के
लिए हाथ उठाया, बुद्धन खान की बहन, जो इलाके की सबसे खूबसूरत लड़कियों में से एक थी
और जिसपर बुद्धन ने सख्त पहरा बैठा रखा था और जिसे बिना परदे के कभी नहीं देखा गया
था, बिना किसी परदे के भागती हुई बाहर आयी और चिल्ला-चिल्ला कर बेटा होने की
खुशखबरी देने लगी। सबके दुआ के लिए उठे हुए हाथ नीचे गिर गए। बुद्धन बदहवास हो घर
के अंदर भागे जबकि हाफ़िज़ जी कभी उस हूर को देखते थे जिसको लगता था कि अल्लाह ने
उनसे खुश हो कर जन्नत से भेज दिया था और कभी सामने बैठे हुए गाँव वालों को जो
हाफ़िज़ जी की तरफ़ देखने के बजाए बुद्धन खान की बहन को घूर-घूर कर देख रहे थे और
होंठो ही होंठो में मुस्कुरा रहे थे और आज की मीलाद शरीफ़ की इस बरकत का मज़ा ले रहे
थे। बहरहाल, जब नाम रखने की बारी आयी तो हाफ़िज़ जी ने सलाह दी कि चूँकि अल्लाह ने
इस बेटे के ज़रिये आपकी इज्ज़त रखी है इसलिए इसका नाम अल्लाह रखा ही होना चाहिए। और
बुद्धन खान ने हाफ़िज़ जी की सलाह मान कर, अपने बेटे का नाम रखा अल्लाह रखा खान।
अल्लाह रखा खान शुरू से ही तेज़ दिमाग के थे और यही वजह थी कि गाँव के मदरसे से
निकल कर वे दस कोस दूर के इंटर कॉलेज तक पहुँचने वाले, गाँव के सिर्फ़ तीसरे
व्यक्ति थे और यूँ तो इंटर में दो बार फेल होने के बाद, वे बाप के पुश्तैनी
खेती-बाड़ी और ज़मीन-जायदाद के धंधे में जुट गए पर गाँव में उनकी इज्ज़त उनके
पढ़े-लिखे होने को ले कर ही होती थी। पर न जाने क्या बात थी, बाप के पैसों का घमंड
या अपनी अच्छी शक्ल ओ सूरत का या अपनी हैसियत का या अपनी तेज़ दिमागी का या कस्बे
में पढ़ने का, नौवी-दसवीं में ही वे बात-बात पर अपने दोस्तों को कुजात कह कर अपने
से अलग कर देते थे। कुजात मतलब निचली जाति का, गाँव की भाषा में सीधे-सीधे एक गाली।
गाँव की परम्परा में यह बात थी कि अगर कोई व्यक्ति गाँव की मर्यादा के खिलाफ़ कोई
काम करता था तो गाँव वाले उसे ‘कुजात’ बता कर उसका सामूहिक बहिष्कार करते थे।
अल्लाह रखा खान अपने जिस दोस्त को कुजात कह कर अपने से अलग कर देते, उनकी पूरी
मित्र-मंडली उस दोस्त का बहिष्कार कर देती। पर धीरे-धीरे कुजात किए गए दोस्तों की
संख्या बढ़ने लगी और एक समय ऐसा आया कि अल्लाह रखा खान अकेले हो गए और उनके सारे
दोस्त एक तरफ़। फिर उन सारे दोस्तों ने मिल कर अल्लाह रखा खान को कुजात घोषित कर
दिया और वे जहाँ भी मिलते वहीं उनको ‘कुजात-कुजात’ कह कर चिढ़ाने लगे। धीरे-धीरे
लोग अल्लाह रखा खान को भूलते गए और कुजात नाम ही उनकी पहचान हो गया। बाद में, लोग
कुजात के साथ मियाँ लगा कर उन्हें कुजात मियाँ कहने लगे और यूँ साबित करने लगे कि
वे उनकी बहुत इज्ज़त करते हैं।
तो हुआ यूँ कि जाड़े के दिनों में एक बार कुजात मियाँ को बुखार ने आ घेरा। अजीब
बुखार था। न बहुत तेज़ होता था, न एकदम छोड़ता था। गाँव के सब टोटके आजमा लिए गए।
हाफ़िज़ जी का दिया हुआ ताबीज़ भी पानी में घोल-घोल कर दिन में कई बार पिया गया पर
कोई फ़ायदा नहीं। एक दिन दोपहर को, जब गुनगुनी धूप चारो ओर फैल चुकी थी, कई दिनों
से घर में बंद कुजात मियाँ ऊब कर अकेले ही गाँव के बाहर, सड़क से लगी हुई छोटी सी
पुलिया पर आ कर बैठ गए। कई दिनों के बाद घर से बाहर निकलने की वजह से, और कमज़ोरी
की वजह से और गुनगुनी धूप की वजह से पुलिया पर बैठे ही बैठे उनको झपकी आने लगी।
झपकी के दौरान ही, उन्होंने ख़्वाब में देखा कि एक झक्क सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहने,
सर पर गोल सफ़ेद टोपी लगाए और कंधे पर चेक वाला रुमाल रखे, एक काली दाढ़ी वाले
मौलाना उनसे कुछ पूछ रहे हैं। थोड़ी देर बाद, उनको लगा कि वे मौलाना सच में उनके
सामने खड़े हैं। कुजात मियाँ आज तक यह तय नहीं कर पाए हैं कि वे सच में ख़्वाब देख
रहे थे या मामला कुछ और था, मगर यह बात सच थी कि सामने मौलाना मुफ़्ती खड़े थे और
उनसे पूछ रहे थे, “कुजात मियाँ का घर कौन सा है?”
दरअसल, मौलाना मुफ़्ती कुछ दूर के एक गाँव में एक काम से आए थे। इस इलाके में
उनका पहला आगमन था। उसी गाँव में, कुजात मियाँ के जानने वाले किसी ने मौलाना
मुफ़्ती को कुजात मियाँ के बुखार के बारे में बताया और मौलाना मुफ़्ती अपनी साइकिल
उठाये कुजात मियाँ से मिलने चले आए थे। कुजात मियाँ तो इस तरह की शख्सियत को अपने
सामने अचानक पा कर हैरान ही रह गए। खैर, जान-पहचान हुई, अलैक-सलैक हुआ और मौलाना
मुफ़्ती कुजात मियाँ के घर तशरीफ़ ले गए। आन के आन में पूरे गाँव में मौलाना के आने
का शोर हो गया और लगभग पूरा गाँव ही मौलाना को देखने के लिए कुजात मियाँ के घर
इकठ्ठा हो गया। मौलाना मुफ़्ती, जैसा कि बाद में लोगों को पता चला कि असल में एक
मदरसे में पढ़ते थे और साथ ही मदरसे से कुछ दूर स्थित एक झोला छाप डॉक्टर के
दवाखाने में कम्पाउंडरी भी करते थे। तबियत से थोड़े लाउबाली थे। कहीं एक जगह टिक कर
बैठने की आदत नहीं थी। इसलिए न पढ़ाई पूरी की और न ही कम्पाउन्डरी ठीक से की। जब
दीन और दवा दोनों का थोड़ा-थोड़ा इल्म हो गया, उन्होंने मदरसा और दवाखाना दोनों ही
छोड़ दिया। कहीं से किसी तरह एक साईकिल जुगाड़ कर, एक झोले में कुछ दवाएँ रख कर, इस
गाँव उस गाँव, दवा और दुआ दोनों करने लगे।
दुआ करके दम किए हुए पानी में, छिपा कर घोली गयी अंग्रेज़ी दवाओं ने असर दिखाना
शुरू किया और कुछ ही दिनों में कुजात मियाँ का बुखार गायब हो गया। कुजात मियाँ
अल्लाह के भेजे हुए इस फरिश्ते से इतना खुश हुए कि उन्होंने गाँव के उत्तर अपने
बगीचे के पास की खाली पड़ी हुई ज़मीन पर एक बड़ी सी झोंपड़ी डलवा कर मौलाना मुफ़्ती को
एक तरह से ज़बरदस्ती अपने ही गाँव में रहने के लिए मजबूर कर दिया। झोला और साइकिल
ले कर इधर-उधर भटक रहे मौलाना मुफ़्ती अंदर से चाहते भी यही थे कि कहीं ढंग से रहने
का ठौर-ठिकाना हो जाए। इसलिए थोड़े ना नुकुर के बाद, एक तरह से गाँव वालों और कुजात
मियाँ पर एहसान करते हुए वहाँ रहना स्वीकार कर लिया। उनके इस फैसले से हाफिज़ जी को
छोड़ कर बाक़ी गाँव वाले बहुत खुश थे। लच्छेदार बोली, दुआ और दवा, तीनों के मिश्रण
ने जल्दी ही मौलाना मुफ़्ती को उस पूरे इलाके में मशहूर कर दिया। विकास के किसी भी
चिह्न से अछूते गाँव वालों के लिए, जिनके लिए बीमार होने की सूरत में दस कोस दूर
ब्लॉक के सरकारी अस्पताल जाने या फिर घरेलू नुस्खों से इलाज़ करने के अलावा कोई
चारा नहीं था, मौलाना मुफ़्ती का गाँव में आ जाना किसी चमत्कार से कम नहीं था। और
आज मौलाना मुफ़्ती उसी गाँव में आयोजित एक धार्मिक जलसे में खिताब कर रहे थे।
जलसे के ठीक एक महीने के बाद, कुजात मियाँ के गाँव में एक सुबह एक भूचाल की
तरह आई और यह भूचाल खुद कुजात मियाँ ने पैदा किया था। वैसे तो गाँव और उस तरह के
किसी भी गाँव में यह आम बात थी पर कुजात मियाँ जैसे शरीफ, पढ़े-लिखे लोगों के घर
में ऐसी घटना हो तो एक भूचाल आना स्वाभाविक ही था। हुआ यह था कि किसी बात पर कुजात
मियाँ का पठानी खून एकदम से खौल गया और आनन-फानन में अपनी बीवी, जो उनकी फूफीजाद
बहन भी थीं और उनके बाप बुद्धन खान की उसी खूबसूरत बहन की बेटी थीं जो अल्लाह रखा
खान उर्फ़ कुजात मियाँ की पैदाइश की खबर सुनाने भरी हुई महफ़िल में दौड़ कर आ गयी थीं
और जिनको देख कर हाफिज जी सहित पूरे गाँव वाले दुआ माँगना भूल गये थे, को तलाक़ दे
दिया। करना ही क्या था? कौन से अदालत के चक्कर लगाने थे? तीन बार ‘तलाक़, तलाक़, तलाक़’
ही तो कहना था और उन्होंने गुस्से में वही किया था। गुस्से में उन्होंने यह भी
ख्याल नहीं किया कि उनके और राबिया के दो साल के मासूम बच्चे राशिद का क्या होगा?
जल्दी ही यह ख़बर गाँव भर में फैल गयी और लोग कुजात मियाँ के दरवाजे पर इकट्ठे होने
लगे। उनमें हाफ़िज़ जी और मौलाना मुफ़्ती भी थे। कुछ देर पहले तक कुजात मियाँ की बीवी
रहीं राबिया खातून, इस सदमें की ताब न ला कर, घर के एक कोने में बेहोश पड़ी थीं और
गाँव की कुछ औरतें उन्हें होश में लाने की कोशिश कर रही थीं। दूसरी तरफ़, घर के
बाहर बरामदे में कुजात मियाँ चुपचाप, गुमसुम बैठे थे जैसे इस दुनिया में हों ही
नहीं। उन दोनों का दो साल का मासूम बेटा लगातार रो रहा था और गाँव की एक औरत उसे
दूधपिलाई से दूध पिला कर चुप करवाने की कोशिश कर रही थी। घर के अंदर पर्दा और सख्त
कर दिया गया था। अब अगले तीन महीने राबिया खातून को इद्दत में गुज़ारना था और इन
तीन महीनों में उन पर किसी मर्द की छाया भी नहीं पड़नी चाहिए थी। उनको कुजात मियाँ
के इस घर से निकाल कर उनकी माँ के घर भी पहुँचाना था क्योंकि शौहर के घर में रहना
अब हराम था। लेकिन राबिया खातून की बेहोशी किसी तरह खत्म ही नहीं हो रही थी। फिर
किसी बड़ी-बूढी की सलाह पर मौलाना मुफ़्ती को अंदर बुलवाया गया।
चादर के बनाए गए एक अस्थायी पर्दे के इधर से मौलाना मुफ़्ती ने चारपाई पर बेहोश
पड़ी राबिया खातून पर एक नज़र डाली। लगभग बाईस साला राबिया खातून के साफ़-शफ्फाफ
चेहरे से ताज़ा-ताज़ा पानी की बूंदे टपक रही थीं जो औरतों ने उन्हें होश में लाने के
लिए उनके चेहरे पर मारा था। उनके सीने को औरतों ने दुपट्टे से ढँक दिया था पर उससे
उनके कसे हुए सीने के उभार और स्पष्ट हो गए थे। माँ से मिली हुई बेपनाह हुस्न और
मासूमियत की उस मलिका के चेहरे से हो कर सीने पर नज़र जाते ही मौलाना के दिल की
धड़कनें बेतरतीब होने लगीं। उन्होंने बहुत मुश्किल से अपने को संभाला और चादर के
नीचे से हाथ बढ़ा कर उनकी नब्ज टटोलने लगे। उस गुदाज कलाई का लम्स उनके अंदर आग लगा
रहा था पर उन्हें मौके की नज़ाकत भी पता थी। उन्होंने अपने झोले से निकाल कर राबिया
खातून को कुछ सुँघाया और कुछ ही देर में राबिया खातून होश में आने लगीं। कुछ देर
बाद मौलाना उस कमरे से बाहर आ गए लेकिन वह पुरकशिश और मासूम चेहरा और सीने के वे
उभार उनके साथ ही बाहर आ गए थे।
रात के दस बजे के लगभग जब मौलाना अपनी झोंपड़ी के अंदर
लालटेन की चिमनी धीमी करके, मन ही मन उस उठे हुए सीने को अपने हाथों में भींच रहे
थे, बाहर से कुजात मियाँ की धीमी पुकार सुनाई दी। मौलाना ने झट से अपनी लुंगी सही
की, बदन पर कुरता डाला और बाहर की तरफ़ लपके। थोड़ी देर बाद, कुजात मियाँ और मौलाना
सर जोड़े एक ही चारपाई पर बैठे थे। कुजात मियाँ का चेहरा आँसुओं में डूबा हुआ था।
वे हिचक-हिचक कर रो चुके थे और अब लगभग सुबकते हुए मौलाना से कुछ कह रहे थे जिसका
लब्बोलुबाब यह था कि उनसे भारी गलती हो गयी है। उन्हें राबिया को इस तरह तलाक नहीं
देना चाहिए था पर वे गुस्से में अन्धे हो गए थे। अब वे फिर से राबिया को अपनी
ज़िंदगी में लाना चाहते थे। उससे माफ़ी माँगना चाहते थे और यह वादा कर रहे थे कि उसे
ज़िंदगी भर कभी कोई तकलीफ़ नहीं देंगे।
अगली सुबह पंचायत बैठी। पंचायत क्या, कुजात मियाँ,
राबिया खातून के घर से उनके दो भाई, गाँव के पाँच सम्मानित लोग, हाफ़िज़ जी और
मौलाना मुफ़्ती। राबिया के भाई गुस्से में थे और वे मेहर की रकम, दहेज में दी गयी
साइकिल, घड़ी, ट्रांजिस्टर, पीतल और ताँबे के बर्तनों सहित पाँच हज़ार रुपया नकद
वापस माँग रहे थे। लेकिन मौलाना ने बहुत ही उचित शब्दों में रात में अपने और कुजात
मियाँ के बीच हुई बातों को सबके सामने रखा। उन्होंने कुजात मियाँ के पछतावे के
बारे में बताया और यह भी बताया कि कुजात मियाँ राबिया खातून से माफ़ी माँग कर
दोबारा निकाह करना चाहते हैं। उन्होंने क़ुरान और हदीस से कुछ उदाहरण देकर कहा कि,
“अल्लाह उनको बहुत पसंद करता है जो गलती करके माफ़ी माँग लेते हैं और उनको उनसे भी
ज्यादा पसंद करता है जो माफ़ कर देते हैं। शरीयत के मुताबिक़ तलाक़ के बाद, मर्द और
औरत दुबारा शादी कर सकते हैं। लेकिन...” असली समस्या इस लेकिन के बाद ही थी और यही
समस्या मौलाना की रात वाली कल्पना को वास्तविकता में बदल देने की एक बहुत बड़ी
संभावना भी थी, “लेकिन, पहले तलाक़ शुदा औरत को, इद्दत की मुद्दत गुज़रने के बाद,
किसी और मर्द से शादी करनी होगी। फिर कम से कम एक रात उस मर्द के साथ रहना होगा और
हमबिस्तरी करनी होगी। फिर उस मर्द से तलाक़ लेना होगा और दुबारा इद्दत में बैठना
होगा। इद्दत गुज़ारने के बाद, वह चाहे तो फिर से अपने पुराने शौहर से शादी कर सकती
है।” यह नियम बताने के बाद, मौलाना ने सबकी ओर एक भरपूर निगाह से देखा और ख़ामोश
होकर शर्बत का वह गिलास खाली करने लगे जो हाफ़िज़ जी के लिए रखा हुआ था। हाफ़िज़ जी की
बीवी को मरे चार साल हो चुके थे। गोकि अब अधेड़ से बुढ़ापे की ओर जा रहे थे पर बदन
अब भी कभी-कभी कसमसाने लगता था। ऐसे में अपने मदरसे में पढ़ने वाली कमसिन लड़कियों
को सज़ा देने के बहाने कभी उनके गाल नोचकर, कभी कुछ ख़ास जगहों पर चिकोटी काटकर, कभी
सफ़ाई-वफाई के बहाने अकेले में किसी लड़की को बुलाकर उसे अपनी गोद में बैठा कर या
पैर दबवाने के बहाने लुंगी के ऊपर से ही उनका हाथ एक ख़ास जगह पर रखवाकर वे अपना
काम चला रहे थे। ऐसी स्थिति में नींबू और चीनी के मिश्रण से बने लज़ीज़ शरबत के
गिलास को अपने पास से मौलाना के हाथों में जाता देखकर वे अंदर ही अंदर तिलमिला कर
रह गए। पर उनकी अपनी मज़बूरी थी। उनकी खुद की एक लड़की जवान हो चुकी थी और अगली
गर्मियों में वे उसकी शादी की तैयारियाँ कर चुके थे। इसलिए भयानक गर्मी के बावजूद
शरबत पीने की अपनी इच्छा को उनको अंदर ही अंदर दबा लेना पड़ा था। पंचायत लंबी चली
थी। भाई भी नहीं चाहते थे कि राबिया की ज़िंदगी ख़राब हो। लेकिन सवाल यही था कि
राबिया की शादी अब किससे हो? सवाल शादी हो जाने का नहीं था। सवाल उस यक़ीन का था कि
जिससे शादी होगी वह दुबारा से तलाक़ देगा या नहीं?
ऐसे में रात को कुजात मियाँ ने एक बार फिर अनजाने में
ही, मौलाना को कल्पना की दुनियाँ से बाहर निकाला और उनके सामने राबिया से शादी कर
लेने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने मौलाना से कहा कि पूरे इलाके में वही एक शख्स हैं
जिन पर कुजात मियाँ यक़ीन कर सकते हैं। पहले तो मौलाना ना-नुकर करते रहे पर कुजात
मियाँ के ज़्यादा ज़ोर देने पर अंततः वे अपनी कुर्बानी देने को तैयार हो गये। यह अलग
बात है कि मन ही मन वे उस आदमी को याद कर रहे थे जिसने कुजात मियाँ के बुखार के
बारे में उन्हें बताया था और अपने नसीब पर मुस्कुरा रहे थे। और यूँ, इद्दत के तीन
महीने पूरे होने के एक ही हफ़्ते के अंदर राबिया खातून का निकाह मौलाना मुफ़्ती से
हो गया और वे अपने दो साल के बेटे के साथ मौलाना की झोंपड़ी में आ गयीं। इस निकाह
की हकीकत राबिया खातून को बता दी गयी थी कि यह निकाह मौलाना से इसलिए हो रहा है कि
वे एक बार फिर से कुजात मियाँ की दुल्हन बन सकें।
शर्त यह थी कि निकाह के अगले दिन मौलाना मुफ़्ती
राबिया खातून को तलाक़ दे देंगे लेकिन अगले दिन मौलाना ने लोगों को और ख़ास तौर से
कुजात मियाँ को बताया कि राबिया कि तबियत कुछ नासाज़ है। दवा दे दी है। एक दो दिन
में उन्हें आराम मिल जाएगा तो तलाक़ दे दूँगा क्योंकि अभी दुबारा से उन्हें इद्दत
में बैठाना उनकी सेहत के लिए ठीक नहीं होगा। चार दिन तक बीमारी के बहाने तलाक़ देने
से इंकार करने वाले मौलाना मुफ़्ती जब पाँचवें दिन, दिन भर गाँव में नहीं दिखाई दिए
तो लोगों का माथा ठनका। उनकी झोंपड़ी पर पहुँचने पर पता चला कि वहाँ न मौलाना हैं न
राबिया खातून। कुजात मियाँ को मौलाना की इस बेवफ़ाई ने तोड़ दिया। राबिया को खोकर वे
पहले से ही टूटे हुए थे। एक बड़ा सदमा उनको अपने मासूम बेटे राशिद, जिसे वे अपनी
जान से भी ज़्यादा चाहते थे, से बिछड़ने का भी लगा था। ऊपर से गाँव वालों के तंज। वे
धीरे-धीरे सबसे कटने लगे और अपने घर तक क़ैद होकर रह गए। गाँव वालों में से
ज़्यादातर का ख्याल था कि मौलाना ने दुआ-ताबीज के बल पर राबिया को अपने कब्ज़े में
कर लिया था पर कुछ लोगों का और ख़ास तौर से औरतों का यह मानना था कि राबिया ने
कुजात मियाँ को सबक सिखाने के लिए ही मौलाना को तलाक़ देने से मना कर दिया था।
वजह चाहे जो भी हो पर दो साल के बाद एक दिन अचानक
मौलाना मुफ़्ती और राबिया बेगम उस गाँव में नमूदार हुए। राशिद अब चार साल का हो गया
था और राबिया बेगम की गोद में लगभग साल भर का एक और बच्चा खेल रहा था। मौलाना
मुफ़्ती, उस गाँव में आना नहीं चाहते थे पर राबिया को अपनी बूढी हो चुकी माँ की
बहुत याद आ रही थी। उसने मौलाना को यह भी समझाया कि उन्होंने कोई गुनाह का काम
नहीं किया है जो किसी से डरें। राबिया के आने की खबर कुजात मियाँ को भी मिल चुकी
थी। यह खबर मिलने के बाद वे गाँव वालों से और कट गए और ठीक दो महीने बाद एक सुबह
गाँव वालों को पता चला कि कुजात मियाँ अब इस दुनिया में नहीं रहे। पर जाने से पहले
वे बाक़ायदा लिखित में अपनी सारी जायदाद अपने बेटे राशिद और राबिया और मौलाना
मुफ़्ती के बेटे आरिज़ में बराबर-बराबर बाँट चुके थे और राबिया और मौलाना से आग्रह
किया था कि वे दोनों उनके घर में आ कर रहें। शायद ऐसा करके वे अपनी गलती का
प्रायश्चित्त कर गए थे।
गाँव वापस आने के बाद, और कुजात मियाँ की सारी जायदाद
का मालिक बनने के बाद, मौलाना मुफ़्ती ने धीरे-धीरे अपने व्यवहार और दवा-दुआ के बल
पर फिर से इलाके में अपनी पैठ बना ली थी। लोग धीरे-धीरे पुरानी बातें भूलते जा रहे
थे। दोनों बेटे होनहार थे। वे धीरे-धीरे बड़े हो रहे थे और अपनी मासूमियत और
शरारतों से मौलाना और राबिया की आँखों के तारे बने हुए थे। सब कुछ बहुत अच्छे से
चल रहा था कि एक दिन जब राशिद दस साल का था और आरिज़ सात साल का, राबिया खातून रात
को खाने के बाद चारपाई पर लेटीं तो फिर नहीं उठीं। गाँव की कुछ औरतों ने बाद में
बताया कि वे एक पल के लिए भी कुजात मियाँ को भूल नहीं पायी थीं और अकेले में
उन्हें याद करके खूब रोती थीं।
राबिया खातून के जाने के बाद, मौलाना मुफ़्ती की
दुनिया अपने दोनों बेटों राशिद और आरिज़ के इर्द-गिर्द सिमट गयी। वे कहीं दवा करने,
झाड़-फूँक करने या कहीं किसी मिलाद या जलसे में तकरीर करने जाते, दोनों बेटों को
साइकिल के आगे-पीछे बैठा कर अपने साथ लेकर जाते। उनकी पढ़ाई-लिखाई, उनके खेल-कूद,
उनकी खुराक सब पर बराबर नज़र रखते। अब उनकी उम्र भी पचास के आस-पास पहुँच रही थी।
यह अलग बात है कि वे अब भी काफ़ी चुस्त-दुरुस्त और तंदरुस्त थे। उनकी आवाज़ में अब
और धार आ गयी थी और आस-पास ही नहीं, दूरदराज तक के जलसों में तकरीर के लिए उनको
बुलाया जाने लगा था। वे बिना लाग-लपेट के बोलते थे और दाढ़ी-बिना दाढ़ी वाले मुसलमान
उसको पसंद करते थे। लड़की को देखकर अस्तगफिरुल्ला पढ़ने वाला
उनका लतीफ़ा अब उनका ट्रेंड मार्क बन चुका था। लगभग हर जलसे में वे इस लतीफे को
सुनाते और अगर कहीं भूल जाते तो लोग याद दिला कर उनसे यह लतीफ़ा ज़रूर सुनते...।
मौलवियों से भरी
एक बस जा रही थी
एक ने कहा जब भी
रास्ते में
लड़की नज़र आये तो
‘अस्तगफिरुल्ला’
पढ़ना
काफ़ी देर बाद एक
ने कहा
‘अस्तगफिरुल्ला’
बाक़ी बोले
“कहाँ है?”
“कहाँ है?
यह सब करते-करते तीन साल और बीते। इधर हाफ़िज़ जी की
चौथी लड़की रुखसाना जवान हो चुकी थी। हाफ़िज़ जी के घर और कुजात मियाँ के घर जिसमें
मौलाना मुफ़्ती अभी रह रहे थे, के बीच सिर्फ़ दो घर और थे। रुखसाना लड़कपन से ही
मौलाना के दोनों बेटों के साथ खेलने के लिए आती रहती थी और मौलाना चुपचाप उसे
बेटों के साथ खेलते देखते रहते थे। मौलाना के बेटों के साथ खेलते-खेलते कब उसके
जिस्म ने आकार लेना शुरू किया यह न तो रुखसाना भाँप सकी न मौलाना मुफ़्ती। पर एक
दिन, जब वह अभी-अभी नहाकर मौलाना के घर राशिद और आरिज़ के साथ खेलने आयी थी, मौलाना
ने उसे देखा और देखते ही रह गए। चादर के बनाए हुए परदे के उस पार बेहोश राबिया
खातून का मासूम चेहरा और तने हुए सीने उनके अंदर एक बार फिर से कोहराम मचाने लगे
थे।
चार महीने बाद, जब गाँव में ही आयोजित एक शानदार जलसे
में मौलाना अपने उसी लतीफ़े को नए अंदाज़ में सुना कर और लड़कियों और औरतों के जाल
में फँस कर गुमराही के रास्ते पर जाने वाले मौलानाओं और उलेमाओं पर लानत भेजकर और
अपनी जानदार तकरीर के लिए वाहवाही लूट कर रात के लगभग एक बजे घर पहुँचें तो राशिद
और आरिज़ सो चुके थे और दूसरे कमरे में रुखसाना उनका इंतेज़ार कर रही थी जो हाफ़िज़ जी
के घर से छुपते-छुपाते वहाँ पहुँची थी।
अगले दिन दोपहर तक पूरे गाँव को पता चल चुका था कि
मौलाना मुफ़्ती, उनके दोनों बेटे और हाफ़िज़ जी की चौथी बेटी रुखसाना गाँव में नहीं
थे। कुछ मनचले मौलाना के उस लतीफ़े को बार-बार दुहरा थे जो वे अक्सर जलसों में
सुनाया करते थे। उधर हाफ़िज़ जी ‘अस्तगफिरुल्ला’, ‘अस्तगफिरुल्ला’ पढ़ते हुए
बार-बार बेहोश हुए जा रहे थे।
(पाखी से साभार)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
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ई-मेल : sayeedayub@gmail.com
राही मासूम जी के बाद हिंदी कथा जगत से लगभग गायब ही हो चुके मुस्लिम समाज के इतने बेबाक ,जीवंत और भरोसेमंद चित्रण के लिए सईद भाई को बहुत बधाई।क़माल की किस्सागोई।पीड़ा का आख्यान इतनी सहज शैली में।क़माल है सईद भाई- आँसू भरी दास्तान मुस्कुराते हुए कहने का हुनर है साहब ये !
जवाब देंहटाएंराही मासूम जी के बाद हिंदी कथा जगत से लगभग गायब ही हो चुके मुस्लिम समाज के इतने बेबाक ,जीवंत और भरोसेमंद चित्रण के लिए सईद भाई को बहुत बधाई।क़माल की किस्सागोई।पीड़ा का आख्यान इतनी सहज शैली में।क़माल है सईद भाई- आँसू भरी दास्तान मुस्कुराते हुए कहने का हुनर है साहब ये !
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