पंकज पराशर का आलेख ‘रचना और इतिहास का द्वंद्व’।
इतिहास और साहित्य का अन्तर-सम्बन्ध एक अरसे से बहसतलब रहा
है और आगे भी रहेगा। इसमें कोई दो-राय नहीं कि इतिहास यथार्थ को सामने लाने की भूमिका
निभाता है जबकि साहित्य कल्पना की उद्दाम उड़ाने भरने के लिए स्वतन्त्र रहता आया है। इस
विरोधाभास के बावजूद इतिहास को जानने-समझने में साहित्य की एक बड़ी भूमिका रही आयी है। कुछ
इतिहासकारों ने अपने लेखन में आख्यान का रोचक ढंग से इस्तेमाल किया है। प्रोफ़ेसर हेरम्ब
चतुर्वेदी के उपन्यासों में यह रोचकता प्रमुख रूप से दिखाई पड़ती है। पंकज पराशर ने
अपने आलेख में रचना और इतिहास के द्वंद्व को समझने की एक ईमानदार कोशिश की है। तो आज
पहली बार पर प्रस्तुत है पंकज पराशर का आलेख ‘रचना और इतिहास का द्वंद्व’।
रचना और इतिहास का द्वंद्व
पंकज पराशर
दुनिया की तमाम भाषाओं में ऐतिहासिक घटनाओं और इतिहास के
प्रमुख पात्रों को विषय बनाकर उपन्यास लिखने की एक लंबी और समृद्ध परंपरा रही है। आज
के उपन्यासकार भी ऐतिहासिक कालखंड, ऐतिहासिक पात्र और चरित्र को विषय बना कर
उपन्यास लिख रहे हैं। हिंदी में किशोरी लाल गोस्वामी, वृंदावन लाल वर्मा, हजारी प्रसाद
द्विवेदी, यशपाल, भगवती चरण वर्मा, रांगेय राघव, भोला शंकर व्यास, अमृत लाल नागर, माया
नंद मिश्र से लेकर नरेंद्र कोहली तक एक लंबी चली आती हुई परंपरा है। बीसवीं
शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जबसे उत्तर-आधुनिक विद्वान हेडेन ह्वाइट ने इतिहास को
आख्यान मान लेने की पैरोकारी की है, तब से इतिहास-लेखन में आख्यान के इस्तेमाल की
प्रवृत्ति बढ़ी है और इससे इतिहास की प्रस्तुति में रोचकता, रचनात्मकता और पठनीयता
पैदा हुई है। यूँ तो इतिहास-लेखन में आख्यान का प्रयोग पहले भी होता रहा है, लेकिन
अब वह एक ऐसा आख्यान हो गया है, जो यथार्थवाद से तकरीबन मुक्त है। इसलिए
इतिहास-लेखन, उपन्यास-लेखन-जैसा लगने लगा है, या कहिए कि उपन्यास की तरह होने लगा
है। ऐतिहासिक उपन्यास लिखने वाले कथाकारों के बरक्स इधर एक नयी प्रवृत्ति सामने आई
है कि हिंदी क्षेत्र के नामी और पेशेवर इतिहासकारों ने अपने इतिहास-लेखन में
आख्यान का बहुत रोचक और सुंदर तरीके से इस्तेमाल किया है। इतिहासकार और इतिहास के
प्रोफेसर हेरंब चतुर्वेदी ने ‘दास्तान मुग़ल महिलाओं की’ और ‘दो सुल्तान, दो बादशाह और उनका प्रणय परिवेश’ तथा ‘मुग़ल शहज़ादा खुसरोः नेक-नियति, शराफ़त और बदनसीबी की दास्तान’ नामक अपनी किताब में औपन्यासिकता के शिल्प में जिस तरह ऐतिहासिक घटनाओं
को प्रस्तुत किया है, उसके सामने औपन्यासिक रचनाओं की पठनीयता कहीं पीछे छूट जाती
है। मुग़ल महिलाओं की दास्तान में लेखक जहाँ एक ओर तत्कालीन राजनीति और शासन
व्यवस्था को प्रभावित और परिवर्तित करने मुग़ल महिलाओं की इतिहासम्मत घटनाओं को
प्रस्तुत करते हुए एक आख्यान रचते हैं, वहीं दूसरी ओर इतिहास का एक स्त्री-पाठ भी
करते हैं कि तत्कालीन राजनीति में महिलाओं की भी सक्रिय भूमिका थी और उन्होंने कई
बार पुरुषों अधिक प्रभावशाली ढंग से इतिहास और भूगोल दोनों को बदला।
शहज़ादा खुसरो के बारे में लिखते हुए हेरंब चतुर्वेदी ने
इतिहास को एक कारुणिक आख्यान बना कर प्रस्तुत किया है, जिसमें खुसरो के पिता
जहाँगीर और उनके दादा हिंदुस्तान के तत्कालीन बादशाह अकबर के ग़मो-गुस्से, तन्हाई
और बेबसी की दास्तान भी है, पेशे से पत्रकार और उपन्यासकार शाज़ी ज़माँ ने अपने
उपन्यास ‘अकबर’ में यह दावा किया है कि उन्होंने ठोस ऐतिहासिक
प्रमाणों के आधार पर यह उपन्यास लिखा है। जो है तो उपन्यास, लेकिन उसकी कोई भी
घटना काल्पनिक या गढ़ी हुई नहीं है। इसमें प्रस्तुत तमाम तथ्य और घटनाएँ विशुद्ध
ऐतिहासिक हैं। यहाँ तक कि बादशाह अकबर द्वारा दी गई एक गाली तक का इस्तेमाल उन्होंने
ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर साबित होने के बाद ही किया है। उन्होंने लिखा है, ‘यह उपन्यास इतिहास से कितना दूर या कितना पास है, इसका कोई आसान जवाब नहीं
है। आज तो यह भी कहना मुश्किल है कि जिसे इतिहास कहा जा रहा है या कहने की कोशिश
की जा रही है, वो इतिहास से कितना पास या कितना दूर है।’ जिन
दिनों हिंदी में ऐतिहासिक पात्रों, घटनाओं और विषयों पर उपन्यास खूब लिखे जा रहे
थे, उन दिनों हिंदी आलोचना में उपन्यास और इतिहास के द्वंद्व को लेकर खूब
तर्क-वितर्क हुए थे और इस चीज़ को लेकर ख़ूब वाद-विवाद चलता रहा कि ऐतिहासिकता
रचनात्मकता को मजूबत बनाती है या कमज़ोर करती है? यह सवाल एक बार फिर आलोचना में ज़ेरे-बहस है कि जब इतिहास ही उपन्यास हो
गया है, तो फिर अलग से ऐतिहासिक उपन्यासों की चर्चा करना किस हद तक मुनासिब है?
इतिहास को उपन्यास का आधार बना कर जब ऐतिहासिक
उपन्यासकार अपने कलात्मक कार्य में प्रवृत्त होता है, तब वह अनुमानों की अपेक्षा
कल्पना पर आधारित संभाव्य सत्य को ही प्रश्रय देता है। इतिहास के आख्यान होने के
बावजूद इतिहास के आख्यान और उपन्यास के आख्यान में बुनियादी फर्क होता है। क्योंकि
इतिहास में घटनाओं की सचाई के अन्वेषण के लिए आख्यान का अन्वेषण होता है, जबकि
उपन्यास में आख्यान के माध्यम से पात्रों के जीवन-संघर्ष और मानसिक सोच-विचार की
अभिव्यक्ति होती है। ब्रिटेन की मशहूर उपन्यासकार हिलेरी मैंटल को सन् 2012 में जब
दूसरी बार 'ब्रिंग अप द बॉडीज' के लिए मैन्स बुकर पुरस्कार दिए
जाने की घोषणा हुई, तो अंग्रेज विद्वानों ने कहा कि ऐतिहासिक उपन्यासों का दौर एक
बार फिर से लौट आया है। इस उपन्यास की कहानी ऐतिहासिक है, जो सम्राट हेनरी सप्तम
के दौर की है। मैंटल ने ऐतिहासिक उपन्यास की परंपरा को नये सिरे से परिभाषित किया
है। ‘ब्रिंग अप द बॉडीज’ में आधुनिक
ब्रिटेन के उत्थान की कहानी कही गई है, जिसमें मैंटल ने अपनी कला और गद्य की ताकत
का इस्तेमाल भ्रांतिजनक सत्य को स्थापित करने के लिए किया है। भारत के इतिहास को
लिखने वाले उपनिवेशवादी इतिहासकारों ने अपने ढंग से घटनाओं और तथ्यों का उल्लेख
किया है, राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने अपने ढंग से और मार्क्सवादी इतिहासकारों ने
अपने वैचारिक चश्मे से भारतीय इतिहास को समझने और समझाने की चेष्टा की है। बीसवीं
सदी के अंतिम दशक में ‘सबाल्टर्न’
तरीके से इतिहास लेखन सामने आया। इन सबके अतिरिक्त पिछले कुछ समय से जातिवादी और
सांप्रदायिक दृष्टिकोण से भी इतिहास लेखन की चेष्टा हो रही है।
प्रो. नामवर सिंह ने सौराष्ट्र विश्वविद्यालय में
व्याख्यान देते हुए कहा था, ‘आजकल लोग गुजरात के गौरव और सम्मान की बात करते हैं और बहुत
सारे लोग इस पर गर्व करते हैं। हमें विचार करना चाहिए कि गुजरात का जो इतिहास हमें
गर्व करने का विचार देता है, वह उपन्यास संबंधी विवेचनाओं से
पैदा हुआ है। जैसे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के 'गुजरातनो
नाथ', 'जय सोमनाथ', 'पृथ्वीवल्लभ'
ने हमारे संस्कारों में धीरे-धीरे प्रवेश पा लिया। इस इतिहास के
निर्माण में उपन्यासों की बड़ी भूमिका रही है। क्या गुजरात सचमुच वैसा ही है जैसे
उसके उपन्यासों के ऐतिहासिक शब्दों में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के ‘नवलकथा’ में है?’ हमें यह नहीं
भूलना चाहिए कि वह उपन्यास द्वारा लिखित इतिहास है, जो कुछ
नहीं कोरी कल्पना है। हालाँकि यह एक सुंदर कल्पना है, जो
वास्तविकता जैसी प्रतीत होती है। हम इसमें इस प्रकार मध्यस्थ हैं कि कल्पना एक
वास्तविकता हो चुकी है। हम यह भूल जाते हैं कि यह एक कल्पना है और कल्पना प्रत्येक
व्यक्ति को बहुत अधिक मोहित करती है। आज इस कल्पना का लोगों के समूह द्वारा
आदान-प्रदान किया जा रहा है। ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक हों या किसी भी विचारधारा के
पेशेवर इतिहासकार, वे इतिहास को ‘रचने’
और अपने उद्देश्य या एजेंडे के लिए इतिहास के ‘गौरव-गान’ को ‘गढ़ने’ में मुब्तिला रहे
हैं।
ऐतिहासिक उपन्यासों में मिथ और ऐतिहासिक तथ्यों, घटनाओं
और पात्रों के मेल से किस तरह वर्तमान के दबाव में ऐतिहासिक आख्यान को उपन्यास के
माध्यम से गौरव-गान में बदल दिया जाता है, इसके एक बड़े उदाहरण हैं वृंदावन लाल
वर्मा। उन्होंने एक वक्तव्य में कहा था, ‘उनके ऐतिहासिक उपन्यास लिखने के कुछ सामान्य तथा कुछ विशेष
कारण हैं। सर वाल्टर स्कॉट के अँगरेज़ी उपन्यास पढ़ कर उनके मन में यह बात आई थी
कि वे भारत के सम्मान की प्रतिष्ठा के लिए भारत के इतिहास के गौरवपूर्ण पृष्ठों को
ले कर वैसे ही उपन्यास लिखेंगे। उन्होंने संकल्प किया कि वे बुंदेलखंड के गौरव को
प्रतिष्ठित करने के लिए उपन्यास लिखेंगे।’ ग़ौरतलब है कि
जैसे अमेरिकी राजनीतिशास्त्री फ्रांसिस फुकुयामा के ‘इतिहास
का अंत’ (सन् 1992 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘द एंड ऑफ हिस्ट्री एंड द लास्ट मैन’ में) की घोषणा
के बावज़ूद इतिहास की उपस्थिति और इतिहास-लेखन की निरंतरता में ज़रा भी फ़र्क नहीं
आया, वैसे आख्यान की शैली अपना कर इतिहास को औपन्यासिकता प्रदान कर देने से भी
साहित्य में ऐतिहासिक उपन्यास की स्वतंत्र सत्ता मौज़ूद है और उसका अपना एक विशिष्ट
स्वरूप भी है। ऐतिहासिक उपन्यासों के बरक्स इधर पेशेवर इतिहासकारों ने इतिहास को
आख्यान में ढाल कर हिंदी कथा-साहित्य के सामने एक नई और जबर्दस्त चुनौती पेश की
है।
पंकज पराशर |
सम्पर्क
हिंदी
विभाग, ए.एम.यू.,
अलीगढ़-
202002,
फोन-9634282886
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें