आशीष सिंह का आलेख – ‘निराला और मुक्तिबोध की नजर में साहित्य की सम्प्रेषणीयता का सवाल’।
मुक्तिबोध |
वर्ष 2017 हिन्दी के दो सुविख्यात साहित्यकारों गजानन माधव
मुक्तिबोध और त्रिलोचन का जन्म-शताब्दी वर्ष है। दोनों कवि थे, दोनों ने कहानियाँ
भी लिखीं हैं। दोनों की गद्य में अच्छी पकड़ थी। ये दोनों लोग समकालीन तो थे ही दोनों
बेहतर मित्र भी थे। जन्म-शताब्दी वर्ष होने के चलते स्वाभाविक रूप से दोनों की
चर्चा का क्रम चल रहा है - किसी की कुछ अधिक, किसी की कुछ कम। दोनों पर पत्रिकाओं
के विशेषांक निकल रहे हैं। चर्चा कम-अधिक होने से न तो कोई बड़ा हो जाता है न ही
कोई छोटा। दोनों अपनी-अपनी जगह विशिष्ट हैं। पता नहीं कैसे आज इसी पर बहस चल रही
है कि इन दोनों में कौन कितना बड़ा, कौन कितना छोटा। इस चर्चा के क्रम में ही युवा
आलोचक आशीष सिंह ने पहली बार के लिए अपना यह आलेख लिख भेजा है। तो आइए आज पहली बार
पर पढ़ते हैं आशीष सिंह का आलेख – ‘निराला और मुक्तिबोध की नजर में साहित्य की
सम्प्रेषणीयता का सवाल’।
निराला और मुक्तिबोध की नजर में साहित्य की सम्प्रेषणीयता का सवाल
आशीष सिंह
मुक्तिबोध की हिन्दी सच है वह त्रिलोचन, नागार्जुन के तरह की हिन्दी
नहीं है। जैसा कि हमारे कई
आलोचक उनकी कमजोरियों की फेहरिस्त जारी करते हुए, बताते हैं कि वे हिन्दी भाषा, आम जन की बोल-चाल की भाषा में
आखिर क्यों नहीं लिख पाते। उनकी
भाषा तमाम जन कवियों की भाषा जैसी क्यों नहीं है आदि
आदि।
सबसे पहली बात किसी भी बड़े कवि की काव्यात्मक भाषा और प्रस्तुति का ढंग दूसरे किसी भी बड़े कवि के तरह नहीं ही होती है। हर बड़ा कवि अपने सामने की चुनौतियों को प्रस्तुत करते हुए अपने व्यक्तित्व के साथ उसमें समाहित होता है। न तो गा़लिब का और न ही निराला किसी की भी तो दूसरी कापी नहीं ही है। अगर हैं तो वे दोयम स्तर के ही हैं। चूंकि रचनात्मक यात्रा सब की अपनी अपनी अलहिदा ही होती है। उसके भाषा-विन्यास और वाक्य की बुनावट तक में उस सर्जक का रक्त गमकता नजर आता है। बस देखने की ताब हो तब न! अब आते हैं, और देखते हैं कि मुक्तिबोध की भाषा सम्बन्धी बुनावट और मानसिक गठन के पीछे खुद उनका इतिहास विकास क्या बोलता है! पृष्ठभूमि की अनदेखी करके हम किसी कवि के विकास की दिशा शायद ही समझ सकें? शायद नहीं।
मुक्तिबोध की रचनाओं, खासकर पत्रों और लेखों से गुजरते हुए हमें बड़ी रोचक जानकारी मिलती है। यहाँ मानो उनको समझने के सूत्र भरे पड़े हों। हम पाते हैं कि निराला और मुक्तिबोध कई मायनों में लगभग एक साथ खड़े मिलते हैं। जन भाषा का सवाल और 'जनता का साहित्य' इस विषय पर निराला और मुक्तिबोध दोनों ने विस्तार से अपनी बातें की है। तुलनात्मक दृष्टि से तो नहीं, वरन् चिन्तन की प्रक्रिया में हिन्दी के ये दोनों बड़े कवि लगभग एक साथ खड़े मिलते हैं। हम आप जानते ही हैं कि निराला अवध के वासी थे लेकिन उनका पारिवारिक माहौल बैसवाड़ी हिन्दी का था। उनका जन्म बंगाल प्रांत में हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा बंगाली परिवेश में हुई थी। और कहा जाये कि वे बंगाली भाषा विन्यास से प्रभावित भी खूब थे। लेकिन उन्होंने अपना रचनात्मक कर्म हिन्दी क्षेत्र में आ कर शुरू किया, हिन्दी सीख कर अपने को विकसित किया। हिन्दी सीखने में वे अपनी सहधर्मिणी मनोहरा देवी का महत्वपूर्ण योगदान स्वीकार करते हैं। यानि साहित्यिक भाषा के तौर पर हिन्दी अर्जित भाषा थी। निराला की कविताओं की शब्दावली पर निश्चय ही बांग्ला भाषा की संस्कृतनिष्ठता का असर है। इससे शायद ही कोई इन्कार करे। वही घर-परिवार में बोलचाल की भाषा बैसवाडी़ हिन्दी होने के चलते उनका जीवंत प्रवाह उसमें तैरता मिलता है। खैर, महकवि निराला की भाषाई बुनावट और उसकी सघन आत्मीय भाव संपदा पर अलग से बातचीत का विषय है। वह फिर कभी। हम मूल बात पर वापस आते हैं। दोस्तो! ठीक इसी तरह जरा मुक्तिबोध की परवरिश और पारिवारिक माहौल पर निगाह डाला जाए। हम पाते हैं कि मराठी भाषी परिवार में जन्मे गजानन माधव मुक्तिबोध हिन्दी लिखना सीखते हैं। यानि साहित्यिक हिन्दी में अपने को निष्णात होने की कोशिश वे सतत प्रयास से करते हैं। और हम उनकी रचनाओं में बिखरे तमाम-एक मराठी शब्द, खासकर पूणे, नागपुर आदि में बोले जाने वाले शब्दों की अच्छी खासी फेहरिस्त तैयार कर सकते हैं। लेकिन उन्होंने अपना रचनात्मक कर्म हिन्दी में शुरू किया। उसमें ही अपने विचारों-भावनाओं को विकसित करने की दिशा में आगे बढ़ते हैं। माखन लाल चतुर्वेदी जैसे कवियों के जन स्वर, टोन उनकी प्राथमिक कविताओं में आसानी से पहचानी जा सकती है। हिन्दी सीखने और नजदीकी से हिन्दी भाषी जनमानस से हृदय-संवाद के लिए, उनमें जनमते सवालों को समझने के लिए वे हिन्दी के मुहावरे, कहावतें रटने तक की बात करते मिलते हैं। सरस्वती प्रेस बनारस में रहते हुए 26 -10-1945 को नेमि चन्द्र जैन को लिखे पत्र में वे एक जगह कहते हैं कि "पर अब साहित्यिक श्रम मुझे करने ही पड़ेंगे । हिन्दी सुधारने की कोशिश शुरू हो गई है। छोटी सी phrase, कोई चुस्त जबान-बन्दी झट नोट कर लिया करता हूँ, बिल्कुल शॉ के ‘लेडी आफ दि डार्क’ के शेक्सपियर की भाँति।
इससे पहले, मैं हिन्दी के साहित्यिक प्रयासों के सिवाय, कभी भी लिखा नहीं करता था। मेरे अत्यंत आत्मीय विचार मराठी या अंग्रेज़ी में निकलते थे; जिसका तर्जुमा, यदि अवसर हो, तो हिन्दी में हो जाता था। इसीलिए जानबूझ कर यह पत्र हिन्दी में लिख रहा हूँ। मेरा ख्याल है कि मेरी भाषा सुदंर न भी हो सके वह सशक्त रहेगी, क्योंकि इसके पीछे अन्दर का जोर रहेगा। मुझे साज-संवार की प्रतिष्ठित बोली पसन्द नहीं। चाहता हूँ कि इसके विषय में आप अपना मत-प्रदान करें। क्या मैं अपनी हिन्दी सुधार सकता हूँ? उसे सक्षम, सप्राण और अर्थ-दीप्त कर सकता हूँ?"
अब यहाँ मुक्तिबोध की हिन्दी विषयक दूरूहता का बहु प्रचारित मिथक अपने आप खुलता जा रहा है। इस समय उनकी उम्र २७-२८ साल की हो चुकी थी। पारिवारिक जिम्मेदारी और सृजनात्मक चुनौतियां उनके मनो मस्तिष्क में कौंध रही थीं।
वे अपने समय में भाषा विषयक कौन सा मानक बनाते हैं और सीखने की शिद्दत किस तरह की दिशा में काम करने के लिए अग्रसर है। यह साफ-साफ लफ्जों में पढ़ा जा सकता है। ऐसे में उनकी "सप्राण भाषा" साज-संवार हीन "अर्थ दीप्त" भाषा और अन्दर के जोर से सशक्त अभिव्यक्ति की भाषा की तारीफ करने की बजाय तमाम विद्वान "हंसुए की शादी में खुरपी का गीत” गाने में लगे है। यानि जो है उसकी बात नहीं करेंगे। जो भाषा रूप, सामाजिक-पारिवारिक कारणों से अलग रूप में है उसकी तह में तफसील से जाने की मंशा नदारद है। दरअसल मुक्तिबोध के मानसिक वैचारिक गठन की पृष्ठभूमि को अनदेखा करके आलोचना करना महज आलोचना के लिए आलोचना है। "कि इतनी मार खायी, तब कहीं स्पष्ट उद्घाटित हुए उत्तर" में हमें क्या यह आवाज नहीं सुनाई पड़ रही है ''कि मैंने जिंदगी की धज्जियां उडाई हैं'। अपने आप को प्रश्नों के घेरे में खड़ा करना और तब व्यवस्था के मूल पर हमला उनकी पद्धति रही है। जबकि अधिकांश रचनाकार अपने को छूट देते हुए व्यवस्था पर आक्रामक मिलते हैं। मुक्तिबोध इस मायने में औरों से कई मायने में अलग हैं। उनका उचित मूल्यांकन करना चाहिए न कि मनचाहे आरोपण। हिन्दी जगत को शायद ही इससे कोई फायदा हो।
त्रिलोचन |
दूसरी बात जनता का साहित्य किसे
कहते हैं। इस सवाल पर भी निराला और मुक्तिबोध लगभग एक ही जुबान
बोलते मिलते हैं। यह महज संयोग नहीं है बल्कि विचारगत प्रक्रिया की एकता का मामला है।
इसी
प्रकार के सवालों व चुनौतियों का सामना निराला भी करते रहे हैं ।
ज्यादा
सरलता की मांग पर वे बहुत स्पष्ट शब्दों में भाव-विचार की ताकत को प्राथमिकता देते
हैं जिस प्रकार मुक्तिबोध 'अन्दर का जोर" पर विशेष जोर देते हैं। दिनांक 12 -8-1937 को आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री को
लिखे
पत्र में (और पत्र वह
तोड़ती पत्थर, कविता
की सरलता के सन्दर्भ में है) कहते हैं कि "जो गहन भाव, सीधी भाषा-सीधे छन्द में चाहता है; वह धोखेबाज़ है; उसे भाषा का ज्ञान नहीं वह भाव क्या
समझेगा?"
यानि साहित्यिक रचना की अपनी विषयगत मांग होती है उसी के अनुरूप अपने को शब्दबद्ध करती है। तुरंत जनता को समझ आने वाली कविता की मांग अगर आंदोलन या संघर्ष के गीतों की सामूहिक आवाज को आह्वान करने की मांग से उठती है तब अलग बात। इसके अलावा लोकप्रियतावादी अतिरिक्त रूझान ही समझी जानी चाहिए। लेकिन वास्तविक कविता का अपना ही रंग-ढंग होता है। वह अपने आक्रोश, उम्मीद और सपनों को कलात्मक तरीके से हम तक ले कर आती है। जनता के साहित्य का बाजा बजाने वालों को निराला कुछ इन शब्दों में समझाने की कोशिश करते हैं -
"बड़े-बड़े साहित्यिकों ने प्रकृति के अनुकूल ही भाषा लिखी है। कठिन भावों को व्यक्त करने में प्रायः भाषा भी कठिन हो गई है। जो मनुष्य जितना गहरा है, वह भाव तथा भाषा की उतनी ही गम्भीरता तक पैठ सकता है, और पैठता है। साहित्य में भावों की उच्चता का ही विचार करना चाहिए। भाषा भावों की अनुगामिनी है।" (‘प्रबन्ध-पद्म' से)
निराला बार-बार भावों की उच्चता और विचार की गहराई पर जोर दे रहे हैं। यह ध्यान देने लायक बात है। जब कि हमारे कई कवि-रचनाकार कहते हैं कि हमें मुक्तिबोध समझ में नहीं आते। या कोई कहता है कि निराला समझ में नहीं आते। या कुछ अंश में समझ आते हैं कुछ अंश में नहीं। यह हमारे जड़ संस्कार की वजह हो सकती है। उसको भी सतत विकसित करने और उन्नत करने की जरुरत है न कि किसी कवि के भाव-विचार और संश्लिष्ट चिन्तन के खिलाफ ही अभियान छेड़ देना। हम अपने परिवेश में साहित्यिक संस्कार विकसित करने के बारे में अभियान छेड़े, अपनी जनता की सामाजिक-राजनीतिक मुक्ति में शामिल हो कर ऐसा समाज बनाये जिसमें हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना उन्नत की ओर अग्रसर हो। न कि 'लोक' के अतिशय अनुराग में अपनी दीठि ही भोथरी कर लें। साहित्य हमसे बार-बार अवगाहन की उम्मीद करता है। "साहित्य और भाषा" नामक लेख में निराला कहते हैं कि हिन्दी की सरलता के सम्बन्ध में बकवास करने वाले लोगों में अधिकांश को मैने देखा - लिखते बहुत हैं, जानते बहुत थोड़ा हैं। कम से कम हिन्दी से तो उनका ताल्लुक़ स्कूल से जब से छूटा है, छूटा ही रहा है। फिर हिन्दी की विशेष शिक्षा प्राप्त करने की उन्हें जरुरत नहीं मालूम दी। जरुरत रही दूसरों को सिखाने की। साधारण जनों का पक्ष ले कर वे बराबर अपने अज्ञान पर मिट्टी डालते रहते हैं।"
जब समाज के विकास के साथ सामाजिक-वैज्ञानिक उन्नति के साथ तकनीकी, चिकित्सीय, दार्शनिक अध्ययन के लिए हम अलग से सीखने समझने का प्रयास करते हैं, सचेतन कोशिश करते हैं तब क्या उन्नत साहित्यिक कृतियों को समझने के लिए उनमें मौजूद आत्म-तत्व को प्रसारित करने के लिए हमको और शिद्दत से नहीं लगना चाहिए। निराला कहते हैं कि साहित्य स्वयं सृष्टि है, यह किसी उद्देश्य की घोषणा ले कर नहीं आती। इसका फैलाव व्यापक है।" जब कुछ खास आदमियों के कल्याण की बात सोची जाएगी, तब कुछ खास लोगों का अकल्याण भी साथ-साथ होगा। यह अनुल्लंघ्य दर्शन है। इसीलिए वृहत साहित्य यानि ऊंचे भावों से भरा हुआ साहित्य कभी भी देश, काल या संख्या में नहीं रहा, और उसी देश, काल और संख्या का अब तक कल्याण हुआ है। उन प्राचीन बड़े-बड़े साहित्यिकों की भाषा कभी जनता की भाषा नहीं रही। सोलह आने में चार आने जनता के लायक रहना साहित्य का ही स्वभाव है, क्योंकि सब तरह की अभिव्यक्तियां साहित्य में होती हैं।" (“प्रबन्ध पद्म" से)
इस प्रकार साहित्य की
महत्ता
और उसके सामाजिक प्रभाव पर निराला अपनी बात रखते हुए किसी प्रकार के सतहीपन और
जनतावादी भटकाव की कटु आलोचना करते हैं। इस जनतावादी निगाह ने जहाँ विचार और समझ
की द्वन्द्वात्मक भागेदारी की बात करने के बावजूद हमारे साहित्यिक मित्र गण अनचाहे ही सही, सरल, सुविधाजनक
और सुकून की चाहत को ही साहित्यकार का उद्देश्य घोषित करने में लगे रहे। एक
साहित्यिक प्राणी जनता का सांस्कृतिक स्तरोन्नयन करता है, उसमें मौजूद
आकांक्षाओं को अपने कलात्मक-संवेदनात्मक प्रक्रिया के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान
करता है न कि जनता की पिछड़ी चेतना तक साहित्यिक कृति को उतारने की कोशिश में लग जाये।
और इसे जनता को समझ में आने लायक या न आने लायक कहते-कहते उन्नत कृतियों और कृतिकारों के मान-मर्दन पर जुट जाए। कलात्मक
कृति को समझने और उसके अनछुये वरकों को खोलने का काम सहृदय पाठक ही करता है, इसी में जनता
की मुक्ति के लिए अपने समाज में मौजूद
पतनशील प्रवृत्ति से जूझना भी दर्ज है। तभी सही
वैचारिक
जमीन पर आपके पैर टिक
पायेंगे। मुक्तिबोध इसीलिए एक विरल व्यक्तित्व के साहित्यकार हैं
वे अपने से ही नहीं, अपने लोगों में मौजूद वर्गीय प्रवृत्तियों से भी लड़ना आवश्यक मानते हैं ।
निराला के ही चिन्तन से एका प्रकट करते हुए मुक्तिबोध भी 'जनता का साहित्य किसे कहते हैं' नामक निबंध में कहते हैं कि "जनता
का साहित्य का अर्थ जनता को तुरंत समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज नहीं। अगर ऐसा होता, तो किस्सा - तोता
मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते। 'जनता का साहित्य का अर्थ 'जनता के
लिए" साहित्य
से है और यह जनता ऐसी हो जो
शिक्षा, संस्कृति
द्वारा कुछ स्टैंडर्ड प्राप्त कर चुकी हो"।
यहाँ साहित्य का सामान्यतः अर्थ महज मनोरंजनात्मक नहीं बल्कि बड़े
सामाजिक दायित्वों को ध्यान में रख कर कहा गया है। अगर कोई कुपाठ पर ही उतारू हो
तो वह इन अग्रज लेखकों के मूल स्वर को काट-छांट कर उन्हें बुर्जुआ हितों के पोषक
साहित्यकार कहने में देर नहीं लगाएगा। कोई इसका क्या करे जब बने बनाये चौहद्दी में ही सबको समेट लेने की
आकांक्षा पाले बैठे हों। जबकि साहित्यिक कर्म
का
उद्देश्य 'सांस्कृतिक परिष्कार
है; मानसिक परिष्कार
है" है इस साहित्य को और गहरे से समझने के लिए
सुनने वाले कान और समझने लायक मस्तिष्क की ओर भी निगाह
रखनी है।
सम्पर्क-
आशीष सिंह
E-2/ 653 सेक्टर-F
जानकीपुरम लखनऊ - 226021
मोबाईल - 08739015727
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (22-06-2017) को
जवाब देंहटाएं"योग से जुड़ रही है दुनिया" (चर्चा अंक-2648)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक