शैलेन्द्र चौहान का आलेख 'बाबा नागार्जुन का भाव-बोध'
बाबा नागार्जुन |
अपने पुरखे कवियों की परम्परा को आगे बढ़ाने का काम बाबा नागार्जुन ने जिस शिद्दत के साथ किया वह अपने-आप में बेजोड़ और अलहदा है. उनकी कविताएँ भारतीय जन-मानस की कविताएँ हैं जिनमें व्यंग के सहारे बहुत कुछ कह देने की क्षमता होती है. विषय बिल्कुल अपनी धरती के हैं. एक से एक नायाब विषय. तात्कालिक घटनाओं को आधार बना कर बाबा ने जितनी यादगार कविताएँ लिखीं उतनी शायद ही किसी ने लिखीं हों. आज बाबा नागार्जुन का जन्मदिन है. जन्मदिन पर बाबा को नमन करते हुए हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं शैलेन्द्र चौहान का आलेख 'बाबा नागार्जुन का भाव-बोध'. तो आइए पढ़ते हैं शैलेन्द्र चौहान का यह महत्वपूर्ण आलेख.
बाबा नागार्जुन का भाव-बोध
शैलेन्द्र चौहान
बाबा नागार्जुन को भावबोध और कविता के
मिज़ाज के स्तर पर सबसे अधिक निराला और कबीर के साथ जोड़ कर देखा गया है।
वैसे, यदि जरा और व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो नागार्जुन के काव्य
में अब तक की पूरी भारतीय काव्य-परंपरा ही जीवंत रूप में उपस्थित देखी जा
सकती है। उनका कवि-व्यक्तित्व कालिदास और विद्यापति जैसे कई कालजयी कवियों
के रचना-संसार के गहन अवगाहन, बौद्ध एवं मार्क्सवाद जैसे बहुजनोन्मुख दर्शन
के व्यावहारिक अनुगमन तथा सबसे बढ़ कर अपने समय और परिवेश की समस्याओं,
चिन्ताओं एवं संघर्षों से प्रत्यक्ष जुड़ाव तथा लोकसंस्कृति एवं लोकहृदय की
गहरी पहचान से निर्मित है। उनका ‘यात्रीपन’ भारतीय मानस एवं विषय-वस्तु को
समग्र और सच्चे रूप में समझने का साधन रहा है। मैथिली, हिन्दी और संस्कृत
के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का
ज्ञान भी उनके लिए इसी उद्देश्य में सहायक रहा है। उनका गतिशील, सक्रिय और
प्रतिबद्ध सुदीर्घ जीवन उनके काव्य में जीवंत रूप से
प्रतिध्वनित-प्रतिबिंबित है। नागार्जुन सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से
बने आधुनिकतम कवि हैं। बाबा नागार्जुन ने जब लिखना शुरू किया था तब हिन्दी
साहित्य में छायावाद उस चरमोत्कर्ष पर था, जहाँ से अचानक तेज ढलान शुरू हो
जाती है, और जब उन्होंने लिखना बंद किया तब काव्य जगत में सभी प्रकार के
वादों के अंत का दौर चल रहा था। बाबा अपने जीवन और सर्जन के लंबे कालखंड
में चले सभी राजनीतिक एवं साहित्यिक वादों के साक्षी रहे, कुछ से संबद्ध भी
हुए, पर आबद्ध वह किसी से नहीं रहे। उनके राजनीतिक ‘विचलनों’ की खूब चर्चा
भी हुई। पर कहने की जरूरत नहीं कि उनके ये तथाकथित ‘विचलन’ न सिर्फ जायज
थे बल्कि जरूरी भी थे। वह जनता की व्यापक राजनीतिक आकांक्षा से जुड़े कवि
थे, न कि मात्र राजनीतिक पार्टियों के संकीर्ण दायरे में आबद्ध सुविधाजीवी
कामरेड। कोई राजनीतिक पार्टी जब जनता की राजनीतिक आकांक्षा की पूर्ति के
मार्ग से विचलित हो जाए तो उस राजनीतिक पार्टी से ‘विचलित’ हो जाना विवेक
का सूचक है, न कि ‘विपथन’ का। प्रो. मैनेजर पांडेय ने सही टिप्पणी की है कि
एक जनकवि के रूप में नागार्जुन खुद को जनता के प्रति जवाबदेह समझते हैं,
किसी राजनीतिक दल के प्रति नहीं। इसलिए जब वे साफ ढंग से सच कहते हैं तो कई
बार वामपंथी दलों के राजनीतिक और साहित्यिक नेताओं को भी नाराज करते हैं।
जो लोग राजनीति और साहित्य में सुविधा के सहारे जीते हैं वे दुविधा की भाषा
बोलते हैं। नागार्जुन की दृष्टि में कोई दुविधा नहीं है।….यही कारण है कि
खतरनाक सच साफ बोलने का वे खतरा उठाते हैं। अपनी एक कविता “प्रतिबद्ध हूँ”
में उन्होंने दो टूक लहजे में अपनी दृष्टि को स्पष्ट किया है–
प्रतिबद्ध
हूँ,
जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ–
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त–
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के खिलाफ
अंध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए
अपने आप को भी ‘व्यामोह’ से बारंबार उबारने की खातिर
प्रतिबद्ध हूँ,
जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ!
जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ–
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त–
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के खिलाफ
अंध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए
अपने आप को भी ‘व्यामोह’ से बारंबार उबारने की खातिर
प्रतिबद्ध हूँ,
जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ!
नागार्जुन का संपूर्ण काव्य-संसार इस बात का
प्रमाण है कि उनकी यह प्रतिबद्धता हमेशा स्थिर और अक्षुण्ण रही, भले ही
उन्हें विचलन के आरोपों से लगातार नवाजा जाता रहा। उनके समय में छायावाद,
प्रगतिवाद, हालावाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, जनवादी कविता और नवगीत
आदि जैसे कई काव्य-आंदोलन चले और उनमें से ज्यादातर कुछ काल तक सरगर्मी
दिखाने के बाद चलते बने। पर बाबा की कविता इनमें से किसी ‘चौखटे’ में अँट
कर नहीं रही, बल्कि हर ‘चौखटे’ को तोड़ कर आगे का रास्ता दिखाती रही। उनके
काव्य के केन्द्र में कोई ‘वाद’ नहीं रहा, बजाय इसके वह हमेशा अपने
काव्य-सरोकार ‘जन’ से ग्रहण करते रहे। उन्होंने किसी बँधी-बँधायी लीक का
निर्वाह नहीं किया, बल्कि अपने काव्य के लिए स्वयं की लीक का निर्माण किया।
इसीलिए बदलते हुए भाव-बोध के बदलते धरातल के साथ नागार्जुन को विगत सात
दशकों की अपनी काव्य-यात्रा के दौरान अपनी कविता का बुनियादी भाव-धरातल
बदलने की जरूरत महसूस नहीं हुई। “पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने” जैसी कविता
में ‘बाबा का काव्यात्मक डेविएशन’ भी सामान्य जनोचित है और असल में, वही उस
कविता के विशिष्ट सौंदर्य का आधार भी है। उनकी वर्ष 1939 में प्रकाशित
आरंभिक दिनों की एक कविता ‘उनको प्रणाम’ में जो भाव-बोध है, वह वर्ष 1998
में प्रकाशित उनके अंतिम दिनों की कविता ‘अपने खेत में’ के भाव-बोध से
बुनियादी तौर पर समान है। आज इन दोनों कविताओं को एक साथ पढ़ने पर, यदि
उनके प्रकाशन का वर्ष मालूम न हो तो यह पहचानना मुश्किल होगा कि उनके
रचना काल के बीच तकरीबन साठ वर्षों का फासला है। जरा इन दोनों कविताओं की
एक-एक बानगी देखें–
जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने
जिनके कर दिए मनोरथ चूर-चूर!
- उनको प्रणाम!
मैं उनको करता हूँ प्रणाम
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने
जिनके कर दिए मनोरथ चूर-चूर!
- उनको प्रणाम!
और ‘अपने खेत में’ कविता का यह अंश देखें–
अपने
खेत में हल चला रहा हूँ
इन दिनों बुआई चल रही है
इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही मेरे लिए बीज जुटाती हैं
हाँ, बीज में घुन लगा हो तो अंकुर कैसे निकलेंगे!
जाहिर है बाजारू बीजों की निर्मम छँटाई करूँगा
खाद और उर्वरक और सिंचाई के साधनों में भी
पहले से जियादा ही चौकसी बरतनी है
मकबूल फिदा हुसैन की चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक
हमारी खेती को चौपट कर देगी!
जी, आप अपने रूमाल में गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!
इन दिनों बुआई चल रही है
इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही मेरे लिए बीज जुटाती हैं
हाँ, बीज में घुन लगा हो तो अंकुर कैसे निकलेंगे!
जाहिर है बाजारू बीजों की निर्मम छँटाई करूँगा
खाद और उर्वरक और सिंचाई के साधनों में भी
पहले से जियादा ही चौकसी बरतनी है
मकबूल फिदा हुसैन की चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक
हमारी खेती को चौपट कर देगी!
जी, आप अपने रूमाल में गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!
बाबा की कविताएँ अपने समय के समग्र
परिदृश्य की जीवंत एवं प्रामाणिक दस्तावेज हैं। उदय प्रकाश ने सही संकेत
किया है कि बाबा नागार्जुन की कविताएँ प्रख्यात इतिहास चिंतक डी. डी.
कोसांबी की इस प्रस्थापना का कि ‘इतिहास लेखन के लिए काव्यात्मक प्रमाणों
को आधार नहीं बनाया जाना चाहिए’ अपवाद सिद्ध होती हैं। वह कहते हैं कि ‘हम
उनकी रचनाओं के प्रमाणों से अपने देश और समाज के पिछले कई दशकों के इतिहास
का पुनर्लेखन कर सकते हैं।’ कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह का दावा बीसवीं
सदी के किसी भी दूसरे हिन्दी कवि के संबंध में नहीं किया जा सकता, स्वयं
निराला के संबंध में भी निश्चिंत हो कर नहीं। बाबा को अपनी बात कहने के लिए
कभी आड़ की जरूरत नहीं पड़ी और उन्होंने जो कुछ कहा है उसका संदर्भ
सीधे-सीधे वर्तमान से लिया है। उनकी कविता कोई बात घुमा कर नहीं कहती, बल्कि
सीधे-सहज ढंग से कह जाती है। उनके अलावा, आधुनिक हिन्दी साहित्य में इस
तरह की विशेषता केवल गद्य-विधा के दो शीर्षस्थ लेखकों, आजादी से पूर्व के
दौर में प्रेमचन्द और आजादी के बाद के दौर में हरिशंकर परसाई, में रेखांकित
की जा सकती है। बाबा की कविताओं में यह खासियत इसीलिए भी आई है कि उनका
काव्य-संघर्ष उनके जीवन-संघर्ष से तदाकार है और दोनों के बीच किसी ‘अबूझ-सी
पहेली’ का पर्दा नहीं लटका है मुक्तिबोध की कविताओं के विचार-धरातल की
तरह। उनका संघर्ष अंतर्द्वंद्व, कसमसाहट और अनिश्चितता भरा संघर्ष नहीं है,
बल्कि खुले मैदान का, निर्द्वन्द्व, आर-पार का खुला संघर्ष है और इस
संघर्ष के समूचे घटनाक्रम को बाबा मानो अपनी डायरी की तरह अपनी कविताओं में
दर्ज करते गए हैं।
बाबा ने अपनी कविताओं का भाव-धरातल सदा सहज और प्रत्यक्ष यथार्थ रखा, वह यथार्थ जिससे समाज का आम आदमी रोज जूझता है। यह भाव-धरातल एक ऐसा धरातल है जो नाना प्रकार के काव्य-आंदोलनों से उपजते भाव-बोधों के अस्थिर धरातल की तुलना में स्थायी और अधिक महत्वपूर्ण है। हालाँकि उनकी कविताओं की ‘तात्कालिकता’ के कारण उसे अखबारी कविता कह कर खारिज करने की कोशिशें भी हुई हैं, लेकिन असल में, यदि एजरा पाउंड के शब्दों में कहें तो नागार्जुन की कविता ऐसी ख़बर (news) है जो हमेशा ताज़ा (new) ही रहती है। वह अखबारी ख़बर की तरह कभी बासी नहीं होती। उनकी कविता के इस ‘टटकेपन’ का कारण बकौल नामवर सिंह ‘व्यंग्य की विदग्धता’ है। नामवर सिंह कहते हैं– 'व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं। ….इसलिए यह निर्विवाद है कि कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ। नागार्जुन के काव्य में व्यक्तियों के इतने व्यंग्यचित्र हैं कि उनका एक विशाल अलबम तैयार किया जा सकता है।' दरअसल, नागार्जुन की कविताओं को अख़बारी कविता कहने वाले शायद यह समझ ही नहीं पाते कि उनकी तात्कालिकता में ही उनके कालजयी होने का राज छिपा हुआ है और वह राज यह है कि तात्कालिकता को ही उन कविताओं में रचनात्मकता का सबसे बड़ा हथियार बनाया गया है। उनकी कई प्रसिद्ध कविताएँ जैसे कि ‘इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको’, ‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी’, ‘अब तो बंद करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन’ और ‘तीन दिन, तीन रात’ आदि इसका बेहतरीन प्रमाण हैं। असल में, बात यह है कि नागार्जुन की कविता, जैसा कि कई अन्य महान रचनाकारों की रचनाओं के संबंध में भी कहा गया है, आम पाठकों के लिए सहज है, मगर विद्वान आलोचकों के लिए उलझन में डालने वाली हैं। ये कविताएँ जिनको संबोधित हैं उनको तो झट से समझ में आ जाती हैं, पर कविता के स्वनिर्मित प्रतिमानों से लैस पूर्वग्रही आलोचकों को वह कविता ही नहीं लगती। ऐसे आलोचक उनकी कविताओं को अपनी सुविधा के लिए तात्कालिक राजनीति संबंधी, प्रकृति संबंधी और सौंदर्य-बोध संबंधी आदि जैसे कई खाँचों में बाँट देते हैं और उनमें से कुछ को स्वीकार करके बाकी को खारिज कर देना चाहते हैं। वे उनकी सभी प्रकार की कविताओं की एक सर्वसामान्य भावभूमि की तलाश ही नहीं कर पाते, क्योंकि उनकी आँखों पर स्वनिर्मित प्रतिमानों से बने पूर्वग्रह की पट्टी बँधी होती है। बाबा के लिए कवि-कर्म कोई आभिजात्य शौक नहीं, बल्कि ‘खेत में हल चलाने’ जैसा है। वह कविता को रोटी की तरह जीवन के लिए अनिवार्य मानते हैं। उनके लिए सर्जन और अर्जन में भेद नहीं है। इसलिए उनकी कविता राजनीति, प्रकृति और संस्कृति, तीनों को समान भाव से अपना उपजीव्य बनाती है। उनकी प्रेम और प्रकृति संबंधी कविताएँ उसी तरह भारतीय जनचेतना से जुड़ती हैं जिस तरह से उनकी राजनीतिक कविताएँ। बाबा नागार्जुन, कई अर्थों में, एक साथ सरल और बीहड़, दोनों तरह के कवि हैं। यह विलक्षणता भी कुछ हद तक निराला के अलावा बीसवीं सदी के शायद ही किसी अन्य हिन्दी कवि में मिलेगी! उनकी बीहड़ कवि-दृष्टि रोजमर्रा के ही उन दृश्यों-प्रसंगों के जरिए वहाँ तक स्वाभाविक रूप से पहुँच जाती है, जहाँ दूसरे कवियों की कल्पना-दृष्टि पहुँचने से पहले ही उलझ कर रह जाए! उनकी एक कविता ‘पैने दाँतोंवाली’ की ये पंक्तियाँ देखिए–
बाबा ने अपनी कविताओं का भाव-धरातल सदा सहज और प्रत्यक्ष यथार्थ रखा, वह यथार्थ जिससे समाज का आम आदमी रोज जूझता है। यह भाव-धरातल एक ऐसा धरातल है जो नाना प्रकार के काव्य-आंदोलनों से उपजते भाव-बोधों के अस्थिर धरातल की तुलना में स्थायी और अधिक महत्वपूर्ण है। हालाँकि उनकी कविताओं की ‘तात्कालिकता’ के कारण उसे अखबारी कविता कह कर खारिज करने की कोशिशें भी हुई हैं, लेकिन असल में, यदि एजरा पाउंड के शब्दों में कहें तो नागार्जुन की कविता ऐसी ख़बर (news) है जो हमेशा ताज़ा (new) ही रहती है। वह अखबारी ख़बर की तरह कभी बासी नहीं होती। उनकी कविता के इस ‘टटकेपन’ का कारण बकौल नामवर सिंह ‘व्यंग्य की विदग्धता’ है। नामवर सिंह कहते हैं– 'व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं। ….इसलिए यह निर्विवाद है कि कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ। नागार्जुन के काव्य में व्यक्तियों के इतने व्यंग्यचित्र हैं कि उनका एक विशाल अलबम तैयार किया जा सकता है।' दरअसल, नागार्जुन की कविताओं को अख़बारी कविता कहने वाले शायद यह समझ ही नहीं पाते कि उनकी तात्कालिकता में ही उनके कालजयी होने का राज छिपा हुआ है और वह राज यह है कि तात्कालिकता को ही उन कविताओं में रचनात्मकता का सबसे बड़ा हथियार बनाया गया है। उनकी कई प्रसिद्ध कविताएँ जैसे कि ‘इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको’, ‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी’, ‘अब तो बंद करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन’ और ‘तीन दिन, तीन रात’ आदि इसका बेहतरीन प्रमाण हैं। असल में, बात यह है कि नागार्जुन की कविता, जैसा कि कई अन्य महान रचनाकारों की रचनाओं के संबंध में भी कहा गया है, आम पाठकों के लिए सहज है, मगर विद्वान आलोचकों के लिए उलझन में डालने वाली हैं। ये कविताएँ जिनको संबोधित हैं उनको तो झट से समझ में आ जाती हैं, पर कविता के स्वनिर्मित प्रतिमानों से लैस पूर्वग्रही आलोचकों को वह कविता ही नहीं लगती। ऐसे आलोचक उनकी कविताओं को अपनी सुविधा के लिए तात्कालिक राजनीति संबंधी, प्रकृति संबंधी और सौंदर्य-बोध संबंधी आदि जैसे कई खाँचों में बाँट देते हैं और उनमें से कुछ को स्वीकार करके बाकी को खारिज कर देना चाहते हैं। वे उनकी सभी प्रकार की कविताओं की एक सर्वसामान्य भावभूमि की तलाश ही नहीं कर पाते, क्योंकि उनकी आँखों पर स्वनिर्मित प्रतिमानों से बने पूर्वग्रह की पट्टी बँधी होती है। बाबा के लिए कवि-कर्म कोई आभिजात्य शौक नहीं, बल्कि ‘खेत में हल चलाने’ जैसा है। वह कविता को रोटी की तरह जीवन के लिए अनिवार्य मानते हैं। उनके लिए सर्जन और अर्जन में भेद नहीं है। इसलिए उनकी कविता राजनीति, प्रकृति और संस्कृति, तीनों को समान भाव से अपना उपजीव्य बनाती है। उनकी प्रेम और प्रकृति संबंधी कविताएँ उसी तरह भारतीय जनचेतना से जुड़ती हैं जिस तरह से उनकी राजनीतिक कविताएँ। बाबा नागार्जुन, कई अर्थों में, एक साथ सरल और बीहड़, दोनों तरह के कवि हैं। यह विलक्षणता भी कुछ हद तक निराला के अलावा बीसवीं सदी के शायद ही किसी अन्य हिन्दी कवि में मिलेगी! उनकी बीहड़ कवि-दृष्टि रोजमर्रा के ही उन दृश्यों-प्रसंगों के जरिए वहाँ तक स्वाभाविक रूप से पहुँच जाती है, जहाँ दूसरे कवियों की कल्पना-दृष्टि पहुँचने से पहले ही उलझ कर रह जाए! उनकी एक कविता ‘पैने दाँतोंवाली’ की ये पंक्तियाँ देखिए–
धूप में पसर कर लेटी है मोटी-तगड़ी,
अधेड़, मादा सुअर…
जमना-किनारे मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में पसर कर लेटी है
वह भी तो मादरे हिंद की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनों वाली!
यों,
बीहड़ता कई दूसरे कवियों में भी है, पर इतनी स्वाभाविक कहीं नहीं है। यह
नागार्जुन के कवि-मानस में ही संभव है जहाँ सरलता और बीहड़ता, दोनों
एक-दूसरे के इतने साथ-साथ उपस्थित हैं। इसी के साथ उनकी एक और विशेषता भी
उल्लेखनीय है, जिसे डॉ. राम विलास शर्मा ने सही शब्दों में रेखांकित करते
हुए कहा है– 'नागार्जुन ने लोकप्रियता और कलात्मक सौंदर्य के संतुलन और
सामंजस्य की समस्या को जितनी सफलता से हल किया है, उतनी सफलता से बहुत कम
कवि–हिन्दी से भिन्न भाषाओं में भी–हल कर पाए हैं।'
बाबा की
कविताओं की लोकप्रियता का तो कहना ही क्या! बाबा उन विरले कवियों में से
हैं जो एक साथ कवि-सम्मेलन के मंचों पर भी तालियाँ बटोरते रहे और गंभीर
आलोचकों से भी समादृत होते रहे। बाबा के इस जादुई कमाल के बारे में खुद
उन्हीं की जुबानी यह दिलचस्प उद्धरण सुनिए– 'कवि-सम्मेलनों में बहुत जमते
हैं हम। समझ गए ना? बहुत विकट काम है कवि-सम्मेलन में कविता सुनाना।
बड़े-बड़ों को, तुम्हारा, क्या कहते हैं, हूट कर दिया जाता है। हम कभी हूट
नहीं हुए। हर तरह का माल रहता है, हमारे पास। यह नहीं जमेगा, वह जमेगा।
काका-मामा सबकी छुट्टी कर देते हैं हम….। समझ गए ना?'
उनकी एक अत्यंत प्रसिद्ध कविता ‘अकाल और उसके बाद’ लोकप्रियता और कलात्मक सौंदर्य के मणिकांचन संयोग का एक उल्लेखनीय उदाहरण है।
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
इस
तरह की बाबा की दर्जनों खूबसूरत कविताएँ हैं जो इस दृष्टि से उनके समकालीन
तमाम कवियों की कविताओं से विशिष्ट कही जा सकती हैं। कलात्मक सौंदर्य की
कविताएँ शमशेर ने भी खूब लिखी हैं, पर वे लोकप्रिय नहीं हैं। लोकप्रिय
कविताएँ धूमिल की भी हैं पर उनमें कलात्मक सौंदर्य का वह स्तर नहीं है जो
नागार्जुन की कविताओं में है। बाबा की कविताओं में आखिर यह विलक्षण विशेषता
आती कहाँ से है? दरअसल, बाबा की प्राय: सभी कविताएँ संवाद की कविताएँ हैं
और यह संवाद भी एकहरा और सपाट नहीं है। वह हजार-हजार तरह से संवाद करते हैं
अपनी कविताओं में। आज कविता के संदर्भ में संप्रेषण की जिस समस्या पर इतनी
चिंता जताई जा रही है, वैसी कोई समस्या बाबा की कविताओं को व्यापती ही
नहीं। सुप्रसिद्ध समकालीन कवि केदार नाथ सिंह स्पष्ट रूप से स्वीकार करते
हैं: 'स्वाधीनता के बाद के कवियों में यह विशेषता केवल नागार्जुन के यहाँ
दिखाई पड़ती है….यह बात दूसरे प्रगतिशील कवियों के संदर्भ में नहीं कही जा
सकती।' बाबा की कविताओं की इसी विशेषता के एक अन्य कारण की चर्चा करते हुए
केदार नाथ सिंह कहते हैं कि बाबा अपनी कविताओं में ‘बहुत से लोकप्रिय
काव्य-रूपों को अपनाते हैं और उन्हें सीधे जनता के बीच से ले आते हैं’।
उनकी ‘मंत्र कविता’ देहातों में झाड़-फूँक करके उपचार करने वाले ओझा की
शैली में है।
ओं भैरो, भैरो, भैरो,
ओं बजरंगबली
ओं बंदूक का टोटा, पिस्तौल की नली
ओं डालर, ओं रूबल, ओं पाउंड
ओं साउंड, ओं साउंड, ओं साउंड
ओम् ओम् ओम् ओम्
धरती, धरती, धरती, व्योम् व्योम व्योम्
ओं अष्टधातुओं की ईंटों के भट्ठे
ओं महामहिम, महामहो, उल्लू के पट्ठे
ओं दुर्गा दुर्गा दुर्गा तारा तारा तारा
ओं इसी पेट के अंदर समा जाए सर्वहारा
हरि: ओं तत्सत् हरि: ओं तत्सत्
जाहिर
है बाबा नागार्जुन उस लोक के कवि हैं जो इस समाज का धरातल है जिसके ऊपर
चल कर एक आभिजात और भव्य-लोक स्थापित होता है और वह धरा को भूलने लगता है।
बाबा की कविता की भाव-भूमि मिट्टी में सने किसान हैं, मजदूर हैं, भिखारी और
औघड़ मनुष्य हैं, लोक नारियां हैं और चिहुंकते कलकत्ते बच्चे हैं फिर यह धरा
तो है ही।
सम्पर्क-
शैलेन्द्र चौहान |
सम्पर्क-
34/242, सेक्टर -3,
प्रताप नगर,
जयपुर - 302033
(राजस्थान)
मोबाईल - 07838897877
प्रताप नगर,
जयपुर - 302033
(राजस्थान)
मोबाईल - 07838897877
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शनिवार (01-07-2017) को
जवाब देंहटाएं"विशेष चर्चा "चिट्टाकारी दिवस बनाम ब्लॉगिंग-डे"
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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