मनोरंजन कुमार तिवारी की कविताएँ
मनोरंजन कुमार तिवारी |
स्त्रियों के प्रति पुरुषों की तमाम बनी-बनायी अवधारणायें प्राचीन समय से ही चली आ रही हैं. इसी बिना पर वह उस स्त्री को नैतिक मान बैठता है जो उसके प्रतिमानों पर खरा उतरती हैं, जब कि उस स्त्री को अनैतिक, कुलटा और न जाने क्या-क्या उपाधियाँ देने लगता है जो उसके प्रतिमानों के इतर जा कर कोई काम करती हैं. पुरुषों को इस मामले में जैसे एकाधिकार मिला हुआ है कि वे अपने अनुसार स्त्रियों के स्तर को तय कर सकते हैं और इस मामले में स्त्रियाँ उनकी बात मानने के लिए जैसे बाध्य हैं. पितृसत्तात्मक समाज धार्मिक सत्ताओं के मार्फत यह काम आसानी से करता रहा है. वे धार्मिक सत्ताएँ जो कहीं पर स्त्री को 'नरक की खान' के रूप में देखती हैं तो कहीं पर 'पुरुषों के गुलाम' के रूप में मानती हैं. कवि पुरुषों की इस चालाक नजर को कवि परखता है और इसे अपनी कविता में दर्ज करता है. वह कवि जो स्वयं उस पुरुष वर्ग से है जिसके पास स्त्रियों के संदर्भ में पूर्वग्रह-ग्रसित और बनी-बनायी अवधारणायें हैं. लेकिन उसका कवि उसे वह संवेदना प्रदान करता है जो पुरुषवादी नजरिये को तार-तार कर के हमारे सामने रख देता है. युवा कवि मनोरंजन कुमार तिवारी अपनी कविता 'चरित्रहीन' के जरिए उस सत्य को उद्घाटित करते हैं जो हमारी पुरुषवादी दुनिया के विचारों का सार्वभौम सत्य है. मनोरंजन की कविताएँ सच के प्रति उम्मीद जताती हैं. हालाँकि इस कवि के पास अपना शिल्प विकसित करने की एक चुनौती है. लेकिन खुशी की बात है कि कवि जिस डगर पर चल पड़ा है उसमें असीम संभावनाएँ और उम्मीदें हैं. तो आइए आज 'पहली बार' ब्लॉग पर पढ़ते हैं युवा कवि मनोरंजन कुमार तिवारी की कुछ नयी कविताएँ.
मनोरंजन कुमार तिवारी की कविताएँ
खो
गई है मेरी कविताएँ कहीं
ढूंढ रहा हूँ अपनी कविताओं को,
भाड़े के कमरे के कोने-कोने में,
जहाँ कमरे के बाहर खोले गए चप्पलों की संख्या के हिसाब से,
बढ़ जाता है किराया हर माह,
ढूँढ रहा हूँ अपनी कविताओं को,
चावल, दाल और आटे के खाली कनस्तरों में,
बेटी के दूध के बोतल में,
जिसमें तीन-चौथाई पानी मिला है,
ढूँढ रहा हूँ अपनी कविताओं को,
पत्नी की बेबश आँखों में,
माँ की कराहों में,
ढूंढ रहा हूँ अपनी कविताओं को,
भाड़े के कमरे के कोने-कोने में,
जहाँ कमरे के बाहर खोले गए चप्पलों की संख्या के हिसाब से,
बढ़ जाता है किराया हर माह,
ढूँढ रहा हूँ अपनी कविताओं को,
चावल, दाल और आटे के खाली कनस्तरों में,
बेटी के दूध के बोतल में,
जिसमें तीन-चौथाई पानी मिला है,
ढूँढ रहा हूँ अपनी कविताओं को,
पत्नी की बेबश आँखों में,
माँ की कराहों में,
"साहब" की गुर्राहटों
में,
परिजनों के रहमहीन उद्गारों में,
ढूँढ रहा हूँ अपनी कविताओं को,
कुछ भूले-बिसरे दोस्तों के साथ गुजारी उन खुबसूरत पलों में,
(जो गलती से भी मय्सर नहीं होती अब एक पल के लिए भी)
अभी-अभी तो दिखी थीं कविताएँ,
जब सोच रहा था उसकी बातें,
जो कभी मेरी हर ख़ुशी की वजह हुआ करती थी,
उसकी निश्छल मुस्कुराहटों में,
गुम हो जाते थे हर गम और दुःख की छाया भी,
पर बदले हलात में बदली उसकी मुस्कुराहटों में,
गुम हो गई मेरी कविताएँ फिर से,
ढूढ़ रहा हूँ अपनी कविताएँ,
परिजनों के रहमहीन उद्गारों में,
ढूँढ रहा हूँ अपनी कविताओं को,
कुछ भूले-बिसरे दोस्तों के साथ गुजारी उन खुबसूरत पलों में,
(जो गलती से भी मय्सर नहीं होती अब एक पल के लिए भी)
अभी-अभी तो दिखी थीं कविताएँ,
जब सोच रहा था उसकी बातें,
जो कभी मेरी हर ख़ुशी की वजह हुआ करती थी,
उसकी निश्छल मुस्कुराहटों में,
गुम हो जाते थे हर गम और दुःख की छाया भी,
पर बदले हलात में बदली उसकी मुस्कुराहटों में,
गुम हो गई मेरी कविताएँ फिर से,
ढूढ़ रहा हूँ अपनी कविताएँ,
उसकी यादों के समंदर में।
चरित्रहीन
साँवली काया, भरा- भरा,
चेहरे पर मेहनत की चमक,
रौनक से लबरेज़,
वो लम्बी सी सब्जी वाली,
सर पर टोकरी रखे,
घर-घर जा कर बेचती है मौसमी फल और सब्जियाँ,
घर के अंदर तक चली जाती है,
माँ जी, चाची, दीदी, बीबी जी पुकारती,
छोटे बच्चे, उसे देखते ही झूम उठते है,
क्योंकि, शायद सीखा नहीं उसने,
मुस्कुराहटों की कीमत वसूलना,
यों ही कुछ तरबूज़ के छोटे-छोटे-टुकड़ों से,
खरीद लेती है टोकरी भर कर खिलखिलाहटों को,
कभी आंगन में, कभी ड्योढ़ी पर,
वो लम्बी सी सब्जी वाली,
सर पर टोकरी रखे,
घर-घर जा कर बेचती है मौसमी फल और सब्जियाँ,
घर के अंदर तक चली जाती है,
माँ जी, चाची, दीदी, बीबी जी पुकारती,
छोटे बच्चे, उसे देखते ही झूम उठते है,
क्योंकि, शायद सीखा नहीं उसने,
मुस्कुराहटों की कीमत वसूलना,
यों ही कुछ तरबूज़ के छोटे-छोटे-टुकड़ों से,
खरीद लेती है टोकरी भर कर खिलखिलाहटों को,
कभी आंगन में, कभी ड्योढ़ी पर,
तो कभी उस मर्दों की बैठको में,
रखवाई जाती है, उसकी टोकरी,
वे मर्द, जो रखते है गिद्ध-दृष्टि,
अपने ही मोहल्ले के रिश्ते में लगती बहन, बेटियों पर,
वे मर्द, जो टटोलते है अपनी नजरों से उम्र के निशां,
अपने ही आँखों के सामने पैदा हुई लड़कियों के,
वे मर्द, जो रखते है, चौकस खबर,
ऐसी ही किसी लड़की के छोटी-मोटी
नाज़ुक उम्र की नादानियों पर,
ताकि साबित कर चरित्रहीन, बदनामी का डर दिखा,
बना सके रास्ता,
अपनी कुत्सित, विकृत कामनाओं को पूरा करने का,
ऐसे ही मर्द रखवाते है,
टोकरी उस सब्जी वाली का,
पूछते है भाव,
"कितने में दोगी"
हँस कर बोलती है वह,
किलो का आठ रुपया बाबू जी, चावल-गेहूँ से बराबर,
ठीक है, पहले टेस्ट कराओ,
माल अच्छा होगा तो, मुँहमाँगी कीमत वसूल लेना,
फिर हँसती है वह और,
काट कर छोटा-छोटा टुकड़ा तरबूज़ पकड़ाती है,
हाथ उठाते समय,
उन नजरों के लक्ष्य को भी बचाती है,
जानती है उन सभी शब्दों के मतलब,
फिर भी मुस्कुराती है,
शायद इसीलिए, कुछ लोग उसे चरित्रहीन कहते है,
पर लोग नहीं देख पाते,
भय से आतंकित उसके हृदय को,
उसके चेहरे को,
जो शाम ढलते-ढलते बनावटी हँसी, हँसते-हँसते,
थक चुके होते है,
और फिक्र से अच्छादित,
लम्बे-लम्बे- डग भरती,
अपने भूखे बच्चों और खेत से लौटे पति के पास,
क्षण भर में पहुँच जाने की आतुरता,
दिखती है,
इस चरित्रहीन के आँखों में।
रखवाई जाती है, उसकी टोकरी,
वे मर्द, जो रखते है गिद्ध-दृष्टि,
अपने ही मोहल्ले के रिश्ते में लगती बहन, बेटियों पर,
वे मर्द, जो टटोलते है अपनी नजरों से उम्र के निशां,
अपने ही आँखों के सामने पैदा हुई लड़कियों के,
वे मर्द, जो रखते है, चौकस खबर,
ऐसी ही किसी लड़की के छोटी-मोटी
नाज़ुक उम्र की नादानियों पर,
ताकि साबित कर चरित्रहीन, बदनामी का डर दिखा,
बना सके रास्ता,
अपनी कुत्सित, विकृत कामनाओं को पूरा करने का,
ऐसे ही मर्द रखवाते है,
टोकरी उस सब्जी वाली का,
पूछते है भाव,
"कितने में दोगी"
हँस कर बोलती है वह,
किलो का आठ रुपया बाबू जी, चावल-गेहूँ से बराबर,
ठीक है, पहले टेस्ट कराओ,
माल अच्छा होगा तो, मुँहमाँगी कीमत वसूल लेना,
फिर हँसती है वह और,
काट कर छोटा-छोटा टुकड़ा तरबूज़ पकड़ाती है,
हाथ उठाते समय,
उन नजरों के लक्ष्य को भी बचाती है,
जानती है उन सभी शब्दों के मतलब,
फिर भी मुस्कुराती है,
शायद इसीलिए, कुछ लोग उसे चरित्रहीन कहते है,
पर लोग नहीं देख पाते,
भय से आतंकित उसके हृदय को,
उसके चेहरे को,
जो शाम ढलते-ढलते बनावटी हँसी, हँसते-हँसते,
थक चुके होते है,
और फिक्र से अच्छादित,
लम्बे-लम्बे- डग भरती,
अपने भूखे बच्चों और खेत से लौटे पति के पास,
क्षण भर में पहुँच जाने की आतुरता,
दिखती है,
इस चरित्रहीन के आँखों में।
अकविता
नहीं.....
नहीं लिख सकता मैं कोई कविता,
जब भी लिखूँगा, आवेग ही लिखूँगा,
कोरी, झूठी, बनावटीपन के सरोकारों को लिखते हुए,
अँगुलियाँ काँपने लगती है मेरी,
मेरे अंदर में बैठा कोई,
आ कर मेरे सामने बैठ जाता है,
धिक्कारने लगता है मुझे,
छंद—राग और तुकबंदी मिलते देख,
ठहाका लगा कर हँसता है और
हिक़ारत की नजरों से देखता हुआ कहता है,
"क्यों तू भी कवि बन गया ना?"
बुज़दिल.....क़ायर.....अकर्मण्य।
नहीं.....
नहीं लिख सकता मैं कोई कविता,
जब भी लिखूँगा, आवेग ही लिखूँगा,
कोरी, झूठी, बनावटीपन के सरोकारों को लिखते हुए,
अँगुलियाँ काँपने लगती है मेरी,
मेरे अंदर में बैठा कोई,
आ कर मेरे सामने बैठ जाता है,
धिक्कारने लगता है मुझे,
छंद—राग और तुकबंदी मिलते देख,
ठहाका लगा कर हँसता है और
हिक़ारत की नजरों से देखता हुआ कहता है,
"क्यों तू भी कवि बन गया ना?"
बुज़दिल.....क़ायर.....अकर्मण्य।
मेरी
कविता
एक कदम बढाते ही,
भरभरा कर बिखर जाती है कविता,
स्वार्थांधता, क्षोभ और अहंकार से,
सहम जाती है कविता,
ईर्ष्या, कड़वाहट और जीवन के विषमताओं के अँधेरे में,
भटक जाती है कविता,
कविता, जो अब रही ही ना मुझ में,
किसी ने बड़ी बेरहमी से,
निचोड़ ली मेरे अंतस की सारी कविताएं,
और छोड़ दिया मुझे अकेले जीवन के महासमर में,
सहने को अनन्त यातनाएं,
अब कानों में यों ही किसी के फुसफुसाने की आवाज नहीं आती,
ना कोई परिचित गंध, सांसों से आ कर टकराती है,
अब तो अनगिनित शोर, संतापों और प्रताड़नाओं के,
नीचे दफन हो जाती है कविता,
कितनी कोशिशें करता हूँ कि,
संजो कर, सहेज कर रख सकूँ उन सारे अक्षरों को,
जो मुस्कुराहट भरते है, मेरी कविताओं में,
मगर आत्म-ग्लानि और पश्चाताप के आँसुओं में,
बह जाती है कविता,
लाख जतन करता हूँ कि,
मुरझाने से बचा लूँ अपनी कविता को,
मगर भय, भूख और दरिद्रता के लू में,
झुलस जाती है कविता।
भूल जाती हूँ मैं
अक्सर मेरे शिकायत करने पर बोलती है,
समझो ना तुम,
सच बोल रही हूँ,
भूल जाती हूँ मैं................
और मैं तड़प कर मूर्छित सा हो जाता हूँ,
कैसे कोई भूल सकता है,
अपने दिल-ए-अज़ीज को?
कैसे भूल सकती है वो,
कोई बात जो मुझसे जुडी हो?
कैसे भूल सकती है वो उसे,
कहती है, अपना
सबसे अच्छा दोस्त जिसे,
साझा करती है, हर छोटी-बड़ी बातें जिस से,
पर पहनता हूँ जब उसका आवरण,
बन जाता हूँ एक लड़की,
तो महसूस करता हूँ,
एक लड़की,
जो महानगर की भीड़ में,
खुद को बचाए रखने को कर रही है ज़दोजहद,
जो अपना पाँव जमाए रखने को कर रही है नित-संघर्ष,
ताकि जी सके अपने सपने को,
पूरा कर सके अपने अरमान,
कर सके कुछ सार्थक,
बना सके अपनी पहचान,
और इसके लिए मिलती है रोज अनेको लोगों से,
जैसे मिलती है मुझ से,
सब उससे वैसे ही करते है बातें,
जैसे करता हूँ मैं उससे,
वो सबको बताती है अपना सबसे अच्छा
दोस्त,
दे देती है अपना हाथ सबके हाथ में,
और सब पकड़ते भी है उसके हाथ को,
पर किसी एकांत जगह को ले जाने के लिए,
कोई नहीं पकड़ता उसका हाथ,
जीवन भर निभाने के लिए,
और सालों से चलता रहा है ऐसा ही,
अब उसे आदत हो गई है,
और सबके चेहरे उसे एक से ही दिखते है,
सबकी बातें एक सी ही लगती है,
तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है,
कि मुझे और मेरी कही बातों को भूल जाती है।
इस तरह खुद को बचा के रख लूँगा
दर्द नहीं ख़ुशी लिखूँगा,
आँसू नहीं मुस्कान लिखूँगा,
बेरुख़ियों, बदकिस्मतों से झुलसता जीवन नहीं,
स्नेह, सहभागिता की छाया से मिली शीतलता लिखूँगा,
लिखूँगा जीवन को,
महफिलों की रौनक लिखूँगा,
दोस्तों के ठहाकों को, उनकी महक लिखूँगा,
आत्मग्लानि, अफ़सोस और संताप नहीं लिखूँगा,
जीत का जश्न और संभावनाओं का आकाश लिखूँगा,
मैं तन्हाइयों की उबासी नहीं लिखूँगा,
सफर की उदासी भी ना लिखूँगा,
मै प्यास नहीं, तृप्ति लिखूँगा,
देह और दौलत की अभिव्यक्ति लिखूँगा,
मैं वियोग नहीं, संजोग लिखूँगा,
विरह गीत नहीं,
मिलन क़ी सुमधुर संगीत लिखूँगा,
मैं अपनी उदासियों को,
निराशा और हताशा को नहीं लिखूँगा,
मैं उम्मीद क़ी लौ, आशा क़ी नई किरण लिखूँगा,
इस तरह जो नहीं लिखूंगा,
बचा कर रख लूँगा ख़ुद के गाढे वक़्त के लिए,
किसी अमूल्य धरोहर के रूप में,
छुपाये रखूंगा सारा आक्रोश,
आंदोलन और विद्रोह को ख़ुद के भीतर ,
इस तरह ख़ुद को बचाये रखूँगा।
आँसू नहीं मुस्कान लिखूँगा,
बेरुख़ियों, बदकिस्मतों से झुलसता जीवन नहीं,
स्नेह, सहभागिता की छाया से मिली शीतलता लिखूँगा,
लिखूँगा जीवन को,
महफिलों की रौनक लिखूँगा,
दोस्तों के ठहाकों को, उनकी महक लिखूँगा,
आत्मग्लानि, अफ़सोस और संताप नहीं लिखूँगा,
जीत का जश्न और संभावनाओं का आकाश लिखूँगा,
मैं तन्हाइयों की उबासी नहीं लिखूँगा,
सफर की उदासी भी ना लिखूँगा,
मै प्यास नहीं, तृप्ति लिखूँगा,
देह और दौलत की अभिव्यक्ति लिखूँगा,
मैं वियोग नहीं, संजोग लिखूँगा,
विरह गीत नहीं,
मिलन क़ी सुमधुर संगीत लिखूँगा,
मैं अपनी उदासियों को,
निराशा और हताशा को नहीं लिखूँगा,
मैं उम्मीद क़ी लौ, आशा क़ी नई किरण लिखूँगा,
इस तरह जो नहीं लिखूंगा,
बचा कर रख लूँगा ख़ुद के गाढे वक़्त के लिए,
किसी अमूल्य धरोहर के रूप में,
छुपाये रखूंगा सारा आक्रोश,
आंदोलन और विद्रोह को ख़ुद के भीतर ,
इस तरह ख़ुद को बचाये रखूँगा।
नियति
बोझिल आँखों के पलकों पर,
लटके, तुम्हारे यादों के काले बादल,
झर-झर, झरते नहीं, बरसते नहीं,
बस दुखते है,
पल-पल हर-पल,
मौसम बदलते रहता है,
पर इन आँखों के बादल छँटते नहीं,
हटते नहीं एक पल के लिये भी,
अब जब कि तुम भी ऐसा समझने लगी हो कि,
मैं जो कुछ भी कहता हूँ/ लिखता हूँ,
वो सब मेरी कविताओं के हर्फ़ होते है,
मेरे पलकों पर मँडराते ये काले बादल,
बरसने का हक भी खो देते है,
और अब ये लगता है कि,
बिन बरसे ही रह जाना, इन की नियति बन गई है।
बोझिल आँखों के पलकों पर,
लटके, तुम्हारे यादों के काले बादल,
झर-झर, झरते नहीं, बरसते नहीं,
बस दुखते है,
पल-पल हर-पल,
मौसम बदलते रहता है,
पर इन आँखों के बादल छँटते नहीं,
हटते नहीं एक पल के लिये भी,
अब जब कि तुम भी ऐसा समझने लगी हो कि,
मैं जो कुछ भी कहता हूँ/ लिखता हूँ,
वो सब मेरी कविताओं के हर्फ़ होते है,
मेरे पलकों पर मँडराते ये काले बादल,
बरसने का हक भी खो देते है,
और अब ये लगता है कि,
बिन बरसे ही रह जाना, इन की नियति बन गई है।
जीवन-रोशनी
लौट जाती है, होठों तक आ कर वो हर मुस्कुराहट,
जो तुम्हारे नाम होती है,
जो कभी तुम्हारी याद आते ही कई इंच चौड़ी हो जाया करती थी,
उन्मुक्त हँसी, बेपरवाह और बेबाक बातें,
करना तो शायद मैं अब, भूल ही चुका हूँ,
बार-बार जाता हूँ, उस घास में मैदान में,
और ढूँढता हूँ, अपने जीवन की वो तमाम स्वच्छंदता,
जो तुमसे मिलते ही पूरे माहौल में फै़ल जाया करती थी,
मेरी आँखें चमकने लगती थीं रोशनी से,
और ज़ुबां पर ना जाने कहाँ से आ जाते थे,
वो तमाम किस्से मेरे जीवन के,
जो तुम्हे बताने को आतुर रहता था मैं अक्सर,
हर अंग में स्फूर्ति जग जाती थी,
जैसे पंख मिल गये हो,
जो तुम्हारे नाम होती है,
जो कभी तुम्हारी याद आते ही कई इंच चौड़ी हो जाया करती थी,
उन्मुक्त हँसी, बेपरवाह और बेबाक बातें,
करना तो शायद मैं अब, भूल ही चुका हूँ,
बार-बार जाता हूँ, उस घास में मैदान में,
और ढूँढता हूँ, अपने जीवन की वो तमाम स्वच्छंदता,
जो तुमसे मिलते ही पूरे माहौल में फै़ल जाया करती थी,
मेरी आँखें चमकने लगती थीं रोशनी से,
और ज़ुबां पर ना जाने कहाँ से आ जाते थे,
वो तमाम किस्से मेरे जीवन के,
जो तुम्हे बताने को आतुर रहता था मैं अक्सर,
हर अंग में स्फूर्ति जग जाती थी,
जैसे पंख मिल गये हो,
मुझे अनंत आसमान में उड़ने के लिये......
अब नहीं होता कुछ भी ऐसा,
जैसे जंग लग गये हो, मेरे हर अंग में,
ज़ुबां पर कुछ आते ही ठहर जाता हूँ,
तुम अक्सर कहा करती थी ना कि,
बोलने से पहले सोचा करो,
सिर्फ यही एक इच्छा पूरी की है मैने तुम्हारी,
अब जब कि तुम साथ नहीं हो,
आँखों की चमक और रोशनी गुम होने लगी है,
अनजाने डर व आशंकाओं की परछाइयों में उलझ कर,
अब उड़ने को पंख नहीं, पैरों से चलता हूँ,
अपने ही अस्तित्व का भार उठाये,
मेरे कंधे झुक जाते है,
जैसे सहन नहीं कर पा रहे है जीवन का भार,
आँखें हर व़क्त जमीं में गड़ी रहती है,
जैसे ढूँढ रही हो कोई निशान,
जो उन राहों पर चलते हुए हमने कभी छोड़ा था,
अब धूप में, चेहरे की रंगत उड़ जाने का डर नहीं होता,
और छाया भी दे नहीं पाती ठंडक तन को,
कानों में कभी तुम्हारी अवाज़ गूँज जाती है,
जैसे पुकार रही हो तुम, मुझे पीछे से,
ठहर जाता हूँ कुछ पल के लिये,
देखता हूँ, मुड़ कर पीछे, मगर वहाँ कोई नहीं होता,
दूर, बहुत दूर जहाँ मेरी आँखों की रोशनी
बमुश्किल पहुँच पाती है,
एक अस्पष्ट सी छाया नज़र आती है,
देखती है मुझे और ठठा कर हँसती है,
जैसे व्यंग कर रही हो मुझ पर,
फिर अचानक रुक जाती है,
पोछती है अपने आँचल से वे आँसू के बूँदे,
जो उसके गालों पर लुढ़क आते है,
अब नहीं होता कुछ भी ऐसा,
जैसे जंग लग गये हो, मेरे हर अंग में,
ज़ुबां पर कुछ आते ही ठहर जाता हूँ,
तुम अक्सर कहा करती थी ना कि,
बोलने से पहले सोचा करो,
सिर्फ यही एक इच्छा पूरी की है मैने तुम्हारी,
अब जब कि तुम साथ नहीं हो,
आँखों की चमक और रोशनी गुम होने लगी है,
अनजाने डर व आशंकाओं की परछाइयों में उलझ कर,
अब उड़ने को पंख नहीं, पैरों से चलता हूँ,
अपने ही अस्तित्व का भार उठाये,
मेरे कंधे झुक जाते है,
जैसे सहन नहीं कर पा रहे है जीवन का भार,
आँखें हर व़क्त जमीं में गड़ी रहती है,
जैसे ढूँढ रही हो कोई निशान,
जो उन राहों पर चलते हुए हमने कभी छोड़ा था,
अब धूप में, चेहरे की रंगत उड़ जाने का डर नहीं होता,
और छाया भी दे नहीं पाती ठंडक तन को,
कानों में कभी तुम्हारी अवाज़ गूँज जाती है,
जैसे पुकार रही हो तुम, मुझे पीछे से,
ठहर जाता हूँ कुछ पल के लिये,
देखता हूँ, मुड़ कर पीछे, मगर वहाँ कोई नहीं होता,
दूर, बहुत दूर जहाँ मेरी आँखों की रोशनी
बमुश्किल पहुँच पाती है,
एक अस्पष्ट सी छाया नज़र आती है,
देखती है मुझे और ठठा कर हँसती है,
जैसे व्यंग कर रही हो मुझ पर,
फिर अचानक रुक जाती है,
पोछती है अपने आँचल से वे आँसू के बूँदे,
जो उसके गालों पर लुढ़क आते है,
फिर गुम हो जाती है वो छाया भी
जैसे गुम हो गयी थी तुम कभी।
जैसे गुम हो गयी थी तुम कभी।
सम्पर्क -
स्थायी पता
पुत्र श्री कामेश्वर नाथ तिवारी
गाँव:- भद्वर, जिला- बक्सर, बिहार
वर्तमान पता -
1096-A, हाऊसिंग
कॉलोनी,
सेक्टर-31, गुडगाँव
मोबाइल न.- 9899018149
Email ID- manoranjan.tk@gmail.com(इस पोस्ट की पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
हार्दिक धन्यवाद भैया
जवाब देंहटाएंबढ़िया कविताएँ बधाई मनोरंजन भाई
जवाब देंहटाएंतहे दिल से धन्यवाद भाई Shiv Tripathi ji
हटाएंधन्यवाद भाई Dilbag Virk ji....
जवाब देंहटाएं