केशव तिवारी की कविताएं

 





केशव तिवारी अपनी ढब के अलग तरह के कवि हैं। स्थानीयता को सार्वभौमिक बनाने की कला में उनका जवाब नहीं। कवि का मिट्टी से कुछ इस तरह का जुड़ाव है जैसे जीवन का सांसों की डोर से। इसीलिए उनकी कविता में सहज ही ऐसे शब्द आते हैं जो देशीयता की सुगन्ध भरपूर लिए हुए होते हैं। वे शब्द जिनके साथ हमारा अतीत जुड़ा है और दुर्भाग्यवश आज जो गुमशुदा से होते जा रहे हैं। आज जब कवि और उनकी कविताएं जैसे एकरूपता का शिकार हो गई हैं, केशव आज के उन विरल कवियों में से एक हैं जिनकी कविता पढ़ कर कवि को आसानी से पहचाना जा सकता है। हाल ही में हिंदगुग्म प्रकाशन से उनका नया संग्रह प्रकाशित हुआ है 'नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा'। संग्रह से इन कविताओं का चयन किया है कविता के उम्दा पारखी सुधीर सिंह ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं केशव तिवारी की कविताएं।


केशव तिवारी की कविताएं



चैत है कि जंग लगी कटार


जिसे बिल्ली काट गई 

कल पता चला 

उसके ठीक दाहिने कोने 

खड़ा एक उम्रदराज गुलमोहर 

इस चैत के आते ही चला गया जीवन-संगीत 

किसी जोगी की झाँझ की तरह बज रहा था


हर बात में मिट्टी की क़सम खाने वाले किसान 

आखिरकार मिट्टी में ही मिल रहे थे 

भाँड थे मिरासी थे 

सूअर थे भेड़िए थे 

कवि थे कीर्तनिए थे 

सबसे तेज गाड़ी में बैठने के 

इंतजार में प्रेमिकाएँ थीं


हाँ, उनकी आँखों में अपने ठहरे सहमे 

प्रेमियों का दर्द भी था 

इसे कह सकते हैं 

चैत की एक जंग लगी कटार 

भीतर तक भुकी हुई



अकाल


धरती का दुख है यह 

परती का दुख


मिट्टी का दुख है 

पानी का दुख


भाषा से कहो 

बड़े अदब से जाए इनके पास 

विचार तो बहुत ही सतर्क होकर


तालों से लटक रहा है सन्नाटा 

पास से ही कहीं आ रही है 

बाघ की भी दुर्गंध



सितार 


अक्सर इन दिनों 

एक उतरा तार 

सितार 

लगती है दुनिया 


सितारिया का भी हाल 

ठीक न हो शायद 


वरना कोई गुनी

इस हाल में कैसे 

छोड़ सकता है 

सितार



धसान 


तुम चलते चलते रोक ली गई

लहचूरा बाँध में


तुम्हारी गति रोक दी गई

छटपटाहट तुम्हारे तटबंध ही

महसूस कर सकते हैं


चंबल की घाटियों में

तुम्हारा विचरना 

तुम्हारी बाँकी चाल


बुंदेलखंड की प्यास से तुम्हारा 

क्या रिश्ता है


पुराणों की दशार्ण 

हमारी धसान

हमारे रक्त

हमारी जिह्वा में घुला है-

तुम्हारा नमक

हमारे प्यासे कंठ जानते हैं

तुम बुंदेलखंड के चंबल के प्यासे बीहड़ की आड़ थीं


जिस वाम दिशा से बेतवा से मिलती हो तुम

मैं उसी दिशा की ओर मुँह किए

तुम्हें निहारता हूँ


किस अगस्त का शाप लगा

तुमको धसान?



आग और आवाज़


इस सर्दी की शुरुआत में 

मैं पलाश के जंगलों से गुजरा


मैं आग के फूल देखने लगा 

उनके ओस खाए पेड़ों पर


बिना उन फूलों के 

मैं पलाश की कल्पना भी नहीं कर सकता


कभी-कभी मुझे ऐसा ही लगता है 

मनुष्य के बारे में भी


उसकी उसी आवाज़ को खोजता हूँ उसमें 

जिसे छोड़ अलग होता हूँ


ये पेड़ और मनुष्य का मामला नहीं 

आग और आवाज का मसला है






दुख आएगा


खड़े खेत में 

मस्त साँड-सा कुदराएगा 

दुख आएगा


साफ़ी बाँधे लट्ठ लिए 

हम भी मिलेंगे खुल्ले में 

चौड़े से


बिना इसके 

कोई तर्क 

न काम आएगा


दुख आएगा 

पर 

उल्टे पाँव लौट जाएगा



एक मुल्क था


सब साथ थे पर

सबके अपने इंतज़ार थे


कुछ पेड़ों को बारिश का था

कुछ फूलों को शरद की

अलसाई सुबह का


एक शराबी पुलिया पर बैठा

शिकायत कर रहा था

कहीं भी राहत नहीं

उसे भी किसी ख़ास शाम का 

इंतज़ार था


वे लोग जो बीमार मुलुक में

दो जून की रोटी और दवाई चाहते 


वे प्रेमी जो खुली हवा के लिए

कब से तड़प रहे थे

उन्हें भी इंतज़ार था


इंतज़ार की रस्सी में लटका

एक मुल्क था

जिसे बस एक नट के इशारे का

इंतज़ार था।



पुकार 


यह पुकार की बेकली थी

कि पत्तों के पुल से ही

पार कर आया मैं


अब सोच रहा हूँ

क्या छूट गया उस पार

कि बूड़ा नहीं मैं।



कुछ सुन रहे हो


पूष के कोहरे में 

केन के छुलछुलिया घाट पर 

भोर का सूरज देखने बैठा हूँ


बस पांव पांव आ गई है नदी 

उस पार से सुनाई पड़ रही है हलचल

बीच नदी तक आते आते 

दिखी एक स्त्री


गोद में लिए बकरी का बच्चा

और अपने बच्चे की ऊँगली पकड़े 

वह पार कर रही थी नदी


एक अदभुत दृश्य था मेरे सामने 

किनारे आते ही पूछ बैठा मैं

कि बकरी के बच्चे को भी तो 

वह पैदल पार करा सकती थी नदी


समेटते हुए अपनी चादर वह बोली

साहब बकरी का बच्चा अभी गभुहार है


मैं सन्न था सुन कर 

गंछा गाँव की उम स्त्री का जवाब


बुद्ध तुम भी सुन रहे हो न

क्या कह रही है यह स्त्री।






विदा


जिसने भी विदा ली 

फिर आने को कह गया 

दुख भी 

इसी वादे के साथ विदा हुआ


वह तमाम सुंदरताओं और वनस्पतियों के 

विलुप्त होने का वक़्त था 

और हमारी वादामाफ़ गवाही का


हम अपने-अपने दरवाजों के घुन थे 

हम ललकार में छिपी 

यातना के स्वर थे 

हम खेत में खड़े धोखार थे हम गोठिल हो चुकी 

हँसिया की धार थे


हम जो नहीं थे 

उसी का भ्रम थे



नदी का मर्सिया तो पानी ही गाए‌गा


आज फिर महसूस हो रहा है 

कठुआ के पुल पर नंगे तलवों का स्पर्श


छिले बदन सरपत के जंगलों में 

खरगोश पकड़ता एक बच्चा

कितना सयाना हो गया 


यह सरपतों से नहीं छिलवाना 

चाहता अपना बदन


सिर्फ अनुभूतियों को सहला रहा है


उसके बचपन की उजली साफ नदी सई

जिसमें हाथ छुड़ा कर वह अक्सर 

दहान में उतर जाता था 

लंगड़ाती कलझती दम तोड़ती सई का दर्द 

न तो बेल्हा माई की घंटियों में है

न सांई की कुटी से उठती 

चिलम की लपट में दिखता है 

उसका चेहरा


नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा 


वह आज काली पड़ चुकी है


मनिहारपुर के घाट के पत्थरों पर 

उन औरतों की बिवाई फटी एड़ियों के 

घिसने के निशान खोज रहा है वह


चतुर कवि तो कविता में गाल बजाएगा 

नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा 



जोग 


एक लड़की कह रही है 

जोगी लो अपना सीधा पानी

और यहां से कहीं दूर चले जाओ 

तुम्हें सुन-सुन रोती है मेरी मााँ


लड़की क्या जाने 

मां के मन का कौन-सा तार

जोगी की सारंगी के 

किस तार से जुड़ा है


एक आवाज़ की तड़प 

सुरों की बेचैनी के साथ 

लौट  रहा है जोगी


जोगी जानता है 

जागे हुए सुरों के साथ 

पूरी जिंदगी  जागना पड़ता है


जोग में हारा या जीता नहीं 

 जिया जाता है 


लड़की अभी बच्ची है 

जब उसके सपनों में 

कोई उदास सारंगी का सुर लहराएगा 


उसे दरवाज़े से लौटता हुआ 

जोगी ज़रूर याद आएगा।



जब सब पवित्र लोग


एक कवि कहाँ जाएगा 

मरने के बाद भी


इन्हीं पहाड़ी, जंगलों, झरनों 

अपने लोगों के बीच 

अलमस्त गड़रिये-सा घूमता मिलेगा


जब सब पवित्र लोग 

फिर किसी नूह की नाव पर 

बैठने की जल्दी में होंगे 

वह किसी नदी किनारे बैठ 

सब देख-देख मुस्कुराएगा


एक कवि कहाँ जाएगा!



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



केशव तिवारी 



सम्पर्क


मोबाइल : +918303924723





टिप्पणियाँ

  1. खूब बढ़िया और प्रभावकारी प्यारी कविताएं।

    जवाब देंहटाएं
  2. यथार्थ के क़रीब कविताएं,मर्म को छूती हुई 👍
    http://vivekoks.blogspot.com/2024/02/blog-post_23.html

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं