ख़ान मोहम्मद सिंध की अफगान कहानी 'तमाशा'

 

रोजमर्रा का काम करने वाले लोगों की अपनी मुश्किलें होती हैं। ऐसा आदमी रोज अपने लिए और अपने घर परिवार के लिए जद्दोजहद करता है। लेकिन उसकी मुश्किलें कम नहीं होतीं। नौकरशाही की संवेदनशून्यता इन मुश्किलों को और भी पेचीदा बना देती है। वैसे भी नौकरशाही का चेहरा काफी कुछ उस पूंजीवाद से मिलता जुलता होता है जिसके यहां संवेदना के लिए कोई जगह नहीं होती। अफगानिस्तान आज भी कबीलाई मानसिकता वाला देश है। गरीबी और जहालत यहां की जैसे पहचान है। इस देश को समूची स्थिति ही मार्मिक है ।ख़ान मोहम्मद सिंध ने अपनी इस कहानी के माध्यम से उस गरीब के जीवन को उकेरने का प्रयास किया है जो रोज ही कुंआ खोदने और पानी पीने के लिए अभिशप्त है। मूल रूप से पश्तो में लिखी गई इस कहानी का अंग्रेज़ी अनुवाद एंडर्स विंडमार्क ने किया है, जिसका हिंदी अनुवाद चर्चित अनुवादक और रचनाकार श्रीविलास सिंह ने किया है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं ख़ान मोहम्मद सिंध की अफगान कहानी 'तमाशा'।



'तमाशा'


ख़ान मोहम्मद सिंध 

पश्तो से अंग्रेज़ी अनुवाद: एंडर्स विंडमार्क

हिंदी अनुवाद : श्रीविलास सिंह



तब साँझ हुए देर हो चुकी थी जब वह घर आया। उसकी पत्नी घर के सामने बरामदे में बैठी हुई थी। वह बिस्तर पर पड़े पाँच साल के अपने बीमार बेटे के पास गया। उसने अपनी शॉल हटाई और अपना सिर और दाढ़ी साफ़ करते हुए अपनी पत्नी से पूछा - बारी कैसा है?


उसकी पत्नी ने रुआँसी सी होते हुए जवाब दिया :


“उसका बुखार अभी भी तेज है। वह बहुत कमजोर हो गया है और सारे दिन से यहीं पड़ा रहा है। इसे भूख भी नहीं लगी। मैंने एक दो बार इसे सूप दिया लेकिन इसने कुछ नहीं खाया।”


पिता चारपाई पर झुक गया और उसने अपने बेटे से कहा :


“बारी, मेरे बच्चे, कैसे हो तुम? कहाँ तकलीफ़ है?”


बारी ने धीरे धीरे आँखें खोली, उन दोनों को देखा और धीमी आवाज में कहा, “मेरा सारा बदन दुःख रहा है।”


पिता घुटनों के बल बैठ गया, अपने बेटे का सिर अपनी बाँहों में लिया और कहा :


“अच्छी बात है। तुम जल्दी ही अच्छे हो जाओगे… अब थोड़ा सा उठ कर बैठो और कुछ खा लो। मैं तुम्हारे लिए केला लाया हूँ।” उसने उसे कोमलता से उठा कर बैठा दिया। उसकी माँ ने जल्दी से उसका ख़ाना तैयार किया, और दोनों उसे स्नेह से चम्मच भर भर कर ख़ाना खिलाने लगे। इसके पश्चात बारी सारी रात कराहता रहा, और माँ-बाप में कोई न कोई सारी रात उसके पास बैठा उसकी देखभाल करता रहा।


सुबह सरवर ने अपनी पत्नी को दो सौ रुपए दिये और उससे कहा :


“मुझे बहुत से काम हैं और बाज़ार जाना जरूरी है। बच्चे को तुम डाक्टर के पास ले जाना।”


सरवर घर से चल कर उस जगह पहुँचा जहाँ बहुत से हाथठेले खड़े थे। उसने गार्ड को पाँच रुपये दिए और अपने ठेले की ज़ंजीर खोली, उसे धकेला और घुमा दिया। सूरज अभी निकला भी नहीं था जब उसने भीड़ भरे बाज़ार में अपने ठेले के साथ प्रवेश किया। 


“बदर, सलाम अलैकुम।”


मोटा दुकानदार अपना बड़ा सा पेट लिए और बिना बटन बंद किए क़मीज़ पहने एक चारपाई पर पड़ा था। वह थोड़ा सा हिला, अपने सफ़ाचट सिर पर अपना हाथ फेरा, अपनी दाढ़ी सहलाई और अपनी लम्बी मूँछों को ताव दिया। उसने उस पर एक नज़र डाली और कहा, “आओ सरवर, आज मैं तुम्हें बिलकुल गन्ने नहीं दूँगा; तुम्हारे पर अभी भी बहुत उधार है।”


सरवर ने विनम्रता से उसे जवाब दिया :


“बदर कल मेरी बिक्री वास्तव में बहुत ख़राब रही थी। ट्रैफ़िक के कारण मुझे एक जगह से दूसरी जगह जाने में बहुत परेशानी हुई और मेरा सारा गन्ना सूख गया। मुझे कल ही तुम्हें पैसे देने चाहिए थे लेकिन मेरा बेटा बहुत बीमार है। इसलिए मुझे पैसे घर पर छोड़ने पड़े।”


दुकानदार ने कहा :


“देखो सरवर, मेरे लिए सैकड़ों ठेले वाले काम करते हैं। हर सुबह मैं उन सब को गन्ने बाँटता हूँ और हर रात उनमें से प्रत्येक मेरे पास आ कर मुझे पैसे दे जाता है। तुम को मैं काफ़ी समय से माल दे रहा हूँ लेकिन तुम पैसे अपने लिए रख लेते हो। पहले तुम ठीक थे लेकिन अब लगता है तुम में बुराई आ गई है जो आ कर ऐसे झूठ सुना रहे हो।”


सरवर ने जवाब दिया :


“देखो, इन तीन सालों में मैं तुम से गन्ने लेता रहा हूँ, कितनी बार मैंने पैसे देने में देर की है? लेकिन मेरा बेटा कुछ समय से बीमार है, मुझे उस पर काफ़ी पैसे खर्च करने पड़ गए। मैं तुम्हारा क़र्ज़दार हूँ, बदर। चिंता मत करो, अल्लाह महान है। मैं जल्दी ही पैसे लौटा दूँगा।”





दुकानदार नहीं तैयार था लेकिन सरवर इस तरह गिड़गिड़ाया और माफ़ी माँगी कि बदर अंततः पाँच सौ का गन्ना देने को तैयार हो गया। सरवर ने अपना ठेला लिया और पक्का ख़ान चौराहे और चारसादा रोड की ओर दौड़ पड़ा, जहाँ वह हमेशा अपना ठेला लगाता था। उसने ठेले में से एक छुरी निकाली और गन्ना छीलने लगा। थोड़े ही समय में उसने बीस तीस गन्ने छील डाले। “ताजा गन्ने…ताजा गन्ने…” सुबह से दोपहर तक उसने दस से पंद्रह किलो गन्ना बेंच लिया था। उसने पैसों को दस, पाँच और दो रुपये की गड्डियों में व्यवस्थित किया। ख़राब नोट अलग गद्दी में रखे और फिर वह रुपये गिनने लगा। ये सात या आठ बीस रुपये के नोट थे। उसने एक गहरी साँस ली और स्वयं से बोला, “या अल्लाह, अब मैं इनके साथ क्या करूँ, मैं कैसे गन्ने के पैसे दूँगा, अभी मुझे दवाएं भी लानी हैं?”


बाज़ार में शाम को भीड़ बढ़ गई थी और सरवर अभी भी चिल्ला रहा था, “ताजा गन्ने…ताजा गन्ने।” उसने खेल के कपड़े पहने कुछ युवा लोगों के एक समूह को देखा, उनमें से कुछ क्रिकेट के बल्ले और बॉल लिए हुए थे। अन्य दस लोग उनके पीछे पीछे थे और वे किंग्स गार्डेन की ओर जा रहे थे। सरवर ने स्वयं से कहा : “आज पार्क में खूब खेल होगा, वहीं जाना चाहिए, अपना ठेला ले चलता हूँ। अल्लाह ने चाहा तो मैं वहाँ बचा हुआ गन्ना बेच लूँगा।” और वह अपना ठेला धकेलने लगा। वह मुख्य सड़क पर तेज़ी से चलता रहा जब तक चौराहे पर नहीं पहुँच गया, जहाँ एक ट्रैफ़िक पुलिस वाला खड़ा था। पुलिस वाला उस पर बिना कारण ही चिल्लाने लगा: वह उसके पास आया, उसने सरवर के ठेले को लात मारी और बोला, “जल्दी करो, वापस जाओ!”


सरवर ने उससे गिड़गिड़ाते हुए कहा, “मैं मैदान के बड़े दरवाज़े तक जा रहा हूँ, बस वहीं तक।” 


इस पर पुलिस वाले ने कहा :


“तुमने उस दिन भी मेरी बात नहीं मानी थी और मैंने तुम्हारी पिटाई की थी, लेकिन आज मैं तुम्हें इतना पीटूँगा कि तुम ख़ुद को ही नहीं पहचान पाओगे।”


सरवर का गिड़गिड़ाना जारी रहा :


“हुज़ूर, आपने उस दिन भी मुझे नहीं जाने दिया था और मेरा कई किलो गन्ना सूख गया था जिससे मुझे घाटा हो गया था। घर में मेरा बच्चा बीमार है और यह सब सामान मैंने उधार ले रखा है।”


लेकिन पुलिस वाले ने बस खीसें निपोरी और कहा, “ओए, मुहाजिर, मैं तुझे नहीं जाने दूँगा। अब भाग यहाँ से।”  साथ ही उसने सरवर को दो तीन थप्पड़ जड़ दिए।


जब सरवर ने देखा कि उसकी शॉल वहीं गिर गई है, वह उसे लेने के लिए वापस गया। उसकी आँखों में आँसू थे, उसने पुलिस वाले से कहा, ”मुझे जितना और चाहें पीट लीजिए लेकिन मुझे पार्क के मुख्य द्वार तक जाने दीजिए।”


पुलिस वाला और अधिक क्रोधित हो गया और उससे बोला, 


“दफ़ा हो जाओ। यदि तुम नहीं जाते तो मैं तुम्हें और तुम्हारे ठेले को किसी खंभे से बांध दूँगा।” स्पष्ट था कि सरवर चाहे जितना गिड़गिड़ाता अथवा माफ़ी माँगता, वह उसे जाने देने वाला नहीं था। अंततः सरवर ने उस से कहा, 


“मैं ग़रीब आदमी हूँ, मेरे साथ ऐसा मत कीजिए। अगर आप ऐसा करेंगे तो मैं अपनी जान दे दूँगा और मेरा खून आपके सिर होगा।”


“भाग यहाँ से नहीं तो मैं तुझे किसी की कार के नीचे फेंक दूँगा।” पुलिस वाले ने उससे कहा।


सरवर जैसे अपने आप में ही न हो, उसने आँखों में आँसू भरे हुए फिर कहा:


“मैं किसी कार वाले को दुःख नहीं दूँगा। मैं ख़ुद को मार डालूँगा और गुनाह तुम पर होगा।”


ट्रैफ़िक पुलिस वाला गाड़ी वालों को निर्देशित करता हुआ सरवर से उलझा हुआ था। उसने कहा, “मैं कह रहा हूँ तुझ से कि यहाँ से ग़ायब हो जा। उस पोल पर चढ़ और दफ़ा हो।।”  


यह सुनते ही सरवर दौड़ा और बिजली के लोहे के खंभे पर चढ़ने लगा।  पैदल चलने वाले और दुकानदार, स्तंभित से, कहने लगे, “उसे देखो…उसे…”


जब सरवर खंभे के एकदम ऊपर पहुँच गया, वह पुनः पुलिस वाले पर चिल्लाया, “अब मैं लोगों को एक तमाशा दिखाऊँगा, जो तुम्हारे कारण होगा।” 


नीचे से पुलिस वाला चिल्लाया, “दिखा, दिखा, मुझे अपना तमाशा दिखा।”


सरवर ने बिजली के दो तार पकड़े और झूलता हुआ लटक गया। ज़ोर की कड़कड़ाहट की आवाज के साथ बिजली के तारों में शार्ट-सर्किट हो गया। सुनहरी चिंगारियाँ उड़ने लगीं और सरवर ज़मीन पर लकड़ी के सूखे टुकड़े की तरह गिरने के पूर्व एक चमकती हुई चिड़िया की भाँति हवा में उड़ गया।


***


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग कवि विजेन्द्र जी की है।)





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