सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'लेखक की दुनिया'

 

सेवाराम त्रिपाठी


आम तौर पर कोई भी व्यक्ति लेखक बनने का निर्णय और व्यवसायों की तरह सोच कर नहीं करता। यह समय, परिस्थिति और संवेदनाएं होती हैं जिसके चलते लेखन की दुनिया में कोई भी व्यक्ति प्रवेश करता है। इस लेखक की अपनी एक सोच होती है। अपनी एक दुनिया होती है। लेखक को अपना रास्ता खुद चुनना पड़ता है। उसकी सोच स्पष्ट होनी चाहिए। उसे मनुष्यता में विश्वास होना चाहिए। लिखने के अपने खतरे भी होते हैं उन खतरों को उठाने के लिए तैयार भी रहना होता है। इस लेखक की दुनिया को ले कर एक महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा है आलोचक सेवाराम त्रिपाठी ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'लेखक की दुनिया'।


'लेखक की दुनिया'

 

सेवाराम त्रिपाठी 


“जिन्होंने नफ़रत फैलाई, क़त्ल  किए

और खुद  ख़त्म हो गए

नफ़रत से याद किए जाते हैं


जिन्होंने मुहब्बत का सबक दिया

और क़दम बढ़ाए

वो ज़िंदा हैं

मुहब्बत से याद किए जाते हैं.. 


रास्ते अलग-अलग और साफ़ हैं

तुम्हें चुनना होगा

नफ़रत, शक और मुहब्बत के बीच

तुम्हारी आवाज़ बुलंद और साफ़  होनी चाहिए 

और क़दम सही दिशा में” 


बेर्टोल्ट ब्रेष्ट


लेखक का रास्ता कोई चगन-मगन वाला रास्ता नहीं होता। लेखक का जीवन, व्यक्तिगत ईमानदारी, नैतिकता, जनसरोकारों, जनसंबद्धता के मानदंडों और साहस के साथ हो कर गुज़रता है । उसे यह भी देखना होता है कि जीवन की जद्दोजहद की वजह से लोगों को क्या-क्या काम करने को मजबूर होना पड़ता है। अदम गोंडवी ने यूं ही नहीं लिखा -


"रोटी कितनी मंहगी है ये वह औरत बताएगी 

जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है।” 


यदि लेखक के पास वह आँख नहीं है और वह उत्कट संवेदना और गहरी तड़प नहीं है तो उसे किस प्रकार लेखक माना जा सकता है? इसलिए कि उसने कई झउआ लिखने जैसा लिख मारा है। 


कल एक रंगमंच शिविर में जाना हुआ था। थियेटर में काम करने वाले उत्सुक नौजवान थे और उन्हें रंगमंच के गुर सिखाने वाले अति प्रसिद्ध लोग भी थे। यह जुटान रंगकर्म के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए ही हुआ था। समाज में जो हो रहा है उससे दो-चार होने के लिए संवाद के रूप में यह आयोजन  हुआ था। उनमें साहस और समाज के प्रति समर्पण का जज़्बा पैदा करने के लिए हुआ था। लेकिन हो यह रहा है कि उत्साही नौजवान न जाने कितने प्रकार के अगर-मगर में हो रहे हैं और समझौते की एक मशीन में बेशर्मी से फिट किए जा रहे हैं। देखा यह भी कि रंगकर्म करने के लिए, कोई स्थान पाने के लिए किसी हत्यारे, तड़ीपार और ऐरे-गैरे पचकल्याणी को भरपूर जगह दी जा रही थी। उसकी आरती उतारते हुए घंटों जाया किए जा सकते हैं। प्रशिक्षक खामोश हो कर कहते रहे हैं कि दान की बछिया के दांत नहीं देखे जाते। फ़ोटो खिंच रहे थे, प्रदर्शनियां होड़ ले रही थीं। प्रशंसाओं के होल्डिंग सज संवर रहे थे और निरंतर ऊपर सरकने के लिए तरह-तरह के इंतजामात किए जा रहे थे। हर अदा को अपनाया जा रहा था। इतनी जगमगाहट थी कि आंखें चौंधिया रही थीं। प्रश्न है कि माना जा रहा था कि यह अव्यवसायिक रंगमंच है। यदि यह अव्यवसायिक है तो व्यावसायिक किस चिड़िया का नाम है? यह ऐसे ही होगा। वह इसी प्रकार जनतंत्र की  रफ़्तार की तरह चलेगा। जिसमें गाय को भी दुहा जाएगा और बैल को भी।

   

मैं सोच रहा था कि भारतीय स्वाधीनता आंदोलन क्या इसी प्रकार के मनोविज्ञान से संभव किया गया होगा? क्या उसमें इसी प्रकार की स्थितियां रही होंगी? मैंने वो रंगमंच देखा है जिसमें काम करने वाले, सीखने-सिखाने वाले, समझने-समझाने वाले और जनजीवन को जागृत करने वाले उन नाटकों और रंगमंच को अपने खून-पसीने से सींचते थे। क्या-क्या देखा है और अभी क्या-क्या देखना बाकी है । रंगमंच में  नाटक अभिनीत करने के बाद अंत में अपनी चादरें सब लोगों के सामने फैला देते थे कि सज्जनों! यदि आप अच्छे नाटक देखना चाहते हैं तो पांच पैसे, दस पैसे, चवन्नी-अठन्नी, रुपया दो रुपया या आपकी जैसी हैसियत हो हमारा सहयोग करें। ताकि हर हाल में हम आपको अच्छे नाटक दिखा सकें। अब तो कुछ फ़िल्में, सीरियल, बेब सीरीज़ और इसी तरह के उपक्रम व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए थोक शैली में किए जा रहे है। एक बेब सीरीज़ ट्वेल्थ फेल देखी और उसका संघर्ष देखा। प्रश्न उठता है कि रंगमंच के साथ और लेखकों के साथ सुविधाओं के गहरे अक्षांश और देशांतर जुड़ चुके हैं। एकदम निषेध नहीं है बल्कि अच्छे और नए विषय भी उठाए जा रहे हैं। सुविधा के समाजशास्त्र ने अव्यावसायिक, (गैर व्यावसायिक) रंगमंच का पूरा चोला ही बदल दिया है।


हमें किसी भ्रम में नहीं होना चाहिए कि कुछ लेखक जन समस्याओं को बेहतर ढंग से नहीं उठा रहे हैं। प्रतिरोध की ज्वाला धधक रही है लेकिन ज्यादातर लेखक, कलाकार अब संघर्षशीलता की दुनिया से बाहर आ चुके हैं और अनेक तो अपना पैसा खर्च कर किताबें प्रकाशित करवा कर वाह-वाही का सुख लूट रहे हैं। पहले इक्का-दुक्का ही इस तरह के मामले आते थे। अब बहुतायत में ऐसा घटित हो रहा है। जिस लेखक को मुश्किल से सौ लोग जानते हैं, उसकी कई-कई खंडों में ग्रंथावलियाँ लहलहा रही हैं। या यूं कहें कि समूचे कुएं में भांग घुल गई है और कोई किसी से कुछ भी कहने लायक ही नहीं बचा। केवल क्रांतिकारिता की बोली कूद-फुदक रही है और अपने आपको महान बनवाने की प्रक्रिया में आ चुकी है। लेखक-कलाकार सत्ताओं-व्यवस्थाओं और संपन्नों की गिरावट की आंधी में बह रहे हैं। वे धीरे-धीरे शक्तिशालियों के हाथों की कठपुतलियां बन गए हैं और प्रशंसा पुराण के पोथन्ने खोले बैठे हैं। कोई इधर गिरा पड़ा है और कोई उधर की ओर। यही नहीं वी. आई. पी. कोटे में अपने को मानकर प्रसन्न हो रहे हैं। यह अपने-अपने अहो रूपम, अहो भाग्यम का मामला बनता जा रहा है। ज़ाहिर है कि एक डरा हुआ लेखक और कलाकार अपने लेखन और कलाओं में केवल क्रांति-व्रांति की कलाबाज़ी ही तो करेगा। जब उसके पास ही रीढ़ नहीं होगी तो वह कौन सा समाज निर्मित कर पाएगा। कौन से साहस की इबारत लिख पाएगा। प्रश्न है कि क्या हम मूकदर्शक और मुर्दा नागरिकों की पैदावार को ही विकसित करने के लिए मुजरा करते हुए जीवित बने रहेंगे। और इतनी गिरावट के बाद लेखक, कलाकार और संस्कृतिकर्मी की भूमिका में शामिल हो कर खुश होंगे।

  

लेखक बेहद संवेदनशील और जि़म्‍मेदार आदमी होता है। उसके सामने चुनौतियां होती हैं। वह यथार्थ से आंख मूंद कर, झूठे प्रलापों से कब तक लोगों को छल, कपट, प्रपंच और उम्मीद का तमाशा कर सकता है? लेखक को जूलियस फ्यूचिक की 'फांसी के तख्ते से' क़िताब को अवश्य पढ़ना होगा। क्या उसे अपना आत्मालोचन नहीं करना चाहिए। लेखक के सामने क़दम-क़दम पर चुनौतियां हैं और लेखकों, चिंतकों और सामान्य आदमी के संघर्ष हैं। लेखक की बैचैनी और जीवंतता ही इसे सक्षम तरीके से देख सकती है। लेखक वो नहीं होता है जो निरन्तर लिखता है बल्कि वो होता है जो ज़िंदगी के तापों, संघर्षों और जद्दोजहद के आमने-सामने होता है और अनवरत मुठभेड़ करता है। मार्टिन लूथर किंग ने कहा है- “हमारा जीवन उस दिन से समाप्त होना शुरू हो जाता है जिस दिन हम उन मुद्दों को ले कर चुप्पी साध लेते हैं, जो मायने रखते हैं।”


फिलहाल हम जिस दौर में हैं, उसके बारे में अत्यंत दुःख और सघन चिंताओं के साथ कहना पड़ रहा है कि कम लेखक यानी इने-गिने यानी विरले लेखक और कलाकार ही अपनी सार्थक भूमिका को निभा पा रहे हैं। बाकी अपनी मनभावन दुनिया में - “इत आवति चलि जाति उत, चली छ सातक हाथ” हो गए हैं। लेखक का निर्भ्रांत और साहसी होना ज़रूरी है। तभी वह अपने सही लक्ष्य के साथ ऐसा कर सकता है। तभी वह जनता की समस्याओं, परिस्थितियों के संदर्भ और जद्दोजहद के बारे में विचार कर सकता हैं और कुछ सार्थक कार्रवाई भी। बदले हुए परिदृश्य में कुछ तो बड़े पैमाने पर ज्ञानियों की तरह, बाज़ार और सत्ता के बड़े-बड़े टावरों में टंगे हैं। वे तथाकथित विकास की आंधियों के साथ परिक्रमा करने में भिड़े हैं। कुछ अपने को बहुत बड़ा सूरमा समझ रहे हैं और ऐसा व्यवहार भी कर रहे हैं। उनके पास सिफ़र के अलावा कुछ भी नहीं है।


कुछ दिखावे में हैं और कुछ अपना-अपना निज़ाम बनाने में व्यस्त हैं। कुछ सत्ता व्यवस्था के साथ क़दमताल कर रहे हैं। उनके तरह-तरह के पोज और पाश्चर हैं। तर्कों के ठीक विपरीत उनके बड़े-बड़े कुतर्क हैं। सच यह है कि जनतंत्र से बड़ा भीड़तंत्र और अघोरतंत्र है। क्या करिएगा उसकी अपनी दुनिया है और अपना-अपना चुनाव चक्रम है। इन वर्षों लेखक, कलाकार सामाजिक सरोकारों, समस्याओं से और संघर्षों से लगभग भाग चुके हैं। जमे वही हैं जिनमें ज़मीर है और सही-सही जन संबद्धता है। क्योंकि लेखक का काम उधारी या ब्याज-बाढ़ी वाली संबद्धता से नहीं चला करता। कुछ तो चाहिए शैली में अपनी निर्मित कर रहे हैं। जीवन के क्रूर यथार्थ से भागे चले जा रहे हैं न जाने किस ओर। और कुछ आसमान की ऊंचाइयां नापने में तल्लीन हैं। सच तो यह है कि इस दौर में यथार्थ तो छोड़िए हमारे सपनों तक में  खूंखार राक्षस घुस आया है। एक तरह के सुविधावाद ने, एक विशिष्ट ढंग की चमचमाहट ने उनके सभी उर्जे-पुर्जे ढ़ीले कर दिए हैं । लेखक लाल बुझक्कड़ की कहानी से बहुत दूर आ चुके हैं। कभी-कभी वह मानवतावाद की दुनिया में बड़ा निर्मल होने की ख्वाहिश रखता है और कभी-कभी वह अपनी पूर्वाग्रही आंधी में बहता हुआ देखा जा सकता है। यदि वह, ज़मीन पर नहीं है और अपनी सही भूमिका में नहीं है तो वह सफलता की चौपड़ तो बिछा ही सकता है लेकिन सच्चाई और हक़ीक़त यह है कि वह दो कौड़ी का हो जाता है। क़िताब प्रकाशन की लाइन लगा सकता है और ज़िंदगी भर सफलताओं को ही ओढ़ता-बिछाता रह सकता है। यही ज्यादातर मामलों में हो भी रहा है।


वह लिखता तो है लेकिन वो वह नहीं लिखना चाहता जो जीवन का  कटु और बेहद यंत्रणादायक यथार्थ है। वो सिर पर कई तरह का बोझा ढोती एक स्त्री या चौराहे में दुर्घटना से लहूलुहान एक नौजवान के बारे में अपना मुंह लगभग सी चुका है। मणिपुर में बलात्कार का सामूहिक शिकार होती औरतें या आन्दोलनरत भारत के अन्नदाताओं को परे ठेल देता है। वह आदिवासी, दलित, पीड़ित, वंचित और कठिन संघर्षों में फंसे आदमी पर लिखने से बचता है। वह गांव-कस्बे के जीवन को स्मृतियों के मार्फत रचता है। यथार्थ को ओझल कर देता है। लेखक फटी हुई एक जोड़ी चप्पलों की दास्तान नहीं लिखना चाहता। नाटक में वो यथार्थ के नुक्कड़ नाटकों से भी बहुत दूर है। ये बातें सबर समेटा नहीं कह रहा हूं। दुर्भाग्य से वह साहबे-आलम टाइप के लोगों के बारे में कसीदा करते हुए झुक रहा है बार- बार।

   

लेखक अपने आपमें चुनौतीपूर्ण स्थितियों में है। एक चुनौती बाह्य है और दूसरी आंतरिक। लेखक के पूर्व के समय में कुछ दबाव हुआ करते थे। लेखक इन स्थितियों के दबाव से स्वतः निबटता था। उन्हें अपने आप सुलझाता था। जूझता था, जद्दोजहद करता था। आत्मसंघर्ष और आत्मालोचन उसे रास्ता दिखाते थे। निर्मल वर्मा ने बताया कि -”आज के आधुनिक समाज में, जहां राजनीतिक अर्द्धसत्यों और पत्रकारिता के कुत्सित, अति सरलीकृत मुहावरों ने मनुष्य के दैनिक अनुभवों को जकड लिया है, वहां खुद अनुभव का विशिष्ट, जीवन स्वरूप नष्ट हो गया है। वह एक औसत अनुभव बन कर रह गया है।” ('लेखक की आस्था', पृष्ठ -132-33)


शायद अब वह दिन दूर नहीं जब लेखक ही नहीं होंगे बल्कि होंगे उनके हमशक्ल क्लोन जन-जीवन को धोखा देते हुए, रोबोट की शक्ल में ढले। लेखक अपनी ज़मीन और भूमिका भूलते जा रहे हैं। रंगमंच होगा, उसमें भी क्लोन के हिसाब-किताब होंगे। सुविधाओं का सुरमा आंज कर प्रशंसा के कसीदे पढ़ते हुए। विभिन्न कलाओं के लोग होंगे। होंगे तो केवल श्रीहीन, गैर जिम्मेदाराना बयान। नैतिक मूल्यों का पतन लेखकों के खाते में भी है। राजेश जोशी की एक कविता 'मेटल डिटेक्टर' की इन पंक्तियों पर ध्यान दें। कविता शब्दों की ताक़त और लेखक की भूमिका का सक्षम बखान करती है-


”है, है, एक बहुत खतरनाक चीज़ है

खतरनाक चीज़ है, शब्द, जो  मेरे पास है

तुम्हारा मेटल डिटेक्टर जिसे पकड़ नहीं सकता

पकड़ नहीं सकता 

हर शब्द के भीतर बैठा है एक दहकता हुआ 

सच की ताकत जानते हो?

जानते हो सच की ताकत?

नंगा कर सकता है वह तुम्हारे सारे तामझाम को

सारे तामझाम को/”


यह दौर घनघोर असमंजस का दौर है और सफ़लता का हुक्का गुड़गुड़ाने वाला भी। यह अपने गर्व को पीटने का भी दौर है। कुछ लेखक तो सांप मरे न लाठी टूटे की मुद्रा में आ चुके हैं। वह तटस्थता की बड़ी-बड़ी दुहाइयां देता है और प्रशंसा की खुजली मिटाने से ही कुछ पा लेना चाहता है। कभी-कभी चुप्पी भी साध लेता है। कभी-कभी वह शुद्ध आदमी के फेर में होता है तो वह अपनी आत्मा के साथ नाचता है। वह लेखक किसी भी प्रकार के पाखण्ड, दोगलापन और दिखावे का मर्दन करता है। लेखक का एक दिखावा पुराण और स्वार्थ सिद्ध पुराण भी है कि ऐसा लगता है कि लेखक दुहाइयों में फंस गया है। अंततोगत्वा लेखक को वही करना है जिसकी खिचड़ी उसके दिमाग़ में एक लंबे अरसे से पक रही है। मुक्तिबोध का लिखा याद कर रहा हूं कि - 


“पार्टनर! पहले अपनी पॉलिटिक्स साफ़ करो।” 


या 


“बशर्ते तय करो, किस ओर हो तुम अब

सुनहले ऊर्ध्व आसन के

दबाते पक्ष में अथवा

कहीं उससे लुटी टूटी

अंधेरी कक्षा में तुम्हारा मन

कहां हो तुम?


चकमक की चिनगारियां 


ज़ाहिर है कि अनेक लेखक ऐसे भी होते हैं जो पॉलिटिक्स से बचते हैं या अपने को बचाते हुए पूरी उम्र गुजार देते हैं लेकिन हर जगह अपना झंडा गाड़ने में जुटे रहते हैं। वे किसी को पता ही नहीं लगने देते कि उनकी असली पॉलिटिक्स क्या है? जबकि लेखक पॉलिटिक्स के बिना रह ही नहीं सकता? स्वांग हमारे सार्वजनिक जीवन में भी है। लेखक भी स्वांग रचा सकने में माहिर हैं। जाहिर है कि समय के सच को लिखना नहीं चाहिए। यह फ्री लांसिंग और फ्री थिंकिंग का बेहद घटिया दौर है। यह जनतंत्र का नहीं बल्कि जनतंत्र के दिखावे का दौर है। आज़ादी का नहीं बल्कि आज़ादी को बंधक बना कर खूंटे में बांटने का दौर है। यह साहसहीनता का दौर है।



मेरे दिमाग़ में मैक्सम गोर्की का एक निबंध दस्तक दे रहा है। उसका शीर्षक है- संस्कृति के निर्माताओं तुम किसके साथ हो। ”इस दुष्चक्र में फंस कर तसल्ली देने वाले बुद्धिजीवी तसल्ली देने की अक्ल खो बैठते हैं। और खुद उन्हें तसल्ली की ज़रूरत पड़ जाती है। वे सांत्वना  पाने के लिए उन लोगों का मुंह ताकने लगते हैं, जिन्होंने  किसी को खैरात न देने का उसूल बना रखा है क्योंकि खैरात देने का मतलब है खैरात देने का हक कायम करना। उनकी प्रतिभा बुनियादी तौर पर खूबसूरत झूठ बोलने की प्रतिभा होती है।” लेखक की दुनिया आरामतलबी की दुनिया नहीं होती और न किसी तरह हो सकती। लेखक भी एक मजूर है। क़लम का सिपाही है। आरामतलबी उसका असली संसार भी नहीं है। अमृत राय ने प्रेमचंद की जीवनी लिखते हुए उन्हें 'क़लम का सिपाही' यूं ही नहीं कह दिया है। बदली हुई परिस्थितियों में लेखक पहले की तुलना में ज्यादा संपन्न हुए हैं। अनेक के पास धन तो है लेकिन ज़मीर नहीं हैं और न कोई जनसंबद्धता। अंत में लेखन के संदर्भ में प्रेमचंद के कुछ विचार जानना जरूरी है “लिखते तो वह लोग हैं जिनके अंदर कुछ दर्द है, अनुराग है, लगन है, विचार है। जिन्होंने धन और भोग-विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया, वह क्या लिखेंगे?”


आज के दौर में लेखकों-कलाकारों को चुपचाप देखता हूं और उनके नाज नखरे भी। चकित होता हूं और भीतर-भीतर रोता भी हूं। बड़े-बड़े लेखक और कलाकार आम आदमी की तरह जीवन जीते थे। अब तो नाजों की बारी है। हबीब जालिब ने सच फरमाया है- 


फिर दिल से आ रही है सदा उसे गली में चल

शायद मिले गज़ल  का पता उस गली में चल /..


उस फूल के बगैर बहुत जी उदास है 

मुझको भी साथ ले के सबा उस गली में चल


दुनिया तो चाहती है यूं ही फासले रहें 

दुनिया के मशवरों पे न जा उस गली में चल/” 


आख़िर कोई कितनी टिप्पणी कर सकता है। सच में कोई बात नहीं की जा सकती क्योंकि कोई सक्षम विकल्प नहीं है। अंत में अमृत राय ने 'क़लम का सिपाही' लिखते हुए  प्रेमचंद जी की जो पंक्तियां उद्धृत की हैं, उन्हें पढ़ने की ख्वाहिश करता हूं- “मेरी  ज़िंदगी में ऐसा है ही क्या जो मैं किसी को सुनाऊं। बिल्कुल सपाट, समतल  ज़िंदगी है, वैसे ही जैसी देश के और करोड़ों लोग जीते हैं। एक सीधा-सादा, गृहस्थी के पचड़ों में फंसा हुआ, तंगदस्त मुद्दरिस जो सारी ज़िंदगी क़लम घिसता रहा, इस उम्मीद में कुछ आसूदा हो सकेगा मगर न हो सका। उसमें क्या लिखा है जो मैं किसी को सुनाऊं। मैं तो नदी किनारे खड़ा हुआ नरकुल हूं, हवा के थपेड़ों से मेरे अंदर भी आवाज़ पैदा हो जाती है। बस इतनी सी बात है। मेरे पास अपना कुछ नहीं है, जो कुछ है उन हवाओं का है जो मेरी भीतर बजीं। मेरी कहानी तो बस उन हवाओं की कहानी है, उन्हें जाकर पकड़ो। मुझे क्यों तंग करते हो!” 

क़लम का सिपाही -पृष्ठ - 04


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