देवेन्द्र आर्य


 
                                                                   (देवेन्द्र आर्य )


देवेन्द्र आर्य का जन्म १९५७ में गोरखपुर में हुआ. गोरखपुर विश्विद्यालय से ही देवेन्द्र ने इतिहास में एम. ए. किया अब तक इनके तीन गीत संग्रह ‘खिलाफ जुल्म के, ‘धूप सिर चढ़ने लगी’ और ‘सुबह भीगी रेत पर’, तीन गज़ल संग्रह ‘किताब के बाहर’, ख्वाब-ख्वाब खामोशी’ और ‘उमस’ और एक कविता संग्रह ‘आग बीनती औरतें’ प्रकाशित हो चुका है. ‘किताब के बाहर’ और ‘धूप सिर चढ़ने लगी’ को केंद्र सरकार का मैथिलीशरण गुप्त सम्मान जबकि ‘आग बीनती औरतें’ को उत्तर प्रदेश सरकार का विजय देव नारायण शाही पुरस्कार मिल चुका है.

सम्प्रति- पूर्वोत्तर रेलवे में मुख्य वाणिज्य निरीक्षक


गजल बड़ी अजीब विधा है, बिलकुल छुई-मुई जैसी. जहाँ इसके साथ किसी ने अनुचित व्यवहार किया और यह लाजवंती की भाँती अपने आप में सिमटी. आज रचनाकार हिन्दी, मराठी, पंजाबी, बांग्ला, कश्मीरी तो क्या फ्रेंच, अंग्रेजी, जर्मन, जापानी आदि भाषाओँ में भी गज़ल कह रहे हैं. जहाँ तक हिंदी का सवाल है मेरे स्वर्गीय मित्र दुष्यंत कुमार के अतिरिक्त गिनती के दो-चार कवि गण ही गज़ल की नजाकतों को सहार पाए हैं. और मुझे स्वीकार करते हुए प्रसन्नता है कि देवेन्द्र आर्य उनमें से एक हैं.
देवेन्द्र की गज़ल लाजवंती जैसी सिमटी न हो कर चंचल तितली की तरह परों को फैला कर थिरकती है. इन ग़ज़लों में भाषा के साथ रचनात्मक बर्ताव की निराली शान देखी जा सकती है. अपने रोजमर्रा के संवेदनशील अनुभवों को सरल स्वभाव वरन गहरे चिंतन में संजो कर देवेन्द्र आर्य ने अपनी गज़ल को गज़ल भी रखा है और उर्दू गज़ल से मुख्तलिफ भी कर लिया है. यह कोई मामूली कामयाबी नहीं है. उन्हें इसकी दाद मिलनी चाहिए.
-मुजफ़्फ़र हनफ़ी; डी-४०, बटाला हाउस (इकबाल प्रोफ़ेसर),नयी दिल्ली


गोरखपुर जैसा हो



दिलों की घाटियों में बज रहे संतूर जैसा हो,
हो कोई शहर गर तो मेरे गोरखपुर जैसा हो.


इधर कुसमी का जंगल हो, उधर हो राप्ती बहती,
शहर की मांग में इक गोलघर सिन्दूर जैसा हो .


कबीरा की तरह जिद्दी, तथागत की तरह त्यागी,
वतन के नाम बिस्मिल की तरह मगरूर जैसा हो.


यहीं के चौरीचौरा कांड ने गाँधी को बदला था,
भले यह इस समय अपने समय से दूर जैसा हो.


बहुत मशहूर है दुनियां में गोरखपुर का गीता प्रेस ,
नहीं दिखता जहाँ कुछ भी कि जो मशहूर जैसा हो,


हुए मजनूँ, फिराक और विज्ञ, राही, हिंदी, बंगाली,
शहर में एक परमानन्द कोहेनूर जैसा हो.


ये है पोद्दार, शिब्बनलाल, राघवदास की धरती ,
यहाँ का आदमी फिर किस लिए मजबूर जैसा हो ?


है दस्तावेज, रचना, भंगिमा, जनस्वर, रियाजुल का,
कहाँ मुमकिन है कोई शहर गोरखपूर जैसा हो ?


हो गोरखनाथ का मंदिर तो एक ईमामबाड़ा भी ,
उजाला घर से बेहतर दिल में हो और नूर जैसा हो.


इबादत इल्म की, इंसानियत की ,भाईचारे की,
हमारा रूठना भी प्यार के दस्तूर जैसा हो.


यही दिल से दुआ करता हूँ मैं, तुमको मेरे भाई,
तुम्हारा शहर मेरे शहर गोरखपूर जैसा हो.




जादू-टोना



जिसको प्यार संजोना आए,
उसको जादू टोना आए.


पत्थर मिटटी हो सकता है ,
तुमको अगर भिंगोना आए.


बच्चा है, वह अपना बचपन ,
डर लगता है खो ना आए.


वो ही रिश्ता निभा सकेगा,
जिसको पीठ प धोना आए.


आंसू का धंधा ऐसा है ,
बालू बेचो सोना आए.


ऐसे क्यों मिलती हैं खुशियाँ,
प्यार में जैसे रोना आए .



मन महुए सा



तुमसे मिल कर कौन सी बातें करनी थीं, मैं भूल गया ,
शब्द चाँदनी जैसे झर गए , मन महुए सा फूल गया.


तुमने एक ओरहना क्या भेजवाया मिलने का ,
अपनी ख़ुशी छिपा लेने का मेरा एक उसूल, गया.


बचपन से बचपन टकराया ,गंध उडी चिंगारी सी ,
मैं अपने ही कंधे पर अपने बेटे सा झूल गया.


जैसे औरत वैसे पानी,  धीरे धीरे रिसता है,
पानी में रहते-रहते पत्थर भी एक दिन फूल गया.


दोनों प्यार के राही थे ,गलबहियां थीं दीवाने थे,
एक सपने में झूल रहा है, एक पंखे से झूल गया



कल के बदले


हमने आज खरीदा कल के बदले में,
जैसे कोका-कोला जल के बदले में.


रास ना आया भूख का देसीपन हमको,
प्लेटें चाट रहे पत्तल के बदले में.


जब भी कुछ मिलने की बारी आई तो ,
दिल्ली चुनी गयी सम्भल के बदले में.


भरा-पुरा सा एक अकेलापन मांगे,
आज की कविता चहल-पहल के बदले में.


मैंने अपने को फल तक सीमित रक्खा ,
तुमने पेड़ गिने हैं फल के बदले में.


बाकी सब तो पहलेवाला है केवल,
राम बहल हैं राम नवल के बदले में.


आने वाली पीढ़ी करनेवाली है
धरती का सौदा, मंगल के बदले में

संपर्क-
ए- १२७, आवास विकास कोलोनी
शाहपुर, गोरखपुर


मोबाईल- 9451565241, 9794840990

ई-मेल: devendrakumar.arya1@gmail.com
blog: http://www.bahak-bahak.blogspot.com/

टिप्पणियाँ

  1. आह देवेंद्र जी को बहुत पहले से पढता रहा हूं और उनसे एक आध बार संवाद भी हुआ है मोबाइल पर । गजब की और कमाल की गज़लें कहते हैं वे , बहुत ही बेहतरीन । तीनों ही टुकडे बेमिसाल हैं

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  2. ब्लॉग लिंक पर अभी कोई पोस्ट नहीं आई है शायद उनकी । देखा तो कोरे कागज़ की तरह है मुझे प्रतीक्षा रहेगी उन पन्नों पर समय को उकेरे जाने की ।

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  3. आभार अजय जी, देवेन्द्र जी ने मुझे जो ब्लॉग का लिंक बताया था मैंने उसे पहली बार पर लगा दिया था. उम्मीद है ब्लॉग के माध्यम से देवेन्द्र जी आपकी भावनाओं से अवगत होंगे और शीघ्र ही अपने लिंक पर अपनी कवितायें, गीत और गज़लें पोस्ट करेंगे. – संतोष चतुर्वेदी

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  4. गोरखपुर पर लिखी गजल बिलकुल भी बन नहीं पायी है ... ना तो गजल के स्वरुप में और न ही अपने कथ्य में .... मुझे यह देखकर हैरानी है कि देवेन्द्र जी जैसा समर्थ गजलकार इतनी ढीली गजल कैसे लिख गया ....और हां.. अपने शहर और अपने लोगों पर लिखते समय अधिकतर लोग यशोगान से ऊपर नहीं उठ पाते , और यही यहाँ भी हो गया है .... इसे पढ़कर कौन यह जान पायेगा कि यही वह गोरखपुर है , जो पूर्वांचल में साम्प्रदायीकता और कट्टरता की न सिर्फ नर्सरी है , वरन और अपराध तथा काले धंधे की खान भी ....... कम से कम एक साहित्यकार से इतनी साफगोई और तटस्थता की उम्मीद तो की ही जा सकती है ...

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