बलभद्र

अभी हाल ही में भोजपुरी के एक सशक्त कवि राम जियावन दास बावला का निधन हो गया. लेकिन उनपर कहीं न तो कोई चर्चा हुई या आलेख ही प्रकाशित हुआ. हमने इस सिलसिले में कुछ महत्वपूर्ण लेखकों से बात की जो स्वयं भोजपुरी में ही गंभीर कार्य करने में जुटे हुए हैं. इसी सिलसिले में बावला जी पर कुछ महत्वपूर्ण आलेख हमें प्राप्त हुए जिन्हें हम ‘पहली बार’ पर सिलसिलेवार प्रस्तुत करेंगे. इसी क्रम में पेश है बलभद्र का आलेख ‘बावला: एगो किसान कवि’ जो खुद कवि की बोली-बानी भोजपुरी में लिखा गया है.



                                                                      ( बलभद्र)





बलभद्र



बावला: एगो किसान कवि



रामजियावन दास बावला भोजपुरी के एगो कवि, पुरनकी पीढ़ी के. इनका के जाने वाला जादेतर लोग भक्त-कवि मानेला, राम कथा से जुडल कवितन के चर्चा करेला. बात सहियो लागत बा. कतने कुल्हि प्रसंग बा इनका कविता में जवन कुछ त तुलसी-वाल्मीकि से मेल खाला आ कुछ एक दम इनकर आपन कल्पना के उपज ह. मेल खाए वाला प्रसंगों जवन बा तवन खाली घटना के आधार पर मेल खाला, ओहकर प्रस्तुति एक दम नया बा. आ मिलतो बा त कुछे-कुछ. भोजपुरी में उपजीव्य काव्य के परंपरा देखे में आ रहल बा. बहुते अइसन लोग बा जे राम कथा आ कृष्ण कथा भा अइसन कुल्हि कथा के भोजपुरी में अपना तरह से रचत गावत बा. बावला एह तरह के कविता में कुछ मौलिक प्रसंग के भी उद्भावना कइले बाडन. ओह में इनकर आपन भावना विचार लउकेला. नीति-नैतिकता आ सामाजिक संदर्भन पर टिप्पणी ऊ अइसन मौलिक प्रसंग में खुली के कईले बाडन. लेकिन एह तरह के कवितन में उनकर चित्त कतना रमल बा, ई त देखे के बात बा.



बावला जी के एगो संग्रह आईल बा ‘गीत लोक’. ओह संग्रह में राम कथा से जुड़ल कवितां के तुलना में किसान जीवन से जुड़ल कविता कतहीं जादे बा. ऊ खाली मात्रा के लेहाजे जादे नईखे. बलुक गुणों के लेहाजे से जादे बा. हमरा त लागत बा कि कुछ लोग जे बावला के जादे नगीच बा, भक्त कवि सिद्ध कई के उनका संगे हितारो ना बलुक दुश्मनी सधले बा. कवनो बदला चुकवले बा. बावला सांचो कहीं त भक्त कवि ना किसान कवि हवें. किसान-जीवन के सहज-सहाउर यानी कि सहनशील रूप इनिका कविता के प्रवाह में लउकेला. राम-कथा वाली कविता में कवि अतना खुलल नइखे जतना कि किसान जीवन वाली कविता में खुलल बा. काहें कि ई जीवन कवि के आपन जीवन ह. राम-कथा वाला प्रसंग में भी कवि के आपन जीवन लउकत बा. कवि जब कहत बा कि‘हम बनवासी कोल-भील के बेटउवा’ तब कवि के आपन रूप आ आपन जीवन गंवे से माथ उठावत लउकत बा. आ जब कहत बा कि ‘रउवा राजा बाबू हउव’ त दुगो वर्ग के जीवन के जवन अंतर होला, तवन खुलि के सोझा आवत बा. एह गीत में जवन करुना बा, तवना के आधार बा किसान जीवन, ओकर दुःख-तकलीफ, अभाव. केवट के साथे बा. किसान के जवन आपन एगो दृष्टिकोण होला, जवन परम्परागत समझ होला, ऊ सब इनिकर कविता में बा. आ ऊ उनका के किसान कवि चिचिया-चिचिया के साबित करत बा.

अब के त नाहीं, बाकी पहिले के किसान सांझ खा कत्तो बइठ के कथा-कहानी कहत-सुनत रहले. गीत-गवनई उनका लोग के जिनगी के अंग रहत रहे. कवनो राजा-महाराजा, वीर, दानी-ज्ञानी लोग के चरित गा-गा के किसान आपन जिनगी के अभाव के, कष्ट के कुछ देर भुलावे के कोशिश करत रहे. बावला के कविता एही तरह के कोशिश के उपज ह. एह जगह पर इहो जिकिर जोग बा कि किसान कान्हा पर हर उठावत खा, आ कान्हा पर से हर उतारत खा ‘हे राम, हो मालिक’ गुहरावत रहलें लोग. बावला के अइसन कविता यानी राम कथा वाली कविता कान्हा पर हर उठावत

आ कान्हा पर से हर उतारत समय के ‘हे राम हे मालिक’ के विस्तारित रूप ह. एह दुनों बखत के ‘हे राम’ के बीचे किसान के आपन असल जीवन होला. हर, हेंगा. खुरपी, कुदार, बोअनी, कटनी, दँवरी, ओसवनी वाला. बावला के कविता में ई सब अपना सहज प्रवाह में आइल बा. एकदम खुली के, कवि कतहु अटकत नइखे. इहे उनकर कविता के मूल विषय ह, इहे उनकर कवि के आपन पहिचान ह. रामबृक्ष बेनीपुरी के एगो शब्द चित्र ह- ‘कुदाल’.  मनु के मरदाना बेटा उठवले बा कुदाल. बावला के कवितवो में मनु के मरदाना बेटा आपन जिद आ सृष्टि के संवार देवे के संकल्प के साथे-साथे आइल बा.

बावला के कुछ लोग भक्त कवि कहले, सरहले बा त अइसन नइखे कि बावला ओह सराहला में आके बहि नइखन गइल. ऊ अपना तरफ से एकर कवनो प्रतिवाद ना करें पवले. उलटे एक जगह भाजपा के अयोध्या प्रकरण के पक्ष में खडा हो गइल बाड़न. भाजपा के आह्वान पर जब अयोध्या में भीड जुटल आ पुलिस फायरिंग भइल त भारी संख्या में जान-माल के नुकसान भइल. कवि एहिजा एह शासकवर्गीय राजनीति के चरित्र के ना उजागर क के एगो खास तरह के बहाव में बहि गइल बा. एह बहाव के इस्तेमाल निश्चित रूप से ओह धारा के लोग कइल जे कवनो ना कवनो तरे भाजपा के साम्प्रदायिक फांसीवादी नीति के समर्थक रहे. तब समझे में कवनो चूक ना होखे के चाहीं कि उनका के भक्त कवि सिद्ध करे के कोशिश के का आधार रहल बा, का स्वार्थ रहल बा. लेकिन बावला के पूरा के पूरा जवन कवि-कर्म बा, तवन एह बहाव के बावजूद दोसरा तरह के रहल बा. ऊ ठेठ किसान कवि हवें. उनका कविता में किसान जीवन के दुःख तकलीफ, तंगी-तबाही, ऋण-कर्ज के वर्णन बा. जानकार लोग जानत बा कि अब तक के शासन में सबसे बेसी किसान लोग आत्महत्या कइले बा. फसल के लाभकारी मूल्य ना मिलला के चलते, उपज के खरीद-बेंच के कवनो सही सिस्टम ना बनला के चलते आ सरकारी करजा के चलते बड़हन पैमाना पर किसान आत्महत्या करे पर मजबूर भइलें. आजादी के बाद शासक वर्ग के तमाम पार्टी सता में अइली स आ सबके सब किसान-मजदूर के लेके कवनो न्यायसंगत नीति ना बनवली स आ ना कवनो एह तरह के चिंता जतवली स. बावला के कविता में अलग से एह सन्दर्भ पर कवनो टिप्पणी भले नइखे, बाकी किसान कष्ट के केन्द्र में जवन शासक वर्गीय उपेक्षा रहल बा, ओह तरफ कवनो ना कवनो रूप में संकेत जरूर उभरत बा. कवि समझत बा कि कुल्हि सरकारी काम बस कागजी बा. व्यवस्था के आंकड़ाबाज
चरित्र आ मानसिकता पर कवि व्यंग करत बा.


अदिमिन के संख्या त गिन के बताय देला
जादू से जान जाला जनमत जेतना हौ
कागद के कोठी रुपया बतावैला
धरती बतावैला बिगहा में एतना हौ
पैसा बताइब त बाएँ के खेल बाय
खर्चा में वेतन के बाद कुछ वेतना हौ
हमके बतावा कि चिरइन के जान बदे
भारत के पासे बन्दूक कुल केतना हौ.


कवि थाना, पुलिस, कोर्ट, कचहरी, सरकारी विकास योजना के चरित्र से वाकिफ बा. ऊ साफ़ कहत बा कि ‘मोर जेब कटी गइल थाने में.’ साफ़-सुथरा कपड़ा आ नीक-नोहर भाषा वाला जादेतर लोग गरीब किसान-मजदूर खातिर सात तरह के दन- फिकिर के साथे आवेला. ओकर ई सातो दिन अब ओकरा लगे नइखे रहे देत गइल. एक दिन राशन खातिर, एक दिन सिरमिट (सीमेंट) परमिट-पैरवी में, एक दिन आफिस में पूछताछ बदे त कुछ त कुछ. सुविधा आ विकास के नाम पर किसान-मजदूर के सातो दिन छिना गइल. ओकरा के अपना सहजता आ ईमानदारी से काट देल गइल. चापलूस, दलाल आ पिछलग्गू बनावे के खेल में ओकरा के फांस देत गइल.

हफ्ता में सात दिन एक दिन चीनी के
एक दिन कोटा के कपड़ा में निकल गइल
एक दिन सिरमिट के परमिट-पैरवी में
एक दिन पूछताछ आफिस में टल गइल
एक दिन बैंक में ब्लाक बदे एक दिन
एक दिन माटी के तेल बदे चल गइल

आजादी के बाद विकास के जवन उलट गंगा बहल ओकर कथा बावला के कविता में मिलेला. ई उनकर कविता के आपन ताकत ह, सूझ-बूझ ह-

जेतनी विकास बा पढाई क लिखाई क हो
जेतनी विकास बड़वार बेहयाई क
गाँव के विकास ठांव ठांव क विकास होत
होत बा विकास इहाँ नकली दवाई क
रोजी क विकास रोजगार क विकास होत
होत बा विकास हाड़-तोड़ महंगाई क
खेती क विकास होत बारी क विकास होत
होत बा विकास कुछ उपरी कमाई क.

बावला जी के एह कविता में भारतेंदु के शैली के विकास आ विस्तार लउकत बा- ‘अंग्रेज राज सुख साज सजे अति भारी’ वाली शैली के. अइसहीं इनका में कबीर के शैली भी लउकेला. कबीर के आगे बाटे – ‘हरी गुन’. कहत बाड़े ‘हरिगुन लिखा न जाई.’ बावला कहत बाड़े- ‘केतनी बिपतिया कहल कही जात नहीं. छोट परी धरती न लिखले अंटाले.’ इनका सोझा बाडे किसान, आ किसान के कष्ट. इनिका कविता से गुजरला पर किसान के हंसत-उछ्हत जिनगी के भीतर दुःख तकलीफ के एगो बड़-विकट दुनिया लउकेले. किसान जवान दुःख-तकलीफ सहत बाड़न, ओकर तीखा पीर-बोध से बावला के करुना जागेले.

बावला के कविता एगो नष्ट हो रहल जियत-जागत दुनिया के बतकही के गुंजाईश बनावेले. आज हर, फार, खुरपी, कुदार, नाधा, पैना, जोती, बरन, खंचिया, दउरी, मउनी, बैल, गाय, खरिहान, रास, गोबर के बढ़ाव, कोठिला, लउका, नेनुआ, सेम, तरोई, पुअरा के टाल, कउड़ा, कथा-कहानी सब छुटत जा रहल बा. ढेंका, जांत, गीत-गवनई सब अलोपित होत जा रहल बा. कविता एह सब चीजन के अपना भीतर सहेजले बा. सबसे बारीक बात कि कवि घर के अगवाड़ा-पिछवाड़ा के जवन खाली जमीन होला, ओह में लउका, नेनुआ, सेम के उगत-गंछियात देखत बा. किसान जीवन के भीतर जवन तरह-तरह के कनखा-गवखा के संभावना रहेला, कवि ओह सबके एह लउका, नेनुआ, सेम, तरोई के बहाने देखले बा. आज ई संभावना गायब हो चलल बा. छोट-छोट चीज, छोट-छोट सन्दर्भ के भी एगो आपन माने-मतलब होला. कवि ओह सबके तरफ ध्यान देले बा. आज त कुल्हि बतिये एकदम उलट गइल बा. संभावना अब हर बड़ चीज में बा, बड़ लोग में बा. बड़ पूंजी बड़ झूठ में बा. कवि के कविता के एह सन्दर्भ में मूल्यांकन जरूरी हो गइल बा.

ई अलग बात बा कि बावला के कविता कवनो हलचल, कवनो बेचैनी नइखे पैदा करत. किसान सब करत-धरत, खटत-मरत जी रहल बाड़न. अपना स्थिति के ले के कवनो टिप्पणी, कवनो प्रतिवाद नइखन पेश करत. लेकिन ऊ जी रहल बाड़न. जवन सहत-सुहत, कविता उ सब कह देवे, देखा देवे के सामरथ जरूर राखत बिया. बावला के कविता में गेहूं के बाल के टूंड भी आइल बा जवन मूंड में समा के अजबे चुनचुनी पैदा कर देत बा. कटनी करत खा हँसुआ के धार से बाएँ हाथ के अंगूरी लहुलुहान हो जात बा. बोझा ढोवत खा गरदन टेढ़ाई जात बा. पलई पियराये लागल बा. खूंटी से गोड़ बेधाई जात बा. किसान जीवन के एक कुल्हि रूप-रंग के अलावे, उहो रूप बा जब अनाज खरिहान में आ जात बा. आ किसान दांई-ओसाई के रास जमा करत बा. ओकरा ऊपर बढ़ाव राख के रास के गोड़ लागत बा. हाथ जोड़त बा. किसानिन कोठिला गगरी सहेजत सरिहारत बाड़ी. जाड़ा के रात में मय बाल-बच्चा पुवारा के पलना पर एके रजाई में गुटिआई के सुतल बाड़न. कवि गरीबी के वर्णन अइसे करत बा जइसे कि एह जीवन के सक्रियता के सोझा गरीबी बेचारी दांत चियरले केनियो अलगा खाड़ हो गइल होखे. ई कला त रेणु के कहनियन में लउकेला. कवि करजा से जंताइल. बाढ-सुखार से जूझत, महंगाई के मार सहत, सरकारी दांव-पेंच के शिकार किसान-मजदूर के जीवन के ट्रेजेडी के कथा-कविता के भाषा में कहे के कोशिश कइले बा.

नागार्जुन के एगो कविता ह ‘तुम्हारी दंतुरित मुस्कान/ मृतक में भी डाल देगी जान.’ बावला लिखत बाड़न-

दंतुली देखाय हंसि- हंसि किलकारैला
कि तोतरी बचनिया से हिया जुड़वावै
सुखवा के सपना पर सपना थिरकि जाय
चूमि-चूमि गोदिया में गरवा लगावै.

बावला के कविता में छोटहन किसान, निम्नमध्यवर्गीय किसान के रूप संचल बा. छोट खेतवाला, मेहनत-मशक्कत करे वाला. एहिजा मरद-मेहरारू सभे काम करेलन. मेहरारू सिवान में जाली त अपना सवांग खातिर दाना-पानी ले के. ऊ इनिका कविता में सझैतिन के भूमिका में बाड़ी. बावला जीवन के एह संझियाव के पक्षधर कवि हवें. कवि के मौलिकता एह बात में बा कि ऊ जानत बा कि घर में जवन लोग-बाग बा ओह लोग के खुशहाली सिवान में बा. खेत में झूमत फसल में बा. ‘घरवा मूरतिया सुरतिया सिवानावा में’ कवि के कविता के चरम उन्मेष लउकत बा. किसान जीवन के नखरा-नजाकत भी इनिका कविता में कतने तरह से घुमा फिरा के आइल बा. खेत-खरिहान के सुनरई के वर्णन में किसान मन के सुनरई आ नखरा-नजाकत बेलउकले नइखे रहत. किसान मन के संकोच आ भीतरी सक्रियता आ चुहल-चहक के वर्णन कवि करत बा ऊँख के माध्यम से-

आंखि मारइ ऊंखिया लगाई के कजरवा
कि मसकि- मसकि रही जाइ नहीं बोलई.’

खेत के ढेला, ढेला से ढेला लड़ा के फोरत किसान, हेंगा देत किसान, पुआरा के गाला गांजत किसान, गाला गांजे के विधि, बिया छींटत किसान, कोन कोड़त आ कोन में बिया मिलावत किसान, गाँव के गली, गली में चाँव-चाँव करत गदेला, गाय-बैल के घंटी के टुनटुन, तीसी, तेलहन, ऊँख, रंग-रंग के तितली, महुआ के फूल, आम के मोजर, बंसवार, बंसवार में बकुला-बकुली के जनवास, नीम के छांह, माथ पर मउर बन्हले देवथान पर मुंडी झुकवले दुलहा- एह सबसे बनल बा बावला के कविता के संसार. रामकलिया, फुलिया, चनेसरा-धनेसरा के माई, आजी-आजा, फुआ-फूफा नेह-नाता के भरल-पुरल संसार बा इनिका कविता में. ई सब अब छूटत जा रहल बा. आपस के लगाव घटत जा रहल बा. सब चीज अब बाजार में बा. आ सब बिकाऊ बा. किसान के हाथ से हर चीज छिनात जा रहल बा. बथुआ आ अंकरी के जगहा पर खेतन में अब अमरीकी घास भी आई गईल बा. हत्या-लूट आ घपला-घोटाला ऊपर से नीचे तक पसर गईल बा. मवेशी अब गाँव से, गरीब से दूर हो रहल बाड़न स. गोदरेज के तरफ से पशु आहार बाजार में आई गइल बा. किसान के घर के चोकर, भूसी, खरी-खुदी, हरियर-पताई अब कुछ ना बांची. कमलेश राय के शब्द में कहल जाय त ‘खेत रही आपन, अनाज ओकरा मरजी से होई.’ ओकरा माने अमेरिका. अब खेतवो अपना लगे बुझात बा कि ना रहि जाई. यू पी, बंगाल सगरो किसानन के जमीन छिना रहल बा. अइसना में बावला के कविता हमनी के अपना ठेठ रस, गंध आ सवाद से जोड़े में आजुवो कामयाब बिया.

हरियर धनिया चटनिया टमटरा के
छीमीया मटरिया के गद्गर दाल हो
नया-नया भात हो सनेहिया के बात हो
कि एहि विधि शुभ शुभ, शुभ नया साल हो

अपना रस-गंध आ सवाद से बेजुडले, आपन जमीन खातिर बेजुझले अब बात बने वाला नइखे. जवन नया होई आ अब शुभ-शुभ, तवन जूझ के ही होई.



संपर्क-


प्रवक्ता, हिन्दी विभाग
गिरिडीह कालेज
गिरिडीह
झारखंड


मोबाइल- 09801326311

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