केशव तिवारी
लोक धर्मी कविताओं की जब भी बात आती है केशव तिवारी का नाम जरूरी तौर पर लिया जाता है. केदार नाथ अग्रवाल की जमीन बांदा में रहते हुए केशव ने कविता की जो जोत जला रखी है उसका प्रकाश अब दूर दराज तलक दिखाई पडने लगा है. केशव के अब तक दो कविता संग्रह ‘इस मिटटी से बना’ और ‘आसान नहीं विदा कहना’ प्रकाशित हो चुके हैं. इस कालम ‘समालोचना’ के लिए हमने केशव की कविताओं पर अपने एक अन्य कवि मित्र महेश चंद्र पुनेठा से टिप्पणी लिखने का आग्रह किया जिसे उन्होंने बेहिचक स्वीकार कर लिया. केशव की कविताओं का चयन भी उन्हीं का है. इसके पीछे हमारा यह मंतव्य है कि हम अपने समय के एक कवि के बारे में दूसरे कवि के विचारों से अवगत हो सकें. अगली कुछ पोस्टो में भी हम इस परम्परा को जारी रखेंगे.
केशव तिवारी युवा कवियों में मेरे सबसे अधिक प्रिय कवि हैं। उनके यहाँ मुझे वह सब कुछ मिलता है जो मेरे दृष्टि से एक अच्छी कविता के लिए जरूरी है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए पता चलता है कि कविता की तमाम शर्तों को पूरा करते हुए भी कैसे कविता सहज संप्रेषणीय हो सकती है। कैसे नारा हुए बिना कविता विचार की वाहक बन सकती है । कैसे स्थानीय हो कर भी कविता वैश्विक अपील करती है। लोकधर्मी होते हुए भी कविता को कैसे भावुकता से बचाया जा सकता है और कैसे अपने जन-जनपद और प्रकृति से जुड़े रहकर पूरे धरती से प्यार किया जा सकता है। सबसे बड़ी बात तमाम भय और प्रलोभनों के बीच खुद को एक प्रतिबद्ध कवि के रूप में कैसे खड़ा रखा जा सकता है। यह कहते हुए मुझे कोई झिझक नहीं है कि कविता के नाम पर अबूझ कविता लिखने वाले हमारे समय के ’कठिन कविता के प्रेतों’ और लोक के नाम पर कोरी-लिजलिजी भावुकता की कविता लिखने वालों को उनसे सीखना चाहिए। केशव तिवारी में मुझे त्रिलोचन जैसी सरलता, केदार बाबू जैसी कलात्मकता और नागार्जुन जैसी प्रखरता दिखाई देती है। उनकी कविता का सहज ,भावपूर्ण एवं विविध आयामी स्वरूप मध्यवर्गीय रचना भूमि का अतिक्रमण करता है। वे अपनी देशज जमीन पर खड़े मनुष्यता की खोज में संलग्न रहते हैं। उनकी कविताएं यथार्थ का चित्रण ही नहीं करती बल्कि उसको बदलने के लिए रास्ता भी सुझाती हैं। लोकधर्मी कविता की अपील कितनी व्यापक होती है इनकी कविताओं में देखा जा सकता है।
हाशिए में पड़े लोगों के दुःख-दर्दों के प्रति केशव तिवारी के भीतर जो बेचैनी और तड़प दिखाई देती है वह आज विरल है। बद-से-बदतर हालातों में भी काठ-पाथर न होना ही उनकी ताकत है। एक इंसान के रूप में उनकी सबसे बड़ी खासियत है कि जिसके साथ खड़े हुए फिर उसके लिए जमाने से लड़े इसी के चलते वे बहुत सारे लोगों के आँखों में खटकते और सीने में गड़ते रहे हैं। पर उनको इसकी परवाह नहीं। वे ’दिल्ली’ के दर्प को कभी नहीं कबूलते है। वे प्रेम करना जानते हैं तो घृणा करना भी । वे उन तमाम ताकतों से घृणा करते हैं जो मानवता के खिलाफ हैं। वे इस धरती पर सिर्फ प्रेम करने के लिए आए हैं। उनकी प्रेम की उदात्तता ही कही जाएगी कि प्रेम करने के लिए आने के बावजूद भी घृणा करने को मजबूर हैं उन लोगों से जो प्रेम के खिलाफ षड्यंत्र करते हैं। ऐसा वही कर सकता है जो मानवता से सच्चा प्रेम करता हो। केशव की कविताओं में आम आदमी का दुःख रह-रह कर फूट पड़ता हैं। वे आम आदमी से इतने एकात्म हैं कि उनकी फटी हथेलियों और सख्त चेहरों से झरते हुए नमक तक को भी देख लेते हैं। खुरदुरी हथेलियों में उन्हें जीवन का सच्चा सौंदर्य दिखाई देता है। वे खुरदुरी हथेलियों वालों को भी उसके सौंदर्य का अहसास कराते हैं।
उनके लिए ’नामालूम और छोटे’ की अहमियत किसी ज्ञात और बड़े से कम नहीं। इनके हिस्से में किसी तरह की कोई कटौती उन्हें स्वीकार नहीं है। ’अपने कोने के एक हिस्से में बहुत उजला और बाकी के हिस्सों में बहुत धुँधला’ उन्हें मान्य नहीं। ’कुछ हो ना हो’ सभी के लिए ’एक घर तो होना ही चाहिए’। उन्हें एक अफगानी, एक कश्मीरी, एक पहाड़ी या राजस्थानी का दुःख भी उतना ही सालता है जितना किसी बाँदावासी का। वह इस धरती की सुंदरता अपने समय को ललकारते लोगों में देखते हैं। उनका अपनी जमीन से ’आशिक और मासूक का रिश्ता’ है। इसी के चलते तो उनके लिए ’आसान नहीं विदा कहना’। इससे पता चलता है कि वे अपनी जमीन से कितना प्रेम करते हैं। लोगों की खुशी में ही कवि की खुशी और उनकी बेचैनी में कवि की बेचैनी है।
यह कवि ’दलिद्र’ को भी जानता है और दलिद्रता के कारणों को भी। और यह भी जानता है कि जिस दिन श्रम करने वाले लोग भी उन कारणों को जान जाएंगे उस दिन उलके ’जीने की सूरत भी बदल जाएगी’। वे भली-भाँति जानते हैं कि ’दुःखों की नदी स्मृतियों की नाव के सहारे पार’ नहीं की जा सकती है। एक कवि का यह जानना उसकी वैज्ञानिक दृष्टि का द्योतक है। यही है जो उसे कोरी भावुकता से बचा ले जाता है।
कवि ऐसी कविता लिखना चाहता है जो कठिन दिनों में भरोसेमंद मित्र की तरह साथ बनी रहे। वे उस आदमी की तलाश करते हैं जिससे मिल धीरज धरे मन, जो रोशनी का अहसास लिए हो जिस पर भरोसा किया जा सके तथा खुद जिसका विश्वास बना जाय। उनकी कविता में यह बात हमें मिलती भी है। उनकी कविता हारे-गाढ़े हमारे साथ बनी रहती है। वे कोलाहल भरी भीड़ में खुद को भी खोजते हैं- अपनी खनकदार आवाज और मन-पसंद रंग को तथा सूखती संवेदना में खोई हुई सौंदर्य दृष्टि को। उनकी दृष्टि में यह खोज किसी संघर्ष से कम नहीं है। यह वास्तविकता भी है।
केशव अतीत के अजायबघर को वर्तमान की छत पर खड़े हो कर देखने वाले कवि हैं। अतीत के मोह में खो जाने वाले नहीं। उन पर ’नास्टेल्जिक’ होने का आरोप मुझे हास्यास्पद प्रतीत होता है। नई सुबह के आगमन के प्रति वे आश्वस्त हैं। उनको गहरा अहसास है कि -'आज नहीं तो कल/कटेगी ही/ दुःख भरी रातें/ हटाए ही जाएंगे पहाड़।
हमारे समय में बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव को लेकर केशव परेशान रहते हैं। जो उनकी कविताओं में अनेक स्थानों पर व्यक्त हुआ है। बाजार का दबाब वे अपने गर्दन और जेब दोनों में महसूस करते हैं। प्रेम का वस्तु में तब्दील होते जाना उनको बहुत कचोटता है। इस बाजारवादी समय में प्रेम दिल के नहीं जेब के हवाले हो गया है। जो खरीदा-बेचा जा रहा है। केशव प्रेम को व्यापार बनाए जाने के विरोध में हैं। वे बाजार का नहीं बाजारवाद का विरोध करते हैं। वे कहते हैं ’तब भी था बाजार’ पर ऐसा नहीं, जो मनुष्य को लूटने के लिए हो। जिसमें बाजार में खड़ा हर आदमी हानि-लाभ का हिसाब लगाने में ही जुटा रहता हो। मनुष्य अपनी जरूरत के लिए बाजार में जाता था न कि बाजार जरूरत पैदा कर आदमी के घर में घुसता था। दूसरे शब्दों में, बाजार आदमी के लिए था न कि आदमी बाजार के लिए। जरूरतें कृत्रिम नहीं थी। वस्तु बेची जाती थी मूल्य नहीं। चकाचौंध पैदा कर ग्राहक को भरमाया नहीं जाता था। उसकी आँखों में झूठे सपने नहीं बोये जाते थे। केशव बाजार के इस चरित्र को पूरी काव्यात्मकता के साथ अपनी कविता में उद्घाटित करते हैं। उनके कहन का अपना निराला अंदाज है । जैसे उन्हें यदि बाजारवाद के खिलाफ कुछ कहना है तो भारी-भरकम शब्दों की बमबारी नहीं करते बल्कि ’गहरू गड़रिया’ जैसे पात्रों को उसके बरक्स खड़ा कर देते हैं। अतंर्विरोध खुद-ब-खुद सामने आ जाते हैं।
बाजारवादी समय में लोक के व्यवहार में आ रहे बदलाव पर भी उनकी पैनी नजर रहती है। लोक को झूठ-मूठ का महिमामंडित करना उन्हें नहीं भाता है। जहाँ भी लोक के भीतर कोई छल-छद्म-धूर्ततता या ईष्र्या-घृणा-बैर या फिर अंधविश्वास-रूढ़िवादिता जैसी कमजोरियाँ नजर आती है उन्हें भी रेखाकिंत करने से नहीं चूकते हैं। ये सब रेखांकित करने के पीछे उनका उद्देश्य लोक को उसकी कमजोरी का अहसास करा उससे बाहर निकलने के लिए प्रेरित करना रहता है। ताकि वह अपने मुक्ति-संघर्ष को मजबूती से आगे बढ़ा सके। यह लोक को देखने की उनकी द्वंद्वात्मक दृष्टि है।
केशव की कविताओं में अपने नीड़ से बहुत दूर चले आने की पीड़ा भी व्यक्त हुई है। इस बात की कसक भी है कि जिस नृशंस दुनिया के खिलाफ कभी खड़े हुए थे वह दुनिया आज भी उतनी ही नृशंस है। बहुत अधिक बदलाव नहीं आया उसमें।
कवि केशव तिवारी की विशिष्टता है कि वे अपनी कायरता तक को नहीं छुपाना चाहते हैं। उनके भीतर सच सुनने का साहस है। कवि को कैरियर की खोह में फँसकर तरह-तरह के समझौते करने और घिसट-घिसट कर निभाने का अफसोस है। कवि अपने पुरखों, अपनी जमीन, अपने जन के प्रति कृतज्ञता से भरा है। इसलिए कहा जा सकता है इस कवि की काव्ययात्रा बहुत लंबी और कालजयी होगी।
उनके संकलन से कुछ कविताएं चुनना बहुत कठिन काम है फिर भी यह दुष्कर कार्य करने की कोशिश की है। सुधी पाठकों से आशा है कि वे इन कविताओं पर खुल कर अपनी राय व्यक्त करेंगे।
-महेश चंद्र पुनेठा
केशव तिवारी की कविताएँ
नमक
अब प्रेमियों के चेहरे पर
वह नमक कहाँ
प्रेयसियों के चेहरे पर भी
पहले-सी लुनाई नहीं
था कोई वक्त जब नमक का हक
सर देकर चुकाया जाता था
सुना है यूनान में तो
नमक के लिए
अलग से मिलता था वेतन
एक बूढ़ा हमारे यहाँ भी था
जो नमक की लड़ाई लड़ने
पैदल ही निकल पड़ा था
हमें कहाँ दिखता है
फटी हथेलियों
और सख्त चेहरों से
झरता हुआ नमक ।
घृणा भी करनी पड़ी
कवि ने नदी से
प्रेम किया और
बहने लगा
उबड़-खाबड़ मैदानों
घाटियों के बीच
कवि ने पेड़ों से
प्रेम किया और
बदल गया
हरे-भरे जंगलों में
पहाड़ों से किया प्रेम और
सिहरता रहा छू-छू कर
उनकी चोटियाँ
कवि एक स्त्री से
प्रेम कर बैठा
और उसे अपने
इस धरती पर
होने का मतलब
समझ में आया
वह इस धरती पर
आया ही था सिर्फ
प्रेम करने के लिए
पर उसे घृणा भी
करनी पड़ी उनसे
जो प्रेम के खिलाफ
कर रहे थे षड्यंत्र ।
एक सफर का शुरू रहना
तुम्हारे पास बैठना और बतियाना
और बचपन में रुक-रुक कर
एक कमल का फूल पाने के लिए
थहाना गहरे तालाब को
डूबने के भय और पाने की खुशी
के साथ-साथ डटे रहना
तुमसे मिल कर बीते दिनों की याद
जैसे अमरूद के पेड़ से उतरते वक्त
खुना गई बाँह को
रह-रह कर फूँकना
दर्द और आराम को
साथ-साथ महसूस करना
तुमसे कभी-न-कभी
मिलने का विश्वास
चैत के घोर निर्जन में
पलास का खिले रहना
किसी अजनबी को
बढ़कर आवाज देना
और पहचानते ही
आवाज का गले में ठिठक जाना
तुम्हारे चेहरे पर उतरती झुर्रीं
मेरे घुटनों में शुरू हो रहा दर्द
एक पड़ाव पर ठहरना
एक सफर का शुरू रहना।
तुम्हारा शहर
बेतवा के पुल पर खड़ा मैं
तुम्हारे शहर को देखता हूँ
दो नदियों के बीच बसा ये
चाँदनी रात में
किसी तैरते हुए
जलमहल-सा दिखता है
और घर की छत पर खड़ी तुम
एक जलपरी सी
इसी शहर की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से गुजरते
तुम हुई होगी युवा
किसी को पहली बार देख कर
चमकी होगी नजर
इसी शहर में है कल्पवृक्ष
जिसके नीचे खड़ी हो कर
देखा होगा उद्दाम यमुना को
महसूस की होगी तटबंधों की सिहरन
बाहर से कितना शांत
भीतर से कितना बेचैन
तुम्हारी ही तरह
ये तुम्हारा शहर ।
तुम्हारी स्मृति
तुम्हारी स्मृति जैसे
तेज हवा में घबराई तितली
जब भी आती है
मन के किसी कोने में
चिपक के रह जाती है
मैं इन दिनों
आने वाले दिनों को ले कर
परेशान रहता हूँ
प्रेम जब वस्तु होकर रह जायेगा
लैला और मजनू एक ब्रैंड नेम
तब बाजार में इंच और मीटर के
नाप से बिकेगा प्रेम
जितनी गहरी जेब
उतना लंबा प्रेम
एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में
चाय बेचता मैं
हो सकता है मुझे भी
प्रेम बेचने का काम मिल जाय
तब मैं लिखूँगा इंकारनामा
और
तुम्हारे ऊपर एक कविता
कोई कहे या न कहे पर
तुम तो यह कहोगी ही
एक कवि ने रोटी की शर्त पर
प्रेम बेचने से मना कर दिया।
साथ-साथ
लगभग एक ही समय
इस धरती पर आए हम
एक ही समय सम्हाला होश
जब पहली बार मिले तो
लगा जैसे मुझे तुम्हारी
और तुम्हें मेरी ही तलाश थी
हम उड़ते रहे उनमुक्त
एक छान के नीचे
जो हमारे लिए
विस्तृत आकाश से कम नहीं था
उन दिनों हम हवाओं पर सवार थे
कल्पना की अर्गला हमारे साथ थी
कहीं पहुँचना कुछ भी पाना
नामुमकिन नहीं था
पर हम भूल गए थे
धीरे-धीरे छीज रही है
हमारी छान
सिमट रहा है हमारा आकाश
अचानक एक तेज आँधी
छूट गई अर्गला हमारे हाथ से
और
हम यथार्थ की कठोर भूमि पर
पड़े थे
फिर भी
गहे रहे एक दूसरे की बाँह
ऐसा कौन-सा दुःख था
जिसको मिल कर
साथ-साथ
नहीं सहा हमने
ऐसा कौन-सा सुख्, था
जिसमें एक ही लय पर
नहीं बज उठी हमारे
प्राणों की घंटियाँ
अब तो
सयाने होने लगे हैं
अपने बच्चे और
तुमने भी देखने शुरू
कर दिए सपने
उनकी आँखों में।
डिठवन एकादशी
डिठवन एकादशी
दूसरा दिन है आज
इस साल भी हर साल की तरह
मुँह अंधेरे महिलाएं
गन्ने के टुकड़े के सूप पीट-पीट कर
दरिद्दर गाँव से बाहर खदेड़ रही हैं
इस्सर आवें दरिद्दर जाएं कहते हुए
यह एक रस्म बन गई है धीरे-धीरे
ये जान चुकी हैं
कि इस तरह नहीं भगेगा दलिद्दर
लेकिन उसको भगाने की इच्छा
अभी बची है इनमें
खेतों पर हाड़-तोड़ मेहनत कर के
लकड़ी बेच कर तेंदू पत्ता तोड़ कर
ये खदेड़ना चाह रही हैं दलिद्दर
ये नहीं जान पा रही हैं
आखिर दलिद्दर टरता क्यों नहीं
ये नहीं समझ पा रही हैं
कि कुछ लोग इसी के बल जिंदा हैं
उनका वजूद/ इनकी भूख पर ही टिका है
जिसे गन्ने से सूप बजा कर
खदेड़ा नहीं जा सकता
जिस दिन इस रस्म में
छिपे राज को ये समझ जायेंगी
उस दिन से इनके जीने की
सूरत बदल जाएगी।
संपर्क-
केशव तिवारी
मोबाईल- 09918128631
महेश चंद्र पुनेठा
मोबाईल- 09411707470
शायद मेरी मनस्थिति ठीक नहीं है और मैं समझ नहीं कर पा रहा हूँ.
जवाब देंहटाएंसहज और साधारणता में विशिष्ट लगने वाली इन कविताओं में कुछ लोचा तो है. नमक कविता में गांधीजी को बूढा कहना अच्छा नहीं लगा यद्यपि वह सही संकेतित कर रहा है.
इसी तरह तुम्हारा शहर कविता में चांदनी रात में शहर को देखना जलमहल कि तरह और छत पर तुमको देखना जलपरी कि तरह, कुछ जमा नहीं. ऐसा लगा जैसे कैमरा ज़ूम करके देखना हुआ और बताना आँख हुआ ...
डीठवन एकादशी में आया दलिद्दर भगाने का कार्यक्रम हमारे यहाँ दीपावली के अगले दिन हुआ करता है तो यहाँ शायद स्थान विशेष के कारण होगा.
हाँ, साथ साथ और घृणा भी करनी पड़ी जैसी कवितायेँ पठनीय हैं...अच्छी...
गहरी अनुभूतियों वाली अच्छी कविताएं!
जवाब देंहटाएंमहेष जी मुझे केषव जी की कविताओं को सुनने का भी अवसर मिला.....केषव जी को आष्चर्यजनक रूप से अपनी अधिकांष कविताएं याद है...उन्हें सुनने में सही मायने में मजा आता है...
जवाब देंहटाएंकेशव जी की कविताएं हमारे समय की उस आवाज को स्वर देने वाली कवितायें हैं , जो आज के समय में भले ही हाशिए पर डाल दी गई है , लेकिन जिसके भरोसे ही हम भविष्य के सपनो को साकार करने की उम्मीद पाल सकते हैं | उनकी कविताएं ऊपर से देखने पर जितनी सरल और सीधी लगती हैं , भीतर से उतनी गहरी और चोट करने वाली साबित होती हैं | इन कविताओं में चीजों को उनकी आत्मा लौटाने की बार बार कोशिश की जाती है | वह चाहें प्रेम की कोमल तान हो , या कि दलिद्दर खदेडने की जटिल फांस ...| तभी तो वे हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण युवा जन कवियों में से एक है | ..उन्हें हार्दिक बधाई ...हां महेश जी ने जिस बेहतरीन तरीके से उनकी कविताओं का हमसे परिचय कराया हैं , उसके लिए वे भी बधाई के पात्र है ...|
जवाब देंहटाएंकेशव जी की रचनाओं को पढ़ना सुखद तो है ही मेरे लिए अनुभव संग्रह भी है ....जब मैं छोटा था तब नमक बीस पैसे किलो मिलता था मेरे गावं में, आज नमक पन्द्रह रुपए किलो है ....कभी राशन की दुकानों में भी मिला करता था सरकारी दर पर .....बूढा कहकर कवि ने गाँधी जी से अपनी आत्मीयता व्यक्त की है साथ ही यह भी कहना चाहा है कि उस प्यारे बापू को आज़ादी के बाद एक असहाय बूढ़े व्यक्ति की तरह दरकिनार कर दिया था ...कवि चांदनी रात में बेतवा के पुल पर खड़े होकर दो नदियों के बीच एडिसन के आविष्कार में जगमगाते शहर को देखता है ....दृश्य ऐसा ही लगता है ..कवि सच्चा प्रेमी है जो रोटी की शर्त पर प्रेम बेचने से मना कर देता है ........महेश जी केशव जी पर बहुत सुंदर लिखा है ....बहुत सुखद लगा ये रचनाएं पढकर .....सादर
जवाब देंहटाएंकेशव जी की कविताओं पर महेश जी ने बहुत सटीक और सूत्र पद्धति में सही लिखा है |कविता वास्तव में क्या होती है और हो सकती है यह इस आलोचना और कविता दोनों से समझा जा सकता है | कविता यदि आज शब्दों और दिलों में बची हुई है तो उसका एक रूप यह भी है और यह उसका मर्मस्पर्शी एवं सजीव रूप है | बूढ़े के सन्दर्भ से गांधी की व्यंजना से कविता इस समय से सीधे जुड़ जाती है | आज की बाजारू सभ्यता ने हमारे जीवनादर्शों को बुढ़ाई के खाते में जबरन धकेल दिया है | प्रेम के मर्म में पैठ बनाने में केशव जी को काफी हद तक सफलता मिली है |कहा जा सकता है कि केशव जी के रूप में भविष्य और वर्तमान की कवि-संभावनाएं छिपी हुई हैं |
जवाब देंहटाएंकेशव जी की कविताओं पर महेश जी ने बहुत सटीक और सूत्र पद्धति में सही लिखा है |कविता वास्तव में क्या होती है और हो सकती है यह इस आलोचना और कविता दोनों से समझा जा सकता है | कविता यदि आज शब्दों और दिलों में बची हुई है तो उसका एक रूप यह भी है और यह उसका मर्मस्पर्शी एवं सजीव रूप है | बूढ़े के सन्दर्भ से गांधी की व्यंजना से कविता इस समय से सीधे जुड़ जाती है | आज की बाजारू सभ्यता ने हमारे जीवनादर्शों को बुढ़ाई के खाते में जबरन धकेल दिया है | प्रेम के मर्म में पैठ बनाने में केशव जी को काफी हद तक सफलता मिली है |कहा जा सकता है कि केशव जी के रूप में भविष्य और वर्तमान की कवि-संभावनाएं छिपी हुई हैं |
जवाब देंहटाएंदृश्य को भावपूर्ण दृष्टी में ढाल देने वाले केशव तिवारी , लाचार जनपद की ढाल हैं . गाँव , अंचल , कछार, इनके भीतर विषय , दृश्य या चित्र की तरह नहीं , धड़कन , अहक , महक और धमनियों में बहते रक्त की तरह विराजमान है .केशव जी शब्द का इश्तेमाल कविता लिखने के लिए नहीं , बल्कि अंतर्व्यथा सुनाने के लिए करते हैं . कलात्मक समझ और खर भावना का संगठन केशव जी में पर्याप्त है . ये कवितायेँ उनके अंतर्मन का प्रति - संसार भी रचती हैं , अर्थ की कसावट से रहित पंक्तियाँ अपवाद स्वरुप हैं . माटी की अलौकिक महक किसी भी कवि की वाणी से परे है , मगर उस शब्दातीत सुगंध को सम्मान देने के सच्चे प्रयास में केशव जी सार्थक कविता की मुहर जैसे लगते हैं . भरत प्रसाद , शिलोंग
जवाब देंहटाएंMohan Shrotriya- महेश पुनेठा ने केशव की कविता का आत्मीयतापूर्वक, किंतु वस्तुपरक ढंग से मूल्यांकन किया है. कविता के उन ज़रूरी और उजले पक्षों को उभारा है, जो हमारे अपने समय की ज़रूरतों और चुनौतियों के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हैं. "नमक" अपनी तमाम सादगी के बावजूद बेह...द सलोनी कविता है. गांधी को 'बूढ़ा' कहना किसी को भी क्यों अखरना चाहिए. 'साथ-साथ' सुख और दुख दोनों ही स्थितियों में साथ बने रहने को रेखांकित करते हुए, 'उड़ने' और 'गिर पड़ने'के प्रति दुर्लभ सम्यक दृष्टि को संकेतित करती है. आखिरी कविता में "जिस दिन इस रस्म में/छिपे राज़ को ये समझ जाएंगी/ उस दिन से इनके जीने की/ सूरत बदल जाएगी" उम्मीद की पंक्तियां हैं. आमीन. बधाई. आभार.
जवाब देंहटाएंParmanand Shastri-
जवाब देंहटाएंकेशव जी की कवितायों के बहाने से
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केशव जी की कवितायों में जो सामजिक चरित्र उभरकर सामने आता है वह हमें आईने के सामने खड़ा करके सवाल करता है ,वह यथार्थ हमें डराता भी है और आश्वस्ति भी देता है .कवि एवं आलोचक महेश पुनेठा उन्हें हमारे सम्मुख इस टिप्पणी के साथ लाते हैं कि वे दिल्ली के दर्प को अस्वीकार करते हैं .किसी कवि कि पहली परीक्षा यही है कि वह किन... लोगों के लिए लेखन में सक्रिय है .केशव जी का लेखन इस मायने में जन के पक्ष में है ,यही उनके लेखन को सार्थक प्रयास में ध्वनित करता है .केशव जी को बाज़ार का दबाव गर्दन और जेब दोनों पर महसूस होने लगता है तो उससे मुक्ति के लिए वे कलम को तलवार की तरह थामकर लेखन के क्षेत्र में प्रवृत होते हैं .प्रेम के लिए प्रवृत कवि घृणा को भी सहज ही स्वीकारता है 'पर उसे घृणा भी/ करनी पड़ी उनसे/ जो प्रेम के खिलाफ कर रहे थे षड्यंत्र .'तुम्हारी स्मृति 'कविता में केशव का लेखन सम्पूर्ण रूप से मानवीय धरातल पर आकर खड़ा हो जाता है 'एक कवि ने रोटी की शर्त पर /प्रेम बेचने से मना कर दिया .'ढीठवन एकादशी 'नमक ',तुम्हारा शहर ',एक सफ़र का शुरू रहना 'आदि कवितायेँ केशव जी के लेखन के जनपक्षीय होने का पुख्ता सुबूत हैं .ऐसे प्रतिभावान कवि से परिचय करवाकर महेश पुनेठा ने वास्तव में सराहनीय कार्य किया है .कवि केशव और आलोचक कवि महेश पुनेठा ,दोनों को ही साधुवाद
Neel kamal- Genuine kavi ki genuine kavitaayien.
जवाब देंहटाएंकवि एवं आलोचक महेश पुनेठा की टिप्पणी ने केशव जी की कविताएं पढ़ने के आनंद को कई गुना बढ़ा दिया ! ...यह एक नई शुरूआत है..इसके लिए संतोष जी को धन्यवाद ! आगे भी लोगों की रचनाएँ इसी तरह से आनी चाहिए !
जवाब देंहटाएंbahut sundar lagi kavitayen.. kahan dekh paate hain namak.. roti ke badle prem bechne se inkaar kar diya .. aadi aisi panktiyan hain jo aasaani se nhi bhoolengi.. aur bechain karengi der tak.. abhaar padhvaane ke liye.. mahesh ji kee sateek samiksha hamesha kii tarah..
जवाब देंहटाएंभाई केशव तिवारी की कविताओं पर महेश जी ने बहुत ही आत्मिय ढंग से लिका है। इससे केशव तिवारी की कविताओं को समझने की दिशा में कई खिड़कियां खुलती हैं। यहां प्रस्तुत कविताएं भी बहुत अच्छी हैं। केशव जी की लोकधर्मिता के कल भी कायल थे हम आज भी हैं। बधाई....
जवाब देंहटाएंकेशव तिवारी की कवितायेँ मर्मस्पर्शी के साथ विचारोत्तेजक भी हैं
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविताएँ !!
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