रामजी तिवारी के गीत



रामजी तिवारी 




रामजी तिवारी ने 1997 में कुछ गीत लिखे थे। यह एक तरह से इनके रचनात्मक जीवन की शुरुआत थी। लेकिन बलिया जैसी जगह पर साहित्यिक माहौल न मिलने की वजह से लेखन का यह सफर थम सा गया। एक लंबे अंतराल के पश्चात 2009 से रामजी भाई ने लेखन की फिर से शुरुआत की। इस क्रम में इनकी कवितायेँ, कहानियां, लेख, यात्रा वृतांत और समीक्षाएँ पाखी, समयांतर, परिकथा, अनहद जैसी पत्रिकाओं में और समालोचन, असुविधा, अपनी माटी, जनपक्ष, और पहली बार जैसे ब्लागों पर प्रकाशित हो चुकीं हैं। ये गीत प्रकारांतर से एक लेखक के जीवन की प्रारंभिक रचनाधर्मिता को समझने में सहायक साबित हो सकते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रामजी तिवारी के गीत।
      .  

रामजी तिवारी के गीत



आज मुझे मालूम हुआ



जीवन इतना सरल नहीं है
जीने पर मालूम हुआ
सुधा नहीं है गरल है ये तो
पीने पर मालूम हुआ


मंद मुस्कुराते अधरों की
कशिश है होती कितनी लम्बी
उन अधरों से पीने पर ही
राज मुझे मालूम हुआ


शाम है जिनके दम पर ढलती
उन नयनों की भाषा को
अपने दिल की भाषा से ही
पढ़ने पर मालूम हुआ


दिल तो है बस एक खिलौना
नाजुक बिलकुल सीसों जैसा
इस समाज के इन हाथों में
पड़ने पर मालूम हुआ



ऐसा नहीं कि दिल की भाषा
नहीं समझता कोई भी
हाँ ! थोड़ी मुश्किल जरुर यह
पढ़ने पर मालूम हुआ


पहले मैं था सोचा करता
जी ही लूँगा उनके बाद
कितना बड़ा मिथक था वो भी
आज मुझे मालूम हुआ


हार मान कर मत चुप बैठो
चाहें काल खड़ा हो आगे
प्यार तो यमराजों से जीता
लड़ने पर मालूम हुआ


कहना तो था बहुत चाहता
बहुत अनकही बातों को
धरा रह गया लेकिन सब कुछ
कहने पर मालूम हुआ





सब बना है उनकी छाया से


अम्बर क्या है किसे पता
यह चांदनी कहाँ से आयी है,
है कौन जानता इस पल की
यह खुशबू कहाँ से आयी है ?


है किसे भान इन किरणों का
जो हर लेती हैं तम को भी,
है नहीं जानता कोई भी
यह घटा कहाँ से आयी है ?


क्यों मुस्काती हैं ये कलियाँ
खिलते हैं गुल क्यों गुलशन में,
बेखबर है दुनिया इससे भी
ऐसी किसकी तरुणाई है?


ऊपर में खड़ा हिमालय क्यों
नीचे क्यों लहराता सागर,
यह पछिया पवन क्यों चलती है
क्यों चलती यह पुरवाई है?


क्यों रात है इतनी स्याही सी
यह दिन इतना चमकीला क्यों,
क्यों एक सिरे पर यह पर्वत
दूजे पर क्यों यह खाई है?


इतने उलझाऊ प्रश्नों का
है उत्तर बिलकुल सीधा सा,
दिल थाम के बैठो ऐ यारों
गुत्थी मैंने सुलझाई है



जिसको दुनिया कहती अम्बर
यह उनका चौड़ा माथा है
बैठी उस पर नन्ही बिंदिया
जो चांदनी बन कर छाई है


यह खुशबू है उनकी आहट
ये किरणें उनकी आभा हैं ,
यह काली घटा जो उठी है
उन जुल्फों की परछाई है


उन अधरों के खुल जाने से
ये गुल खिलते है गुलशन में ,
कि जान लो तुम भी ऐ यारों
ऐसी उनकी तरुणाई है


ऊपर में खड़ा हिमालय यह
उनकी रखवाली की खातिर ,
जो सागर नीचे लहराता
यह उनकी चरण धुलाई है


जो बन कर पछिया बहती है
यह तपिस है उनकी ज्वाला की ,
उनके मद से जो मदमाती
यह इसीलिए पुरवाई है



उनकी आँखों से स्याह चुरा
यह रात बनी है स्याही सी ,
जो दिन इतना चमकीला यह
आभा उनकी लहराई है


दिखने वाली ये सब चीजें
बौनी हैं आगे उस मन के
जलती है प्यार की लौ जिसमे
दुनिया को राह दिखाई है


कहता हूँ इसीलिए यारों
सब बना है उनकी छाया से ,
यह निराकार की कृपा रही
मुझसे जो प्रीति लगाई है





जीवन तो चलता रहता है


बदला भी है बदलेगा ही
जीवन तो चलता रहता है,
ये ऐसा है वो वैसा है
जगत तो ये कहता रहता है


कितनी बात सुनें हम आखिर
कोई तो उसकी सीमा हो
कुचले जाने से बच पायें
ऐसी कोई गति सीमा हो,


जहाँ पे जा कर कोई हमसे
कहे पार्थ अब बहुत हो चुका
नींद हमारी टूट गयी है
क्षमा करो मैं बहुत सो चुका,


पर यह निद्रा कहाँ है टूटी
जो अब जाकर टूटेगी
टूटने को तो दिल रखा है
सदियों से टूटा करता है


ये ऐसा है .................
वो वैसा है ................


आँख खुली जब होश संभाला
जंजीरों में जकड़ा पाया
बहुत तोड़ना उनको चाहा
लेकिन उनको तोड़ ना पाया


मिला नसीहत हमको करती
ये मत करना वो मत करना
नहीं बताता यहाँ पे कोई
लेकिन मुझको क्या है करना


इतने बंधन बचपन में ही
बन्धु किस पर थोप रहे हो
आखिर तुमको कौन बताये
बचपन तो चंचल रहता है



ये ऐसा है ....................
वो वैसा है ...................


बड़ा हुआ जब दुनिया देखी
सारा मंजर चलता पाया
धीरे से यह दिल भी बोला
हमको भी चलना है भाया


अजी , छूट दी हमने इसको
जहाँ है जाना तुम भी जाओ
चलना प्यारे नियति जगत की
तुम भी भाई चलते जाओ


अभी तो चलना शुरू किया था
किसी ने ठोकर जोर से मारी
खुली आंख से दिन में प्यारे
सपना क्यों देखा करता है


ये ऐसा है .....................
वो वैसा है ...................


हमने भी प्रतिवाद किया
तुम किसको ठोकर मार रहे हो
चाँद को कोई बाँध सका है
जो तुम हमको बाँध रहे हो


धरा भी अपनी गति से चलती
इतना बोझ जिसे ढोना है
दिल पर तो है बोझ नहीं
फिर व्यर्थ तुम्हारा यह रोना है


आज जो ठोकर तेरी है
कल तेरे ऊपर बरसेगी
अभी वक्त है संभल जा प्यारे
समय भला किसका रहता है



बदला भी है बदलेगा ही
जीवन तो चलता रहता है
ये ऐसा है वो वैसा है
जगत तो ये कहता रहता है



सम्पर्क 

मोबाइल – 09450546312


टिप्पणियाँ

  1. आशा और संवेदनाओं से सराबोर गीत !

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  2. बहुत सुंदर गीत..... .रामजी भाई की सुंदर कवितायेँ वर्तमान परिस्थितियों पर अपना मत रखते हुए भी भविष्य के प्रति आश्वस्त करती हैं...... .रामजी भाई बधाई के पात्र हैं.....कुछ दिन पहले ही अनामिका जी ने कहा हमसे कोई नहीं होगा जिसने लयात्मक छंदों वाली कवितायेँ न लिखी हों......इतनी सुंदर कवितायेँ साझा करने के लिए "पहली बार' का आभार....

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  3. सहज और मन को छूने वाले गीत हैं. पर ये केवल गुनगुनाने वाले गीत नहीं हैं ये मनन करने वाले मंत्र हैं. जीवन और जगत से गलबाँही करते हुए, ये सुलाने वाले गीत नहीं जगाने वाली चेतना है. गीतों का प्रयोग जनचेतना फैलाने में बखूबी किया जा सकता है आज यह फिर साबित हुआ. बधाई.

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  4. राम जी की काव्य -संवेदना आधुनिक और कलामय है , किन्तु तुकबंदी में ही चक्कर मारकर रह जाने वाले ये अर्थ कहीं न कहीं तुक की सीमाओं को तोड़ने की मांग कवि से करते हैं . शायद ये आधुनिक अर्थ आधुनिक काव्य -ढांचे की चाहत रखते हैं . जिस तरह अर्थ की प्रकृति सीमाहीन रहने की है , वैसे ही कविता भी . भरत प्रसाद

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  5. sundar geet, aajkal etnee khubsurat geet kahan padhne ko miltey hain, badhai tiwari jee

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  6. geet bhi likhte hain ramji nhi jaanti thi.. sundar lage.. chand ko koi bandh saka hai jo tum... badhai ramji

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  7. Mahesh Punetha- ramji bhayi ki maine ek khasiyat dekhi we jis bhi vidha main likhate hain usamain apani ek alag chhap chhod jate hain . unaki rachanaon main gahara jeevan rag dikhayi deta hai. unaki rachanaon ne mujhe bahut prabhawit kiya hai. jab bhi unhen padata hun ek nayi urja se bhar jata hun. we hamare samay ke prabhawshali rachanakar hain.

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  8. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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  9. Jyoti Chawla- बेहद सुंदर गीत हैं येा और उतने ही वैचारिक भीा राम जी आपको बहुत बहुत बधाईा

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  10. Brijmohan Shrivastava मुझे याद हैबहुत साल पूर्व उपन्यास पढ़ा था /कविता बहुत अच्छी लगी

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  11. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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  12. Asmurari Nandan Misshra- कवितायेँ पढ़ीं, और मन से पढ़ीं. पसंद भी आईं किन्तु टुकड़ों में. ये ऐसा है/ वो वैसा/ बड़ा हुआ जब दुनिया देखी ...यह बंद रास आया..जीवन इतना सरल नहीं है/ जीने पर मालूम हुआ//सुधा नहीं है गरल है ये तो/ पिने पर मालूम हुआ... अच्छी शुरुआत रही.....वैसे हर जगह छंद निभ नहीं सका है...कितु अच्छा यह है कि घोर छंद हीनता के दौर में जब छंद को बेमानी घोषित किया जा चुका है, एक रचना कार छंदों के साथ खड़ा है...छंदों को छोड़ने और तोड़ने की रिवाज ही बनती जा रही है...याद रखना चाहिए कि निराला ने छंदों को न तो छोड़ा है और न ही तोडा है, हाँ कविताओं को मुक्त सौंदर्य दिया है....छंदों को हानि उन रचनाकारों ने पहुचाई ,जो वास्तव में उसमें लिख ही नहीं पाते थे........ आशा है अब परिपक्वता के साथ हमें ऐसी और रचनाएं देखने को milengi..

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  13. Joyshree Roy- आपके शब्दों ने बहुत कुछ याद दिला दिया...

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  14. Santosh Choubey- विडम्बना है की जीवन के सर्वाधिक उर्वर , सर्जनात्मक संभावना से लबरेज और लगभग निष्कलंक इमानदारी से भरे दौर और उसमे उपजे ख्याल को बाद के दिनों में सतही और भावुक कह कर ख़ारिज किया जाता है .......:)) बहुत बधाई रामजी आपको ..इतनी ख़ूबसूरत चीज पढवाने के लिए

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  15. Ashish Pathak- मकतब - ए- इश्क में इक ढंग निराला देखा
    उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ ......

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  16. Pankaj Mishra- समय भला किसका रहता है / सबको यही गिला रहता है

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  17. Tiwari Keshav- Are ram ji bhai aaj bahut udas tha yar.tumhare geet 15 warsh peechhe leker chale gaye man halka ho gaya bhai.

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  18. डॉ.सुनीता कविता- दिल के कोने में पलते जजबात को आज के परिदृश्य से बखूबी जोड़ के हृदय को छू लेने वाली रचनाएँ...

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  19. Amrendra Shukla- waah bahut sunder rachna aur utne hi sunder uske ander chupe bhav..........badhai

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  20. san 1997 k likhe git ka aj prakashan hua.badhai.aj mujhe malum hua k chingari chahe jb v phute lagati vah aag hi hai.1997 me to ham sb k pas keval half paint hua karate the.chhando vali kavitaon ka course me khub bolbala v tha.khair! Itane sal tak yah kavita jis kagaj par pure vajud k sath maujud thi,vah v badhai ka patra hai."aj mujhe malum hua" mujhe shandar lagi.bar 2 padhane ka man kiya.shesh 2 v pure garima ke sath hai.apki "pahalauthi rachanayen" chhapkar, kaha jaye to "pahali bar" blog v apni sarthakata siddh kar rha hai.santosh sir ko v sadhuvad! अरविन्द

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  21. Ramji Tiwari ‎...ये गीत या तुकबंदिया जो भी कहें , 1997 से पहले की ही है ...बहुत दिनों तक डायरी के पन्नों में दबी रही ...मन किया , उन यादों को भी क्यों न साझा कर ही दिया जाए ..| हाँ ....यदि फेसबुक और ब्लागों की दुनिया नहीं होती , तो मेरे पहले या मेरे समकालीन मित्रों की हजारों ऐसी अभिव्यक्तियों की तरह ये भी डायरी के उन पन्नों में ही सदा के लिए दफन हो जाती .....यह भावुकता और अपरिपक्वता भी शायद किसी को अपनी लगे ...बस इसी लिए इन्हें साझा कर दिया ....मुझे लगता है कि अपनी आरम्भिक रचनाये भी हमें बहुत कुछ सिखाती हैं , और उस समय की रचनाये तो खास तौर पर , जब आप जीवन के सबसे यादगार क्षणों को जी रहे होते हैं ...जिन्हें पसंद आईं , उनका आभार ....और जिन्हें कुछ खटका , उनकी बाते सर माथे पर ...

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  22. गेय रचनाओं में जो लयात्मकता और आकर्षण होता है वो अनुपम है ......भले ही राम जी तिवारी जी की ये प्रारंभिक रचनाएँ हों लेकिन प्रासंगिक तो आज भी हैं ........प्रारंभिक रचनाओं में जो अजब का उतावलापन और नयापन होता है उस विशेषता का तो कोई सानी है ही नहीं ...............

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  23. रामजी के इन गीतों को पढ़कर बहुत सुखद अनुभूति हुई। हर कवि के निर्माण में उसकी आरंभिक रचनाओं की महत्‍वपूर्ण भूमिका होती है, इसलिये मुझे इन गीतों के माध्‍यम से उनकी रचना प्रक्रिया की जानकारी मिली। इन गीतों के भीतर की सहज सर्जनात्‍मकता मोह लेती है। बधाई रामजी।

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  24. बहुत प्यारे गीत। दिल को छू जाते हुए। महज गीत नहीं, बहुत कुछ कहते हुए शब्द। पहला गीत तो अद्भुद.... बधाई रामजी दा को... संतोष भाई को आभार....

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  25. आज पढ़ा. पढ़ के सुखद आश्चर्य हुआ. और यह धारणा भी दृढ हुई की छंद का अभ्यास कविता को एक खास तरह की लय देता ही है. गीतों पर पहले ही बहुत कुछ कहा जा चुका है...मेरी सलाह बस यह कि गीत लिखना छोड़ियेगा मत...

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  26. बेहद सादगी से लिखे सलोने गीत ... वर्तमान में लिखे और खूबसूरत गीतों का इंतजार रहेगा ...

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  27. 'संभल जा प्यारे... ' इस जगत के बीच ' जीवन तो लगातार चलता रहता' है ..'सब बना है उसकी छाया में ..'सरल मन की अभिव्यक्ति इन गीतों में लय ' मंद मुस्कराते अधरों की कशिश है होती इतनी लम्बी ' जहाँ रंजक रंजन में देखिये तो क्या मिज़ाज बनता है ' उन अधरों के खुल जाने से ये गुल खिल उठते हैं गुलशन में' ...... आजकल तुकों को कविता में संभाल लेना आसान काम नहीं है ... तुक हमसे लगातार छूटी जा रही है .... मेरा अनुरोध है रामजी भाई इसी तरह से आगे भी यह प्रयास करें ... उनको बधाई ..

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  28. आप से परिचय तो बहुत पुराना है, लेकिन इस प्रतिभा के बारे में मालूम नहीं था. बहुत ही सुन्दर और जीवन से जुडी रचनाएँ हैं आपकी. बहुत-बहुत बधाइयाँ.

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