विमलेश त्रिपाठी
विमलेश का जन्म 7 अप्रैल १९७७ को बिहार के बक्सर जिले के हरनाथपुर नामक गाँव में हुआ.प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही । प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातकोत्तर, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत। “हम बचे रहेंगे” कविता संग्रह नयी किताब, दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य। देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन। “हम बचे रहेंगे” कविता संग्रह नयी किताब, दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य।कहानी संग्रह 'अधूरे अंत की शुरूआत' पर युवा ज्ञानपीठ नवलेखन, 2010 पुरस्कार.
2004-5 के वागर्थ के नवलेखन अंक में प्रकाशित ‘अधूरे अंत की शुरूआत’ और ‘परदे के इधर-उधर’ और 2010 में नया ज्ञानोदय में प्रकाशित कहानी ‘चिंदी-चिंदी कथा’ विशेष तौर पर चर्चित।
परमाणु ऊर्जा विभाग के एक यूनिट में कार्यरत।
विमलेश आज के उन कुछ विरल रचनाकारों में से हैं जिनका कविता के साथ-साथ कहानी विधा पर भी समान अधिकार है. समवेदनाओ से पुरमपूर भरा यह कवि, बेबाकी से यह कहने में नहीं हिचकता कि वह अपने गाँव के खेतों से शब्दों को लेता है. विमलेश के देशज शब्दों से इस बात की तस्दीक जा सकती है कि वह अपने लोक से जुड़ा हुआ है. विमलेश की कविता में भोजपुरी के देशज शब्द अपनी प्रवहमानता में आते हैं और कविता की खूबी बन जाते हैं. यह कवि कविता लिख कर खुश हो चुप बैठ जाने वाले कवियों में से नहीं है बल्कि यह कवि मन चाहता है कि उसकी कविता के शब्द उससे सवाल पूछें.
संपर्क: साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.
Email: bimleshm2001@yahoo.com
Mobile: 09748800649
सपने
स्पर्श प्रेमिकाओं के नरम हाथों के
आंसू थे पलकों पर ढुलके अनजाने
सूखते खेतों में मानसून की पहली बूंद
ददरी के मेले से खरीदे गए मिट्टी के रंगीन खिलौनेनदी के पानी में तैरते-हिलते पत्तों की डोंगियां थे सपने
कभी-कभी आशीर्वाद के लिए
पितरों के उठे हुए निर्दोष हाथमां के परोसे हुए मक्के की रोटी
और प्याज की फारी
हमें सही राह की ओर ले जाने के मन से से लैस
पिता की फटकार थे सपनेबहुत जमाने पहले बारिश के पानी से भींगते
जेब में नौकरी की अर्जियां थे
दफ्तर की सिढ़ियों पर बेमन
दौड़ते एक जोडी जूते
सामान्य अध्ययन की मोटी किताब के पन्ने में छुपे
एक लड़की के लिखे
आखिरी खत के कांपते शब्द थे
धुंधलाए-से
एक स्त्री की आंख में किसी छूट गए समय का इंतजार थे सपने
मेरे पुरूष को एक आभासी गर्व से लिलते
सब कुछ थे और कुछ भी नहीं थे सपने
बहुत जमाने बाद के एक समय में
वे रात के घनघोर अंधेरे में आते थे
और हमारा सब कुछ लूट कर चले जाते थे...
बहुत समय पहले और बाद की नींद में सपना
बहुत समय पहले की नींद में
सुबह एक कौआ उचरता
और सोचता मैं
कोई खबर आएगी
या आ जाएगा वह आदमी
वही जो मुझे धूल में लोटता छोड़ चला गया था
एक हाथ से पेट और दूसरे से एक सपने को थामे
वही दूर देश से आएगा
हाथ में चाभियों वाले खिलौने ले कर
गीली मिट्टी के खिलौनों की जगह
होंगे मेरे पास भीहमारी तरह बोलते हंसते खिलौने सजीव
बहुत सारे इतने सारे
बहुत समय पहले की नींद में
समय की इतनी लंबी पगडंडियों के पार
जानता हूं कि खिलौनों की दुनिया से
निकल आया हूं बहुत आगे
कि लौटना
संभव
नहीं
लगता
अब
फिर भी बहुत समय बाद की एक नींद में
सोचता हूं कि लौटूंगा इस बार तो
दो जोड़ी पथरायी आंखों के लिए ले जाऊंगादो जोड़े ऐनक
खादी की एक खूब उज्जर धोती
और तांत की एक गुलाबी साड़ी
सोचता हूं शहर की
एक ऊंची इमारत
पर खड़ा सपने की एक सुबहहर तीसरे दिन
सपने में एक सुबह होती
और हर सुबह
एक कौआ उचरता
कौआ एक सुबह उड़ते-उड़ते
मेरे गांव के नीम पर बैठ जाता
और उस दिन मेरा इंतजार करतीं
दो जोड़ी पथरायी आंखों की नींद में
एक-एक दुधिया सुबह होती
सिर्फ लिखता हूं कविताएं
चाहता तो हूं कि एक शब्द मेरी कविता से निकल कर
खड़ा हो जाए मेरे सामनेपूछे मुझसे निर्मम सवाल
कर जाय मेरी त्वचा को लहूलुहान
अपने तेज पंजों से
निकल जाए मेरे घेरे से बाहर
आग-जैसे सवालों के साथ
पूरी दुनिया में अवतार की तरह
लेकिन एक भी शब्द नहीं निकलता बाहर
मेरी कविता के तहखाने से
और अपने कवि होने पर बार-बार
आती है मुझे ही शर्म
चाहता तो हूं कि शब्दों की इस दुनिया से दूर
चला जाऊं अपने छूटे हुए खेतों में
वहीं जहां से पच्चीस साल पहले चला आया था
वहीं जहां से आते हैं मेरी कविता में शब्द
और एक तहखाने में होते जाते हैं कैद
चाहता तो हूं कि चाहूं और उस चाहने पर
कायम रह सकूं पूरी उम्र
लेकिन फिलहाल मैं
सिर्फ लिखता हूं कविताएं...
उस दिन
कभी पुरानी किताब की जिल्द में
डर से छुपाई हुई
एक कविता मिल जाती
और अचानक मेरी उम्र सत्रह वर्ष की हो जाती
उस दिन मेरे एक हाथ में रात
और एक हाथ में दिन होता
उस दिन मैं देर दिन तक हंसता
उस दिन मैं देर रात तक रोता
विमलेश जी के रचना संसार से परिचित कराने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंविमलेश जी की कवितायेँ निष्पक्ष हैं खुद के लिए भी .......जो जियो वही लिखो ....वाह !
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