हिमांशु शेखर

हिमांशु शेखर



शिक्षा का गिरता स्तर कौन हैं जिम्मेदार





पंद्रह अगस्त 1947 को भारत को मिली आजादी में सबसे अहम भूमिका निभाने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का मानना था कि, वास्तविक शिक्षा वह है जिससे व्यक्ति के चरित्र का निर्माण हो। किन्तु, आजादी के 31 साल बाद भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को यह स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा कि हमारी वर्तमान शिक्षापद्धति चरित्र निर्माण में सहायक नहीं साबित हो रही है।


आज जब आजादी के इतने साल होने को हैं तो वर्तमान हालात को देखते हुए गांधी की बात की चर्चा तक अप्रासंगिक सी प्रतीत हो रही है। क्योंकि तथाकथित आधुनिकता के इस दौर में चरित्र निर्माण के बजाए जोर उच्छृंखलता पर है।

बहरहाल, इस बात में कोई संदेह नहीं है कि आजादी के बाद वाले सालों में देश के शैक्षणिक परिदृश्य में व्यापक बदलाव हुए हैं। पर कहा जाए तो शिक्षा का उद्देश्य ही बदल गया है। पूंजीवाद के मौजूदा दौर में शिक्षा का उद्देश्य भी अधिक से अधिक धन अर्जित करना हो गया है। अगर प्रगति का पैमाना इसे ही माना जाए तो सचमुच देश ने काफी तरक्की की है।



इसके अलावा देश में करोड़पतियों और अरबपतियों की संख्या में भी काफी तेजी से ईजाफा हो रहा है। आज भारत में हर साल पांच लाख डाक्टर और साढे तीन लाख इंजीनियर तैयार होते हैं। पर देश का बड़ा वर्ग प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं से महरूम है। हर वर्ष हिन्दुस्तान में आठ लाख छात्र एमबीए कर रहे हैं। पर ऐसे आर्थिक प्रबंधकों के होने का क्या फायदा जब आज भी देश के 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने को अभिशप्त हैं। इससे भी अधिक लोग गरीबी रेखा के ठीक ऊपर हैं।




                                                            (गूगल के सौजन्य से)



हां, एक बात अवश्य है कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाली इस तगड़ी फौज से देश को कोई लाभ हो या न हो, दूसरे देशों को फायदा ही फायदा है। क्योंकि बड़ी संख्या में ऐसे लोग अधिक तनख्वाह के लोभ में भारत छोड़कर अन्य देशों का रुख कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और भारतीय प्रबंधन संस्थान के अलावा कई अन्य संस्थानों में एक-एक छात्र की पढ़ाई पर आम हिन्दुस्तानियों द्वारा भरे गए टैक्स में से लाखों रुपए सरकार खर्च करती है। ऐसे में अहम सवाल यह भी है कि क्या इसे वर्तमान शिक्षा प्रणाली की सफलता माना जा सकता है।

अगर तुलानात्मक तौर पर देखा जाए तो आजादी के बाद साक्षरता दर में व्यापक वृद्धि हुई है। 1951 में साक्षरता दर महज 18.33 फीसदी थी जो 1961 में बढ़कर 28.3 फीसदी हो गई। 1971 में हुई जनगणना के मुताबिक देश में 34.45 प्रतिशत लोग साक्षर थे। 1981 में ऐसे लोगों की संख्या बढ़कर 43.57 प्रतिशत हो गई। 1991 में देश के आधे से अधिक लोग साक्षर हो चुके थे। उस समय साक्षरता दर 52.21 प्रतिशत थी। देश की मौजूदा साक्षरता दर 64.84 प्रतिशत है। 1951 में 27.16 फीसदी पुरुष साक्षर थे। अब पुरुषों की साक्षरता दर बढ़कर 72.26 फीसदी हो गई है। पचास के दशक की शुरूआत में महिलाओं की साक्षरता दर महज 8.86 प्रतिशत थी। जो अब बढ़कर 52.67 फीसदी हो गई है। एक रोचक तथ्य तो यह भी है कि 1991-2001 के दरम्यान पुरुषों की साक्षरता दर में 11.13 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। जबकि इसी दरम्यान महिलाओं की साक्षरता दर में पुरुषों से कहीं अधिक 14.38 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 70 प्रतिशत व्यस्क निरक्षर नौ देशों में रहते हैं। जिसमें सर्वाधिक 24.74 प्रतिशत निरक्षर भारत में है।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में छह साल से चौबीस साल की उम्र वालों की संख्या 41.1 करोड़ है। इनमें से 22.4 करोड़ ही शिक्षा ग्रहण कर पा रहे हैं। भारत में ग्यारह लाख अस्सी हजार स्कूल और 17,625 कालेज हैं। वहीं विश्वविद्यालयों की संख्या 338 है। इसमें से 96 डीम्ड विश्वविद्यालय है। भारत में तकरीबन 62 लाख शिक्षक हैं। अब एक रोचक बात यह कि प्राथमिक विद्यालयों में पच्चीस प्रतिशत शिक्षक डयूटी से अक्सर गायब रहते हैं। देश के ग्रामीण इलाकों में कई स्कूल तो ऐसे भी हैं जहां सरकारी अध्यापकों ने आवाजाही से निजात पाने के उद्देश्य से किसी ग्रामीण को ही सरकारी विद्यालय में नियुक्त कर दिया है। बेरोजगारी की जबर्दस्त मार झेल रहे इस देश में पांच सौ से हजार रुपए प्रतिमाह पर शिक्षक बनने के लिए तैयार रहना मजबूरी बन गया है।

कहने की जरूरत नहीं कि यह व्यवस्था पूरी तरह से अनैतिक और गैरकानूनी है। गौरतलब है कि देश के उन्नीस प्रतिशत प्राथमिक विद्यालय सिर्फ एक शिक्षक के सहारे चल रहे हैं। सरकार इन विद्यालयों में शिक्षकों की संख्या बढ़ाने की बजाए तमाम निरर्थक योजनाओं पर पानी की तरह पैसा बहा रही है। स्कूल में बैठने की जगह नहीं और देश के ढेरों शिक्षण संस्थान संसाधनों के अभाव से दो-चार हो रहे हैं। आज भी देश के महज एक चौथाई स्कूलों में ही बिजली की पहुंच है। बिहार के सिर्फ 0.91 प्रतिशत स्कूलों में ही बिजली की पहुंच है।


भारत के 9.51 प्रतिशत प्राथमिक स्कूलों में ब्लैक बोर्ड तक नहीं है। ऐसे में विद्या के इन मंदिरों में छात्रों को क्या पढ़ाया जाता होगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। सूचना क्रांति के इस दौर में आज भी महज देश के 10.73 प्रतिशत विद्यालयों में ही कम्प्यूटर उपलब्ध है। कई शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों के ढेरों पद रिक्त पड़े हुए हैं। बिहार के नौ विश्वविद्यालयों में स्वीकृत पदों में से 32 प्रतिशत पद खाली हैं। यहां के 230 कालेजों में 14022 शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। राज्य के सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले पटना विश्वविद्यालय में 48 प्रतिशत पद रिक्त हैं। वहीं मगध विश्वविद्यालय में शिक्षण का कार्य 68 प्रतिशत शिक्षक ही चला रहे हैं।

भारत में शिक्षा से जुड़ी एक बड़ी समस्या पढ़ाई को जारी नहीं रख पाना है। हालांकि, अब इसमें कुछ सुधार दिख रहा है। पर अभी भी आंकड़े चिंता को गहराने के लिए पर्याप्त हैं। 2005-2006 में पहली कक्षा से आठवीं कक्षा में 16.9 करोड़ बच्चे थे। जो इसके पिछले साल की अपेक्षा 1.23 करोड़ अधिक हैं। पर देश के 180 जिलों में प्राथमिक शिक्षा में नामांकन लेने वाले बच्चों की संख्या में गिरावट आई है। प्राथमिक शिक्षा छोड़ने वालों की संख्या 2005-2006 में 9.96 प्रतिशत रही।

तमिलनाडु में प्राथमिक शिक्षा जारी रखने वालों की दर शत प्रतिशत रही। जबकि मध्यप्रदेश में यह दर 95.5 फीसदी और केरल में 95.37 प्रतिशत है। इस दरम्यान कक्षा दुहराने वालों की संख्या में कमी आई है। 2005 में जहां ऐसे छात्रों की संख्या 118.3 लाख थी वहीं 2006 में यह संख्या घटकर 99 लाख रह गई। पर सिक्के का एक पहलू यह भी है कि अभी भी देश के 69,353 विद्यालयों में छात्रों की संख्या पच्चीस से कम है। ऐसे विद्यालयों में से 94 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में हैं। देश के एक तिहाई प्राथमिक विद्यालयों में पचास से भी कम बच्चे पढ़ रहे है।

साल 2007-08 के बजट में शिक्षा के मद में 34.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी की गई है। कुल शिक्षा बजट बढाकर 32,352 करोड़ रुपए कर दिया गया है। स्कूली शिक्षा के मद में खर्च की जाने वाली राशि को 23,142 करोड़ रुपए कर दिया गया है। पिछले बजट में इस मद में 17,133 करोड़ रुपएका आवंटन किया गया था। यानी यह वृद्धि 35 प्रतिशत की रही। प्राथमिक शिक्षा कोष में 1,671 करोड़ रुपए की वृद्धि की गई। माध्यमिक शिक्षा के लिए पिछले बजट में 1,873 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे। इस बार इसे बढ़ाकर 3,794 करोड़ रुपए कर दिया गया है। साथ ही साथ उच्चशिक्षा के बजट को भी बढ़ाकर 6,483 करोड़ रुपए कर दिया गया है।

इसके अलावा मिड-डे मिल के बजट को भी बढ़ा कर 7,324 करोड़ रुपए किया गया है। अध्ययन बताते हैं कि 1995 में लागू की गई मिड-डे मिल योजना की वजह से दाखिला दर में पंद्रह प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज की गई है। इस साल के बजट में देश की शिक्षा व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिए दो लाख शिक्षकों की नियुक्ति करने का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही स्कूलों के संसाधनों को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से देश भर के विद्यालयों में पांच लाख कक्षाओं के निर्माण का लक्ष्य भी रखा गया है। पर लाख टके का सवाल यह है कि करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद जमीनी स्तर पर शैक्षणिक परिदृश्य में व्यापक सुधार क्यों नहीं हो पा रहा है? जिसे सुधार का नाम दिया जा रहा है वह वास्तविकता से काफी अलग है।


एक तरफ तो देश आजादी की 64वीं सालगिरह मना रहा है। वहीं दूसरी तरफ देश के शैक्षणिक परिदृश्य को जाति पर आधारित आरक्षण की आग में झुलसाने की कोशिश की जा रही है। इसका मकसद शुद्ध राजनीति के अलावा और कुछ नहीं है। अर्जुन सिंह ने उच्च शिक्षा में जिस आरक्षण की घोषणा की उसे हर राजनीतिक दल का समर्थन हासिल है। क्योंकि कोई भी दल इसका विरोध करके देश के बहुसंख्यक वर्ग को नाराज नहीं करना चाहता है।


जाहिर है, वोट बैंक खोने की आशंका से देश का हर राजनीतिक दल पीड़ित है। 1931 की जनसंख्या को आधार बनाकर आरक्षण देने के पीछे की राजनीतिक मंशा क्या हो सकती है। इसे समझने के लिए दिमाग पर ज्यादा जोर देने की दरकार नहीं है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण लागू करने पर दिखाई जा रही तेजी पर आपत्ति दर्ज कर चुका है। पर सत्ताधीशों पर अब ऐसी बातों का असर कम ही होता है। ऐसे मामलों में देश के नेता न्यायपालिका को अपनी सीमा में रहने की चेतावनी देने से भी बाज नहीं आते हैं। यह भी पिछले 63 सालों की एक दुर्भाग्यपूर्ण उपलब्धि ही है।


जब बात देश के कर्णधारों की चली है तो इनकी शैक्षणिक स्थिति के बारे में भी एक रोचक तथ्य है। वो यह कि 2007 लोकसभा में 147 सदस्य स्नातकोत्तर थे। 1952 में ऐसे लोकसभा सदस्यों की संख्या 85 थी। पर मौजूदा लोक सभा में आपराधिक चरित्र वाले सदस्यों की संख्या भी 136 रही। 1952 में लोकसभा का कोई भी सदस्य आपराधिक चरित्र का नहीं था।


मौजूदा संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में इस बात का उल्लेख किया है कि पिछली सरकार द्वारा शिक्षा का सांप्रदायीकरण किया गया है। आजादी के 63 साल बाद भी देश के नौनिहालों को उनके पाठयक्रमों के माध्यम से भ्रामक जानकारी दी जा रही है।


बारहवीं कक्षा की पुस्तक आधुनिक भारत में यह लिखवाया गया कि बाल गंगाधार तिलक, अरविंद घोष, विपिनचन्द्र पाल और लाला लाजपत राय जैसे नेता उग्रवादी तथा आतंकवादी थे। अगर आजादी के लिए अपना जीवन तक उत्सर्ग करने वालों का इस तरह से आज छात्रों का परिचय कराया जा रहा है तो इसे इस देश का दुर्भाग्य नहीं तो क्या कहा जाए।



(गूगल के सौजन्य से)


देश में एक बड़ी खराब प्रथा यह चल पड़ी है कि जो भी दल सत्ता में आता है, वह अपने हिसाब से पाठयपुस्तकों का निर्माण करवाता है। अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए पाठय पुस्तकों से छेड़-छाड़ इस आजाद भारत की एक कड़वी सच्चाई बन गई है। किसी भी राष्ट्र के छात्र उस देश के भविष्य के निर्माता होते हैं। पर हिन्दुस्तान के सियासतदान उन्हें भावी वोटर के रूप में देख रहे हैं। उनके मन में शिक्षा के माध्यम से अपनी राजनीतिक विचारधारा को आरोपित करने की कोशिश की जा रही है।


आजादी के बाद देश में समय-समय पर कई शैक्षणिक योजनाएं चलाई गईं। इसमें से कई योजनाओं का क्रियान्वयन कथित तौर पर मुसलमानों को ध्यान में रखकर किया गया। आजादी के बाद के 63 सालों में से पचास वर्षों से अधिक मुसलमानों के हितैषी होने का दंभ भरने वाली पार्टी काही शासन रहा है। पर मुसलमानों की शैक्षणिक हालत बदतर बनी हुई है। देश में राष्ट्रीय साक्षरता दर 64.8 फीसदी है। पुरुषों की राष्ट्रीय साक्षरता दर 72.26 प्रतिशत है। वहीं मुस्लिम मर्दों की साक्षरता दर 55 फीसदी है। अखिल भारतीय स्तर पर 52.67 प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं। वहीं मात्रा 40.60 फीसदी मुस्लिम औरतें ही साक्षर हैं। गैर मुसलमानों के मुकाबले में 44 प्रतिशत कम मुस्लिम विद्यार्थी सीनियर स्कूल की पढ़ाई पूरी कर पाते हैं। देश में 37 गैर मुस्लिम महिलाओं में से एक महिला स्नातक है। जबकि 101 मुस्लिम औरतों में से सिर्फ एक महिला ही स्नातक है। एक अनुमान के मुताबिक मुस्लिमों के शैक्षणिक स्तर को गैर मुस्लिमों के समकक्ष लाने के लिए 2011 तक 31 करोड़ मुस्लिमों को शिक्षित करना होगा।


कथित धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यों के हिमायती होने के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने वाले सियासतदान मुसलमानों की इस बदहाली की जिम्मेदारी लेने से कैसे बच सकते हैं। शायद यह उनकी राजनीति के हित में ही है कि ज्यादा से ज्यादा लोग निरक्षर रहें और उन्हें सत्ता में बनाए रखें। बिहार में लालू प्रसाद यादव के ‘जंगल राज’ को पंद्रह साल तक चल जाने के पीछे एक कारण अशिक्षा भी थी। वैसे भी प्रजा को निरक्षर रखकर उनपर शासन करना कोई नई बात नहीं है। जब सन् 1911 में गोपाल कृष्ण गोखले ने इंपीरियल असेम्बली में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का बिल पेश किया था तब दरभंगा महाराज ने इसके विरुद्ध ग्यारह हजार बड़े जमींदारों के दस्तखत वाली याचिका तैयार की थी। इस याचिका में कहा गया कि अगर गरीबों के बच्चे स्कूल जाएंगे तो जमींदारों के खेतों में काम कौन करेगा। सामंतियों के विरोधास्वरूप वह बिल उस समय पास नहीं हो पाया। आजादी के छत्तीस साल पहले हुए इस घटना से आजादी के 63 साल बाद भी देश के राजनीतिज्ञ प्रेरणा ले रहे हैं। अरबों रुपए स्वाहा करने के बावजूद भी आम छात्रों का शिक्षा के लिए दर-दर की ठोकर खाना, हकीकत को खुद ब खुद बयां कर रहा है।


खैर, आजादी के बाद के इन कुछ सालों में साक्षरता दर में हुई वृद्धि और आम तौर पर शिक्षण संस्थानों की बढ़ी संख्या और गुणवत्ता को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस दरम्यान देश की शिक्षा ने काफी लंबा सफर तय किया। पर वैसे देश में जहां खेलने-पढ़ने की उम्र में तकरीबन छह करोड़ बच्चे मजदूरी करने पर बाध्य हों और पचास फीसदी लड़कियों की शादी पढ़ने की उम्र में कर दी जा रही हो, वहां व्यापक सुधार की दरकार है। चारों तरफ भ्रष्टाचार, अपराध और असुरक्षा का बोलबाला यह दर्शाता है कि कहीं न कहीं देश की शिक्षा पद्धति में खोट है। आजादी के 63 साल पूरे होने के अवसर पर देश के नीति निर्माताओं को यह बात माननी होगी कि शिक्षा को निर्माण के माध्यम के बजाए चरित्र निर्माण का माध्यम बनाए जाने की आवश्यकता है।


सरकार को शिक्षा की स्थिति और स्‍तर सुधारने के लिए प्रयास करने होंगे .. सबको ऐसी शिक्षा मिलनी चाहिए जिससे वे चरित्रवान बनें .. आज की शिक्षा पद्धति में बडी खामी है।
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