देवेन्द्र आर्य की कविताएँ


देवेन्द्र आर्य

कई एक परम्पराएँ ऐसी हैं जिनका पालन करना हम अपना नैतिक दायित्व समझते हैं। इन परंपराओं का पालन न कर पाना किसी भी संवेदनशील मन को इसलिए सालता है कि वह चाहते हुए भी वह नहीं कर पा रहा, जो करने की चाहत थी। अलग बात है कि तमाम ऐसी दिक्कतें भी पेश आती हैं जिसके लिए मन में खासी दुविधा रहती है। ऐसे विषयों पर कलम चलाने में सिद्धहस्त कवि हैं देवेन्द्र आर्य। उनकी इसी भावभूमि पर आधारित एक उम्दा कविता है 'घर आए मित्र से माफी'। आज पहली बार पर प्रस्तुत है देवेन्द्र आर्य की कुछ नई कविताएँ।


देवेन्द्र आर्य की कविताएं




घर आए मित्र से माफ़ी 

रात साढ़े दस बजे तुम्हें अपने घर से
चाय पिला कर विदा करने के लिए 
माफ़ी चाहता हूं मित्र!

हालांकि तुम थोड़ा बेवक़्त थे ज़रुर
पर वो चाय का वक़्त तो था नहीं
मैं तुमसे खाने का पूछने की हिम्मत नहीं कर सका
कहीं तुम मेरे तकल्लुफ़ को गम्भीरता से ले बैठे तो?

सोचता हूं कबीर!
साईं ने मुझे तुमसे बहुत अधिक दिया है 
कुटुम्ब चलाने के लिए
पर शर्मिंदा हूं कि मेरे ड्राइंगरूम से साधु
भूखा चला गया
हां, वह भूखा था
यह उसके बिस्कुट खाने के अंदाज़ से लग रहा था


पत्नी से धीरे से प्रस्तावित किया था मैंने
पर दिन भर की थकी-मांदी खाना-चौका निपटा चुकी
पत्नी ने खीझ छुपाते हुए कहा
पहले नहीं बता सकते थे?

मुझे याद आईं मेरी अंगूठा छाप दादी
उनके लिए रसोई का वक़्त वही था
जब कोई भूखा हो

मैं भला अतिथि शब्द की सार्थकता पर 
क्या बहस करता
और वह भी जब अतिथि तक
आवाज़ न जाने का भी एहतियात बरतना था

हो सकता है संकोच रहा हो पत्नी को
कि यह घरेलू खाना मेहमान को कैसे परोसा जाए!

जो भी हो मेहमान तो भूखा ही दरवाज़े से गया

पूछुंगा कभी अपने कारपेंटर से 
कि इसमें और कितना लगा देता कि माडुलर किचन
ममतामयी हो जाता
पूछुंगा साईं से भी कि सुविधाएं दीं 
तो हमें स्वार्थी क्यों बनाया?

माफ़ी चाहता हूं मित्र!
चले गए तुम हाथ मिला  के हाथ हिलाते
ख़ाली पेट!

तुम्हारे जाने के बाद ही हमने रोटियां खाईं
तुम्हें खिलाता तो कम पड़ सकती थीं
कम नहीं पड़ीं रोटियां हमारे लिए इसका शुक्रिया अन्नपूर्णा!
पर कबीर को क्या मुंह दिखाऊं?


नारंगी टमाटर


मैंने लगाए थे टमाटर के पौधे
ख़ूब फले   सालों-साल    लाल-लाल
खाए भी    बेच कर कमाए भी

पर इधर कुछ दिनों से लगा कि टमाटर का रंग
पियरा रहा है
शायद पानी की कमी हो या धूप का असर
मैं निश्चिंत रहा कि मौसम बदलेगा
और टमाटर फिर लाली पकड़ लेंगे
मगर जब होंगे कामयाब एक दिन वाला दिन
नहीं आया
और टमाटर पीले से नारंगी होने लगे
तो चिंता बढ़ी

पूछा घर-परिवार   पड़ोस से
कुछ डाला तो नहीं जड़ों में
आखिर सुर्ख़ लाल  नारंगी कैसे हो गया कामरेड!

चर्चा चल पड़ी मुंहे-मुह
लाल का शेड है भाई जी नारंगी
जैसे नारंगी की एक छवि है लाल
आप रंग पर नहीं स्वाद पर जाओ

रंग ही नहीं स्वाद पर  इधर समाज विज्ञानी
बहुत  शोध कर रहे हैं
लाल में नारंगी का स्वाद
नीले में केसरिया का फ्लेवर
अमरीकी में रूसी का मज़ा
पाकिस्तानी चीनी में चीन की मिठास!

बस थोड़ा सा टच देने की बात है
डी. एन. ए में थोड़ी सा हेर-फेर
आप चाहें तो इसे कल्पित स्वाद भी कह सकते हैं
फेब्रिकेटेड धर्मनिरपेक्षता की तरह
जैसे मिर्ची हरी तो होगी मगर तीती नहीं

भाई जी, जब ठंढा माने कोका कोला हो सकता है
तो टमाटर माने नारंगी क्यों नहीं?

वैसे भी नारंगी न कड़वी है न हानिकारक
वही विटामिन सी जब उसमें भी मिले
तो आदमी 'उसी' के चक्कर में क्यों पड़े?

आप मत-दाता भले न हो उप-भोक्ता तो हो ही
स्वाद पर जाओ रंग पर नहीं
टमाटर देशी भी होते हैं  पहाड़ी भी  नागपुरिया भी
फ़र्क है पर इतना भी नहीं कि सब्जी न बन सके

टमाटर और नारंगी में फ़र्क जब इतना रह जाए
कि फ़र्क करना मुश्किल हो 
तो उसे आधुनिक भाषा में वैश्वीकरण
देव भाषा में वसुधैव कुटुम्बकम्
और राजनीतिक भाषा में ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं
कोई नहीं अछूता इससे
टमाटर की क्या औक़ात!

कामरेड रंग पर मत जाइए
ठाठ से स्वाद लीजिए
जो उगेगा वही तो खाइएगा!

हो सकता है कल नारंगी टमाटर में बदल जाए
  



हांका

हांका लगता रहा 
सारी-सारी रात जागते रहे लोग
भेड़िया आया! भेड़िया आया!
भेड़िया नहीं आया

निराश हुई नयी  पीढ़ी
पहली बार देखती भेड़िए को अपनी आंखों
पुचकारती 
सराहती
ढेला मारती 
दौड़ाती 
हू हू करती
मगर तमाशा न हुआ

बटोर हुई 
खैनी-पान
नींद ख़राब हांका
भेड़िया आया ही नहीं!
हवा बांधते रहे सयाने

उन्हें पता है कि भेड़िए ने अब  तक गुस्से में
तहस नहस किए होंगे कुछ खेत
तमतमाया होगा
उछला कूदा दांव लगाया होगा चुपचाप
कि हांका थमे और वह गांव में घुसे

जानते हैं बुज़ुर्ग कि माहौल पहचानते हैं भेड़िए
डरते हैं मशालों से
जब जब हांकों में ढील हुई है
गांव की सीवान लांघी है भेड़िए ने

आया था इसके पहले एक बार
मुलायम  रोएंदार, चेहरे पर स्त्रियोचित लावण्य लिए
कविताएं लिखी थीं तब
आज के हांके में शामिल बहुतों ने
भेड़िए की रक्ताच्छादित आंखें देख रोमांचित हुए थे
आदमी हो तो भेड़िए जैसा मर्द
एक के पीछे पूरा गांव
फिर भी बंदा दे गया दांव!

उस दिन मुरदार पड़े इस मुहावरे पर धार चढ़ी थी
भेड़िया आया!  भेड़िया आया!

अबकी सचेत रहे लोग
हांका लगता रह सारी रात
पर भेड़िया नहीं आया

भेड़िए रोज़ रोज़ नहीं आते 

मुहावरा फिर गलत निकला

मुहावरे का ग़लत होना ही शायद सच होना है
भेड़िया नहीं आया तो बस इसलिए 
कि हांका लगता रहा

पाठकों!
कवि ने इस कविता में कुछ छिपा लिया है
कहीं ऐसा तो नहीं कि भेड़िए ने गांव और
गांव वालों के हांका लगाने का
गहरा अध्ययन विश्लेषण किया हो
मशालों के जलने बुझने के आंकड़े इकट्ठा किए हों
और पहले ही छिप कर घुस आया हो गांव में
किसी देवीथान
या खंडहर के पीछे
या किसी बाऊ साहब के खंझसिया आहाते में
कि हांका लगा कर थके लोग सोएं
तो वह नमूदार हो

भेड़िए अब खेतों में नहीं छिपा करते


ठेस


विचारधारा की ठेस खाए मित्रों!
भूलो मत
कभी विचारधारा की इसी नदी में तैरे थे तुम
छपकोइयां मारी थीं
बाहों की मछलियां तैराई थीं
तरो-ताज़ा हुए
मल-मूत्र उत्सर्जित किए


लगातार सूखती हुई मां को
महादेव बनाने में तुम्हारा कितना हाथ रहा मित्रों?

पूजा जिन विचार-शिलाओं को
ठेस उसी से खाई

विश्वास की ठेस भीतर तक करकती है न!

मित्रों, लाल हो आई चोट को हौले-हौले रगड़ो
कि नीला न पड़ जाए
ख़ून का थक्का बनना ठीक नहीं
विचारों की गुलठी न बने
उन्हें रगड़ो और दर्द को काफ़ूर समझ आगे बढ़ो

कोई ठोकर जिंदगी नहीं रोक सकती


मीडिया पुरुष


कहीं मीडिया ने तुम्हें कापुरूष तो नहीं बना दिया
मीडिया पुरुष!

खलनायक ही नायक वाली हिंदी फ़िल्मों की तरह
जहां नायकखलनायकी बिना सफल नहीं होता
जहां निर्माता निर्देशक के लिए 
दो किरदारों की ज़रूरत ही क्या?
वही पक्ष वही विपक्ष भी

शायद इस बात पर यक़ीन आने में कुछ बरस लगें
और तब तक ठंढ़ा बस्ता खुल चुका हो

मुंहे-मुह मीडिया खड़ा हो चुका हो तब तक
पूंजी मीडिया के बरक्स
कहीं खा न जाए अपने मीडिया पुरूष को
जैसे भक्तों ने गढ़े भगवान
और बंद कर दिया उन्हें कनक भवनों 
कब्जियाये मकानों में
आजीविका बना दिया

गद्देदार अखाड़े के विजेता 
अगर मिट्टी के अखाड़े में कुश्ती हुई
तो सोने का पानी चढ़ा गिलट का मेडल
धरा न रह जाए एन.  आर.  आई. बाज़ारों में

सुविधा के चापलूसी सवालों का सामना
और पप्पुओं के खुरदुरे प्रश्न झेलने में अंतर है
मीडिया मैनेजर!

सकते में है पप्पू बनाया गया यह देश
सकते में हैमगर सोया नहीं

उन्माद थमने पर चोट की तरफ ध्यान जाता है
कभी-कभी आह देर से निकलती है
मगर घनी हो  कर
तब तक घायल होने की पीड़ा दुगनी हो चुकी होती है

अभी तो जयकारे में गुम हैं सारी ध्वनियाँ
पर ध्यान रहे मलिकार
पहुनी-परजा का दिमाग बदलते देर नहीं लगती

वैसे भी चउओं का रोना
अनबोलतों के कातर आंसू
बच्चों, औरतों का सरापना
और किसानों का कलपना अच्छा नहीं होता।




होने दो


होने दोबदनामी है
जीत तो मगर सुनामी है!

पूंजी का काला जादू
जो फ़क़ीर था,
स्वामी है

प्रश्न उठाने वालों की देशभक्ति में
ख़ामी है
जो भी लिबरल है साला
असली नहीं हरामी है

क्या बदलेगा?
वह छोड़ो
नारा तो हंगामी है!

करूं मैं सरहद पर खेती?
है ना सबकी हामी, है?

मठ से बाहर निकल कबीर!
नाला बन गई आमी* है


****
* मगहर से हो  कर बहने वाली नदी



संतों अब होगा कल्याण


गाय मार के जूता दान
है ना अपना देश महान!

अच्छे दिन आए तो हम
लेकर भागे जान-परान

मंडी में गो-वंशी थे
फ़्रीज से निकले तो इर्फ़ान

अब निकलेगी बाल की ख़ाल
संतों अब होगा कल्याण

देखो कौन बोलता है?
हाथ में चाकू,
मुंह में पान

बीच में बस एक सरहद है
एक मुल्क है
एक ज़बान 

मिल गए गर मजदूरों से
गृहणी
सैनिक
और किसान!


ख़तरा


जब सब ठीक था तो इस्लाम ख़तरे में था
जब कुछ लोग इस्लाम को ख़तरे से बाहर निकालने में जुटे
तो हिन्दुत्व ख़तरे में आ गया

हिन्दुत्व बचाने के लिए कुछ लोग लामबंद हुए
तो इंसानियत ख़तरे में आ गई

जिन्हें इन तीनों से ख़तरा न था
उन्हें मार्क्सवाद ख़तरे में दिखने लगा
और वे मार्क्सवाद के ख़तरे को टरकाने के लिए
पूंजीवाद ख़तरे में है, बताने लगे

कुछ ऐसे भी थे जिन्हें इन पांचों
यानी पंचों से ख़तरा न था
उन्हें ईमान ख़तरे में पड़ा दिखता रहा
पर जब  'मान' का ई-संस्करण  'ई-मान' ख़तरे के बाहर हुआ
तो संविधान ख़तरे में दिखने लगा

कुल जमा यह कि ख़तरा अपरिहार्य है मनुष्य के लिए
एक पूर्ण कालिक पद जैसे परमात्मा

हमारी सोच को पूर्ण विराम न लगे इसके लिए
बेहद ज़रूरी है ख़तरा
हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता
भज मन ख़तरा ख़तरा ख़तरा

अब ख़तरा यह हो गया है मित्रों
कि बिना ख़तरा ख़तरा चिल्लाए हम अपने को
ख़तरे के बाहर महसूस ही नहीं कर पाते
जैसे मछली की गंध बिना नींद नहीं आती मछुआरे को

ख़तरनाक लोगों का हो न हो
पर ख़तरों का अपना एक लोकतंत्र है
जिसमें आज़ादी हमेशा ख़तरे में नज़र आती है
लोकतंत्र में आज़ादी के ख़तरे को बचाने के लिए 
हमने तानाशाही और फ़ासीवाद को बोल बोल कर
बोल बोल कर इतना रगड़ा
कि वह जय श्रीराम की तरह चिढ़ौनी हो गया

मित्रों
यह समय खतरनाक इस मामले में भी है
कि अब ख़ैरात पाने वाले ख़तरों को दुलत्ती मारने लगे हैं

ख़तरे की प्रजाति वास्तव में ख़तरे में है
जो ख़तरें खर-बिरवा वैद्यकी की तरह बचे भी हैं
उन्हें हम ख़तरे में शुमार ही नहीं करते 
जैसे पानी

पानी ख़तरे में है यह सुनते ही महिलाएं अपना चेहरा
कवि अपनी कविताएं
नागरिक अपने छत की टंकियां
और ग्रामीण अपने कुएं घड़े बाल्टियां टटोलने लगते हैं
अब इससे ख़तरनाक और क्या होगा
कि पानी का ख़तरा न पसीना बन सका न संयुक्त मोर्चा
न समुद्र की चिंता का विषय

सचमुच यह बहुत ख़तरनाक समय है दोस्तों
सोचो और जितनी जल्दी हो सके कोई ख़तरा तलाशो
ताकि बचाई जा सकें कविताएं
कविताओं में उपराए विचार
विचारों में मनुष्य
और मनुष्य में वोट

इस ख़तरनाक समय में यह कहना कितना ख़तरनाक है
कि विचार नहीं
आचार ख़तरे में है।



सम्पर्क 


देवेंद्र आर्य

'आशावरी', ए-127 आवास विकास कालोनी,

शाहपुर, गोरखपुर - 273006





मोबाइल : 7318323162


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