दूधनाथ सिंह से संजीव कुमार एवं राकेश कुमार सिंह की बातचीत
विगत 12 जनवरी को प्रख्यात रचनाकार दूधनाथ सिंह का निधन हो गया। दूधनाथ सिंह ने अपने जीवन के जब अस्सी साल पूरे किये थे तब इस अवसर पर संजीव कुमार और राकेश कुमार सिंह ने उन के साथ एक खास बातचीत की थी। संजीव कुमार के मुताबिक इस साक्षात्कार की खूबी यह थी की हमारे सवाल उतने महत्वपूर्ण नहीं थे जितने महत्वपूर्ण दूधनाथ जी के जवाब थे। दूधनाथ जी की स्मृति को नमन करते हुए आज ‘पहली बार’ ब्लॉग पर हम इस बातचीत को विशेष तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं।
दूधनाथ सिंह से संजीव कुमार एवं राकेश कुमार सिंह की बातचीत
एक दुर्लभ क्षण : उपेन्द्र नाथ अश्क, कैलाश गौतम और दूधनाथ सिंह |
संजीव कुमार : दूधनाथ जी, अलग-अलग मुद्दों पर आपके भाषण सुनता ही
रहा हूँ, आपका लिखा भी पढ़ता ही रहा हूँ, इसलिए आपके अस्सी पूरे करने के अवसर पर
आपसे थोड़ी जीवनीपरक बातचीत करना चाहता हूँ। तो हमें पहले अपने शुरूआती
साहित्यानुराग के बारे में बताएं। कैसे दिलचस्पी पैदा हुई और इलाहाबाद शहर की क्या
भूमिका रही?
दूध नाथ सिंह : देखो, मेरी प्रथम भाषा तो
उर्दू है, बी.ए. तक। यू. पी. कॉलेज
बनारस से इलाहाबाद आया था उर्दू में एम. ए. करने। उर्दू में हुसैन साहब थे, उन्होंने कहा कि तुम
सामने चले जाओ ओरियेंटल हॉल में। तो सामने धीरेंद्र वर्मा का कमरा था। मैं वहाँ
गया तो उन्होंने मेरा फॉर्म देख कर मुझे एक चॉक पकड़ाया और बोला कि उर्दू में ‘सौदा’ लिखिए। ‘सौदा’ लिखने में क्या जाता है, मैंने लिख दिया। तो
उन्होंने मेरे फॉर्म पर लिख दिया - ‘ऐडमिटेड’। लेकिन ‘ऐडमिटेड’ कहाँ? हिन्दी में। इस तरह मैं हिन्दी
में आया। शुरूआत में मध्यकालीन साहित्य का कोई ज्ञान नहीं था। खड़ी बोली तो मुझे
आती थी,
उर्दू के कारण। इस तरह 1957 में एम. ए. किया, फर्स्ट डिवीज़न से। कुछ
समय बेरोज़गार रहा। फिर नौकरी मिली कलकत्ते में। हमारे गुरु प्रो. धीरेंद्र वर्मा
ने एक बंद लिफ़ाफ़ा दिया पंडित विष्णुकांत शास्त्री के नाम। विष्णुकांत जी से मिला
तो उन्होंने पत्र पढ़ कर एक कॉलेज के प्रिंसिपल को फोन मिलाया और कहा कि एक लड़के को
भेज रहा हूँ, उसका नियुक्ति-पत्र और टाइम-टेबुल वगैरह तैयार करके
रखिए। कलकत्ते का मुझे कोई ज्ञान नहीं था। शास्त्री जी ने ही रास्ता बताया कि कहाँ
से ट्राम लेना है, कहाँ बस पकड़नी है। मैं वहाँ पहुँचा तो सब कुछ पहले से
तैयार था – नियुक्ति पत्र, ये, वो, सब। मतलब यह कि साल दो
साल की बेरोज़गारी के बाद मुझे नौकरी मिल गयी। 1959 की बात है। कॉलेज का नाम था, रुंगटा कॉलेज।
मैं वहाँ पढ़ाता तो था, पर मेरा मन नहीं लगता
था। मेरे कॉलेज के बगल में ही एक कॉलेज था जहाँ मन्नू जी पढ़ाती थीं। मन्नू भंडारी।
लड़कियों का कॉलेज था। मुझे याद नहीं कि कौन मुझे वहाँ ले गया, ये कह कर कि चलो, तुम्हें एक बड़े लेखक से
मिलाते हैं। तो वहाँ मन्नू जी और राजेंद्र जी से मुलाक़ात हुई। बाद में मुझे पता
चला कि कलकत्ते में ये हिन्दी के ‘नोन कपल’ हैं, पढ़ने-लिखने वाले, कहानियां लिखने वाले।
मैंने तब तक लिखना-विखना शुरू नहीं किया था, लेखकों को जानता भी नहीं
था। कोई साहित्यिक कैरियर नहीं था हमारा। तो राजेंद्र यादव और मन्नू जी से वह पहली
मुलाक़ात थी। राजेंद्र जी ने कोई ख़ास लिफ्ट-विफ्ट नहीं दी। चाय-पानी करके मैं लौट
आया था।
राकेश कुमार सिंह : तो फिर साहित्यानुराग या
लेखन की शुरूआत कैसे, कब हुई? अभी तक उसका ज़िक्र नहीं आया है।
दूध नाथ सिंह : दो साल
बाद मैं कलकत्ता से लौट आया नौकरी छोड़ कर, बिना इस्तीफ़ा दिए। मेरा
मन नहीं लगता था। इलाहाबाद आ गया और यहाँ फिर बेकारी का दौर शुरू हुआ। इसी बेकारी
के दौर में कई लफंगों और लिखन-पढ़ने वालों से संगत होने लगी... और लिखने के प्रति
मेरा रुझान बढ़ा। जब मैं एम. ए. कर रहा था, वहाँ के हिन्दी विभाग की
एक पत्रिका थी, ‘कौमुदी’। उसमें धर्मवीर भारती ने मेरी
एक कहानी छापी थी। धर्मवीर भारती, धीरेंद्र वर्मा, जगदीश गुप्त, लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, माता प्रसाद गुप्त
(जिनके अंडर मैंने तीन बार रिसर्च के लिए पंजीकरण कराया, फिर भी नहीं किया) - ये
सब मेरे गुरुओं में थे। हाँ तो, उसके बाद जब धर्मवीर भारती ‘धर्मयुग’ में गये तो डायरी शैली
में लिखी मेरी एक कहानी - ‘तुमने तो कुछ नहीं कहा’ - को उन्होंने ‘धर्मयुग’ में छापा, पुराने परिचय की वजह से
या फिर मेरे गुरु होने की वजह से छापा, जो भी हो।
अच्छा, कलकत्ते में मेरा परिचय राजकमल चौधरी से हुआ था। उनसे पहली मुलाक़ात शरद देवड़ा, जो ‘ज्ञानोदय’ के संपादक थे, उनके साथ हुई थी। राजकमल के साथ मेरी काफ़ी घनिष्ठता रही। उन्होंने मुझे बांग्ला पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने ही पहले-पहल लिखने के लिए प्रेरित किया। कहा कि मैं एक पत्रिका निकालूंगा, ‘राग रंग’। तुम उसमें कुछ लिखो। मैंने ‘चौंतीसवां नरक’ नाम से एक उपन्यास का हिस्सा लिखा। वह पत्रिका के पहले या दूसरे अंक में छपा। लेकिन उसके बाद उसे लिखा नहीं। राजकमल बड़ा ही ब्रिलियेंट आदमी था। मैं उसके प्रति बिछा रहता था। उसका कहना भक्त की तरह मानता था।... कलकत्ते में में 34, लेक स्ट्रीट में रहता था। प्रयाग शुक्ल, रामनारायण शुक्ल भी आसपास ही रहते थे। वहीं रहते हुए मुझे एक कहानी मिली। एक आदमी था। बंगाली था। मेरा दोस्त। वह अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता था। उसकी पत्नी का कुछ किसी और से हिसाब था। उसे एक बच्चा भी था। जब पता चला उस आदमी को, तो उसने प्रेमी को बुला कर कहा - तुम आओ और इसको साथ ले जाओ। शर्त यही है कि बच्ची को भी ले जाना पड़ेगा। यह एक सच्ची घटना है। इसको लेकर मैंने कहानी लिखी, ‘बिस्तर’। मेरे पहले संग्रह में है। वहीं से उसे ‘सारिका’ में भेजा। मोहन राकेश तब संपादक थे। इसके बाद मैं इलाहाबाद आ गया। वहाँ कलकत्ते से होते हुए मेरे पास तार आया कि आपकी कहानी को दूसरा पुरस्कार मिला है। पहल पुरस्कार मनहर चौहान की ‘घरघुसरा’ को मिला था। हालांकि उसके बाद उन्होंने कोई कहानी नहीं लिखी। भारत भूषण अग्रवाल जैस बड़े लेखक को तीसरा पुरस्कार मिला था। उनकी ‘सोता हुआ या ऊंघता हुआ घोड़ा’ - ऐसे ही नाम से कहानी थी। यह ’62 के आसपास की बात है। ‘बिस्तर’ के बाद से मैंने कहानियां लिखनी शुरू कीं। एक तरह से वह मेरा प्रस्थान-बिंदु बना। लगा कि यह काम भी मैं कर सकता हूँ।
काशीनाथ सिंह और नामवर सिंह के साथ |
अच्छा, कलकत्ते में मेरा परिचय राजकमल चौधरी से हुआ था। उनसे पहली मुलाक़ात शरद देवड़ा, जो ‘ज्ञानोदय’ के संपादक थे, उनके साथ हुई थी। राजकमल के साथ मेरी काफ़ी घनिष्ठता रही। उन्होंने मुझे बांग्ला पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने ही पहले-पहल लिखने के लिए प्रेरित किया। कहा कि मैं एक पत्रिका निकालूंगा, ‘राग रंग’। तुम उसमें कुछ लिखो। मैंने ‘चौंतीसवां नरक’ नाम से एक उपन्यास का हिस्सा लिखा। वह पत्रिका के पहले या दूसरे अंक में छपा। लेकिन उसके बाद उसे लिखा नहीं। राजकमल बड़ा ही ब्रिलियेंट आदमी था। मैं उसके प्रति बिछा रहता था। उसका कहना भक्त की तरह मानता था।... कलकत्ते में में 34, लेक स्ट्रीट में रहता था। प्रयाग शुक्ल, रामनारायण शुक्ल भी आसपास ही रहते थे। वहीं रहते हुए मुझे एक कहानी मिली। एक आदमी था। बंगाली था। मेरा दोस्त। वह अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता था। उसकी पत्नी का कुछ किसी और से हिसाब था। उसे एक बच्चा भी था। जब पता चला उस आदमी को, तो उसने प्रेमी को बुला कर कहा - तुम आओ और इसको साथ ले जाओ। शर्त यही है कि बच्ची को भी ले जाना पड़ेगा। यह एक सच्ची घटना है। इसको लेकर मैंने कहानी लिखी, ‘बिस्तर’। मेरे पहले संग्रह में है। वहीं से उसे ‘सारिका’ में भेजा। मोहन राकेश तब संपादक थे। इसके बाद मैं इलाहाबाद आ गया। वहाँ कलकत्ते से होते हुए मेरे पास तार आया कि आपकी कहानी को दूसरा पुरस्कार मिला है। पहल पुरस्कार मनहर चौहान की ‘घरघुसरा’ को मिला था। हालांकि उसके बाद उन्होंने कोई कहानी नहीं लिखी। भारत भूषण अग्रवाल जैस बड़े लेखक को तीसरा पुरस्कार मिला था। उनकी ‘सोता हुआ या ऊंघता हुआ घोड़ा’ - ऐसे ही नाम से कहानी थी। यह ’62 के आसपास की बात है। ‘बिस्तर’ के बाद से मैंने कहानियां लिखनी शुरू कीं। एक तरह से वह मेरा प्रस्थान-बिंदु बना। लगा कि यह काम भी मैं कर सकता हूँ।
संजीव कुमार : तो इलाहाबाद के जिन पढ़ने-लिखने वाले
लफंगों की आपने बात की, वो कौन थे? वहाँ की संगत के बारे में कुछ बताएं।
दूधनाथ सिंह : देखो, जो मेरी पत्नी थीं, उस परिवार के संपर्क में
मैं आया। सारे लोग पढ़ने-लिखने वाले थे। उसमें मलयज हमारे दोस्त थे, हमारी बड़ी साली प्रेमलता
वर्मा,
हमारी पत्नी (बाद में पता चला कि वे भी लिखती हैं), शमशेर जी के यहाँ बराबर
आना-जाना था। शमशेर जी के यहाँ जब मैं जाता तो वे चुपचाप उठ कर चल देते थे और मेरी
‘वुड बी वाइफ’ को कहते कि मेरे घर जाओ, तो इसका मतलब था कि वो
तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है। और अपने सड़क पर निकल जाते थे।... अब ये बातें ऐसी हैं
कि... तुरंत तो लिखी भी नहीं जा सकतीं। लिखी जाएंगी भी कि नहीं, कह नहीं सकता।... तो
इलाहाबाद आने के बाद एक बड़ा दायरा बना और उस दायरे में किसी-न-किसी के घर बैठक
होती रहती थी। कभी कोई काव्य-पाठ तो कभी कहानी-पाठ। यह एक नियमित सिलसिला बन गया।
ज्ञान (ज्ञानरंजन) और हमने लगभग एक साथ ही लिखना शुरू किया था। ज्ञान अपनी
कहानियां लिख कर मेरे पास फेंक जाया करता था कि कहानी टाइप करा देना। मलयज के पूरे
परिवार के साथ सम्बन्ध। और अश्क जी के परिवार के साथ सम्बन्ध। अश्क जी ने तरह-तरह
से मेरी मदद की। मैंने शादी कर ली थी। पति-पत्नी दोनों बेरोज़गार थे। तो अश्क जी को
यह अवसर बहुत उपयुक्त लगा। उन्होंने अपनी कहानियों पर एक लेख लिखने के लिए कह कर
मेरी एक तरह से मदद की, पैसे के मामले में। कहानियों को पूरा पढ़ कर मैंने लिखा कि ये ‘सेकंडरी इमैजिनेशन’ की कहानियां हैं -
द्वितीयक कल्पना की उपज। उन्होंने पढ़ा तो कहा कि ये द्वितीयक कल्पना क्या है जी? मैंने कहा कि जैसे किसी
ब्रिलियेंट आदमी की किसी कहानी को पढ़ कर मेरे मन में यह आये कि इस तरह की कहानी तो
मैं भी लिख सकता हूँ और उस पर मेरे द्वारा भले ही अच्छी कहानी लिखी जाये, वह है वही, सेंकेडरी इमैजिनेशन। सुन
कर अश्क जी ने कहा कि अपना लेख पकड़ो और मेरा पचास रुपया लौटाओ।
तुम्हें याद होगा, यह सेकेंडरी इमैजिनेशन
वाली बात मैंने बांदा कार्यशाला में भी कही थी, हिन्दी के दलित साहित्य
के प्रसंग में। मैं उस पर क़ायम हूँ। ओम प्रकाश वाल्मीकि मेरे बड़े अच्छे मित्र थे, लेकिन इस बात के लिए
मुझसे खफ़ा रहते थे कि मैं मराठी के सामने हिन्दी के दलित साहित्य को सेकंडरी इमैजिनेशन
की पैदाइश बताता हूँ। तो मैंने अश्क जी से कहा कि जब प्रेमचंद की कहानी का ज़ोर था, तब आप उनकी तरह लिखते
रहे,
फिर जैनेंद्र की तरह और वात्स्यायन की तरह लिखने की कोशिश की और जब
नयी कहानी का दौर आया तो आप इस तरह की कहानी लिख रहे हैं। तो इससे यह सिद्ध होता
है कि आपके दिमाग में कहानी की थीम पहले से नहीं है। किसी और ने जब उस थीम पर काम
किया तो आपको लगा कि मैं भी ऐसा ही सोचता था, मेरे पास भी यही थीम है, और आपने कहानी लिखी।
यह बात पंत जी को पता
चली। पंत जी उन दिनों आकाशवाणी में सलाहकार थे। आकाशवाणी के पास ही मेरा किराये का
घर था। एक दिन उन्होंने किसी से पूछा कि वह लड़का कहाँ रहता है, उसे बुला कर लाओ। तो हम
दोनों गये उनके घर। हमें लगा कि इतना बड़ा कवि और व्यक्तित्व। हम गद्गद्। हमारी
पत्नी से उन्होंने पूछा, ‘तुम क्या कर रही हो बेटी?’ बताया, ‘कुछ नहीं’। तो बोले, तुमको रेडियो में
कॉन्ट्रैक्ट पर एक काम दिलवाता हूँ। 60 रुपये महीना मिलेगा। इस तरह मेरी पत्नी की
वहाँ भर्ती हुई और वहीं से वो असिस्टेंट स्टेशन डाइरेक्टर के पद से रिटायर हुईं।
पत्नी को रोज़गार मिला और मैं घर पर बच्चा खेलाता था। बीच-बीच में पंत जी के पास
जाता रहता था। वे तो कहीं बाहर आते-जाते नहीं थे। बाहर क्या चल रहा है, इसका हवा-पानी लेने के
लिए वे मुझ से बात कर लिया करते थे। एक दिन उन्होंने मेरे सामने ही फोन उठाया और
किसी से कहा, ‘अम्बी! एक लड़का है, उसकी जगह हिन्दी
डिपार्टमेंट में है।’ उधर से पता नहीं क्या उत्तर आया। लेकिन बाद में पता चला, उनके भतीजे हैं, अम्बा दत्त पंत। वे
राजनीतिशास्त्र विभाग में थे। पंत जी ने मनोविज्ञान के दुर्गा नंद सिंह और
प्रसिद्ध आर्कियॉलजिस्ट गोवर्धन राय शर्मा से भी बात की कि मेरा हिन्दी
डिपार्टमेंट में कराना है। उसी से मैं ऐडहॉक नियुक्त हुआ। पंत जी न होते तो मैं
कहीं का न होता। हेड के विरोध के बावजूद हुआ। वहाँ से लेकर आगे लेक्चरशिप, रीडरशिप, जो कुछ मिला, हर बार लड़कर हाइकोर्ट से
लिया।... और जानते हो मेरे वकील कौन होते थे? आदरणीय श्री मार्कण्डेय
काटजू। अक्सर ऐसा होता था कि मुकदमा जीत कर बैठे होते थे और वे कहते थे कि जा कर
ज्वाइन करो नहीं तो फिर कुछ हो जाएगा।
राकेश कुमार सिंह : वापस लेखन के सवाल पर आएं।
लिखने का सिलसिला कैसे बना?
पीछे आपने ‘बिस्तर’ कहानी का उल्लेख किया था...
दूधनाथ सिंह : ‘बिस्तर’ के बाद मैंने धुंआधार
कहानियां लिखीं। लगातार। अक्षर प्रकाशन की स्थापना 1966 में हुई। जवाहर चौधरी और
राजेंद्र यादव के द्वारा। अक्षर प्रकाशन की पहली किताब कौन सी है, पता है? वह है, मेरा कहानी संग्रह, ‘सपाट चेहरे वाला आदमी’। दूसरी किताब, ज्ञानरंजन की ‘फेंस के इधर-उधर’।
संजीव कुमार : आप आपके साथ के साठोत्तरी
कहानीकारों के यहाँ नयी कहानी से जो अलग स्वर उभरा, उसके पीछे नयी कहानी को पढ़े होने की कोई पृष्ठभूमि थी या नहीं? मतलब अपने से ठीक पहले वालों का लिखा
देखना और उससे एक अलग मिज़ाज की चीज़ लिखना... क्या यह सोचा-समझा हुआ था?
दूधनाथ सिंह : देखो, यह स्वाभाविक विकास था।
प्रेम हमारा विषय नहीं था। हमारा विषय था कि उसका विघटन कैसे होता है। लेकिन हममें
से कोई नहीं जानता था, ज्ञानरंजन भी नहीं जानते थे, कि हम विघटित जीवन की कहानियां लिख रहे हैं। लेकिन ‘पिता’ और ‘रीछ’ ऐसी ही कहानियां हैं।
भैरव प्रसाद गुप्त जब ‘नयी कहानी’ के संपादक थे तो उन्होंने हमारी, ज्ञान की हर कहानी लौटायी -
लफंगों की कहानी कह कर लौटायी। भैरव जी के इस्तीफ़ा देने के बाद जब कमलेश्वर आये तो
उन्होंने वही वही कहानियां छापीं जो भैरव जी ने लौटायी थीं।... ‘रक्तपात’ सन 1963 में छपी तो
लोगों का दिमाग़ ख़राब! क्या कहानी है, इसे कैसे पढ़ें, लोग समझ ही नहीं पाये। लेकिन ‘बिस्तर’ के बाद इसी कहानी ने
मुझे स्थापित किया।
राकेश कुमार सिंह : साठोत्तरी कथाकारों में आप
ही हैं जिनकी दख़ल आलोचना में भी है। काशीनाथ जी, ज्ञानरंजन या रवींद्र कालिया ने आलोचनात्मक लेखन लगभग नहीं किया।
आपके यहाँ आलोचना है और ऐसा भी नहीं कि नाम भर को हो। तो इसकी क्या वजह रही?
दूध नाथ सिंह : मैंने शुरू
में ही बताया कि मैं हिन्दी का विद्यार्थी नहीं था। मेरी बुआ उमाशंकर जी के बड़े
लड़के से ब्याही थीं। हॉस्टल में जगह न मिलने से मैं बुआ के यहाँ दारागंज में रहने
लगा। ऊपर वाला हिस्सा उनका था। सीढ़ियां जिस कमरे उतरती थीं, उसमें एक तख़्त पर सुजनी
बिछाए हुए एक विशालकाय आदमी, नंगे बदन लुंगी लपेटे लेटा रहता
था। बुआ उस आदमी के पास जाने से रोकती थीं। मैं सीढ़ी उतरता और तेज़ी से दरवाज़ा पार
कर जाता। लेकिन एक दिन उस आदमी ने ज़ोर से कहा, रुको। मैं रुक गया। बुआ
की हालत ख़राब कि अब मेरा क्या होगा! बातचीत हुई तो पता चला कि वे मशहूर कवि
निराला हैं। मैंने उन्हें बुआ की बात बताई तो वे बोले, ‘कमला? वो तो मुझसे डरती है।’
बाद में स्थिति यह हो
गयी कि सड़कों पर नंगे बदन हाथ में छड़ी लिये हुए जब वे घूमते, तब भी मैं उनके साथ होता
था। इसी क्रम में मैंने उनकी बहुत सारी कविताओं को उनके साथ टहलते हुए जाना। बाद
में मुझे हॉस्टल मिल गया लेकिन उनके साथ घूमने का लालच मुझे बुआ के घर खींच लाता
था। एक दिन जेठ के महीने में आषाढ़ से पहले हुई बारिश में जब वे पूरी तरह भींग गये, तब मुझे उनके मुख से वह
कविता सुनने का सौभाग्य मिला जिसे मैं भूल नहीं सकता।
‘‘आज मन पावन हुआ है
जेठ में सावन हुआ है’’।
मैं उस अनुभव को तुम्हें
बता नहीं सकता। उस कविता से मैं निराला में पैठा। बाद में मैंने उनके पास से और
बुआ के पास रखी उनकी बहुत सी किताबों को पढ़ डाला। मेरे पास एक डायरी हुआ करती थी।
उनकी कविताओं को पढ़ कर उस डायरी में मैं अपने ‘इम्प्रेशंस’ नोट करता था। एक बार जब
नीलाभ मेरे पास आए हुए थे, तो मैंने इस सम्बन्ध में ज़िक्र करते हुए उन्हें अपने
लिखे ‘इम्प्रेशंस’ सुनाये। उसने सलाह दी कि
इसे तुम ऐसे ही लिख दो। तुमको आश्चर्य होगा कि मैंने 36 दिनों में ही पूरी किताब
लिख डाली। 1972 में वो किताब छप कर आ गयी। उस समय तक निराला के ऊपर राम विलास जी
की किताब का पहला खण्ड, जीवनी वाला, ही आया था। मैंने अपनी किताब राम विलास जी को ही
समर्पित की। लेकिन समर्पण में लिखे गये शब्दों से वे नाराज़ हुए, हालांकि वह मैंने बलवंत
सिंह के कहने पर जोड़ा था। वह लाइन थी, ‘मेरा लहू भी सुर्खिए शामो सहर
में है’। बाद में भूमिका पढ़ने
पर उनकी नाराज़गी दूर हुई। आगे चल कर इस किताब पर उन्होंने अपनी ख़ुशी भी ज़ाहिर की।
बाबू केदार नाथ अग्रवाल के 81वें या 82वें जन्म दिन के अवसर पर बांदा में नामवर जी, चंद्रबली सिंह सबके
सामने जब मैं राम विलास जी को माल्यार्पण करने मंच पर पहुँचा तो माला डालते ही
उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘किताब अच्छी है’। और उसी वक्त मुझे लग
गया कि अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। यह बात 1984 या ’85 की है, यानी किताब छपने के
दस-बारह साल बाद की।
संजीव कुमार. : दूधनाथ जी, आपकी कई कहानियों पर अलग-अलग बात करने
की इच्छा हो रही है, लेकिन हमें बातचीत को समेटना भी है और
मैं ‘आखि़री कलाम’ को छोड़ना नहीं चाहता। इसलिए थोड़ी बात
उसी पर कर लें। मुझे लगता है कि लिखने की प्रक्रिया के स्तर पर ‘आखि़री कलाम’ सबसे पीड़ादायक रहा होगा आपके लिए -
क्या यह सही है?
दूध नाथ सिंह : यह सही है। उसे लिखना सचमुच एक बड़ी पीड़ा से गुज़रना था।
दूध नाथ सिंह : यह सही है। उसे लिखना सचमुच एक बड़ी पीड़ा से गुज़रना था।
संजीव कुमार. : और यह बात मैं सिर्फ़ उस ऐतिहासिक त्रासद क्षण के ख़याल से ही नहीं कह रहा हूँ जिसे आपने उपन्यास का विषय बनाया है। मैं आकार की दृष्टि से उसे लिखने में निहित श्रम की भी बात कर रहा हूँ।
दूध नाथ सिंह : मेरी यह दिक्कत है कि मैं नोट्स नहीं लेता। मेरे साथ ये होता है कि चीज़ें एक फ़्लैश के रूप में आती हैं। उसके साथ ही मैं लिखना शुरू कर देता हूँ। पहला वाक्य आने के साथ ही चीज़ें धीरे-धीरे आगे बढ़ती जाती हैं। आगे वह किस तरह विकसित होंगी, इसका मुझे पता नहीं होता। ‘आखि़री कलाम’ का फ़्लैश था, ‘किताबें शक पैदा करती हैं’। यह किताब में बहुत आगे, 200 पेज के बाद जा कर मिलता है।
1996 में मैंने यह किताब शुरू की थी, 2002 में जा कर पूरी हुई। मैं तीन ड्राफ़्ट में जा कर कोई रचना पूरी कर पाता हूँ। इसका जब तीसरा ड्राफ़्ट चल रहा था, तब मुझे जौंडिस हो गया। मैंने डॉक्टर से पूछा कि कितनी देर काम पर बैठ सकता हूँ। उसने कहा, एक बार में आधा घंटा। तो आधा-आधा घंटा करके इसे पूरा किया।
संजीव कुमार : उपन्यास में तो प्रो. तत्सत
पांडेय बाबरी मस्जिद के ध्वंस के मौक़े पर वहाँ घूमते हुए सारा नज़ारा देखते हैं और
उन्हीं के बहाने हमें सारे विवरण मिलते जाते हैं। क्या आप 1992 के 6 दिसंबर को वहाँ
थे?
दूध नाथ सिंह : मैं असल में 3
दिसंबर को अपनी बेटी की शादी ठीक करने गोंडा गया हुआ था। अनिल सिंह मेरे साथ थे।
लौटते हुए अयोध्या की स्थिति देख कर हम वहाँ रुक गये और घूम-घूम कर यह सारा कांड
देखा। बाद में जब उपन्यास की शक्ल देने लगा तो प्रो. तत्सत पांडेय को रचते हुए
प्रसिद्ध ट्रेड यूनियन लीडर होमी दाजी मेरे जे़हन में थे। होमी दाजी की तरह दुनिया
भर की बातें करने वाले, लंबे-चौड़े व्यक्तित्व के
धनी हैं प्रो. तत्सत पांडेय। इस उपन्यास के साथ यह अजीब सी बात थी कि मैं नहीं
चाहता था कि इसका कोई अन्त हो। अब ऐसा भी कहीं हो सकता है? लेकिन तुम ग़ौर करो तो अन्त
जैसा कोई अन्त नहीं है। क्या आचार्य जी का शव घर पहुँचता है? नहीं। क्या उनकी
पुत्रवधु और उनका पोता ढूंढ़ते हुए उन तक पहुँच पाते हैं? नहीं। क्या उनका बेटा, जो इतने दिनों बाद पहली
बार फोन उठाता है, और पूछता है कि पिता जी कहाँ है, टिकट मंगवाता है, उसके कहीं पहुँचने की
सूचना मिलती है?
नहीं। इतनी सारी
सवारियों को ले कर जो रेलगाड़ी चली थी, वह कहीं पहुँचती है? नहीं। उसके दोनों ओर की पटरियां
उखाड़ी जा चुकी हैं। गाड़ी आगे-पीछे कहीं नहीं जा सकती। शव भी कहीं नहीं पहुँचता...।
बस सर्वात्मन और बिल्लेश्वर हैं और एक रमाशंकर भी है - तीन लोग हैं सिर्फ़ गाड़ी
में और वो कहीं नहीं पहुँचते।... यह सब लिखने के क्रम में ही बनता चला गया। कुछ भी
पहले से सोचा विचारा हुआ नहीं था।... अब बहुत बात हो गयी। ऐसा ही बिना अन्त वाला
साक्षात्कार इसे भी मान लो। बचा-खुचा बाद में पूछ लेना।
(फोटो सौजन्य : सुधीर कुमार सिंह की फेसबुक वाल से साभार)
(फोटो सौजन्य : सुधीर कुमार सिंह की फेसबुक वाल से साभार)
सम्पर्क-
संजीव कुमार : 9818577833
राकेश कुमार सिंह : 8586922727
बहुत बढ़िया लेख
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक साक्षत्कार है। दूधनाथ जी को पूरी तरह जानने वाले सवाल है। उनका व्यक्तित्व छलक रहा है।
जवाब देंहटाएं